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अनेकान्त 62/3, जुलाई-सितम्बर 2009
वस्तु का ज्ञान नहीं होने के कारण वह ज्ञान अयथार्थ है तथा परस्पर सापेक्ष अनेक नयों से समस्त धर्मों के ज्ञान पूर्वक होने वाला एक वस्तु का ज्ञान ही प्रमाण ज्ञान होता है। यहाँ वस्तु के समस्त धर्मों को जानने से आशय उसके अनन्त धर्मों को उनके पूर्णरूपेण विशिष्ट स्वरूप में जानना नहीं है बल्कि इसका अभिप्राय यह है कि वस्तु को जिस स्तर पर जाना जा रहा है उस स्तर पर परस्पर पूरक और अपरिहार्य समस्त धर्मों के ज्ञान पूर्वक ही व्यक्ति का ज्ञान प्रमाण हो सकता है। शाब्दबोध का स्यादादनयसंस्कृत स्वरूप
वस्तु के अनेकान्तात्मक स्वरूप के कारण एक सामान्य व्यक्ति के समक्ष चिकित्सा, योग साधना, भवन निर्माण आदि किसी भी क्षेत्र में किसी प्रकार की समस्या उत्पन्न हो जाने पर उसके लिये स्वयं पुस्तकें पढ़ कर अथवा अपने आधे अधूरे ज्ञान के आधार पर उस समस्या का समाधान करने का निषेध किया जाता है तथा उसे विशेषज्ञ के परामर्शानुसार कार्य करने की सलाह दी जाती है। विशेषज्ञ द्वारा वस्तु के जिस अंश या पक्ष के विशिष्ट स्वरूप का वर्णन किया जाता है व सम्पूर्ण वस्तु के विशिष्ट स्वरूप को दृष्टि में रखकर किया जाता है। विशेषज्ञ के कथन को सुनते समय श्रोता उस कथन की सम्पूर्ण पृष्ठ-भूमि को नहीं जानता, वह यह नहीं जानता था कि पदार्थ के प्रति जो कथन किया गया है यह उसकी किन अन्य विशेषताओं को दृष्टि में रखते हुए किया गया है। परिणाम स्वरूप वह उस कथन को सर्वथा अथवा अपने आप में पूर्ण सत्य मान सकता है तथा उसके अनुसार कार्य करते हुए काफी हानि उठा सकता है। उदाहरण के लिये योग साध ना सदैव योग क्रिया के विशेषज्ञ गुरु के निर्देशानुसार ही करने की सलाह दी जाती है इसका कारण यह है कि गुरु ही साधक की शारीरिक स्थिति, उसकी साधना के स्तर आदि अनेक विशेषताओं को दृष्टि में रखते हुए तय कर सकता है कि साधक को किस यौगिक क्रिया का किस प्रकार सम्पादन करना है। यदि साधक या कोई अन्य श्रोता इस कथन को सर्वथा सत्य या अपने आप में पूर्ण सत्य समझ ले तथा सभी व्यक्तियों को इस क्रिया के सम्पादन हेतु प्रेरित करने लग जाय तो वह उनका हित साधन न करके उनकी अनेक प्रकार की परेशानियों का कारण बन जायेगा। इसलिये व्यक्ति विशेषज्ञ के परामर्श को निर्धान्त रूप से ग्रहण कर सके यह उसके उस परामर्श को स्याद्वादनयसंस्कृत रूप से ग्रहण करने पर ही सम्भव है। किसी क्षेत्र में अज्ञ पाठक या श्रोता को दृष्टि में रखते हुए नय की परिभाषा दी गयी है, स्याद्वाद से प्रविभक्त-विशेषित या अनुमित अनेकान्तात्मक वस्तु के एक विशेष अंश का व्यंजक ज्ञान या कथन नय है।
स्याद्वाद अनेकान्तात्मक वस्तु की कथन पद्धति है। इसके अनुसार प्रत्येक कथन एक नय-वस्तु के आंशिक स्वरूप का ज्ञापक है। इसके पूर्व स्यात् पद होना आवश्यक है। इस पद के अर्थ को स्पष्ट करते हुए अमृतचन्द्राचार्य कहते हैं, "स्यात् एक अव्यय पद है जो सर्वथात्व का निषेधक, अनेकान्त का द्योतक तथा कथंचित् अर्थ का प्रतिपादक है।''15 आचार्य समन्तभद्र कहते हैं "वाक्यों में स्यात् अनेकान्त का द्योतक और गम्य अर्थ के प्रति