________________
अनेकान्त 62/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2009
89
अहिंसक समाज में कुछ विशेष प्रकार की हिंसा का सर्वथा वर्जन हो। उदाहरणार्थ-आक्रामक हिंसा, निरपराध व्यक्तियों की हत्या, भ्रूण हत्या, जातीय घृणा, छुआछुत आदि का व्यवस्थागत निषेध हो। इनको महिमा मंडित करने वाले पत्र व मीडिया पर भी नियंत्रण हो। साम्प्रदायिक अभिनिवेश, मादक वस्तुओं का सेवन तथा प्रत्यक्ष हिंसा को जन्म देनेवाली रूढ़ियों और कुरीतियों का वर्जन भी आवश्यक है। नई समाज व्यवस्था के अंतर्गत वैकल्पिक चिकित्सा पद्धति का भी विकास करना चाहिए।
भगवान महावीर ने युद्ध के मूल पर प्रहार किया। वे समाज के मानवतावादी, शांतिवादी आंदोलनों के सिद्धांतों की अपेक्षा कहीं अधिक गहरे में गये। आधुनिक संदर्भो में यदि कहें तो उनका ध्यान प्रकृति के असंतुलन और पर्यावरण प्रदूषण तक गया । वे प्रकृति के किसी भी तत्त्व के साथ किसी भी प्रकार की छेड़-छाड़ को हिंसा मानते थे। इसलिए उन्होंने पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु को भी सजीव माना। वनस्पति को तो वे जीव-युक्त मानते ही थे। उनका मानना था जो पृथ्वीकायिक जीवों की हिंसा करता है वह अन्य जीवों की हिंसा का भागी भी बनता है। यह अवधारणा आज के वैज्ञानिक अवधारणा के बहुत निकट है। __ हमारा यह भी दायित्व है कि हम अहिंसा की शक्तियों को एकजुट करें। जब हिंसा और शस्त्र की शक्ति में विश्वास रखने वाले एक साथ बैठकर चिंतन कर सकते हैं तब क्या यह संभव नहीं है कि नैतिकता, संयम, अहिंसा और शांति में विश्वास रखने वाले एक साथ मिलकर शांति की संस्कृति के लिए कार्य करें। उच्छृखल हो रही अर्थ और राज्य शक्ति पर अंकुश के लिए अहिंसा की शक्ति का निर्माण आज की आवश्यकता ही नहीं अपरिहार्यता है। ___मनुष्य की चिर-प्रतीक्षित आकांक्षा है-शांति, जो उसे अस्तित्व, विकास एवं प्रगति के लिए भी आवश्यक है "जिस तरह युद्ध मानव- मस्तिष्क में जन्म लेते हैं शांति भी मानव मस्तिष्क से ही जन्म लेगी। "यूनेस्को की यह घोषणा स्पष्ट करती है कि हिंसा के प्रति प्रतिबद्धता घनी मारकाट, आणविक सर्वनाश, मानवीय एवं भौतिक संसाधनों का भारी अपव्यय, विषमतावादी अर्थव्यवस्था, मानवाधिकारों का उल्लंघन, हिंसक प्रतिशोध, हिंसा-प्रधान विज्ञान और प्रोद्यौगिकी, विप्लव, गृह-युद्ध, युद्ध, उपनिवेशवादी परंपराओं आदि को तो जन्म दे सकती है पर शांति को नहीं। “जिस जाति ने युद्ध का आविष्कार किया वही शांति का आविष्कार करने में सक्षम है।" सेबाइल घोषणा-पत्र का यह अंतिम वाक्य आत्मविश्लेषण को इंगित करता हुआ यह कहता है- अब यह समय आ गया है जब हमें अहिंसा सार्वभौम रूपांतरण की हमारी युगों पुरानी कल्पना को साकार रूप देने के प्रयत्नों को और भी गति देनी होगी तथा इसका प्रारंभ स्वयं से करना होगा।
कलह, वर्ग-संघर्ष, उग्रवाद, शस्त्रीकरण, सत्ता और संपत्ति का असमान वितरण- ये सब हिंसा के स्फुलिंग होते हुए भी हिंसा के मूल रूप से असीमित इच्छाएं, क्रोध, भय, घृणा, क्रूरता, मिथ्याभिमान, संग्रहवृत्ति आदि मानवीय संवेग ही हिंसा के लिए उत्तरदायी हैं। अनेकांत चिंतन, सापेक्ष दृष्टिकोण, सह-अस्तित्व, सहिष्णुता, जीवन के प्रति सम्मान, विसर्जन, साधन-शुद्धि-ये सब अहिंसा के स्फुलिंग है। इनके प्रशिक्षण और प्रयोग से शांति की अखण्ड लौ प्रज्वलित की जा सकती है।