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________________ 90 अनेकान्त 62/4, अक्टूबर-दिसम्बर2009 अहिंसा के प्रयोग द्वारा व्यक्ति का हृदय-परिवर्तन करना होगा। आर्थिक समस्याओं के समाधान के लिए और सामाजिक न्याय की प्राप्ति के लिए विसर्जन उतना ही आवश्यक है जितना अर्जन। जब तक भौतिकता और आध्यात्मिकता का समन्वय नहीं होगा, शरीर, मन और चित्त का संतुलन नहीं होगा, विज्ञान का सारा विकास निरर्थक है। जब तक अहिंसा का सही अर्थ समझ में नहीं आयेगा, अहिंसा की अपार शक्ति का प्रयोग नहीं होगा; विश्व-शांति स्थापित करने में, सामाजिक न्याय दिलवाने में और वैयक्तिक आनंद करने में सफल नहीं हो सकते। अहिंसा व्यक्ति के लिए न होकर समष्टि के लिए होती है। व्यक्तिगत रूप से तो हिंसा से व्यक्ति को प्रत्यक्ष लाभ मिलता ही है समाज का कल्याण तो अहिंसा से ही होता है। अहिंसा एक ऐसा हितकारी कर्त्तव्य है जिसका व्यक्ति और समाज दोनों ही समान रूप से अपने जीवन में आचरित कर सकते हैं। अहिंसा एक हितकारी आचरण है जो इसका पालन करेगा उसका अवश्य ही कल्याण होगा किंतु यह एक सामाजिक और सर्वहितकारी नियम भी है। अहिंसा एक मनोभाव है मन में अहिंसा का भाव जब दृढ़ हो जाता है तो वह पुरुष अजातशत्रु हो जाता है। कोई भी प्राणी उससे द्वेष नहीं करता। शत्रु भी उसके सामने विनम्र हो जाते हैं यहाँ तक कि क्रूर सत्त्व सिंह व्याघ्र आदि भी अहिंसा प्रेमी व्यक्ति के निकट आकर बैर भाव भूल जाते हैं। अहिंसा प्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ बैरत्यागः। अहिंसक जीवन शैली का एक महत्त्वपूर्ण सूत्र है-सुविधावादी जीवन शैली में परिवर्तन। जब तक इच्छा का संयम नहीं होता, जीवन शैली में संयम को प्रतिष्ठा नहीं मिलेगी, तब तक अहिंसा की बात का सार्थक परिणाम नहीं आ सकेगा। अहिंसा केवल मोक्ष तक पहुँचने का ही सोपान नहीं है अपितु यह तो दैनन्दिनी जीवन में आने वाला वह दिव्य रसायन है जो प्रतिक्षण जीवन को पुष्ट उन्नत और उत्कृष्ट बनाता है। अहिंसा का पालन करने वाले को इसका दिव्य फल प्राप्त होता ही है किन्तु इससे अधिक उसके परिवेश में रहने वाले को उसका लाभ मिलता है। इस विवेचनों से यही निष्कर्ष निकलता है कि हमें एक ऐसे विश्व के निर्माण की दिशा में काम करना चाहिए जिसका आधार विज्ञान के साथ अहिंसा भी हो इस कार्य में कठिनाई तो अवश्य है परंतु मानवमात्र के अस्तित्व की सुरक्षा एवं संघर्षों से बचने के लिए दूसरा कोई विकल्प भी नहीं है। निश्चित रूप से वह मार्ग हमें शांति और समृद्धि की ओर ले जाएगा। संदर्भ: 1. र. क. श्रा. 53/स. सि. 7/20/358/7 2. रा. वा. 7/20/1/54/6, सा. ध. 4/7 2. स. सि. 7/1/343/4/ रा. वा. 7/1/6/534/13. पु. सि. उ-42 4. पु. सि. उ-51 5. प. प्र. टी. 2/686. प. छहढाला 6/1 7. पु. सि. उ-48 8. योग सूत्र 2/35 - सहायक प्राध्यापिका संस्कृत महारानी लक्ष्मीबाई शासकीय उत्कृष्ट महाविद्यालय, ग्वालियर (म.प्र.)
SR No.538062
Book TitleAnekant 2009 Book 62 Ank 03 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2009
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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