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सिद्धक्षेत्र सिद्धवरकूट तीर्थ का वैभव
डॉ. संगीता मेहता संसाराब्धेरपारस्य तरणे तीर्थमिष्यते।' आचार्य जिनसेन ने आदिपुराण में कहा है कि जो इस अपार संसार समुद्र से पार करे उसे तीर्थ कहते हैं। ऐसा तीर्थ जिनेन्द्र भगवान का चरित्र ही हो सकता है। अत: जिनेन्द्र भगवान का चरित्र तीर्थ है।
_ 'पावनानि हि जायन्ते स्थानान्यपि सदाश्रयात्'। वादीभसिंह सूरि ने क्षत्रचूड़ामणि मे लिखा है कि सत्पुरुषों के स्पर्श से स्थान पवित्र हो जाते हैं जैसे- पारस के स्पर्श से लोहा स्वर्ण बन जाता है।
तीर्थ धर्म की स्थापना करने वाले तीर्थकर और जितेन्द्रिय महर्षियों ने दर्शन, ज्ञान और चारित्र की आराधना कर जिस पुण्यभूमि से सिद्धत्व प्राप्त किया ऐसे पावन स्थल साक्षात् तीर्थ बन जाते हैं। पवित्रता के मूर्तिमंत पर्याय तीर्थकर और तीर्थ हमारी आस्था और निष्ठा के केन्द्र है। ये पुण्य संचय के अक्षय स्रोत हैं। विद्वान् मनीषियों की प्रबुद्व मेधा ने तीर्थ की पवित्रता और तीर्थंकरों की अमृतवाणी को जनकल्याण के लिए लिपिबद्ध किया तो दूसरी ओर कुशल शिल्पियों ने अपनी अद्भुत कल्पना और सृजनशीलता से उसे पाषाण में उत्कीर्ण कर मूर्तिमंत और जीवन्त कर दिया। अध्यात्म और कला का समन्वित रूप ये तीर्थ न केवल श्रमण संस्कृति की अपितु भारतीय संस्कृति की अनमोल धरोहर हैं।
सिद्धक्षेत्र सिद्धवरकूट तीर्थ ऐसी ही अनमोल धरोहर है। यह भारत की हृदयस्थली मध्यप्रदेश के पूर्वी निमाड़ (खण्डवा) जिले में पंथिया ग्राम के निकट सुरम्य शैल शिखर पर मान्धाता दीप के ईशान्य में रेवा (नर्मदा) और कावेरी के संगम पर स्थित है। यह
ओंकारेश्वर रेलवे स्टेशन से 11 कि.मी. दूर है। खण्डवा से यह 77 कि.मी. दूर है। ___ तीर्थ सिद्धक्षेत्र सिद्धवरकूट की भौगोलिक स्थिति, सिद्धत्व और महत्त्व अभिव्यक्ति निर्वाण काण्ड (प्राकृत) की इस गाथा में दृष्टव्य है -
रेवा णइए तीरे पच्छिम-भायम्मि सिद्धवर कूडे
दो चक्की दह कप्पे आहढ्य कोडि णिव्वुदे वन्दे॥ गाथा क्र.11 अर्थात्
रेवा नदी सिद्धवरकूट पश्चिम दिशा देह जहँ छूट। द्वय चक्री दस कामकुमार, ऊठ कोडि वन्दो भव पार॥