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सम्पादकीय
वीर सेवा मंदिर (जैन दर्शन शोध संस्थान) नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित त्रैमासिक शोध-पत्रिका के सम्पादन का उत्तरदायित्व जनवरी 2000 ई. में मैने सम्हाला था। परमादरणीय पं. पदमचंद शास्त्री की छत्रछाया उस समय मेरे सिर पर थी तथा उनका परामर्श सतत प्राप्त था। 01 जनवरी 2007 को अचानक अनभ्र वज्रपात हुआ और श्रुताराधक पण्डित जी का चिर वियोग हो गया। वीर सेवा मंदिर के पदाधिकारी हतप्रभ हो गये। मैं 1979 से पण्डित जी से परिचित हुआ किन्तु अनेकान्त के सम्पादक के रुप में 7 वर्ष तक उनके अत्यन्त निकट रहने एवं चर्चा करने पर मैंने पाया कि पण्डित जी जैसे निरभिमानी, नि:स्पृही किन्तु दबंग स्वभाव के धनी पण्डित समाज में अंगुलिगण्य ही हैं। आज जब अधिकांश विद्वान् स्वार्थवश आगम के विरूद्ध कथन कर रहें हैं, ऐसे समय में पं. पदमचंद शास्त्री की स्मृति निश्चित तौर पर हमें आगम रक्षा के उत्तरदायित्व का बोध कराने में समर्थ होगी। इस समय मुझे स्मरण आ रही है एक घटना जो मैंने बार-बार वीर सेवा मंदिर के पदाधिकारियों से सुनी है कि मन्दिर समिति ने प्रस्ताव पास किया था कि जो मानदेय पण्डित जी दिया जा रहा है उसको दोगुना कर दिया जाय एवं आजीवन यह राशि उनकों प्रदान की जाय एवं उनके स्वर्गारोहण के पश्चात् वह राशि उनकी धर्मपत्नी को आजीवन दी जाय। जब इस आशय का प्रस्ताव पण्डित जी को बताया गया तो वे बोले कि मुझे जो मिल रहा है, उससे अधिक की आवश्यकता नही है। पण्डित जी के स्वर्गारोहण के पश्चात् यह राशि उनकी धर्मपत्नी को को दी जा रही है। संस्था की उदारता भी पं. जी की तरह ही सराहनीय है। पं. सदासुख जी के पश्चात् कदाचित् मैंने यह प्रथम बार सुना था। यह मेरा अहोभाग्य रहा कि पण्डित जी का सान्निध्य प्रेरणा एवं आलोक मुझे मिला। उनके आदेश से ही मैने अनेकान्त के सम्पादन का गुरुतर उत्तरदायित्व स्वीकार किया था।
वीर सेवा मन्दिर (जैन दर्शन शोध संस्थान) और उसकी त्रैमासिक शोध पत्रिका 'अनेकान्त' आज प्रगति के पथ पर निरंतर अग्रसर है तथा सुधी पाठकों एवं विद्वान् लेखकों का सहयोग उसे प्राप्त हो रहा है। संस्था की प्रगाति को देखकर मैं अभिभूत हूँ तथा कतिपय महत्वपूर्ण बिन्दुओं पर पाठकों एवं सुधी श्रावकों का सम्मुख प्राप्त करना अपना कर्तव्य समझता हूँ। साहित्य प्रदर्शनी
संस्था ने अपने भवन के मुख्य द्वार के दोनों तरफ साहित्य प्रदर्शनी स्थल का निर्माण कर जैन आगम, धर्म, दर्शन, संस्कृति एवं कला के साथ-साथ जैन विद्याओं से सम्बद्ध अन्य विषयों का साहित्य प्रदर्शित करने तथा आवश्यक साहित्य की बिक्री के लिए स्थल उपलब्ध कराया है। इससे जहाँ जैन समाज को पर्याप्त लाभ मिल रहा है, वहाँ अनुसंधान कार्य में संलग्न विद्वानों एवं शोध-छात्रों की अनेक समस्यायें भी हल हो रही है। यदि अन्य संस्थायें भी समाज के सभी वर्गों के हित में ऐसा कार्य करें तो निश्चित तौर पर संस्थाओं के उद्देश्यों की पूर्ति होगी तथा समाज के धन का सदुपयोग होगा।