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अनेकान्त 62/3, जुलाई - सितम्बर 2009 पं. रायमल्ल का ऐतिहासिक पत्र - जयपुर की शानदार परम्परा के संवाहक -
18वीं सदी मे जिस समय पं. टोडरमलजी जयपुर में अपने प्रवचनों से जैनधर्म की अमृतवर्षा कर रहे थे, उस समय के धार्मिक और आध्यात्मिक वातावरण का वर्णन उनके एक भक्त रायमल्ल ने अपने एक मित्र को पत्र में लिखा था, जो इस प्रकार है - ___“यहाँ दस-बारा लेखक सदैव सास्तर में जिनवाणी लिखे हैं अऊर सोधे हैं अऊर एक बिराहमन (ब्राह्यण) महिंदर को चाकर राख्या है सो बीस लड़कों खों न्याय, व्याकरण, गणित-शास्त्र पढावै है। अऊर पचास भाई वा बाइयाँ (महिलाएं) धरम-चरचा करे अऊर व्याकरण अध्ययन करैं हैं। नित्य सौ पचास जायगा जिण पूजण होई है इत्यादि। इहाँ जिनधर्म की विसेस महिमा जाननी।
अऊर ई नग्र विर्षे सात व्यसनन का अभाव है। ई नग्र विषै कलाल, कसाई व वेस्या न पाइये हैं। अऊर जीवन हिंसा की मनाही है। राजा का नाम माधवसींग है। अऊर दरबार के मुतसद्दी सब जैनी हैं जदपि अऊर लोग भी हैं पर गौणता रूप से है। मुख्यता कर नाहीं है। दस हजार जैनी बसै हैं। अइसा जैनी लोगों का समूह दूसरे नग्र विषै नाहीं। अइसा नग्र वा देस बहुत ही निरमल अऊर पवित्तर है। तातें यह पुरुषन के बसने का उत्तम स्थान है। अवर तो ए साक्षात धरमपुरी ही है।" पं. देवीदास गोधा के विचार
पं. टोडरमल की प्रभावक-विद्वत्ता एवं शास्त्र प्रवचन-शक्ति के विषय में राजस्थान के एक पण्डित देवीदास गोधा ने लिखा था -
“सो दिल्ली पढिकर बसुवा आय पाछै जयपुर में थोड़ा दिन टोडरमलजी महाबुद्धिमान के पासि शास्त्र सुनने को मिल्या...... सो टोडरमलजी के श्रोता विशेष बुद्विमान् दीवान रत्नचन्दजी, अजवरायजी, तिलोकचन्द पाटणी, महारामजी, विशेष चरचावान् ओसवाल, क्रियावान उदासीन तथा तिलोकचन्द सोगाणी, नयनचन्दजी पाटनी इत्यादि टोडरमलजी के श्रोता विशेष बुद्धिमान तिनके आगे सास्तर का तो व्याख्यान किया। (दे, पं. देवीदास गोधा द्वारा लिखित सिद्धांतसागर संग्रह वचनिका की भूमिका) __ वस्तुतः निर्व्यसनी सात्त्विक जीवन एवं अहिंसक-वृत्ति युगों-युगों से भारतीय संस्कृति की अपनी विशेष पहिचान रही है इसीलिये भारत जगद्गुरू के रूप में विख्यात रहा है और विदेशी पर्यटकों- आईक, मेगास्थनीज, फाहियान, ह्यूनत्सांग, अलवेरूनी, जान फ्रायर, सर विलियम जोन्स, जेम्स टॉड, हर्मन याकोवी प्रभृति ने उसकी प्रशंसा में जो लिखा है, उसे देखकर गौरव का अनुभव होता है। सुप्रसिद्ध चीनी-पर्यटक फाहियान ने सन् 396 से 414 तक भारत में भ्रमण किया था। उसने अपनी डायरी में लिखा था- भारत में चाण्डालों के अतिरिक्त अन्य कोई भी जीवित प्राणी का वध नहीं करता, न मादक पेय पीता है, न जीवित पशुओं का व्यापार करता है। कसाईखाने तथा मदिरा की दुकानें भारत में नहीं हैं।" इसी प्रकार योरूपी पर्यटक जान-फ्रायर ने भी सन् 1678 से 1681 तक भारत-भ्रमण किया था, उन्होंने लिखा था- "भारतवासी हिन्दू लोग कन्दमूल,