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अनेकान्त 62/4, अक्टूबर-दिसम्बर2009
क्षेमं सर्वप्रजानां प्रभवतु बलवान् धार्मिको भूमिपालः, काले काले च सम्यग्वितरतु मघवा व्याधयो यान्तु नाशम्। दुर्भिक्षं चौरमारी क्षणमपि जगतां मा स्म भूज्जीवलोके,
जैनेन्द्रं धर्मचक्र प्रसरतु सततं सर्वसौख्य-प्रदायि॥ इसका पद्यानुवाद इस प्रकार है - होवै सारी प्रजा को सुख बलयुत हो धर्म-धारी नरेशा। होवै वर्षा समै पे तिलभर न रहे व्याधियों का अन्देशा। होवै चोरी न मारी सुसमय वरते हो न दुष्काल भारी। सारे ही देश धारै जिनवर वृष को जो सदास सौख्यकारी॥
अर्थात् समस्त प्रजा को सुख हो, राजा बलवान और धर्मात्मा हो, समय-समय पर वर्षा हो, क्षणभर भी रोग-व्याधियां न रहें। प्राणियों को संसार में चोरी और मारी का दु:ख न हो। निरंतर अच्छा समय रहे, बुरा काल न आवे। संपूर्ण देश जैन धर्म को धारण करें, जो सदा सुख करने वाला है। __वर्तमान में भी हमें इसी मंगल भावना के साथ मण्डल विधान पूजन आदि करना चाहिए। इन आयोजनों में जो मात्र बोलियों आदि के माध्यम से धन संग्रह पर ही विशेष बल देते हैं उन्हें चाहिए कि वे धनदान के लिए इन अवसरों का सदुपयोग करें और जो दान के सात प्रमुख क्षेत्र बताये गये हैं उनमें अपने धन का यथाशक्ति, यथाभक्ति उपयोग करें। यदि ऐसा किया तो आज भी आपके सद्भावों को सफल मिल सकता है। हम मण्डल रचना तो करें किन्तु अहंकार और अशुद्धता से बचें ताकि वीतरागता के पोषण का यह मार्ग निरंतर चलता रहे।
जैनम् जयतु शासनम्।
-प्रधान संपादक- पार्श्व ज्योति (मासिक)
मंत्री- अ. भा. दि. जैन विद्वत्परिषद् एल-65, न्यू इंदिरानगर, बुरहानपुर (म.प्र.)