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________________ शाब्द-बोध का स्याद्वादनयसंस्कृत स्वरूप - डा. राजकुमारी जैन जैन दर्शन के अनुसार जो भी सत् है वह अनेकान्तात्मक स्वरूप में अवस्थित है। अनेकान्त को परिभाषित करते हुए कहा गया हैं कि एक वस्तु की वस्तुरुपता के निष्पादक एक-अनेक, भेद-अभेद, सामान्य-विशेष आदि सप्रतिपक्षी धर्मों का युगपत् सद्भाव अनेकान्त है। यह 'वस्तु सर्वथा सत् स्वरूप ही है अथवा असत् रूप ही हैं, 'एक रूप ही है', नित्य ही है अथवा अनित्य ही है, इस प्रकार सर्वथा एकान्त के त्याग स्वरूप है और यह प्रतिपादन करता है कि जो एक है वही अनेक भी है, जो सत् है वही असत् भी है, जो नित्य है वही अनित्य भी है। इस प्रकार एक वस्तु की वस्तुरूपता को स्थापित करने वाले सप्रतिपक्षी धर्मयुगलों का युगपत् सद्भाव अनेकान्त कहलाता है। ___ जो भी सत् है वह अनेकान्तात्मक -एकानेकात्मक, भेदाभेदात्मक, सामान्यविशेषात्मक स्वरूप में अवस्थित है। दूसरे शब्दों में एक वस्तु का स्वरूप उसकी अनेक विशेषताएं हैं। वस्तु न तो उन विशेषताओं का समूह मात्र है, न ही वह उनके भिन्न उनका आश्रय मात्र है। इसके विपरीत वह उनमें व्याप्त एक अखण्ड सत्ता है। एक वस्तु की अनेक विशेषताओं में नाम, लक्षण, प्रयोजन आदि की अपेक्षा भेद होते हुए भी सत्तापेक्षया अभेद है। ये विशेषताओं रूप से अनेक होते हुए भी वस्तुरूप से एक है। उदाहरण के लिये एक वस्तु के सामान्य रूप से सदैव विद्यमान रहने वाले अनेक स्वभावों को गुण तथा उनकी कालक्रम से होने वाली अनेक विशिष्ट अभिव्यक्तियों को पर्याय कहा जाता है। एक द्रव्य नाम, लक्षण प्रयोजन आदि की अपेक्षा परस्पर भिन्न भिन्न अनेक गुण तादात्म्य (तादात्म्य तत्+आत्म्य) सम्बन्ध से युक्त होकर एक दूसरे की आत्मा या स्वभाव होते हुए एक अस्तित्वरूपता या एक द्रव्यरूपता को प्राप्त करते हैं। एक द्रव्य के अनेक गुणों के इस तात्त्विक अभेद के कारण ने केवल द्रव्य का स्वभाव उसके समस्त गुण हैं बल्कि एक गुण का स्वभाव भी उसका आश्रयदाता सम्पूर्ण द्रव्य अर्थात् द्रव्य के समस्त गुण है। इस प्रकार सत्ता मात्र द्रव्य रूप, मात्र गुण रूप अथवा परस्पर निरपेक्ष गुण और गुणी रूप न होकर गुण-गुण्यात्मक स्वरूप में अवस्थित है। जिस प्रकार नाम, लक्षणदि की अपेक्षा परस्पर भिन्न-भिन्न अनेक गुण तादात्म्य सम्बन्ध पूर्वक एक द्रव्यरूपता को प्राप्त करते हैं उसी प्रकार नाम, लक्षणादि की अपेक्षा परस्पर भिन्न-भिन्न अनेक अवयव संयोग सम्बन्ध से सम्बन्धित होकर तथा एक दूसरे के स्वरूप और कार्यों से प्रभावित होते हुए एक अवयवी-रूपता को प्राप्त करते हैं। दूसरे शब्दों में एक अवयवी अपने अनेक अवयवों में व्याप्त एक जटिल संरचना है। उसका स्वरूप
SR No.538062
Book TitleAnekant 2009 Book 62 Ank 03 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2009
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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