Book Title: Aagam 13 RAJPRASHNIYA Moolam evam Vrutti
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Deepratnasagar
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१३] श्री राजप्रश्नीय (उपांग)सूत्रम् नमो नमो निम्मलदंसणस्स पूज्य श्रीआनंद-क्षमा-ललित- सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नमः “राजप्रश्नीय” मूलं एवं वृत्ति: [मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः] [आद्य संपादकः - पूज्य आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागर सूरीश्वरजी म. सा. ] (किञ्चित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह ) पुन: संकलनकर्ता→ मुनि दीपरत्नसागर (M.Com., M.Ed., Ph.D.) 30/10/2014, गुरुवार, २०७० कार्तिक शुक्ल ७ jain_e_library's Net Publications मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र [२] “राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः ~0~ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ----------- मूलं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 KREEMAHASARAMMARKoinsmissBEHREADRATERESTIVATWAREEMAHETAN आचार्यवर्यश्रीमन्मलयगिरिप्रणीतवृत्तियुक्तम् प्रत सूत्राक श्रीमत् राजप्रश्नीयसूत्रम् । दीप अनुक्रम प्रकाशकः-श्रीमत्या आगमोदयसमित्याख्यसंस्थाया एकः कार्यवाहका म्हेशाणावास्तव्यः श्रेष्ठी सूरचन्द्रात्मज वेणोचन्द्रः पत्तनवास्तस्पः श्री क्षेमचन्दात्मजोत्तमचन्दयुक्सुरतवास्तव्य श्रेष्ठिप्रतापचन्द्रात्मज मगनलालाभिषकृतद्रव्यसाहाय्येन. अस्य पुनर्मुद्रणाणाः सर्वेऽधिकारा पतसंस्थाकार्यवाहकाणायमाता: स्थापिताः । प्रतयः ७५.०. बीर संवत् २४५१. पण्यम 8-10 विक्रम संवत् १९८१. कास्ट १९२५. T M andanna -000000000000000000000000000000000000000 0 000000ananda LER Jantaratminematiind राजप्रश्नीय (उपांग)सूत्रस्य मूल “टाइटल पेज" ~1~ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाङ्का: ४३+३० राजप्रश्नीय (उपांग) सूत्रस्य विषयानुक्रम दीप-अनुक्रमा: ७७ मूलांक: पृष्ठांक: मुलांक: | विषय: पृष्ठांक: मुलांक: विषय: पृष्ठांक: ०१-४७ । ००४ ४८-८५ ००४ ०३० सूर्याभदेव-प्रकरणं |-आमलकल्पा नगरी | -सूर्याभदेवस्य विमान, सभा, | पर्षदा, भगवद वंदन, |-दिव्यविमान विकर्वणा, नृत्य |-सिध्धायतन: एवं.. | ...जिनप्रतिमा-अधिकार: प्रदेशिराजन-प्रकरणं । २३१ | -सूर्यकान्तादेवी, श्रावस्तीनगरी | -केशिकमारस्य धर्मदेशना, | -प्रदेशीराज्ञः...... .....केशिकमार सार्धं धर्म-वार्ता | -प्रदेशिराज्ञस्य समाधिमरणं | -सूर्याभविमाने उत्पत्ति: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: ~ 2~ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ['राजप्रश्नीय' - मूलं एवं वृत्तिः] इस प्रकाशन की विकास-गाथा यह प्रत सबसे पहले “राजप्रश्नीय सूत्रम्" के नामसे सन १९२५ (विक्रम संवत १९८१) में आगमोदय समिति द्वारा प्रकाशित हुई, इस के संपादकमहोदय थे पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी (सागरानंदसूरिजी महाराज साहेब | इसी प्रत को फिर से दुसरे पूज्यश्रीओने अपने-अपने नामसे भी छपवाई, जिसमे उन्होंने खुदने तो कुछ नहीं किया, मगर इसी प्रत को ऑफसेट करवा के, अपना एवं अपनी प्रकाशन संस्था का नाम छाप दिया. जिसमे किसीने पूज्यपाद् सागरानंदसूरिजी के नाम को आगे रखा, और अपनी वफादारी दिखाई, तो किसीने स्वयं को ही इस पुरे कार्य का कर्ता बता दिया और श्रीमद्सागरानंदसूरिजी तथा प्रकाशक का नाम ही मिटा दिया | * हमारा ये प्रयास क्यों? * आगम की सेवा करने के हमें तो बहोत अवसर मिले, ४५-आगम सटीक भी हमने ३० भागोमे १२५०० से ज्यादा पृष्ठोमें प्रकाशित करवाए है, किन्तु लोगो की पूज्य श्री सागरानंदसूरीश्वरजी के प्रति श्रद्धा तथा प्रत स्वरुप प्राचीन प्रथा का आदर देखकर हमने इसी प्रत को स्केन करवाई, उसके बाद एक स्पेशियल फोरमेट बनवाया, जिसमे बीचमे पूज्यश्री संपादित प्रत ज्यों की त्यों रख दी, ऊपर शीर्षस्थानमे आगम का नाम, फिर विषय और मूलसूत्र के क्रमांक लिख दिए, ताँकि पढ़नेवाले को प्रत्येक पेज पर कौनसा विषय एवं मूलसूत्र चल रहे है उसका सरलता से ज्ञान हो शके, बायीं तरफ आगम का क्रम और इसी प्रत का सूत्रक्रम दिया है, उसके साथ वहाँ 'दीप अनुक्रम' भी दिया है, जिससे हमारे प्राकृत, संस्कृत, हिंदी गुजराती, इंग्लिश आदि सभी आगम प्रकाशनोंमें प्रवेश कर शके । हमारे अनुक्रम तो प्रत्येक प्रकाशनोमें एक सामान और क्रमशः आगे बढते हुए ही है, इसीलिए सिर्फ क्रम नंबर दिए है, मगर प्रत में गाथा और सूत्रों के नंबर अलग-अलग होने से हमने जहां सूत्र है वहाँ कौंस [-] दिए है और जहां गाथा है वहाँ || II ऐसी दो लाइन खींची है या फिर गाथा शब्द लिख दिया है । हमने एक अनुक्रमणिका भी बनायी है, जिसमे प्रत्येक विषय आदि लिख दिये है और साथमें इस सम्पादन के पृष्ठांक भी दे दिए है, जिससे अभ्यासक व्यक्ति अपने चहिते विषय तक आसानी से पहुँच शकता है। अनेक पृष्ठ के नीचे विशिष्ठ फूटनोट भी लिखी है, जिसमें उस पृष्ठ पर चल रहे ख़ास विषयवस्तु की, मूल प्रतमें रही हुई कोई-कोई मुद्रण-भूल की या क्रमांकन सम्बन्धी जानकारी प्राप्त होती है । अभी तो ये jain_e_library.org का 'इंटरनेट पब्लिकेशन' है, क्योंकि विश्वभरमें अनेक लोगो तक पहुँचने का यहीं सरल, सस्ता और आधुनिक रास्ता है, आगे जाकर ईसि को मुद्रण करवाने की हमारी मनीषा है। .......मुनि दीपरत्नसागर. ~3~ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ------------ मूलं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्राक ॥ अहम् ॥ श्रीमन्मलयगिर्याचार्यविहितविवृत्तियुतं श्रीमद्राजप्रश्नीयमुपाङ्गम् ॥ ॥ॐ नमः॥ प्रणमत बीरजिनेश्वरचरणयुगं परमपाटलच्छायम् । अधरीकृतनतवासवमुकुटस्थितरत्नरुचिचक्रम् ॥१॥ राजप्रश्नीयमहं विवृणोमि यथाऽऽगमं गुरुनियोगात् । तत्र च शक्तिमशक्तिं गुरवो जानन्ति का चिन्ता ? ॥२॥ अथ कस्मादिदमुपाङ्ग राजप्रश्नीयाभिधानमिति ?, उच्यते, इह प्रदेशिनामा राजा भगवतः केशिकुमारश्रमणस्य समीपे यान् जीयविषयान प्रश्नानकात्,ि यानि च तस्मै केशिकुमारश्रमणो गणभव व्याकरणानि च्याकृतवान , यब व्याकरणसम्यकपरिणतिभावतो ISबोधिमासाथ मरणान्ते शुभानुशययोगतः प्रथमे सौधर्मनानि नाकलोके विमानमाधिपत्येनाधितिष्ठत् , यथा च विमानाधिपत्य-II प्राप्त्यनन्तरं सम्यगवधिज्ञानाभोगतः श्रीमद्र्धमानस्वामिनं भगवन्तमालोक्य भक्त्यतिशयपरीतचेताः सर्वस्वसामग्रीसमेत इहावतीर्य भगवतः पुरतो द्वात्रिंशविधि नाट्यमनरीनृत्यत , नर्तित्वा च यथाऽऽयुष्कं दिवि मुखमनुभूय ततश्चयुत्वा यत्र समागत्य मुक्तिपदमवा प्स्यति, तदेतत्सर्वमस्मिन्नुपाङ्गेऽभिधेयं, परं सकलवक्तव्यतामूलं राजपनीय इति-राजप्रश्नेषु भवं राजप्रश्नीयं । अथ कस्याङ्गस्येदKIमुपाङ्ग, उच्यते, सूत्रकृताङ्गस्य, कथं तदुपाङ्गतेति चेत् , उच्यते, मूत्रकृते झङ्गे अशीत्यधिकं शतं क्रियावादिनां, चतुरशीति रक्रियावादिना, सप्तपष्टिरशानिकाना, द्वात्रिंशदैनयिकाना, सर्वसङ्ख्यया त्रीणि शतानि त्रिपष्टयधिकानि पाखण्टिकशतानि प्रतिक्षिप्य दीप अनुक्रम Santauratonu वृत्तिकारश्री कृत् शाश्त्र-प्रस्तावना ~ 4~ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) प्रत सूत्रांक [8] दीप अनुक्रम [3] “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र - १ (मूलं + वृत्तिः) मूलं [१-२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [१३], उपांग सूत्र [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः श्रीराजमश्री मलयगिरीया वृत्तिः ॥ १ ॥ स्वसमयः स्थाप्यते, उक्तं च नन्यध्ययने- "सुयंगडे गं अभीयसमं किरिआवाईणं चतुरासीई अकिरियाबाईणं सत्तट्टी अण्णाणियवाईणं बत्तीसा वेणइयवाईणं तिष्टं तेवद्वाणं पासंडियसवाणं जियूहं किया ससमए अविज्जई"ति, प्रदेशी च राजा पूर्वमक्रियावादिमतभावितमना आसीत्, अक्रियावादिमतमेव चावलन्न्य जीव विषयान् प्रभानकरोत् केशिकुमारश्रमणथ गणधारी सूत्रकृताङ्गसूचितमक्रियावादिमतप्रक्षेपमुपजीव्य व्याकरणानि व्याकार्पित ततो यान्येव सूत्रकृताङ्गसूचितानि कैशिकुमारश्रमणेन व्याकरणानि व्याकृतानि तान्येवात्र सविस्तरमुक्तानीति सूत्रकृताङ्गगतविशेषप्रकटनादिदमुपाङ्ग सूत्रकृताङ्गस्येति । एतद्वक्तव्यता च भगवता वर्द्धमानस्वामिना गौतमाय साक्षादभिहिता, तत्र यस्यां नगर्यो येन प्रक्रमेणाभ्यधीयत तदेतत्सर्वमभिचित्सुरिदमाह ते काले णं ते णं समए णं आमलकप्पा नामं नयरी होत्या, रिद्धत्थिमियसमिद्धा जाव पासा दीया दरिसणिजा अभिरुवा पडिरुवा (सू० १) ॥ तीसे णं आमलकप्पाए नयरीए बहिया उत्तरपुरत्थिमे दिसीभाए अंबसालवणे नामं चेइए होत्था, पोराणे जाव पडिरूबे ( सू० २) ' ते णं काले णं ते णमित्यादि ' 'ते' इति प्राकृतशैलीवशाचस्मिन्निति द्रष्टव्यं अस्यायमर्थो यस्मिन्काले भगवान् वर्द्धमानस्वामी स्वयं विहरति स्म तस्मिन्निति, 'ण'मिति वाक्यालङ्कारे, दृष्टवान्पत्रापि शब्दो वाक्यालङ्कारार्थों यथा- 'इमा णं पुडवी' इत्यादाविति, 'काले' अधिकृतावसर्पिणीचतुर्थविभागरूपे, अत्रापि शब्दो वाक्यालङ्कृती, 'ते णं समए णं समयोऽवसर' १ मुरुते अशीतं शतं क्रियावादिनां चतुरशीतिमकिपावादिनां समष्टिमज्ञानिकानां द्वात्रिंशतं वैनयिकवादिनां त्रयाणां त्रिपष्टयधिकानां पाखण्डिकशतानां निर्मूड फत्वा स्वसमयः स्थाप्यते । आमलकल्पानगरी एवं आम्रशालवन चैत्यस्य वर्णनं For Parts Only ~5~ आमलकल्यावर्णनं मृ० १ आम्राशाल वर्णनं मू० २ ॥ १ ॥ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ----------- मूलं [१-२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक दीप वाची, तथा च लोके वक्तारो-नाद्याप्येतस्य वक्तव्यस्य समयो वर्नते, किमुक्तं भवति ?-नाचाप्येतस्य वक्तव्यस्यावसरो वर्तते इति, तस्मिन्निति यस्मिन् समये भगवान सूर्याभदेववक्तव्यतामचकथत् तस्मिन् समये आमलकल्या नाम नगरी अभवत् , नन्विदानीमपि सा नगरी वर्चते दतः कथमुक्तमभवदिति ?, उच्यते, वक्ष्यमाणवर्णकग्रन्थोक्तविभूतिसमन्विता तदैवाभवत्, न तु विवक्षितोपाङ्गविधानकाले, तदपि कथमवसेयमिति चेत् , उच्यते, अयं काल: अवसर्पिणी, अवसपिण्यां च प्रतिक्षणं शुभा भाषा हानिमुपगच्छन्ति, एतच सुप्रतीतं जिनवचनवेदिनामतोऽभवदित्युच्यमानं न विरोधभाक् । सम्पत्यस्या नगर्या वर्णकमाहरिद्धस्थिमियसमिद्धा जाव पासाइया दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा" इति ऋद्धा-भवनैः पौरजनैश्चातीव वृद्धिमुपागता, 'ऋषि वृद्धा विति वचनात् , स्तिमिता- स्वचक्रपरचक्रतस्करडमरादिसमुत्थभयकल्लोलमालाविवर्जिता, समृदा-धनधान्यादिविभूतियुक्ता, ततः पदत्रयस्य विशेषणसमासः, यावच्छब्देन 'पमुइयजणजाणवया' प्रमुदिताः-प्रमोदवन्तः प्रमोदहेस्तुवतूनां तत्र सद्भावात् , लनानगरीवास्तव्यलोकाः जानपदाः-जनपदभवास्तत्र प्रयोजनक्शादायाताः सन्तो यत्र सा प्रमुदितजनजानपदा, 'आइण्णजणमणूसा 15 मनुष्यजनैराकीर्णा, माकूतत्वात्पदव्यत्ययः, "हलसपसहस्ममंकिविगिद्रलट्रपण्णतसेउसीमा" एलानां शनैः सहस्रश्च सरकष्टा-1 विलिखिता विकष्टा-नगर्या. दूरवर्तिनी बहितिनीति भावः, लष्टा मनोज्ञा पाई-टेकराला प्राज्ञाप्ता, छेफपुरुषपरिकर्मिनेति भावः, सेतुसीमा कुल्याजलसेक्यक्षेत्रसीमा यस्याः सा हलशतसहस्रसस्कृष्टविकृष्टलष्टमाशाप्तसेतुसीमा, 'कुकुडसंडेयगामपउरा' कुफुटसम्पात्या |ग्रामाः सर्वासु दिक्षु विदिक्षु च प्रचुरा यस्याः सा कुकुडसण्डेयग्रामप्रचुराः, 'गोमहिसगवेलगप्पभूया गावी-बलीवदा मदिपाः-अनीता गाव:-स्त्रीगन्य एडका:-उरभ्रास्ते प्रभूता यस्यां सा तथा, 'आयारवन्तचेइयजुबइविसिद्धसमिचिट्ठबहुला' आकारवन्ति-मुन्दराकाराणि अनुक्रम [१] Niunasurary.orm आमलकल्पानगरी एवं आमशालवन चैत्यस्य वर्णनं ~6~ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ----------- मूलं [१-२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक दीप अनुक्रम त्यानि युवतीनां च पण्यतरुणीनामिति भावः, विशिष्टानि सन्निविष्टानि, सन्निवेशपाटका इति भावः, बहुलानि-बहूनि यस्पा सा श्रीराजप्रश्नी " नथा, 'उकोटियगायगंउिभेदतकरखंडरकवरहिया' उत्कोटा-लञ्चा तया चरन्ति उत्कोटिकास्तगात्रभेदैः-शरीरविनाशकारिभिन्यिभेदैः आमलकमलयगिरी-ST राग्रन्थिच्छेदैः तस्करः खण्डरक्षः-दण्डपाशिक रहिता, अनेन तत्रोपद्रवकारिणामभावमाह, 'क्षमा अशिवाभावात् , 'निरुवइबा राजादिकृतो-का या वृत्तिः पद्रवाभावात् , 'सुभिक्षा' भिक्षुकाणां भिक्षायाः सुलभत्वात, 'विसत्थसुहाकासा' विश्वस्तो-निर्भयः मुखमावासो लोकानां ०१ ॥२॥ यस्यां सा तथा, 'अणेगकोटिकोडुचियाइण्णणिब्वुत्तसुहा' अनेककोटीभिः-अनेककोटिसङ्ख्याकैः कौटुम्बिकैराकीपणा निर्दृत्ता सन्तुष्टजनयोगात् शुभा शुभवस्तूपेतत्वात् , नतः पदत्रयस्य कर्मधारयः, "नडनजलमलमुट्ठियवेलंवगकहगपवकलासकआइक्खयलंखमंखतूणइलतुंबवीणियअणेगतालाचराणुचरिया" नटा-नाटयितारो, नर्तका ये नृत्यन्ति, जल्ला-राज्ञः स्तोत्रपाठकाः, मल्लाः प्रतीता मौष्ठिका-मल्ला एव ये मुष्टिभिः प्रहरन्ति, विडम्बकाः-विदपकाः कथका:-प्रतीताः प्लवका-ये उल्लवन्ते नद्यादिकंचा तरन्ति, लासका-ये रासकान् गायन्ति, जयशब्दप्रयोक्तारो वा भाण्डा इत्यर्थः, आख्यायिका-ये शुभाशुभमाख्यान्ति लङ्ख्या- महावंशाग्र| खेलका मङ्ला:-चित्रफलकहस्ता भिक्षुकाः, 'तूणइल्ला' तणाभिधानवाद्यविशेषचन्तः तुम्बचीणिका:-तुम्बवीणावादका, अनेके च ये तालाचरा:-तालादानेन प्रेक्षाकारिणः, एतैः सचरनुचरिता-आसेविता या सा तथा, "आरामुज्जाणअगडतलागदीहियवप्पिणिगुणी-19 |ववेया" आरामा यत्र माधवीलतागृहादिषु दम्पत्यादीन्यागत्य रमन्ते, उद्यानानि-पुष्पादिमदृक्षसकुलान्युत्सवादी बहुजनभोग्यानि अगडत्ति-अवटाः कूपास्तडाकानि-प्रतीतानि दीपिका:-सारिण्यः, वप्पिणित्ति-केदाराः, एते गुणोपपेता-रम्यतादिगुणोपपेता ॥२॥ यस्यां सा तथा, 'उन्विद्धविउलगंभीरखातफलिहा' उचिदं-उण्डं विउल-विस्तीर्ण गम्भीरम्-अलब्धमध्यं खातम् उपरिविस्ती CANA0000@be D ungaram.org आमलकल्पानगरी एवं आमशालवन चैत्यस्य वर्णनं Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) प्रत सूत्रांक [२] दीप अनुक्रम [२] “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र - १ (मूलं + वृत्तिः) मूलं [१-२] आगमसूत्र [१३], उपांग सूत्र [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित. वर्णमधः सङ्कुचितं परिखा च अय उपरि च समखातरूपा यस्यां सा तथा, 'चकगयमुखंडि ओरोहसयग्धिजमलकवाड घणदुष्पवेसा' चक्राणि - प्रहरण विशेषरूपाणि गदाः प्रहरणविशेषाः मुषण्ढयोऽप्येवंरूपा अवरोधः-मतोलीद्वारेष्वन्तःप्राकारः सम्भाव्यते, शतघ्न्योमहाराष्ट्रयो महाशिला वा याः पातिताः शतानि पुरुषाणां नन्ति यमलानि समस्थितद्रव्यरूपाणि यानि कपाटानि धनानि च निश्छिॐ द्राणि तैर्दुष्प्रवेशा या सा तथा, 'वणुकुडिलवंकपागारपरिखित्ता' धनुकुडिलं- कुटिलं धनुस्ततोऽपि वक्रेण प्राकारेण परिक्षिप्ता या सा तथा, 'कविसीसयवट्टरइय संठियाविरायमाणा' कपिशीर्षकेत्तरचितसंस्थितैः वर्तुलकृतसंस्थानैविराजमाना - शोभमाना या सा तथा, 'अट्टालयचरियदारगोपुरतोरणउन्नयसुविभत्तरायमग्गा' अट्टालकाः - प्राकारोपरिभृत्याश्रयविशेषाः चरिका - अष्टहस्तप्रमाणो मार्गः | द्वाराणि भवनदेवकुलादीनां गोपुराणि प्राकारद्वाराणि तोरणानि च उन्नतानि-उच्चानि यस्यां सा तथा सुविभक्ता- विविक्ता राजमागी यस्यां सा तथा ततः पदद्वयस्य कर्म्मधारयः, 'छेयायरियरइयदढफ लिहइंदकीला' छेकेन - निपुणेनाचार्येण-शिल्पोपाध्यायेन ॐ रचितो डोबलवान् परिघः-अर्गाला इन्द्रकीलव-सम्पादितकपाटद्याधारभूतः प्रवेशमध्यभागो यस्यां सा तथा, 'विवणिवणिच्छित्त१) सिपिआइण्णनिव्यसुहा' विपणीनां वणिक्पथानां हट्टमार्गाणां वणिजांच क्षेत्रं स्थानं सा विपणिवणिकक्षेत्रं तथा शिल्पिभिःकुम्भकारादिभिनिर्वृतैः सुखिभिः शुभैः स्वस्वकर्मकुशलैराकीर्णा, प्राकृतत्वाच्च सूत्रेऽन्यथा पदोपन्यासः, ततः पूर्वपदेन कर्मधारयः, 'सिंघाडगतियच उच्चच्चरपणियापविविश्वमुपरिमंडिया' शृङ्गाटक त्रिकचतुष्कचत्वरैः पणितानि - कयाणकानि तत्प्रधानेषु आवगेषु यानि विविधानि वसूनि इन्याणि तैश्व परिमण्डिता, शृङ्गाटकं - त्रिकोणं स्थानं, त्रिकं यत्र रध्यात्रयं मिलति, चतुष्कं रथ्याचतुष्कमीलनातार्क, चत्वरं बहुरथ्यापातस्थानं, 'सुरम्मा' सुरम्या- अतिरम्या, 'नरवइपविइन्नमहिवड़पहा ' नरपतिना - राज्ञा प्रविकीर्णो आमलकल्पानगरी एवं आम्रशालवन चैत्यस्य वर्णनं For Parts Only ~8~ 130303030305 andrary org Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ----------- मूलं [१-२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत ल्पावर्णनं सूत्रांक दीप अनुक्रम गमनागमनाभ्यां व्याप्तो महीपतिपयो-राजमागों यस्यां सा तथा, 'अणेगवस्तुरगमत्तकुंजररहपहकरसीयसंदमागीआइण्णजाणजोगा' श्रीराजपनी आमलकअनेकैर्वरतुरगाणां मत्तकुञ्जराणां स्थानां च पहकरैः सङ्घातैः तथा शिधिकाभिः स्यन्दमानीभिर्यानपुंग्यैश्वाकीर्णा-व्याप्ता या सा नथा, मलयागिरी आकीर्णशब्दस्य मध्यनिपातः प्राकृतत्वात् , तत्र शिविका:-कूटकारेणाच्छादिता जम्पानविशेषाः स्यन्दमानिकाः पुरुषप्रमाणा या वृत्तिः जम्पानविशेषा यानानि-शकटादीनि युग्यानि-गोल्लविषयमसिद्धानि द्विहस्तप्रमाणानि वेदिकोपशोभितानि जम्पानान्येत्र, 'विमउलनव- मू०२ ॥३॥ नलिणसोभियजला विमुकुल:-विकसितैर्ननलिनैः कमलैः शोभितानि जलानि यस्यां सा तया, पंडुरवरभवणपंतिपहिया उत्ताणयनयण-17 पिरछणिज्जा' इति सुगम, 'पासाइया' इत्यादि, प्रासादेष भवा प्रासादीया, प्रासादबहुला इत्यर्थः, अत एव दर्शनीया द्रष्टुं योग्या, प्रासादानामतिरमणीयत्वात् , तथा आम द्रष्टन प्रति प्रत्येकमभिमुखमतीव चेतादारित्वात् रूपम्-आकारो यस्याः सा अभिरूपा, एतदेव पाचटु-पतिरूपा, प्रतिविशिष्टम्-असाधारणम् रूपम्-आकारो यस्याः सा प्रतिरूपा ॥१॥ "तीसे ण"मित्पादि, तस्यां णमिति पूर्ववत् आमलकल्पायां नगर्या बहिः उत्तरपौरस्त्ये-उत्तरपूर्वारूपे ईशाणकोणे इत्पर्धः, दिग्भागे 'अम्बसालवण' इति आत्रैः शालेधातिप्रचुरतयोपलक्षितं यदनं तदाम्रशालवनं तद्योगाचत्यमपि आम्रशालवन, चितेः-लेप्यादिचयनस्य भावः कम्मे चा चैत्यं, जनम इह संज्ञाशब्दत्वात् देवतापतिविम्बे प्रसिद्ध, ततस्तदाश्रयभूतं यदेवताया गृहं तदप्युपचारात् चैत्य, तचेह व्यन्तरायतनं द्रष्टव्यं,12 न तु भगवतामहेतामायतनं, 'होत्य' चि अभवत् , तच्च किंविशिष्टमित्याह-चिरातीते पुराणे यावरछन्दकरणात् 'सदिए किनिए कानाए सच्छत्ते सज्मए' इत्यायौपपातिकग्रन्थप्रसिद्धवर्णकपरिग्रहः । एवरूपं च चैत्यवर्णकमुक्त्वा बनखण्डवक्तव्यता वक्तव्या, सा चैवं-12 से गं अंबसालवणे चेहए एगेणं मइया वणसंडेणं सवओ समंता संपरिक्खिने, से णं वणसंटे किण्हाभासे इत्यादि यावत्पासाइएल Punarayan आमलकल्पानगरी एवं आमशालवन चैत्यस्य वर्णनं ~9~ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ----------- मूलं [१-२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२] दीप अनुक्रम दरिसणिजे अभिरुवे पहिरवे ' तत्र प्रसादीयं-कृष्णावभासत्वादिना गुणेन मनःप्रसादहेतुत्वादर्शनीयं चक्षुरानन्दहेतुत्वात् , अभि-3 रूपप्रतिरूपशब्दार्थः प्राग्वत् , तत उक्तं-'जाव पडिरूवे ॥२॥ अमायबरपायवपुढविसिलावट्टयवनव्वया उववातियगमेणं नेया (सू० ३)॥ अशोकवरपादपस्य पृथिवीशिलापट्टकस्य च वक्तव्यता औषपातिकग्रन्धानुसारेण ज्ञेया, सा चैव तस्स णं वणसंडस्स बहुमज्झदेसभाए इत्य णं महं एगे असोगवरपायचे पन्नते जाव पडिहवे, से णं असोगवरपायचे अन्नेहिं बहूहिं तिलएहिं जाब नंदिरुक्षेहि। सबओ समता संपरिकारिखते, ते णं तिलगा जाव नन्दीरुक्खा कुसबिकुसविसुद्धरुक्खमूला मूलमंतो कंदमतो जाव पडिरूवा, ते गं तिलगा जाच नंदिरुक्खा अन्नाहिं वहहिं पउमलयाहि नागलयाहिं असोगलयाहिं चंपगलयाहिं चूयलयादि वणलयाहि वासंनियमलयाहि अइमुत्तयलयाहिं कुंदलयाहि सामलयाहिं सन्चतो समंता संपरिखित्ता, ताओ पउपलयाओ जाव सामलयाओ नियं कुसुमियाओ जाव पडिरूवाओ, तस्स णं असोगवरपायवस्स उवरिं बहवे अट्ठमंगलगा पन्नत्ता, तंजहा-सात्थियं सिरिवच्छ नंदियावत्त बद्धमाणग भदासण कलस ममल दपणा सन्नरयणामया अच्छा सण्हा लण्हा घट्टा मट्ठा णीरया निम्मला निप्पंका निकंकढच्छाया सप्पभा समिरीया सउज्जोया पासादीया दरसणिज्जा अभिरुवा पडिरूवा, तस्स णं असोगवरपायवस्स उवरिं बहवे किण्ड चामरज्झया नीलचामरज्या लोहियचामरज्झया हालिदचामरज्झया सुकिल्लचामराया अच्छा सहा लण्हा रूप्पपट्टा बहरामयदंडा Kजलयामलगंधिया सूरम्मा पासाइया दरिसणिज्जा अभिरुवा पडिरूवा, तस्स णं असोगवरपायवस्स उवरि बहवे छत्ताइछत्ता पडागाइ-12 पडागा घंटाजुयला चामरजुयला उप्पलइत्थगा पउमहन्थगा कुमुयइत्थगा णलिणहत्यगा सुभगहत्थगा सोगंधियहत्थगा पोंडरियहन्थगाने [२] SantairatnaSNA अशोकवृक्षस्य वर्णनं ~ 10~ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ----------- मूलं [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: अशोक वर्णन प्रत सूत्रांक श्रीराजमश्नी महापोंडरियहत्यगा सयपत्तहत्थगा सहस्सपत्नहत्थगा सब्बरयणामया अच्छा जाव पडिरुवा । तस्स णं असोगवरपायवस्स हेवा एन्य मलयगिरी णं मह एगे पुढविसिलापट्टए पबत्ते इसिखंधासमहीणे विक्खंभायामसुप्पमाणे किण्हे अंजणगघणकुवलयहलधरकोसेजसरिस-1 या वृत्तिः आगासकेसकज्जलककेयणइंदनीलअयसिकुसुमप्पगासे भिगंजणभंगभेयरिटुगगुलियगवलाइरेगे भमरनिकुरुंबभूते जंबूफलअसणकसम-1 |सणवंधणनीलप्पलपत्तणिगरमरगयासासगणयणकीयसिवन्ननिदै घणे अझुसिरे स्वगपडिरूबगदरिसणिज्जे आर्यसगतलोवमे सुरम्मका | सीहासणसंठिते मुरुचे मुनाजालखईयतकम्मे आइणगरूयवूरणवणीयतूलफासे सम्बरयणामए अच्छे जात्र पडिरूवे इति. अस्य व्याख्या -'तम्स णमिति' पूर्ववत् बनखण्डस्य बहुमध्यदेशभागे 'अत्र' एतस्मिन् प्रदेशे महान् एकोऽशोकवरपादपः प्रज्ञप्तस्तीर्थकरगणधरैः, स च किम्भूत इत्याह-'जाव पडिरूवे' अत्र यावच्छब्देन ग्रन्थान्तरप्रसिद्धं विशेषणजातं मुचित, तवेद-'दुरुग्णयकन्दमूलबट्टलगुसंघिअसिलिटे घणमसिणसिणिद्धअणुपुचिमुजायणिरुवहतोन्विद्धपवरखंधी अणेगणरपवरभुयअगेज्झे कुसुमभरसमोणमंतपत्तलविसालसाले महुकरिभमरगणगुमुगुमाइयणिलितउड़ेंतसस्सिरीए णाणासउणगणमिहुणसुमहुरकृष्णसुहपलत्तसहमहुरे कुसविकुसविसुद्धरुखमूले पासाइए दरिसणिज्ने अभिरूवे पडिरूवे' तत्र दुरमुत्-पावल्येन गतं कन्दस्याधस्तात् मूलं गस्य स दूरोद्गतकन्दमूलस्तथा वृत्तभावेन परिणत एवं नाम सर्वासु दिक्षु विदिक्षु च शाखाभिः प्रशाखाभिश्च ॥ अमृतो यथा वर्तुलः प्रतिभासते इति, तथा लष्टाः-मनोज्ञाः सन्धयः-शाखा मता यस्य स लष्टसन्धिस्तथा अश्लिए:-अन्यैः पादपैः सहाससम्पृक्तो, विविक्त इत्यर्थः, ततो विशेषणसमासः, स च पदद्वयमीलनेनावसेयो, बहूनां पदानां विशेषणसमासानभ्युपगमात्, तथा घनो-निविडो ममणः-कोमलत्वक् न कर्कशस्पर्शः, स्निग्धः-शुभकान्तिः, आनुपूर्व्या-मूलादिपरिपाट्या मुष्ठु जन्मदोषरहितं दीप अनुक्रम [२] ४ ॥ Santaratinidar Janaturamom | अशोकवृक्षस्य वर्णनं ~ 11~ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) (१३) --------- मूलं [३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक ARRHEORE यथा भवति एवं जात आनुपूर्वीसुजातः, तथा निरुपहत-उपदेहिकायुपद्रवरहित उद्विद्धा-उच्चः प्रवर:-प्रधानः स्कन्धी यस्य स] घनममणम्निग्धानुपूर्वीसुजातनिरूपहतोद्विदमवरस्कन्धः, तथा अनेकस्य नरस्य-मनुपस्य ये प्रवरा:-प्रलम्बा भुजाः-वाहयस्तग्नावःअपरिमेयोऽनेकनरमनरभुजाग्राह्यः, अनेफपुरुषव्यामैरप्यप्रतिमेयस्थौल्य इत्यर्थः, तथा कुसुमभरेण-पुष्पसम्भारेण सम-पदवनमन्त्या पत्रसमुद्धाः 'पत्तसमिद्धति खंधपित्तलमिति वचनात् विशाला-विस्नीणाः शाला:-शाखा यस्य स कुसुमभरसमवनमत्पत्रलविशालशालः, तथा मधुकरीणां भ्रमराणां च ये गणा 'गुमगुमायिता' गुमगुमायन्ति स्म, कर्मकर्तृत्वात्करि क्तमत्ययो, गुमगुमति शब्दं कृतवन्तः सन्न इत्यर्थो, निलीयमानाः-आश्रयन्त उड्डीयमानाः-तत्मत्यासन्नमाका परिभ्रमन्तस्तैः सश्रीको मधुकरीभ्रमरगणगुममुमायितनितीयमानोड्डीयमानसश्रीकः, तथा नानाजातीयानां शकुनगणानां यानि मिथुनानि-खीपुंसयुम्मानि तेपां प्रमोदवशतो यानि परस्परसुमधुराण्यत एवं कर्णमुखानि-कर्णसुखदायकानि प्रलप्तानि-भाषणानि, शकुनगणानां हि खेछया क्रीडता प्रमोदभरवशतो यानि भाषणानि तानि प्रलप्तानीति प्रसिद्धानि ततः 'पलते न्युक्तं, तेषां यः शब्दो-ध्वनिस्तेन मधुरो नानाशकुनगणमिथुन-11 सुमधुकर्णसुखमलपशब्दमधुरः, तथा कुशा-दर्भादयो विकुशा-बल्बजादयाः तेर्षिशुद्ध-रहितं वृक्षस्य-सकलस्याशोकपादपस्य, हार समूलं शाखादीनामपि आदिमो भागो लक्षणया प्रोच्यते, यथा शाखामूलमिदं प्रशाखामूलमिदमित्यादि, ततः सकलाशोकपादप सत्कमूलपतिपत्नये वृक्षग्रहणं, मूलं यस्य स कुशविकुशविशुद्धक्षमूली, यश्चैवंविधः स द्रष्टुणां चित्तसन्तोषाय भवति, तत आह-0 प्रासादीपः- प्रसादाय-चित्तसन्तापाय- हितस्तदुत्पादकत्वात् प्रासादीय अत एव दर्शनीयो द्रष्टुं योग्यः, कस्मादित्याह-'अभिरूपो' द्रष्टारं २ प्रत्यभिमुखं न कस्यचिद्विरागहेतू रूपम् आकारो यस्यासारभिरूपः, एवरूपोऽपि कुतः ? इत्याह-प्रतिरूपः-प्रतिविशिष्ट दीप अनुक्रम (३) Santaratinido Handiturary.com अशोकवृक्षस्य वर्णनं ~ 12 ~ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ----------- मूलं [] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः अशोकक्ष प्रत सूत्रांक [३] दीप श्रीराजप्रश्नी सकलजगदसाधारणं रूपं यस्य सपतिरूपः, 'सेणं असोगवरपायचे' इत्यादि 'जाय नंदिरुक्वहि' इत्यत्र यावच्छब्दकरणात, 'लउमलयगिरी- एहिं छत्तावहिं सिरीसेहिं सत्तवण्णेहिं लोद्धेहिं दधिवन्नेहिं चंदणेहिं अज्जुणेहिं नीवहिं कयंत्रेहि फणसेहिं दाडिमेहि सालेहि | वर्णन या हातातभालेहिं पियालहिं पियंगृहिं रायरुक्वेहिं नंदीरकखेहि इति परिग्रहः, एते च लवकच्छत्रोपगशिरीषसप्तपर्णदधिपर्णलुब्धकधव मू०३ चन्दनार्जुननीपकदम्बफनसदाडिमतालतमालप्रियालप्रियङ्गराजवृक्षनन्दिवृक्षाः प्रायः सुप्रसिद्धाः, 'तेणं तिलगा जाव नंदिरुकखा कुस-2 |विकुसे स्यादि ते तिलका यावत्रंदिवृक्षाः कुशविकुशविशुद्धवृक्षमूलाः, अत्र व्याख्या पूर्ववत्, 'मूलबन्त: मूलानि प्रभूतानि दूरावगाढानि | च सन्त्येषामिति मूलचन्तः, कन्द एपामस्तीति कन्दवन्तः, यावच्छब्दकरणात् सन्धिमन्तो तयामन्तो सालमन्तो पवालमन्तो पत्तमंतो all पुष्फर्मतो फलमंतो वीयमंतो अणुपुचिमुजायरुइलबट्टभावपरिणया एगखंधा अणेगसाहप्पसाहविडिमा अणेगनरवाममुष्पसारियअगिज्झ-6 घणविपुलचट्टखंधा अच्छिदपत्ता अविरलपत्ता अबाईपचा अणईणपत्ता णिव्वुयजरढपंडुपत्ता नबहरियभिसंतपत्तभारंधयारगंभीरदरिसणिज्जा उवनिग्गयनवतरुणपत्तपल्लवा कोमलउज्जलचलंतकिसलयसुकुमालपबालसोभियवरंकुरग्गसिहरा निचं कुसुमिया निचं मउलिया निचं लवइया निच्चं थवइया निच्चं गुलइया निचं गोच्छिया निच्चं जमलिया निचं जुयलिया णि णमिया - निचं पणमिया निचं कुसुमियमउलियलवइयथवइयगुलइयगुच्छियजमलियजुयालयविणमियपणमियसुविभत्तपिंडिमंजरिवर्डिसयधरा सुकवरहिणमयणसल्लागाकोइलकोरुगकभिंगारककोंडलकजीवंजीवकनंदीमुखकविलपिंगलक्खगकारंडवचकवाककलहंससारसअणेगसउणगणमिहुणविरश्यसोनइयमहुरसरणाइया सुरम्मा सुपिडियदरियभमरमहुयरिपहकरपरिल्लवमत्तछप्पयकुसुमासवलो| लमहुरगुमगुमंतगुर्जुनदेसभागा अम्भिरपुष्फफला बाहिरपत्तोच्छण्णा पत्तेहि य पुप्फेहि य उच्छन्नपलिच्छिन्ना निरोगका सार अनुक्रम (३) G andiarary.org अशोकवृक्षस्य वर्णनं ~ 13~ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ----------- मूलं [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक दीप फला अकंटका णाणाविहगुच्छगुम्ममंडवगसोहिया विचित्तसुहकेउपभूया वाविपुक्खरिणिदीहियासु य सुनिवेसियरम्मजालघरगा पिंडिमनीहारिमसुगंधिसुहसुरभिमणहरं च महया गंधद्धाणं मुंचंता मुहसेउकेतुबहुला अणेगसगडजाणजुम्मागिल्लिथिल्लिसीयसंदमाणिपडिमोयगा पासाइया दरिसणिज्जा अभिरुवा पडिरूवा' इति परिग्रहः, अस्य व्याख्या-दह मूलानि सुप्रतीतानि यानि कन्दस्याधः प्रसरन्ति, कन्दास्तेषां मूलानामुपरिवर्तिनस्ते अपि प्रतीताः, खन्धः-धुई त्वक्-छल्ली शाला:शाखाः प्रवाल:-पालवाहुरः पत्रपुष्पफलबीजानि सुमसिद्धानि, सर्वत्रातिशयेन कचिद् भूग्नि वा मतुष्पत्ययः, 'अणुपुल्वमुजायरुचि लबट्टभावपरिणया' इति आनुपूर्व्या-मूलादिपरिपाट्या सुष्टु जाता आनुपूर्वीसुजाता रुचिराः-स्निग्धतया देदीप्यमानच्छविमन्तः, तथा अत्तभावेन परिणता वृत्तभावपरिणताः, किमुक्तं भवति ?-एवं नाम सर्वासु दिक्षु विदिक्षु च शाखाभिः प्रशाखाभिश्च प्रसूता यथा वर्तुलाः संजाता इति, आनुपूर्वीसुजाताच ते रुचिराश्च आनुपूर्वीसुजातरुचिरास्ते च ते वृत्तभावपरिणताश्च आनुपूर्वीसुजातरुचिरवृत्तभावपरिणताः ते तथा, तिलकादयः पादपाः प्रत्येकमेकस्कन्धाः, प्राकृते चास्य स्त्रीत्वमिति 'एगखंधा' इति मूत्रपाठः, तथा अनेकाभिः शाखाभिः प्रशाखाभित्र मध्यभागे विटपो-विस्तारो येषां ते तथा, तिर्यग् बाहुद्वयं प्रसारणप्रमाणो व्यामः,व्यामीयन्ते-परिच्छिद्यन्ते रज्ज्वाधनेनेति व्यामः,वह लवच-1 नात् 'करणे कचिदिति डप्रत्ययः, अनेकनरव्यामः-पुरुषव्यामैः सुप्रसारितैरग्राह्यः अप्रमेयो घनो-निविडो विपुला-विस्तीर्णो वृक्षःस्कन्धो येषां ते अनेकनरव्यामसुप्रसारिताग्राह्यघनविपुलवृत्तस्कन्धाः, तथा अच्छिद्राणि पत्राणि येषां ते अच्छिद्रपत्राः, किमुक्तं भवति?-2 नतेषां पत्रेषु वातदोपतः कालदोपतो वा गडरिकादिरितिरुपजातो येन तेषु पत्रेषु छिद्राण्यभविष्यन्नित्यच्छिद्रपत्राः अथमा एवं नामान्योन्य शाखाप्रशाखानुप्रवेशात्पत्राणि पत्राणामुपरिजातानि येन मनागप्यपान्तरालरूपं छिद्रं नोपलक्ष्यते इति, तथा चाह–'अविरलपत्ता' अनुक्रम (३) SANEmirathin JUNE अशोकवृक्षस्य वर्णनं ~ 14~ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) (१३) --------- मूलं [३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः प्रत सूत्रांक दीप श्रीराजप्रश्नी अशोकक्षमलयागिरी- इति, अत्र हेतौ प्रथमा, ततोऽयमर्थः-यतः अविरलपत्रा अतोऽच्छिद्रपत्राः, अविरलपत्रा इति कुत इत्याह-अवातीनपत्रा वातीनानि-बातोया उत्तिःपहतानि, वातेन पातितानीत्यर्थः, न वातीनानि अवातीनानि पत्राणि येषां ते तथा, किमुक्तं भवति? न प्रवलेन खरपरूषण वातेन । तेषां पत्राणि भूमौ निपात्यन्ते, ततोऽवातीनपत्रत्वादविरलपत्रा इति अच्छिद्रपत्रा इति, अच्छिद्रपत्रा इत्यत्र प्रथमव्याख्यानपक्षमधि-19 मू०३ ॥६॥ ऋत्य हेतमाह-'अदपत्ता' न विद्यते इतिः-गडरिकादिरूपा येषां तान्यतीतीनि अतीतीनि पत्राणि येषां ते अतीतपत्राः, अतीतिपत्र लाचाच्छिद्रपत्राः, 'निद्धयजरढपंदुपत्ता' इति निर्द्धतानि-अपनीतानि जरठानि पाण्डपत्राणि येभ्यस्ते निर्द्धतजरठपाण्ट्रपत्राः, किसक्तं भवति?-यानि वृक्षस्थानि जरठानि पाण्डुपत्राणि वातेन निर्द्धय भूमौ पातितानि भूमेरपि च पायो निर्द्धय निर्द्धयान्यत्रापसारितानीति, 'नवहरियभिसंतपत्तभारंधयारगंभीरदरिसणिज्जा' इति नवेन-प्रत्यग्रेण हरितेन-नीलेन भासमानेन स्निग्धत्वेन वा दीप्यमानेन पत्रभारेण-दलसञ्चयेन यो जातोऽन्धकारस्तेन गम्भीरा-अलब्धमध्यभागाः सन्तो दर्शनीया नवहरितभासमानपत्रभारान्धकारगम्भीरदर्शनीयाः, तथा उपविनिमतेः निरन्तरविनिर्गतरिति भावः, नवतरुणपत्रपटवैस्तथा कोमलैः-मनोजैरुज्ज्वलैः-शुद्धैश्चलन्द्रिःईपत्कम्पमानैः किशलयैः-अवस्थाविशेषोपेतैः पल्लबविशेषैस्तथा सुकुमारैः पवालैः-पल्लवाड्रैः शोभितानि वराङ्कुराणि-वराडरोपेतानि अग्रशिखराणि येषां ते उपविनिर्गतनवतरुणपत्रपल्लवकोमलोज्ज्वलचलत्किशलयसुकुमालपयालशोभितवरागुराग्रशिखराः, इहाकुरप्रवालयोः कालकृतावस्थाविशेषाद्विशेषो भावनीयः, तथा नित्यं सर्वकालं, षट्स्वपि ऋतुषु इत्यर्थः, 'कुसुमिताः' कुसुमानिपुष्पाणि सजातान्येषामिति कुसुमिताः, तारकादिदर्शनादितप्रत्ययः, 'निच्चं मालइया' (मउलिया) इति नित्यं-सर्वकालं मुकुलितानि, मुकुलानि नाम कुड्मलानि कलिका इत्यर्थः, 'निचं लवइया' इति पल्लविताः, नित्यं 'थवइया' इति स्तबकिताः स्तवकभार अनुक्रम (३) SAMEnirahini unmurary.org | अशोकवृक्षस्य वर्णनं ~ 15~ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ---------- मूलं [१] (१३) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक वन्त इत्यर्थः, नित्यं 'गुलइया' इति गुल्मिताः स्तवकगुल्मौ गुच्छविशेषौ, नित्यं 'गोच्छिता' गोच्छवन्तः, नित्यं 'जमलिता' यमल-15 नाम समानजातीययोर्युग्मं तत् सञ्जातमेषामिति यमलिताः, नित्यं युगलिता युगलं-सजातीयविजातीययोर्द्वन्दं तदेषां सजातमिति युगलिताः, तथा नित्यं-सर्वकालं फलभरेण विनताः-ईपन्नताः, तथा नित्यं महता फलभरेण प्रकर्षणातिदूरं नताः प्रणताः, तथा नित्यं सर्वकालं सुविभक्तः सुविच्छित्तिकः प्रतिविशिष्टो मञ्जरीरूपो योऽवतंसकस्तद्धरास्तद्धारिणः, एवं सर्वोऽपि कुसुमितत्वादिको धर्म एकैकस्य वृक्षस्योक्तः, साम्पतं केषाश्चिदृक्षाणां सकलकुसुमितत्वादिधर्मप्रतिपादनार्थमाह-निच्चं कुसुमियमगलियेत्यादि । किमुक्तं भवति केचित्कुसुमितायेकैकगुणयुक्ताः केचित्समस्तकुसुमितादिगुणयुक्ता इति, अत एव कुसुमियमालइयमउलियेत्यादिपदेषु कर्मधारयः, तथा शुकचर्हिणमदनशालिकाकोकिलाकोरककोभवभिङ्गारककोण्डलकजीवंजीवकनन्दीमुखकपिलपिङ्गलाक्षकारण्डवचक्रवाककलहंससारसाख्यानामनेकेषां शकुनगणानां मिथुनैः-स्त्रीपुंसयुक्तर्यद्विचरितम् इतस्ततो गमनं यच्च शब्दोन्नतिक-उन्नतशब्दक मधुरस्वरं च नादितं-लषितं येषु ते तथा, अत एव सुरम्याः-सुष्टु रमणीयाः, अत्र शुकाः-कीराः, बहिणो-मयूराः, मदनशालिकाःशारिकाः, कोकिला:-पिकाः, चक्रवाककलहंससारसाः प्रतीताः, शेषास्तु जीवविशेषा लोकतो वेदितव्याः, तथा सम्पिण्डिताःएकत्र पिण्डीभूताः दृप्ताः- मदोन्मत्ततया दर्पाध्माता भ्रमरमधुकरीणां पहकराः-सङ्घाताः 'पइकर ओरोह संघाया' इति देशी नाममालावचनात् यत्र ते सम्पिण्डितहप्तभ्रमरमधुकरीपहकराः, तथा परिलीयमानाः-अन्यत आगत्याश्रयन्तो मत्ताः षट्पदाः कुसुसमासवलोला:-किञ्जलपानलम्पटा मधुरं गुमगुमायमाना गुञ्जन्तश्च-शब्दविशेषं च विदधाना देशभागेषु येषां ते परिलीयमानमत्तषट् पदकुसुमासबलोलमधुरगुमगुमायमानगुञ्जद्देशभागाः, गमकत्वादेवमपि समासः, ततो भूयः पूर्वपदेन विशेषणसमासः, तथा अभ्यन्तराणि दीप अनुक्रम (३) REaratinindiana लाudiorary.orm अशोकवृक्षस्य वर्णनं ~16~ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) (१३) -------------- मूलं [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: अशोकवृक्षवणनं प्रत मु०३ सूत्रांक दीप श्रीराजप्रश्नी अभ्यन्तरभागवर्तीनि पुष्पाणि च फलानि च पुष्पफलानि येषां ते तथा, 'बाहिरपत्तोच्छन्ना इति' बहिस्तः पत्रैश्छन्ना-व्याप्ता बहिःपत्रच्छन्नाः, मलयगिरी- तथा पत्र पुप्पैश्च अवरुछनपरिच्छन्नाः-अत्यन्तमाच्छादिताः,तथा नीरोगकाःोगवर्जिता अकण्टकका:-कण्टकरहिताः, न तेषां प्रत्यासमा या वृत्तिः बबूलादिवृक्षाः सन्तीति भावः, तथा स्वादूनि फलानि येषां ते स्वादुफलाः, तथा स्निग्धानि फलानि येषां ते स्निग्धफलाः, तथा प्रत्यासन्नानाविधैः-नानाप्रकारैर्गुच्छै वृन्ताकीप्रभृतिभिर्गुल्मैः-नवमालिकादिभिर्मण्डपकैः शोभिता नानाविधगुच्छगुल्ममण्डपक शोभिताः, तथा विचित्र:-नानाभकारैः शुभैः-मण्डनभूतैः केतुभिः--ध्वजैर्बहुला-व्याप्ता विचित्रशुभकेतुबहुलाः, तथा 'वाविपुक्रवरिणीदीजहियासु य सुनिवेसियरम्मजालघरगा' बाप्यश्चतुरस्राकारास्ता एव वृत्ताः पुष्करिण्यः, यदिवा पुष्कराणि वर्तन्ते यासु ताः पुष्क रिण्यः, दीपिका-ऋजुसारिण्यः, वापीषु पुष्करिणीषु दीपिकासु च सुष्टु निवेशितानि रम्याणि जालगृहकाणि येषु ते वापीपुष्करिणीदीर्घिकासु सुनिवेशितरम्यजालगृहकाः, तथा पिंडिमा-पिण्डिता सती निहरिमा-दूरं विनिर्गच्छन्ती पिण्डिमनिहरिमा तां सुगन्धि| सुगन्धिको शुभसुरभिभ्यो गन्धान्तरेभ्यः सकाशात् मनोहरा शुभमुरभिमनोहरा तां च, 'महया' इति प्राकृतत्वात् द्वितीयार्थे तृतीया, महतीमित्यर्थः, गन्धघाणि यावनिर्गन्धपुरलैर्गन्धविषये गन्धघ्राणिरुपजायते तावती गन्धपुद्गलसंहतिरुपचारात् गन्धघाणिरित्युच्यते, त निरन्तरं मचन्तः, तथा 'महसेउकेउबहला' इति शुभाः-प्रधाना इति सेतवी-मार्गा आलवालपाल्यो वा केतवो-ध्वजा बहुला-16 बहवो येषां ते तथा, 'अणेगरहसगढजाणजुग्गगिल्लिथिल्लिसिवियसंदमाणियपडिमोयणा' इति, स्था द्विविधा:-क्रीडारथाः समामरथाच, शकटानि प्रतीतानि, यानानि-सामान्यतः शेषाणि वाहनानि युन्यानि-गोल्लविषयप्रसिद्धानि द्विइस्तप्रमाणानि वेदिकोपशोभितानि जम्पानानि शिविका:-कुटाकारेणाच्छादिता जम्पानविशेषाः स्यन्दमानिकाः-पुरुषप्रमाणजम्पानविशेषाः, अनेकेषां रथशकटा अनुक्रम (३) muraryorg अशोकवृक्षस्य वर्णनं ~ 17~ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ----------- मूलं [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः प्रत सूत्रांक Pादीनां मध्येऽतिविस्तीर्णत्वात् प्रतिमोचनं येषु तसथा, 'पासादीया' इत्यादिपदचतुष्टयं प्राग्वत्, 'ते णं तिलगा' इत्यादि पाठसिद्ध, हानवर 'नागलयाहि ति नागा:-दुमविशेषाः 'वणलयाहिं' ति बना अपि दुमविशेषाः, दुमाणां च लतात्वमेकशाखाकानांक द्रष्टव्यं, ये हि दुमा ऊर्ध्वगतकशाखा न तु दिग्विदिक्रमतवहुशारखास्ते लता इति प्रसिद्धाः, 'निच्च कुसुमियाओ जाव पडिरूवाओ' जात्यत्र यावच्छन्दकरणात निचं कुसुमियाओ निचं मालइयाओ निच्च लवड्याओ निचं थवइयाओ नि गुच्छियाओ| निचं गुम्मियाओ निचं जमलियाओ निच्च जुयलियाओ निचं विणमियाओ निचं पणमियाओ मुविभत्तपडिमंजरि-| कावडिंसगधरीओ निचं कुसुमियमालइयथवइयलवइयगुम्मियजमालियजुयलियगुरिछयविणमियपणमियसुविभत्तपडिमंजरिवहिंसगध-19. रीओ संपिडियदरियभमरमहुयरिपहफरपरिलेंतमत्तछप्पयकुसुमासवलोलमहुरगुमगुमैतगुंजंतदेसभागाओ पासाइयाओ दरिसणिज्जाओ अभिरुवाओ पडिरूवाओ इति' एतच्च समस्तं प्राग्वद् व्याख्येयं, तस्य णिमिति प्राग्वन , अशोकवरपादपस्य उपरि बहूनि अष्टावष्टौ मङ्गलकानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-स्वस्तिकः श्रीवृक्षो 'नंदियावत्ते' इति नन्यावर्त्तः, कचिद् नन्दावत्त इति पाठः, तत्र नन्दावर्त इति शब्दसंस्कारः, वर्द्धमानक-शराबसम्पुट भद्रासनं कलशो मत्स्ययुग्मं दर्पणः, एतानि चाष्टावपि मङ्गलकानि सर्वरत्नमयानि अच्छानि-आकाशस्फटिकवदतीव स्वच्छानि श्लक्ष्णानि-श्लक्ष्णपुद्गलस्कन्धनिष्पन्नानि श्लक्ष्ण ( तन्तु) निष्पन्नपटवद् लण्हानि-पसणानि घुण्टितपटवद् 'घट्ठाईति घृष्टानीव घृष्टानि खरशाणया पाषाणपतिमावत् 'मट्ठाईति मृष्टानीव मष्टानि, सुकुमारशाणया पाषाणप्रतिमेव, अत एव नीरजांसि स्वाभाविकरजोरहितत्वात , निर्मलानि-आगन्तुकमलाभावात् , निष्पकानि-कलङ्कविकलानि कर्दमरहितानि वा निष्कङ्कटा-निष्कवचा निरावरणा निरुषघातेति भावार्थः छाया दीप्तिर्येषां तानि दीप अनुक्रम (३) SAMEmirathindi , अशोकवृक्षस्य वर्णनं ~ 18~ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) (१३) -------- मूल [३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: श्रीराजमश्नी मलयगिरी- या वृत्तिः प्रत सूत्रांक दीप निष्कटच्छायानि 'सप्रमाणि' स्वरूपतः प्रभावन्ति 'समरीचीन' बहिविनिर्गताकरणजालानि, अत एव सोयोतानि-बहिर्व्यवस्थि- अशोकवृक्षतवस्तुस्तोमप्रकाशकराणि 'पासाइया' इत्यादिपदचतुष्टयव्याख्या पूर्ववत् । 'तस्स णमित्यादि, तस्य 'ण'मिति प्राग्वत् , अशोकवर-12 वर्णनं पादपस्योपरि बहवः कृष्णचामरध्वजाः, चामरााण च ध्वजाश्च चामरध्वजाः कृष्णाश्च ते चामरध्वजाच कृष्णचामरध्वजाः, एवं नीलचामरध्वजाः, लोहितचामरध्वजाः, हारिद्रचामरध्वजाः, शुक्लचामरध्वजाः, एते च कथम्भूता इत्याह-अच्छा:-स्फटिकवदतिनिर्मलाः, श्लक्ष्णाः -लक्ष्णपुद्गलस्कन्धनिष्पन्नाः, 'रूपपट्टा' इति रूप्यो-रूप्यमयो बत्रमयस्य दण्डस्योपरि पट्टो येषां ते रूप्यपट्टाः |'वहरदण्डा' इति बनो-बजरत्नमयो दण्डो रूप्यपट्टमध्यवर्ती येषां ते वजदण्डाः, तथा जलजानामिव-जलजकुसुमानां पद्मादीनामिवामलो गन्धो येषां ते जलजामलगन्धकाः अत एव मुरम्या:-अतिशयेन रमणीयाः 'पासाइया' इत्यादि पूर्ववत् , तस्स णमिति माग्वत् , अशोकवरपादपस्योपरि बहूनि छत्रातिच्छत्राणि छत्रात्-लोकमसिद्धादेकसख्याकादतिशायीनि उवाण उपर्यधोभागेन दिसल्यानि त्रिसस्यानि वा छत्राणि छत्रातिच्छत्राणि, तथा बह्वधः 'पढागाइपडागा' इति पताकाभ्यो लोकप्रसिद्धाभ्योऽतिशा-12 विन्यः पताकाः पताकातिपताकाः बहुनि नेवेव छ प्रातिच्छवादिषु घण्टायुगलानि चामरयुगलानि, तथा तत्र तत्र प्रदेशे उत्पलहस्तकाः-Tak उत्पलाख्या जलजकुसुमसङ्घातविशेषाः, एवं पमहस्तकाः कुमुदहस्तकाः नलिनहस्तकाः मुभगहस्तका सौगन्धिकहस्तकाः पुण्डरीक-12 हस्तका महापुण्डरीकहस्तकाः शतपत्रहस्तकाः सहस्रपत्रहस्तकाः सुभगहस्तकाः, उत्पलं-गर्दभकं पन-मूर्यविकाशि पडूज मुकुद-कैरवं 6 नलिनम्-ईषद्रक्तं पद्म सुभगं-पद्मविशेषः सौगन्धिक- कल्हारं पुण्डरीक-श्वेताम्बुजं तदेवातिविशालं महापुण्डरीकं शतपत्रसहस्रपत्रे |पत्रसयाविशेषावच्छिन्नौ पद्मविशेषौ, एते च छत्रातिच्छत्रादयः सर्वेऽपि सर्वरत्नमयाः सर्वात्मना रत्नमयाः 'अच्छा सहा' अनुक्रम (३) अशोकवृक्षस्य वर्णनं ~ 19~ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ----------- मूलं [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: 900000630308050000.30003 इत्यादि विशेषणजातं पूर्ववत् , 'तस्स णमित्यादि, तस्य 'णामिति प्राग्वत् अशोकवरपादपस्याधस्तात, 'एत्य णमिति अशोकवरपादपस्य यदधो अत्र 'ण'मिति पूर्ववत् एको महान् पृथ्वीशिलापट्टकः प्रज्ञप्ता, कथम्भूत इत्याह-'इसिंबंधी समल्लीणे इत्यादि, इह स्कन्धः स्थुडमित्युच्यते, तस्याशोकवरपादपस्य यत् स्थुडं तत् ईषद्-मनाक् सम्यग् लीनस्तदासन्न इत्यर्थः, 'विक्खम्भायाममुष्पमाणे माइति, विष्कम्भेनायामेन च शोभनम् औचित्यानतिवति प्रमाणं यस्य स विष्कम्भायामसुप्रमाणः, कृष्णः, कृष्णत्वमेव निरूप-12 यति-'अंजणघणकुवलयहलहरकोसेज्जसरिसो' अञ्जनको-वनस्पतिविशेषः घनो-मेघः कुवलय-नीलोत्पलं हलधरकौशेयं-बलदेववस्त्र तैः सदृशा-समानवर्णः, 'आगासकेसकज्जलकक्केयणइंदनीलअयसिकुसुमप्पगासे आकाशं धूलीमेघादिविरहितं, केशाःशिरसिज़ाः, कजलं-अतीतं, कर्केतनेन्द्रनीलौ मणिविशेषौ अतसीकुसुमं प्रसिद्धमेतेषामिव प्रकाशो-दीप्तिर्यस्य स तथा, 'भिंगजगभंगभेयरिदुगनीलगुलियगवलाइरेगे' इति भृङ्गः-चतुरिन्द्रियः पक्षिविशेषः अञ्जनं सौवीराञ्जनं तस्य भङ्गेन-विच्छित्त्या | भेदः-छेदोऽञ्जनभङ्गभेदो रिष्ठको-रत्नविशेषः नीलगुटिकाः-प्रतीताः, गवलं माहिर्ष शृङ्गं तेभ्योऽपि कृष्णत्वेनातिरेको यस्य स तथा, 'भमरनिकुरम्पभूए' इति अत्र भूतशब्द औषम्यवाची, यथाऽयं लाटदेशः सुरलोकभूतः, सुरलोकोपम इत्यर्थः, ततोऽयमर्थः-भ्रमरनिकुरुम्बोपमः, 'जंबूफलअसणकुसुमबंधणनीलुप्पलपत्तनिकरमरगयआसासगनयणकीयासिवन्ने' जम्बूफलानि प्रतीतानि, असनकुसुमबन्धन-असनपुष्पवृन्तं नीलोत्पलपत्रनिकरो मरकतमणिः प्रतीतः, आसासको-बीयकाभिधानो वृक्षः, नयनकीको नेत्रमध्यताराः, असि खरं तेषामिव वणों यस्य स तथा, स्निग्धो न तु रूक्षः घनो निविडी न तु कोष्ठक इव मध्यशुपिरः 'अज्जुसिरे' इति श्लक्ष्णशुपिररहितः, 'रूवगपडिरूवगदरिसणिजे' इति रूपकाणां यानि तत्र सन्कान्तानि (प्रतिरूपकाणि) SAREauratondlamind Taurasurary.com अशोकवृक्षस्य वर्णनं ~ 20~ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ---------- मूलं [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: TRA प्रत सूत्रांक श्रीराजपनी प्रतिबिम्बानि तैः दर्शनीयो रूपकमतिरूपकदर्शनीयः, 'आदर्शतलोपमः' आदर्शो-दर्पणस्तस्य तलं तेन समतयोपमा यस्य स आदर्शतलो-Hश्वेतराजामलयगिरी- मः, सुष्ठ मनांसि रमयतीति सुरम्यः 'कृढ़हुल'मिति वचनात् कर्तरि यप्रत्ययः, 'सिंहासणसंठिए' इति सिंहासनस्येव संस्थित- दिपर्युषाया वृत्तिः संस्थानं यस्य स सिंहासनसंस्थितः, अत एव सुरूपः-शोभनं रूपम्-आकारो यस्य स सुरूपः, इतश्च सुरूपो यत आह-'मुत्ताजा-का सना ॥९॥ लखइयतकम्मे' मुक्ताजालानि-मुक्ताफलसमूहाः खचितानि अन्तकर्मसु-प्रान्तपदेशेषु यस्य स मुक्ताजालखचितान्तकर्मा, 'आइणगरूय-1 रनवनीयतलफासे आजिनक-चर्ममयं वस्त्रं रूतं प्रतीतं चूरो-वनस्पतिविशेषः नवनीतं-म्रक्षणं तल अर्कतलं तेषामिव कोमल- मू०४ तया स्पर्थो यस्य स आजिनकरूतचूरनवनीततूलस्पर्शः, 'सल्वरयणामए' इत्यादिविशेषणकदम्बकं प्राग्वत् ॥ सेओ राया धारिणी देवी. सामी समोसढे, परिसा निग्गया, जाव राया पज्जुवासद (सू०४) __'सेओ राया धारिणी देवी जाव समोसरणं समत्त'मिति तस्या आमलकल्यायो नगर्या वेतो नाम राजा, तस्य समस्तान्तःपुरमधाना भार्या सकलगुणधारिणी धारिणीनामा देवी, 'जाव समोसरणं समत्त'मिति यावच्छन्दकरणाद्वाजवर्णको देवीवर्णकः समवसरणं चौपपातिकानुसारेण तायद्वक्तव्यं यावत्समवसरणं समाप्त तचैव-तत्थ णं आमलकप्पाए नयरीए सेओ नाम राजा हा होत्या, महयाहिमवंतमहंतमलयमंदरमहिंदसारे अचंतविसुद्धरायकुलवंसप्पमूए निरंतरं रायलकखणविराइयंगमंगे बहुजणबहुमाणपूइए सब्बगुणसमिद्धे खत्तिए मुइए मुद्धाभिसित्तेमाउपिउमुजाए दय(ब)पत्ते सीमंकरे सीमंधरे खेमकरे खेमंधरेमणुस्सिदे जणवयपिया जणवयपाले जणवयपुरोहिए सेउकरे केउकरे नरपवरे पुरिसवरे पुरिससीहे पुरिसवग्ये पुरिसआसीविसे पुरिसवरपोंडरीए पुरिसवरगंधहल्ली अड़े दिने विसे विकिछन्नविपुलभवष्णसयणासणजाणवाहणाइने बहुधणबहुजायरूवरजए आओगपओगसंपउने विच्छड्डिय दीप अनुक्रम (३) SAREaratiNNI murary.org श्वेत नामक राज्ञ: वर्णनं ~ 21~ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ----------- मूलं [४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सुत्राक दीप पउरभत्तपाणे बहुदासीदासगोमहिसगबेलप्पभुए पहिपुनर्जतकोसकोट्ठागाराउहयरे बहुदुब्बलपच्चामित्ते ओहयकंटयं मलियकंटयं । काउद्धियकंटयं अप्पडिकटयं ओहयसत्तुं निहयसत्तुं मलियसत्तुं उद्वियसत्तुं निजियसत्तुं पराइयसतुं ववगयदुभिक्खदोसमारिभयविष्प मुकं खेम सिवं सुभिकर्ता पसंतविडमरं रज पसासेमाणे विहरइ । तस्सण सेयोरण्णो धारिणीनाम देवी होत्था, सुकुमालपाणि-16 पाया अहीणपडिपुग्णपंचिंदियसरीरा लक्खणवंजणगुणोववेया माणुम्माणपमाणपडिपुण्णमुजायसव्वंगसुदरंगा ससिसोमागारकंतपि यदसणा सुरूवा करयलपरिमियपसत्यतिबलिवलियमज्झा कुंडलुल्लिहिया वीण ]गंडलेहा कोमुइयरयणियरविमलपडिपुण्णसोमजयणा सिंगारागारचारुवेसा संगयगयहसियभणियचिद्रियविलासललियसलावनिउणजुत्तोचयारकुसला सुंदरचणजघणवयणकर-13 चरणणयणलायण्णविलासकलिया सेएण रण्णा सद्धिं अणुरत्ता अविरत्ता इट्टे सहफरिसे रसरूवगंधे पंचविहे माणुस्सए कामभोगे. पचणुभवमाणा विहरइ' एप राजदेवीवर्णका, अस्य व्याख्या 'महयाहिमवंतेति' महाहिमवान हैमवतस्य क्षेत्रस्योचरतः सीमाकारी वर्षधरपर्वतः मलयः पर्वतविशेषः सुप्रतीतो मन्दरो मेरुर्महेन्द्रः-शक्रादिको देवराजस्तद्वत् सारः प्रधानो महाहिमवन्तमहामलयमन्दर-1 महेन्द्रसारः, तथा अत्यन्तविशुद्ध राजकुलवंशे प्रमूतोऽत्यन्तविशुद्धराजकुलवंशपमूतः, तथा निरन्तरं रायलकखणविराइयंगमंगे' इति । निरन्तरम्-अपलक्षणव्यवधानाभावेन राजलक्षणैः-राज्यभूचकैर्लक्षणविराजितानि अङ्गमङ्गानि-अङ्गप्रत्यङ्गानि यस्य स निरन्तरराजलक्षणविराजिताङ्गमङ्गः, तथा बहुभिर्जनः बहुमानेन-अन्तरङ्गप्रीत्या पूजितो बहुजनबहुमानपूजितः, कस्मादित्याह-'सव्वगुणस-1 सिद्धे' सर्वैः शौर्योपशमादिभिर्गणैः समृद्धः-स्फीतः सर्वगुणसमृद्धः ततो बहुजनबहमानपूजितो,गुणवत्सु प्रायः सर्वेषामपि बहुमानसम्भवात,IPS तथा 'खत्तिये' इति क्षत्रस्यापत्यं क्षत्रियः 'क्षत्रादिय' इति इयपत्ययः, अनेन नवमाष्टमादिनन्दवत् राजकुलप्रमूतोऽपि न हीन-| अनुक्रम S Ninioraryara | धारिणी नामक राज्य: वर्णनं ~ 22 ~ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ----------- मूलं [४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सुत्राक दीप श्रीराजपशी जातीयः, किन्तु उत्तमजातीय इत्यावेदितं, तथा 'मुदितः सर्वकालं हर्पवान् , प्रत्यनीकोपद्रवासम्भवात् , तदसम्भवश्च प्रत्यनीकाना- चेतराजामळयगिरी- मेवाभावात् , तथा चाइ-'मुद्धाभिसित्ते' प्रायः सर्वैरपि प्रत्यन्तराजः प्रतापमसहमान न्यथाऽस्माकं गतिरिति परिभाव्य मूर्द्धभिः- दिपर्युपाया दृत्तिःमस्तकैरभिषिक्तः-पूजितो मूर्धाभिषिक्तः, तथा मातृपितृभ्यां सुजातो मातृपितृसुजातः, अनेन समस्तगर्भाधानप्रभृतिसम्भविदोषविकल सना इत्यावेदितः, तथा दया(द्रव्य)माप्तः स्वभावतः शुद्धजीवद्रव्यत्वात् , तथा सेवागतानामपूर्वापूर्वनृपाणां सीमां-मर्यादा करोति यथा एवं वर्ति॥१०॥ सू०४ तव्यमेवं नेति सीमङ्करः, तथा पूर्वपुरुषपरम्परायाता स्वदेशप्रवर्त्तमानां सीमां-मर्यादांधारयनि-पालयति न तु विलुम्पतीति सीमन्धरः, तथा क्षेमं वशवत्तिनां उपद्रवाभावं करोति लेमङ्करः चौरादिसंहारात् तथा तत् धारयति आरक्षकनियोजनात् क्षेमन्धरः, अत एव | मनुष्येन्द्रः, तथा जनपदस्य पितेव जनपदपिता, कथं पितेवेत्यत आह-'जनपदपाल: जनपदं पालयतीति जनपदपालः, ततो भवति जनपदस्य पितेव, तथा जनपदस्य शान्तिकारितया पुरोहित इच जनपदपुरोहितः, तथा सेतुः-मार्गस्तं करोतीति सेतुकरः, मार्ग-12 देशक इति भावः, केतुः-चिह्न तत्करोतीति केतुकरः, अद्भुतसंविधानकारीति भावः, तथा नरेषु मनुष्येषु मध्ये प्रवरो-नरपवरः, सच सामान्यमनुष्यापेक्षयापि स्यादत आह-'पुरिसवरे' पुरुषेषु-पुरुषाभिमानेषु मध्ये बर:-प्रधान उत्तमपौरुषोपेतत्वादिति पुरुष वरः, यतः पुरुषः सिंह इवापतिमल्लतया पुरुषसिंहः, तथा पुरुषो व्याघ्र इव शूरतया पुरुषव्याघ्रः, पुरुष आसीविष इव दोपविना2शनशीलतया पुरुषासीविषः पुरुषः वरपुण्डरीकमिवोत्तमतया भुवनसरोवरभूषकत्वात् पुरुषवरपुण्डरीका, पुरुषः वरगन्धहस्तीव परानसह- | तामानान् प्रतीति पुरुषवरगन्धहस्ती ततो भवति पुरुषवरः, तथा आढयः समृद्धो दीमः शरीरत्वचा देदीप्यमानत्वात् दृप्सो वा दृप्तारिPमानमर्दनशीलत्वात् अत एव वित्तो-जगत्यतीतो, यदुक्तमाढ्य इति तदेव सास्तिरमुपदर्शयति-'विच्छिण्णेत्यादि, विस्तीर्णानि अनुक्रम ~ 23~ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ----------- मूलं [४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सुत्राक दीप विस्तारवन्ति विपुलानि-अभूतानि भवनानि गृहाणि शयनानि आसनानि च प्रतीतानि यानानि-रथादीनि बाहनानि-अश्वादीन । एतैराकीणों व्याप्तो युक्तो विस्तीर्णविपुलभवनशयनासनयानवाहनाकीर्णः, तथा बहुधनं बहुजातरूपं सुवर्ण रजतं च-रूप्यं यस्य स बहुधनबहुजातरूपरजतः, तथा आयोगप्रयोगसम्पयुक्तः-आवाहनविसर्जनकुशलः, तथा विच्छदितं- तथाविधविशिष्टोपकाराकारिनया विसष्टमकुरिटकादिषु प्रचुर भक्तपानं यस्मिन् राज्यमनुशासति स विच्छर्दितप्रचुरभक्तपानः, अनेन पुण्याधिकतया न तस्मिन राज्यमनुशासति दुर्भिक्षमभूदिति कथितं, तथा बहूनां दासीनां दासानां गां-बलीवानां महिषाणां मां-स्त्रीगवानां एडकानां च प्रभुः बहुदासीदासगोमहिपगवेलगप्रभुः, ततः स्वार्थिकमत्ययविधानात् प्रभुकः, तथा परिपूर्णानि भृतानि यन्त्रकोशकोष्ठागाराणि यन्त्रगृहाणि कोशगृहाणि भाण्डागाराणि कोष्ठयहाणि धान्याना कोष्ठागाराणि गृहाणि इति भावः, आयुधगृहाणि च यस्य स पतिपूर्णयन्त्रकोशकोष्ठामारायुधगृहः, तथा बलं शारीरिक मानसिकं च यस्यास्ति सबलवान्, दुर्बलपल्ययमित्रो, दुर्बलानामकारणवत्सल इति भावः, एवंभूतः सन् राज्य प्रशासन विहरति अवतिष्ठते इति योगः, कथम्भूतं राज्यमित्याह-अपहतकण्टक, इह देशोपद्रव कारिणश्चरटाः कण्टकाः ते अपहता अवकाशानासादनेन स्थगिता यस्मिन् तत् अपहतकण्टकं, तथा मलिताः-उपद्रवं कुर्वाणा मानकाम्लानिमापादिताः कण्टका यत्र तन्मलितकण्टक, तथा उद्धताः स्वदेशत्याजनेन जीवितत्याजनेन वा कण्टका यत्र तत् उद्धृतकण्टकं, तथा न विद्यते प्रतिमल्लः कण्टको यत्र तदप्रतिमल्लकण्टक, तथा 'ओहयसत्तु इति प्रत्यनीकाः राजानः शत्रबस्ते अपहताः स्वावकाशमलभमानीकता यत्र तत् अपहतशत्रु तथा निहताः-रणाङ्गणे पातिताः शत्रबो यत्र तनिहतशत्रु, तथा मलिता:-तगतसैन्यत्रासापादनतो मान-1 ग्लानिमापादिताः शत्रचो यत्र तत् मलितशत्र, तथा स्वातन्त्र्ययावनेन स्वदेशच्यावनेन जीवितच्यावनेन वा उद्धताः शत्रचा यत्र तत् । अनुक्रम [४] REmiratininewl TEmastaram.org ~ 24~ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ----------- मूलं [४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सत्राका [४] दीप श्रीरामपश्नी उद्धृतशत्रु, एतदेव विशेषणद्वयेन व्याचष्टे-निर्जितशत्रु, पराजितशत्रु, तथा व्यपगतं दुर्भिक्ष दोषो मारिश्च यत्र तत् व्यपगतदुर्भिक्षदोप- चेतराजामलयगिरी-||मारि, तथा भयेन स्वदेशोत्थेन परचक्रकृतेन वा विषमुक्तं, अत एव क्षेम-निरुपद्रवं शिव-शान्तं सुभिक्षं शोभना-शुभा भिक्षा दर्शनिनादिपर्युपाया वृत्तिः दीनानाथादीनां च यत्र तत् सुभिक्षं, तथा प्रशान्तानि डिम्बानि-विघ्ना डमराणि-राजकुमारादिकृतषिकृतविड्वरा यत्र तत्पशान्तडिम्बडमरं। सना देवीवर्णकं-'मुकुमालपाणिपाया' इति सुकुमारी पाणी पादौ च यस्याः सा मुकुमारपाणिपादा, तथा अहीनानि-अन्पूनानि स्वरूपतः प्रतिपूर्णानि लक्षणतः पश्चापीन्द्रियाणि यस्मिन् तथाविधं शरीरं यस्याः सा अहीनप्रतिपूर्णपश्चेन्द्रियशरीरा, तथा लक्षणानि स्वस्तिकचका- ०४ शादीनि व्य अनानि मषीनिलकादीनि गुणाः-सौभाग्यादयस्तैरुपपेता लक्षणव्यञ्जनगुणोपपेना, उप अप इन इतिशब्दप्रयस्थाने हपृषोदरादय' इत्यपाकारस्य लोपे उपपेता इति द्रष्टव्यं, 'माणुम्माणपमाणपटिपुण्णसुजायसब्वंगसुंदरंगी' इति तत्र मानं जलद्रोण प्रमाणता, कथमिति चेत् , उच्यते, जलस्यातिभृते कुण्डे पुरुषे खियां वा निवेशितायां यजलं निस्सरति तयदि द्रोणप्रमाणं भवति । पुष्प तदा पुरुषः स्त्री वा मानप्राप्त उच्यते, तथा उन्मानं-अर्द्धभारप्रमाणता, सा चैवं-तुलायामारोपितः पुरुषः स्त्री वा यवर्द्धभारं तुलति तदा स उन्मानप्राप्तोऽभिधीयते, प्रमाणं-स्वाग्लेनाष्टोत्तरशतोच्छयिता, ततो मानोन्मानप्रमाणः प्रतिपूण्णानि-अन्यूनानि सुजातानिजन्मदोपरहितानि सर्वाणि अङ्गानि शिरप्रभृतीनि यानि नै सुन्दराङ्गी मानोन्मानप्रमाणप्रतिपूर्णसुजातसर्वाङ्गसुन्दराङ्गी, तथा शशिवत्सोमाकारम् अरौद्राकारं कान्तं-कमनीयं मियं-द्रष्टणामानन्दोत्पादक दर्शनं रूपं यस्याः सा शशिसोमाकारकान्तप्रियदर्शना, | अत एव मुरूपा, तथा करतलपरिमितो मुष्टिग्राह्यः प्रशस्तलक्षणोपेतत्रिवलीको-चलित्रयोपतो रेखात्रयोपेतो बलिको बलवान मध्योमध्यभागो यस्याः सा करतलपरिमितप्रशस्तत्रिवलीकवलिकमध्या, तथा कुण्डलाभ्यां उल्लिखिता-घृष्टा गण्डलेखा-कपोलविरचितमृग अनुक्रम ~ 25~ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ----------- मूलं [४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: मदादिरेखा यस्याः सा कुण्डलोल्लिखितगण्डलेखा, 'कोमुईयरयणियरविमलपडिपुण्णसोमवयणा' कौमुदी-कार्तिकीपौर्णमासी तस्यां | रजनिकर:-चंद्रमास्तद्वद्विमलं-निर्मलं प्रतिपूर्णम्-अन्यूनातिरिक्तमानं सौम्यम्-अरौद्राकारं वदनं यस्याः सा तथा, शुङ्गारस्य-रस विशेषस्यागारमिवागारं, अथवा शृङ्गारो-मण्डनभूषणाटोपस्तत्प्रधान आकार:-आकृतिर्यस्याः सा तथा, चारु बेपो नेपथ्यं यस्याः Saसा तथा, ततः कर्मधारयः, शृङ्गारागारचारुवेपा, तथा सङ्गता ये गतहसितभणितचेष्टितविलासललितसलापनिपुणयुक्तोपचार कुशला, तत्र सङ्गन्तं नासङ्गतं गतं यदगुप्ततया तद्गृहस्यैवान्तर्गमन न तु बहिः स्वेच्छाचारितया सङ्गतं हसितं यत्कपोलविकाशमात्र 15 मुचितं न त्वट्टहासादि हसियं कपोलकहकहिय' मिति वचनात, सङ्गत भणितं यत्समागते प्रयोजने नर्मभाणितिपरिहारेण विवक्षितार्थमात्रप्रतिपादनं सङ्गतं चेष्टितं यत्कुचजघनाद्यवयवाच्छादनपरतयोपवेशनशयनोत्थानादि सङ्गन्तो विलासः स्वकुलाचित्येन शृङ्गारादिकरणं, तथा सुन्दरै स्तनजघनवदनकरचरणनयनलावण्यविलासैः कलिता, अब विलासः स्थानासनगमनादिरूपचेष्टाविशेषः, उक्तं च "स्थानासनगमनाना, हस्तभूनेत्रकर्मणां चैव । उत्पयते विशेषो यः श्लिष्टोऽसौ विलासः स्यात ॥१॥ अन्ये त्वाः-विलासो नेत्रजो विकारः, तथा चोक्त-" हावो मुखविकारः स्यात , भावश्चित्तसमुद्भवः । बिलासो नेत्रजो ज्ञेयो, विभ्रमो भ्रूसमुद्भवः ॥१॥"ते णं कालेणं ते णं समएणं समणे भगवं महावीरे जाव चउतीसवुद्धवयणाइसेससंपने पणतीस-10 सच्चवयणातिसेससंपत्ते आगासगएणं चक्केणं आगासगतेणं छत्तेणं आगासगयाहिं सेयचामराहिं आगासफालिहमएणं सपायपीटेण सीहासणेण पुरतो धम्मज्झएणं पगढिजमाणेणं चउदसहि समणसाहस्सीहिं छत्तीसाए अज्जियासाहस्सीहिं सद्धिं सम्परिचुडे । पुच्वाणुपुचि चरमाणे गामाणुगाम दुइज्जमाणे सुई सुहेणं विहरमाणे जेणेव आमलकप्पा नयरी जेणेच वणसंडे जेणेव अनुक्रम Saintaintino d A murary.orm ~ 26~ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ----------- मूलं [४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सना सुत्राक दीप श्रीराजपनी असोगवरपायवे जेणेव पुढविसिलाप? तेणेव उवागच्छद, २ ता अहापडिरूवं उग्गहें उम्पिण्डिचा असोगवरपायवस्स अहे चेतराजामलयगिरी- पुदविसिलापट्टगंसि पुरत्याभिमुहे संपलिअंनिसने संजमेणं तवसा अप्पाणं भावमाणे विहरति" । इदं सुगम, नवरं 'जाव | दिपर्युपाया वृत्तिः । चोचीसाए' इत्यत्र यावच्छब्दकरणात् 'आइफरे तित्वगरे' इत्यादिकः समस्तोऽपि औषपातिकग्रन्थप्रसिद्धो भगवद्वर्णको वाच्यः, स ॥१२॥ चातिगरीयानिति न लिख्यते, केवलमौपपातिकग्रन्थादवसेयः, 'चोत्तीसाए बुद्धबयणातिसेससंपने ' चतुर्विंशद् बुद्धानां भगवता-IN महतां वचनप्रमुखाः 'सर्वस्वभाषानुगतं वचनं धर्मावबोधकररमित्यादिना उक्तस्वरूपा ये अतिशेषा-अतिशयास्तान प्राप्तश्चतुखिंशकाबुद्धवचनातिशेपसम्पाप्तः, इह वचनातिशेषस्योपादानमत्यन्तोपकारितया प्राधान्यख्यापनार्थम् , अन्यथा देहवैमल्यादयस्ते पश्यन्ते, तथा ( चाह)-देहं विमलमुगन्धं आमयपस्सेयवज्जियं अरयं । रुहिरं गोक्खीराभं निविसं पंडुरं मंस ॥१॥ मित्यादि, 'पणती|साए सवयणातिसेससंपत्ते पञ्चत्रिंशत् ये सत्यवचनस्यातिशेषा-अतिशयास्तान् सम्पाप्तः पञ्चत्रिंशद्वचनातिशेषसम्माप्तः, ते चामी सत्यवचनातिशेषाः-संस्कारवत्त्वं १ उदात्तत्वं २ उपचारोपेतत्वं ३ गम्भीरशब्दत्वं ४ अनुनादित्वं ५ दक्षिणत्वं ६ उपनीत रागत्वं ७ महार्थत्वं ८ अव्याहतपौर्वापर्यत्वं ९ शिष्टत्वं १० असन्दिग्धत्वं ११ अपहृतान्योत्तरत्वं १२ हृदयग्राहित्वं १३ देशकालवायुतत्वं १४ तत्त्वानुरूपत्वं १५ अप्रकीर्णप्रसूतत्वं १६ अन्योन्यगृहीतत्वं १७ अभिजातत्वं १८ अतिस्निग्धमधुरत्वं १९ अपरममे-| विधित्वं २० अर्थधर्माभ्यासानपेतत्वं २१ उदारत्वं २२ परनिन्दात्मोत्कर्षविप्रमुक्तत्वं २३ उपगतश्लाघत्वं २४ अनपनीतलं २५ उत्पादिताविच्छिन्नकौतूहलत्वं २६ अद्भुतत्वं २७ अनतिविलम्बित्वं २८ विभ्रमविक्षेपफिलिकिश्चितादिवियुक्तत्वं २९ अनेकजाति-| ॥१२॥ संश्रयाविचित्रत्वं ३० आहितविशेषत्वं ३१ साकारत्वं ३२ सत्त्वपरिगृहीतत्वं ३३ अपरिखेदितत्वं ३४ अव्युच्छेदित्वं ३५ चेति, अनुक्रम | तिर्थकरस्य ३५ वचनातिशया: ~ 27~ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) प्रत सूत्रांक [४] दीप अनुक्रम [४] “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र - १ (मूलं + वृत्तिः ) मूलं [४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [१३] उपांग सूत्र [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः Jan Eucator तत्र संस्कारवत्वं संस्कृतादिलक्षणयुक्तत्वं, उदात्तत्वं उच्चैर्वृत्तिता उपचारोपेतत्वम्-अग्राम्यता, गम्भीरशब्दत्वं मेघस्येव, अनुनादिता प्रतिरवोपेतत्वं दक्षिणत्वं सरलता, उपनीतरागत्वं उत्पादिता श्रोतृजने स्वविषयवहुमानता, एते सप्त शब्दापेक्षा अतिशयाः, अत ॐ ऊर्द्ध त्वर्थाश्रयाः, तत्र महार्थत्वं परिपुष्टार्थाभिधायिता, अव्याहतपौर्वापर्यत्वं पूर्वापरवाक्याविरोधः शिष्टत्वं वक्तुः शिष्टत्वसूचनात् असन्दिग्धत्वं परिस्फुटार्थप्रतिपादनात् अपद्रुतान्योचरत्वं-परदूषणाविषयता, हृदयग्राहित्वं- दुर्गमस्याप्यर्थस्य परहृदये मवेशकरणं, देशकालाव्यतीतत्वं प्रस्तावोचितता, तत्त्वानुरूपत्वं विवक्षितवस्तुस्वरूपानुसारिता, अप्रकीर्णमसृतत्वं सम्बन्धाधिकारपरिमितता, अन्योऽन्यमगृहीतत्वं पदानां वाक्यानां वा परस्परसापेक्षता, अभिजातत्वं यथाविवक्षितार्थाभिधानशीलता, अतिस्निग्धमधुरत्वं वुश्चक्षितस्य घृतगुडादिवत्परमसुखकारिता, अपरममैवेधित्वं परममनुङ्घट्टनशीलता, अर्थधर्माभ्यासानपेतत्वं- अर्थधर्म्मप्रतिबद्धता, उदारत्वं अतिविशिष्टगुम्फगुणयुक्तता अतुच्छार्थप्रतिपादकता वा, परनिन्दात्मोत्कर्षविप्रयुक्तत्वं प्रतीतं, उपगतश्लाघत्वंउक्तगुणयोगतः प्राप्तश्लाघता, अनुपनीतत्वं- कारककालवचनलिङ्गादिव्यत्ययरूपवचनदोषापेतता, उत्पादिताविच्छिन्नकुतूहलत्वंश्रोतॄणां स्वविषये उत्पादितं जनितमविच्छिन्नं कौतूहलं कौतुकं येन तस्या तद्भावस्तत्त्वं श्रोतृषु स्वविषयाद्भुतविस्मयकारितेति भावः, अद्भुतत्वमनतिविलम्बित्वं च प्रनीतं विभ्रमविक्षेपकिलिकेिश्चितादिवियुक्तत्वामिति - विभ्रमो वक्तुर्भ्रान्तमनस्कता विक्षेपो वक्तुरेवाभिधेॐ या प्रत्यनासक्तता किलिकिञ्चितं रोषभयलोभादिभावानां युगपदसकृत्करणं आदिशब्दान्मनोदोषान्तरपरिग्रहः तैर्वियुक्तं यत्तत्तथा तद्भावस्तत्त्वं, अनेकजातिसंश्रयाद्विचित्रत्वं सर्वभाषानुयायितया चित्ररूपता, आहितविशेषत्वं शेषपुरुषवचनापेक्षया शिष्येषूत्पादितमतिविशेषता, साकारत्वं विच्छिन्नपदवाक्यता, सत्त्वपरिगृहीतत्वम् - ओजस्विता, अपरिखेदित्वम् - अनायाससम्वात्, अव्यवच्छेदित्वं ३ तिर्थंकरस्य ३५ वचनातिशया For Penal Use On ~ 28~ 4020305630 Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ------------ मूलं [४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: श्रीराजप्रश्नी मलयगिरी या वृत्तिः प्रत सुत्राक ४ ॥ १३ ॥ दीप विवक्षितार्थसम्यसिद्धिं यावदविच्छिन्नवचनप्रमेयतेति । 'आगासफालियामएणं' आकाशस्फटिक-यदाकाशवत् अतिस्परछ स्फटिक राजादिपर्यतन्मयेन 'धम्मज्झएणति धर्मचक्रवर्तित्वमुचकेन केतुना महेन्द्रध्वजेनेत्यर्थः, तथा 'पुब्बाणुपुचि चरमाणे' इति पूर्वानुपूर्व्या क्रमेणे पासना त्यर्थः चरन् सश्चरन् , एतदेवाह-'गामाणुगाम दूइज्जमाणे' इति ग्रामथानुग्रामच-विवक्षिलग्रामादनन्तरं ग्रामो ग्रामानुग्राम, तत् द्रचन्गच्छन् , एकस्मादनन्तरं ग्राममनुल्लङ्ग्यन् इत्यर्थः, अनेनापतिबद्धविहारिता ख्यापिता, तत्राप्यौत्सुक्याभावमाह-'सुहसुहेणं म्०४ विहरमाणे' सुखसुखेन-शरीरखेदाभावेन संयमवाधाविरहेण च ग्रामादिषु विहरन-अवतिष्ठमानो 'जेणेवेति प्राकृतत्वात्सप्तम्यर्थे । तृतीया यस्मिन्नेव देशे आमलकल्पा नगरी यस्मिन्नेव च प्रदेशे वनखण्डो यस्मिन्नेव देशे सोऽनन्तरोक्तस्वरूपः शिलापट्टकः 'तेणामेवेति| तस्मिन्नेव देशे उपागच्छति, उपागत्य च पृथिवीशिलापट्टके पूर्वाभिमुखः, तीर्थकृतो हि भगवन्तः सदा समवसरणे पृथिवीशिला-- पट्टके वा देशनाय पूर्वाभिमुखा अवतिष्ठन्ते संपर्यडूनिषण्णाः, संयमेन तपसा चात्मानं भावयन् विहरन आस्ते।। ततः पर्षनिगमो वाच्यः, स चवं 'तए णं आमलकप्पानयरीए सिंघाडगतियचउकचच्चरचउम्मुहमहापहेसु बहुजणो अण्णमण्णं एवमाइकखद एवं भासेइ एवं पण्णवेइ एवं परूवेइ-एवं खलु देवाणुप्पिया ! समणे भगवं महावीरे जाव आगासगएणं छत्तेणं जाव संजमेणं नवसा अप्पाणं| भावमाणे विहरति, तं महाफलं खलु देवाणुप्पियाणं तहारूवाणं अरहताणं नामगोयस्सवि सवणयाए किमंग पुण अभिगमणबंदणनसणपटिपुच्छणपज्जुवासणयाए, सेयं खलु एगस्सवि आयरियस्स धम्मियस्स सुवयणस्स सवणयाए, किमंग पुण विउलस्स ॥१३॥ अस्स गहणयाए ?, तं गच्छामो णं देवाणुपिया! समणं भगवं महावीरं वदामी णमंसामो सकारेमो सम्माणेमो कल्लाणं मंगलं देवयं इयं पज्जुवासेमो, एयं तं इहभवे परभवे य हियाए (सुहाए खमाए निस्सेसाए) आणुगामियत्ताए भविस्सइ, तए णं आमलकप्पाए. अनुक्रम Tanasaram.org ~ 29~ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) प्रत सूत्रांक [४] दीप अनुक्रम [8] “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र - १ (मूलं + वृत्तिः ) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. सूर्याभदेवस्य वर्णनं मूलं [४] आगमसूत्र [१३], उपांग सूत्र [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि प्रणीत वृत्तिः नयरीए वहवे उम्गा भोगा' इत्याद्योपपातिकग्रन्थोक्तं सर्वमवसातव्यं यावत् समग्राऽपि राजप्रभृतिका परिषत्पर्युपासीना अवतिष्ठते ॥ तणं काले णं णं समए णं सरियाभे देवे सोहम्मे कप्पे सरियाभे विमाणे सभाए सुहम्माए सूरियाभांस सिंहासांसि चउहिं सामाणियसाहस्सीहिं चउहिं अग्गमहिसीहिं सपरिवाराहिं तिहिं परिसाहिं सचाहिँ अणियाहिं सतहिं अणियाहिवईहिं सोलसहिं आयरकुखदेवसाहसीहिं अनेहि य बहूहिं सरियाभविमाणवासीहिं वैमाणिएहिं देवेहिं देवीहि य सद्धिं संपरिवुडे महयाऽऽहयनगीयवाइयततीतलतालतुडियघणमुइंगपडुप्पवादियरवेणं दिव्वाई भोगभोगाई भुंजमाणे विहरति, इमं च णं केवलकप्पं जंबुद्दीव दीवं विउलेणं ओहिणा आभोएमाणे २ पासति । ' ते णं काले ण'मित्यादि, ते इति प्राकृतशैलीवशात्तस्मिन्निति द्रष्टव्यं यस्मिन्काले भगवान् वर्द्धमानस्वामी साक्षाद्विहरति तस्मि न्काले 'ते णं समए णंति तस्मिन् समये यस्मिन्नवसरे भगवानाम्रशा लवने चैत्ये देशनां कृत्वोपरतस्तस्मिन्नवसरे इति भावः, सूर्याभो नाम्ना देवो, नामशब्दो ह्यन्ययरूपोऽप्यस्ति, ततो विभक्तिलोपः, ततो सौधर्म्माख्ये कल्पे यत्सूर्याभनामकं विमानं तस्मिन् या सभा सुधर्माभिधा तस्यां यत्सूर्याभाभिधानं सिंहासनं तत्रोपविष्टः सन्निति गम्यते, 'चडहिं सामाणियसाहस्सीहिं' इति समायुने तिविभॐ वादौ भवाः सामानिकाः, अध्यात्मादित्वादिकण, विमानाधिपति सूर्याभदेवसदृशद्युतिविभवादिका देवा इत्यर्थः, ते च मातृपितृगुरूपाध्यायमहत्तरवत्सूर्याभदेवस्य पूजनीयाः, केवल विमानाविपतित्वहीना इति सूर्याभं देवं स्वामिनं प्रतिपन्नाः तेषां सहस्राणि सामा For Parts Use Only अत्र सूर्याभदेवस्य प्रकरणं आरभ्यते ~30~ andrary org Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ----------- मूलं [५...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: सूर्याभेण वीरदर्शन श्रीराजमश्नीनिकसहस्राणि तैश्चतुर्भिः, प्राकृतत्वाच्च मूत्रे सकारस्य दीर्घत्वं स्त्रीत्वं च, 'चतमभिरग्रमहिषीभिः" इह कृताभिषेका देवी महिषीत्युच्यते, मलयगिरी- सा च स्वपरिवारभूतानां सर्वासामपि देवीनामग्रे इत्यग्राः, अग्राश्च ता महिण्यश्च अग्रमहिष्यस्ताभिश्चतमभिः, कथम्भूताभिरित्याह-'सपरि- या वृत्तिः चाराभिः परिवारः सह यास ताः सपरिवारास्ताभिः, परिवारश्चैकैकस्या देव्याः सहस्र २ देवीना, तथा तिमभिः पर्षदिः, तिस्रो हि विमानाधिपतेः सर्वस्यापि पर्षदः, तद्यथा-अभ्यन्तरा मध्या बाह्या च, तत्र या वयस्यमण्डलीकस्थानीया परममित्रसंहतिसदृशी सा 0 ॥१४॥ अभ्यन्तरपर्षत , तया सहापर्यालोचितं स्वल्पमपि प्रयोजनं न विदधाति, अभ्यन्तरपर्षदा सह पर्यालोचितं यस्यै निवेयते यथेदमस्माकं पर्यालोचितं सम्मतमागतं युष्माकमपीद सम्मतं किंवा नेति सा मध्यमा, यस्याः पुनरभ्यन्तरपर्पदा सह पर्यालोचितं मध्यमया। च सह दृढीकृतं यस्यै करणायैव निरूप्यते यथेदं क्रियतामिति सा बाह्या, तथा 'सत्तर्हि अणिएहि इति अनीकानि-सन्यानि, तानि च सप्त, तद्यथा-हयानीकं गजानीक रथानीकं पदात्पनीकं वृषभानीकं गन्धर्वानीक नाव्यानीक, तत्राद्यानि पश्चानीकानि सङ्ग्रामाय कल्प्यन्ते, गन्धर्वनाव्यानाके पुनरुपभोगाय, तैः सप्तभिरनीकैः, अनीकानि स्वस्वाधिपतिव्यतिरेकेण न सम्यक् प्रयोजने समागते सत्पुपकल्प्यन्ते ततः सप्तानीकाधिपतयोऽपि तस्य वेदितव्याः, तथा चाह- 'सत्चहि अणियाहिवइहि, तथा 'पोडशभिरात्मर-- देवसहर'रिति विमानाधिपतेः सूर्याभस्य देवस्यात्मानं रक्षयन्तीत्यात्मरक्षाः, 'कर्मणोऽणि त्यण् प्रत्ययः, ते च शिरस्त्राणकल्पाः, यथा हि शिरखाणं शिरस्याविद्धं पाणरक्षकं भवति तथा तेऽप्यात्मरक्षका गृहीतधनुर्दण्डादिपरहरणाः समन्ततः पृष्ठतः पार्थतोऽग्रतअश्वावस्थायिनो विमानाधिपतेः सूर्याभस्य देवस्य प्राणरक्षकाः, देवानामपायाभावात् तेषां तथाग्रहणपुरस्सरमवस्थानं निरर्थकमिति अचेत्, न, स्थितिमात्रपरिपालनहेतुत्वात् प्रकर्षहेतुत्वाच्च, तथा हि ते समन्ततः सर्वासु दिक्षु गृहीताहरणा ऊर्द्धस्थिता अवति गानाः अनुक्रम ॥१४॥ Santaratun. i n Munaturanorm सूर्याभदेवस्य वर्णन ~31~ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ----------- मूलं [५...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्राक ५ दीप स्वनायकशरीररक्षणपरायणाः स्वनायकैकनिषण्णदृष्टयः परेषामसहमानानां क्षोभमापादयन्तो जनयन्ति स्वनायकस्य परां प्रीतिमिति, एते च नियतसङ्ख्याकाः मूर्याभस्य देवस्य परिधारभूता देवा उक्ताः, ये तु तस्मिन् सूर्याभे विमाने पौरजनपदस्थानीया ये त्वाभि| योग्याः-दासकल्पास्तेऽतिभूयांसः आस्थानमण्डल्यामपि चानियत्तसङ्ख्याका इति तेषां सामान्यत उपादानमाह-'अन्नेहिं यहूहि मूरियाभविमाणवासीहिं देवेहिं देवीहि य सद्धिं संपरियुडे' एतैः सामानिकप्रभृतिभिः सार्द्ध संपरितृतः-सम्यग्नायकैकचित्ताराधनपरतया परिसृतः, 'महयाऽऽहये त्यादि, महता रवेणेति योगः 'आया' इति आख्यानकातिबद्धानीति वृद्धाः, अथवा अहतानि-अव्याहतानि, अक्षतानीति भावः, नाट्यगीतवादितानि च तन्त्री-वीणा तला-हस्ततालाः कंसिका तुटितानि-शेषतूर्याणि, तथा घनो-धनसहशो ध्वनिसाधर्म्यत्वात यो मृदगी-मईल: पटुना-दक्षपुरुपेण प्रवादितः, तत एतेषां पदानां द्वन्दः, तेषां यो वस्तेन, दिव्यान्-दिवि भवान् अतिप्रधानानित्यर्थः, 'भोगभोगाई' इति भोगार्हा ये भोगाः-शब्दादयस्तान् , मूत्रे नपुंसकता पाकृतत्वात् , प्राकृते हि लिङ्गव्यभिचारः, यदाह पाणिनिः स्वप्राकृतलक्षणे-लिङ्ग व्यभिचार्यपी ति, भुञ्जानो 'विहरति आस्ते, न केवलमास्ते किंत्विम-प्रत्यक्षतया उपलभ्यमान 'केबलकल्या ईपदपरिसमाप्त केवलं केवलज्ञानं केवलकल्पं, परिपूर्णतया केवलसदृशमिति भावः, जम्चा रत्नभय्या उत्तरकुरुवा-|| |सिन्या उपलक्षितो द्वीपो जम्बूद्वीपस्तं जम्बूद्रीपाभिधानं दीपं 'विपुलेन' विस्तीर्णनावधिना, तस्य हि मूर्याभस्य देवस्यावधिरधः प्रथमां पृथिवीं यावत्तिर्यक् असङ्ख्येयान् द्वीपसमुद्रानिति भवति विस्तीर्णस्तेनाभोगयन्-परिभावयन् पश्यति, अनेन सत्यप्यवधी यदि तं ज्ञेयविषयमाभोग न करोति तदा न किश्चिदपि तेन जानाति पश्यति वेत्यावेदितं ॥ तत्थ समणं भगवं महाबीरं जंबूद्दीवे भारहे वासे आमलकप्पाए नयरीए बहिया अंवसालवणे चेहए अनुक्रम SAREmiration सूर्याभदेवस्य वर्णन ~ 32 ~ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ----------- मूलं [...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: श्रीराजप्रश्नी मलयगिरी सूर्याभेण वीरदर्शन प्रत या वृत्तिः सुत्राक ॥१५॥ (५) अहापडिरुवं उंग्गह उग्गिणिहत्ता संजमणं तवसा अप्पाणं भावमाणं पासति, पासित्ता हद्वट्ठचित्तमाणदिए णदिए पीइमणे परमसोमणस्सिए हरिसवसविसप्पमाणहियए विकसियवरकमलणयणे पयलियवरकडगतुडियकेउरमउडकुंडलहारविरायंतरइयवच्छे पालंबपलंबमाणघोलंतभूमणधरे ससंभमं तुरियचवलं सुरवरे (जाव)[सीहासणाओ अब्भुढेइ २ चा पायपीढाओ पञ्चोरुहति, २ चा एगसाडियं उत्तरासंगं करति, २त्ता सनट्रपयाई तित्थयराभिमुहे अणुगच्छति. २सा वाम जाणं अंचेति. २ ना दाहिणं जाणुं धरणितलंसि णिहहु तिखुनो मुद्धाणं धरणितलंसि णिवेसेइ, णिवेसित्ता ईसिं पचुन्नमइ, ईसिं पभुन्नमइत्ता करतलपरिग्गहियं दसणहं सिरसावनं मत्थए अंजलिं कड्ड एवं वयासी-णमोऽत्थु णं अरिहंताणं भगवंताणं आदिगराणं तित्थगराणं सयंसंबुद्धाणं पुरिसोत्तमाणं पुरिससीहाणं पुरिसवरपुंडरीयाणं पुरिसवरगंधहत्थीणं लोगुत्तमाणं लोगनाहाणं लोगहिआणं लोगपईवाणं लोगपज्जोयगराणं अभयदयाणं चखुदयाणं मग्गदयाणं जीवदयाणं सरणयाण बोहिदयाणं धम्मयाणं धम्मदेसयाणं धम्मनायगाणं धम्मसारहीणं धम्मवरचाउरंतचक्कवट्ठीणं अप्पडिहयवरनाणदसणधराणं वियदृच्छउमाणं जिणाणं जावयाणं तिषणाणं तारयाण बुद्धाणं बोहयाणं मुत्ताणं मोयगाणं सम्वन्नूर्ण सव्वदरसीणं सिवमयलमरुयमणंतमल्सयमवाचाहमपुणरावनं सिद्धिगइनामधेयं ठाणं संपचाणं, नमोऽस्थु ण समणस्स भगवओ दीप अनुक्रम SAMEmirathun W eenetaram.org | भगवन्त महावीरस्य वन्दनार्थे सूर्याभदेवस्य आगमनं ~33~ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) प्रत सूत्रांक [4] दीप अनुक्रम [4] “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र - १ (मूलं + वृत्तिः) मूलं [...] आगमसूत्र [१३], उपांग सूत्र [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. महावीरस्स जाव संपाविउकामस्स, वंदामि णं भगवन्तं तत्थगयं इह गते ] पासद मे भगवं तत्थ ग इहगतंतिकटु वंदति णमंसति वंदित्ता णमंसित्ता सीहासणवरगए पुव्याभिमुहं सण्णिसण्णे । ( सू० ५ ) तप णं तस सुरियाभस इमे तारूवे अन्भत्थिते चिंतिते मणोगते संकप्पे समुपज्जित्था 'तत्र' तस्मिन्विपुलेनावधिना जम्बूद्वीपविषये दर्शने प्रवर्तमाने सति 'श्रमणं' श्राम्यति तपस्यति नानाविधमिति श्रमणः, भगःसमग्रैश्वर्यादिलक्षणः, उक्तं च- “ऐश्वर्यस्य समग्रस्य, रूपस्य यशसः श्रियः । धर्मस्याथ प्रयत्नस्य, षण्णां भग इतीङ्गन्ना ॥ १ ॥ " भगोऽस्यास्तीति भगवान् भगवन्तं 'सुर वीर विक्रान्तौ वीरयति - रुपायान् प्रति विक्रामति स्मेति वीरः महाश्वासौ वीरव महावीरस्तं, जम्बूद्वीपे भारते वर्षे आमलकल्पायां नगर्यौ वहिराम्रशालवने चैत्ये अशोकवरपादपस्याधः पृथिवीशिलापट्ट के सम्पर्यङ्कनिषण्णं श्रमणगणसमृद्धिसंपरिवृत प्रतिरूपमवग्रहं गृहीत्वा संयमेन तपसा आत्मानं भावयन्तं पश्यति, दृष्ट्रा च 'हट्टतुद्रुमाणंदिए' इति, दृष्टतुष्टोऽतीवतुष्ट इति भावः, अथवा हृष्टो नाम विस्मयमापन्नो, यथा-अहो भगवानास्ते इति, तुष्टः सन्तोषं कृतवान्, यथा-भव्यमभूत् यन्मया भगवानालोकितः, तोषवशादेव चित्तमानन्दितं स्फीतीभूतं 'टु नदि समृद्धाविति वचनात् यस्य स चित्तानन्दितः, सुखादिदर्शनात्पाक्षिको निष्ठान्तस्य परनिपातः, मकारः प्राकृतत्वादलाक्षणिकस्ततः पदत्रयस्य पदद्वय २ मीलने कर्मधारयः, 'पीमणे ॐ इति' प्रीतिर्मनसि यस्यासौ प्रीतिमनाः, भगवति बहुमानपरायण इति भावः, ततः क्रमेण बहुमानोत्कर्षवशात् 'परमसोमणस्सिए' इति शोभनं मनो यस्य स सुमनास्तस्य भावः सौमनस्यं परमं च तत्सौमनस्यं च परमसौमनस्यं तत्सञ्जातमस्येति परमसौमन | भगवन्त महावीरस्य वन्दनार्थे सूर्याभदेवस्य आगमनं For Par Lise Only ~ 34~ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ----------- मूलं [६...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक श्रीराजपनी स्थितः, एतदेव व्यक्तीकुर्वन्नाह-'हरिसवसविसप्पमाणहियए हर्षवशेन विसर्पत-विस्तारयायि हृदयं यस्य स हर्षवशविसर्पद्ध- वीरवन्दमलयगिरी- दयः, हर्षवशादेव 'वियसियवरकमलनएणे विकसिते वरकमलबत् नयने यस्य स तथा, हर्षवशादेव शरीरोद्धर्षेण 'पयलियवरकड- नाय जिगया वृत्तिःगतुडियकेउरमउडकुंडले ति प्रचलितानि बराणि कटकानिकलाचिकाभरणानि त्रुटितानि-बाहुरक्षकाः केउराणि-बाहाभरण- मिषा विशेषरूपाणि मुकुटो-मौलिभूषणं कुण्डले कर्णाभरणे यस्य स प्रचलितवरकटकत्रुटितकेयूरमुकुटकुण्डलः, तथा हारेण विराजमानेन रचित-शोभितं वक्षो यस्य स हारविराजमानरचिववक्षाः, ततः पूर्वपदेन कर्मधारयः समासः, तथा प्रलम्बतेक इति प्रलम्बा-पदकस्तं प्रलम्बमान-आभरणविशेष घोलन्ति च भूपणानि धरन्तीति प्रलम्बप्रलम्बमानघोलभूषणधरः, मूत्र डच प्रलम्बमानपदस्य विशेष्यात्परतो निपातः प्राकृतत्वात् , हर्षवंशादेव 'ससंभम संभ्रम इह विवक्षितक्रियाया बहुमानपूर्विका प्रवृत्तिः सह सम्भ्रमो यस्य बन्दनस्य नमनस्य वा तत्ससम्भ्रम, क्रियाविशेषणमेतत् , त्वरित-शीघं चपलं-सम्भ्रमवशादेव व्याकुलं यथा भवत्येवं सुरवरो-देववरो यावत्करणात् 'सीहासणाओ अब्भुटेइ अब्भुद्वित्ता पायपीढाओ पच्चोरुहति २ चा पाउयाओ ओमयह ओमुयइत्ता तित्थयराभिमुहे सत्तटुपयाई अणुगच्छइ अणुगच्छित्ता वामं जाणुं अंचेइ [ उत्पाटयति ] दाहिणं जाणुं धरणितलांस | निहहु तिखुत्तो मुद्धाणं धरणितलंसि निमेइ निमित्ता (निवेसेइ २ ता ) ईसिं पच्चुन्नमइ पच्चुन्नमित्ता कडियतुडियर्थभियभुयाओ साहरइ साहरित्ता करयलपरिग्गहियं दसणहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कदु एवं वयासी नमोऽत्यु णं अरिहंताणं भगवंताणं जाव ठाणं संपत्ताणं, नमोऽत्थु णं समणस्स भगवओ महावीरस्स आदिगरस्स तित्थयरस्स जाय संपाविउकामस्स, बंदामि ण भगवंतं तत्व 5 ॥१६॥ गयं इह गए' इति परिग्रहः, पश्यति मां स भगवान् तत्र गत इह गतमिति कृत्वा वन्दते-स्तौति नमस्पति-कायेन मनसा च दीप अनुक्रम | भगवन्त महावीरस्य वन्दनार्थे सूर्याभदेवस्य आगमनं ~35~ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) (१३) ------------ मूलं [६...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक दीप अनुक्रम कावन्दित्या नमस्थित्वा च भूयः सिंहासनवरं गतो गत्वा च पूर्वाभिमुखं सन्निषण्णः।। 'तए णं तस्से 'त्यादि, 'ततो निषदनानन्तरं 'तस्य र्याभदेवस्य अयमेतद्रूपः सङ्कल्पः समुदपद्यत, कथम्भूत इत्याह-'मनोगतः' मनसि गतो-व्यवस्थितो, नाद्यापि वचसा प्रकाशितडास्वरूप इति भावः, पुनः कथम्भूत इत्याह-आध्यात्मिकः आत्मन्यध्यध्यात्म तत्र भव आध्यात्मिकः, आत्मविषय इति भावः, सङ्कल्पश्च द्विधा भवति-कश्चिद् ध्यानात्मकः अपरश्चिन्तात्मकः, तत्रायं चिन्तात्मक इति प्रतिपादनार्थमाह-चिन्तितः चिन्ता सञ्जातास्येति चिन्तितः, चिन्तात्मक इति भावः, सोऽपि कश्चिदभिलाषात्मको भवति कश्चिदन्यथा, तत्रायमभिलाषात्मकः, तथा चाहपार्थितं प्रार्थनं पार्थो णिजन्तत्वात् अल्प्रत्ययः, पार्थः सञ्जातोऽस्येति प्रार्थितः, अभिलापात्मक इति भावः, किंस्वरूप इत्याह एवं (सेयं ) (मे) खलु समणे भगवं महावीरे जंबूद्दीवे दीवे भारहे वामे आमलकप्पाणयरीए बहिया अंबसालवणे चेइए अहापडिरूवं उग्गहं उम्गिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावमाणे विहरति, तं महाफलं खलु तहारूवाणं भगवंताणं णामगोयस्सवि सवणयाए किमंग पुण अहिगमणवंदणणमंसणपडिपुच्छणपज्जुवासणयाए ?, एगस्सवि आयरियस्त धम्मियस्य सुवयणस्स सवणयाए ?, किमंग पुण विउलस्स अट्ठस्स गहणयाए ?,तं गच्छामि णं समणं भगवं महावीरं वदामि णमंसामि सकारेमि सम्माणेमि कल्लाणं मंगलं चेतियं देवयं पज्जुवासामि, एयं मे पेच्चा हियाए सुहाए समाए णिस्सेसाए आणु१ बंदिऊँ नमंसिडे सकारेउं सम्माणेउं (वृत्तिः) २ पज्जुवासिङ ( निः) SAREaratani Maanasaram.org | भगवन्त महावीरस्य वन्दनार्थे सूर्याभदेवस्य आगमनं ~36~ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ----------- मूलं [...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: श्रीराजप्रश्नी मलयगिरीया वृत्तिः ॥१७॥ वरिवन्दनजिगमिषा प्रत सूत्राक दीप अनुक्रम [६] गामियत्ताए भविस्सतित्तिकहु एवं संपहेइ, एवं संपेहिता आभिओगे देवे सदावेद २ ना एवं बयासी (सू०६) -एवं खलु देवाणुप्पिया ! समणे भगवं महावीरे जंबूद्दीवे दीवे भारहे वासे आमलकप्पाए नयरीए पहिया अंबसालवणे चेइए अहापडिरूवं उग्गहं उग्गिण्हिता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरद 'सेयं खलु ' इत्यादि, श्रेयः 'खलु ' निश्चितं 'मे' मम श्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्दितुं कायेन मनसा च पणन्तुं सत्कारयितुं कुसुमाञ्जलिमोचनेन पूजयितुं सन्मानयितुम् उचितपतिपत्तिभिराराधयितुं कल्याणं कल्याणकारित्वात् मङ्गलं दुरितोपशमकारित्वात् दैवतं देवं त्रैलोक्याधिपतित्वात् चैत्यं सुप्रशस्तमनोहेतुत्वात् पर्युपासितुं सेवितुम् ' इतिकृत्वा ' इतिहेतोः ‘एवं' यथा वक्ष्यमाणं तथा 'सम्पेक्षते । बुद्धया परिभावयति, संप्रेक्ष्य च आभियोगिकान्-आभिमुख्येन योजनं अभियोगः--प्रेष्यकर्मसु व्यापार्यमाणत्वं अभियोगेन जीवन्तीत्याभियोगिकाः 'वेतनादेजीवन्तीति इकण्मत्ययः, आभियोगिकाः खकर्मकरास्तान् शब्दापयतिआकारयति शब्दापयित्वा च तेषां सम्मुखमेवमवादीत्-एवं खलु देवानां प्रियाः इत्यादि सुगम, नवरं देवानां मियाःजवः प्राज्ञाः, तं गच्छह णं तुमे देवाणुप्पिया ! जंबूद्दीवं दीवं भारहं वासं आमलकप्पं णयरिं अंबसालवणं चेइयं समणं भगवं महावीरं तिखुनो आयाहिणपयाहिणं करेह करना बंदह णमंसह वंदिता णमंसित्ता साई साई नामगोयाई साहेह साहित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स (सव्वओ समंता) जोयणपरिमंडलं जंकिंचि ॥१७॥ SANEarathindSNIT | भगवन्त महावीरस्य वन्दनार्थे सूर्याभदेवस्य आगमनं ~37~ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्राक ७ि) तणं वा पनं वा कटुं वा सक्करं वा असुई अचोक्खं वा पूइ दुभिगंध सवं आहुणिय आहुणिय एगते एडेह एडेत्ता णचोदगंणाइमट्टियं पविरलपप्फुसियं रयरेणुविणासणं दिव्वं सुरभिगंधोदयवासं वसह वासित्ता णिहयरयं णहरयं भट्ठरयं उवसंतरयं पसंतरयं करेह करित्ता जलथलयभासुरप्पभूयस्स बिंटट्ठाइस्स दसद्धवण्णस्स कुसुमस्स जाणुस्सेहपमाणमिनं ओहिं वासं वासह वासित्ता कालागुरुपवरकुंदुरुकतुरुकधूवमधमघंतगंधुझ्याभिरामं सुगंधवरगंधियं गंधवट्टिभूतं दिव्यं सुरवराभिगमणजोगं करेह कारबह करिता य कारवेना य खिप्पामेव (मम ) एयमाणनियं पञ्चप्पिण्णह (सू०७) 'तं गच्छह णमित्यादि, यस्मादेवं भगवान विहरन् वर्तते तत्-तस्माद्देवानां प्रिया ! यूयं गच्छत जम्बूद्वीपं २ तत्रापि भारत वर्ष । तत्राप्यामलकल्पां नगरी तत्राप्याम्रशालवनं चैत्यं श्रमणं भगवन्तं महावीरं त्रिकुल:-त्रीन् चारान् आदक्षिणप्रदक्षिणं कुरुत, आदक्षिणाद् -दक्षिणहस्तादारभ्य प्रदक्षिणः परितो भ्राम्यतो दक्षिण आदक्षिणप्रदक्षिणस्तं कुरुत, कृत्वा च वन्दध्वं नमस्यत, बन्दित्वा नमस्यित्वाच 'साई साईति' स्वानि र आत्मीयानि २ नामगोत्राणि, गोत्रम्-अन्वर्थस्तेन युक्तानि नामानि नामगोत्राणि, राजदन्तादिदर्शनानामशब्दस्य पूर्वनिपातः, साधयत-कथयत, कथयित्वा च श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य सर्वतः-सासु दिक्षु समन्ततः सर्वासु विदिक्ष योजनपरिमण्डल-परिमाण्डल्येन योजनप्रमाणं यत् क्षेत्र तत्र यत् 'तृणं' किलिश्चादि काष्ठं वा काठशकलं वा पत्रं वा निम्बाऽश्वत्यादिपत्रजातं कचवरं वा-श्लक्ष्णतृणधूल्यादिपुञ्जरूपं, कथम्भूतमित्याह-'अशुचि' अशुचिसमन्वितमचोक्षम्-अपवित्रं पूयितं-कुथितमत एव दुरभि दीप अनुक्रम [७] SAREarathina SINomurary.org | भगवन्त महावीरस्य वन्दनार्थे सूर्याभदेवस्य आगमनं ~ 38~ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ------------ मूलं [७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्राक (७) श्रीराजप्रश्नीगन्धं तत्संवर्तकवातविकुर्वणेनाहत्याहत्य एकान्ते-योजनपरिमण्डलात्क्षेत्रादवीयसि देशे 'एडयत' अपनयत एडयित्वा च नात्युदक आभियोमलयगिरी- नाप्यतिमृत्तिकं यथा भवति एवं सुरभिगन्धोदकवर्ष वर्षत, कथम्भूतमित्याह-दिव्यं प्रधानं सुरभिगन्धोपेतत्वात् , पुनः कथ- गिकस्य बीया वृत्तिः शम्भूतमित्याह-'पविरलपप्फुसिय'मिति प्रकर्षेण यावदेणवः स्थगिता भवन्ति तावन्मात्रेणोत्कर्षेणेति भावः, स्पर्शनानि अस्पृष्टानि प्रवि- रान्तिके धरलानि धनभावे कर्दमसम्भवात् अस्पृष्टानि-प्रकर्षवन्ति स्पर्शनानि मन्दस्पर्शनसम्भवे रेणुस्थगनासम्भवात् यस्मिन्वये तत्प्रविरल- गमनम् प्रस्पृष्टं, अत एव 'रयरेणुविणासणं' श्लक्ष्णतरा रेणुपुद्गला रजः त एव स्थूला रेणवः, रजांसि च रेणवश्च रजोरेणवस्तेषां विनाशनं, काएवम्भूतं च सुरभिगन्धोदक वर्ष वर्षिया योजनपरिमण्डलं क्षेत्रं निहतरजः कुरुतेति योगः, निहतं रजो भूय उत्थानासम्भवात् यत्र तनिहतरजः, तत्र निहतत्वं रजसः क्षणमात्रमुत्थानाभावेनापि सम्भवति तत आह नष्टरजः-नष्टं सर्वथाऽदृश्यीभूतं रजो यत्र तन्नष्टरजः, तथा भ्रष्टुं-बातोद्भूततया योजनमात्रात् क्षेत्रात दूरतः पलायितं रजो यस्मात्तद् भ्रष्टरजः, एतदेव एकाथिंकद्वयेन प्रकटयति-उपशान्तरजः प्रशान्तरजः कुरुत, कृत्वा च कुसुमस्य जाताचेकवचनं कुसुमजातस्य जानूत्सेधप्रमाणमात्रमोघेन-सामान्येन सर्वत्र योजनपरिमण्डले क्षेत्र वर्ष वपत, किंविशिष्टस्य कुसुमस्येत्याह-'जलथलयभासुरप्पभूयस्स' जलजं च स्थलजं च जलस्थलजं जलज पनादि स्थल विचकिलादि भास्वर-दीप्यमानं प्रभू-अतिप्रचुर, ततः कर्मधारयः, भास्वरं च तत्पभूतं च भास्वरप्रभूतं जलजस्थलजं च तत् भास्वरप्रभूतं च जलजस्थलजभास्वरमभूतं तस्य, पुनः कथम्भूतस्पेत्याह-'विंटट्ठाइस्स' वृन्तेन अधोवर्तिनातिष्ठतीत्येवंशीलं वृन्तस्थायि तस्य वृन्तस्थायिनः, वृन्तमधोभागे उपरि पत्राणीत्येवं स्थानशीलस्येत्यर्थः, 'दसद्धवनस्स' दशानामर्दै पश्च दशार्दै वर्णा यस्य तद् दशार्द्धवर्णं तस्य पश्चवर्णस्येति भावः, इत्थम्भूतस्य च कुसुमजातस्य वर्ष वर्णित्वा ततः योजनपरि दीप अनुक्रम REairatom indian ForFreePINEUMOM भगवन्त महावीरस्य वन्दनार्थे सूर्याभदेवस्य आभियोगिक-देवानाम् आगमनं ~ 39~ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ----------- मूलं [७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्राक ७ि) मण्डलं क्षेत्रं दिव्य-प्रधानं सुरवराभिगमनयोग्यं कुरुत, कथम्भूतं सत् कृत्वा सुरवराभिगमनयोग्यं कुरुतेत्यत आह-'कालागुरुपवरकंद-13 रुकतरुकवमघमघंतगंधुद्धयाभिरामं कालागुरुः प्रसिद्धः प्रवर:-प्रधानः कुन्दुरुक:-चीडा तुरुक-सिल्हक कालागुरुच प्रवरकुन्दरुक-10 कातुरुकी च कालागुरुपवरकुन्दुरुकतुरुकाः तेषां धूपस्य यो मघमघायमानो गन्धः उद्धृतः-इतस्ततो विप्रमृतस्तेनाभिराम-रमणीयं कालागुरुमवरकुन्दुरुकतुरुकधूपमघमघायमानगन्धोद्भूताभिरामं तथा शोभनो गन्धो येषां ते सुगन्धास्ते च ने वरगन्धाक्ष बासाः सुगन्धवरगन्धास्तेषां गन्धः सोऽस्यास्तीति सुगन्धवरगन्धिक 'अतोऽनेकस्वरादिति' इकप्रत्ययः, अत एव गन्धवभृितं, सौरभ्याति-- शयात् गन्धगुटिकाकारमिति भावः, न केवलं स्वयं कुरुत किन्त्वन्यैरपि कारयत, कृत्वा च कारयित्वा च एतो ममाप्तिको क्षिप्रमेव-शीघ्रमेव प्रत्यर्पयत, यथोक्तकार्यसम्पादनेन सफलां कृत्वा निवेदयत ॥ तए ण ते आभियोगिया देवा सूरियाभेणं देवेणं एवं बुना समाणा हट्टतुटू जाव हियया करयलपरिग्गहियं (दसनह) सिरसावत्नं मत्थए अंजलिं कडु एवं देवो तहत्ति आणाए विणएणं वयणं पडिसुणंति, एवं देवो तहनि आणाए विणएणं वयणं पडिसुणेता उत्तरपुरच्छिमं दिसिभागं अवकमंति, उत्तरपुरच्छिमं दिसिभागं अवकमित्ता वेउब्बियसमुग्धाएणं समोहणंति २ ता संखेजाई जोयणाई दंड निस्सरन्ति, तंजहा-रयणाणं वयराणं बेरुलियाणं लोहियकूखाणं मसारगल्लाणं हंसगभाणं पुग्गलाणं सोगंधियाणं जोइरसाणं अंजणपुलगाणं अंजणाणं रयणाणं जायरूवाणं अंकाणं फलिहाणं रिट्ठाणं अहाबायरे पुग्गले दीप अनुक्रम murary on भगवन्त महावीरस्य वन्दनार्थे सूर्याभदेवस्य आभियोगिक-देवानाम् आगमनं ~ 40~ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) प्रत सूत्रांक [<] दीप अनुक्रम [<] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. श्रीराजश्री मलयगिरी या वृत्तिः ॥। १९ ।। “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र - १ ( मूलं + वृत्तिः ) Education t मूलं [८] आगमसूत्र [१३], उपांग सूत्र [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः परिसाउंति अहा ता अहासहमे पुग्गले परियायंति २ ता दोचंपि वेउब्वियसमुग्धाएणं समोहणंति २ ता उत्तरवेउब्वियाई रुवाई बिउव्वंति २ ना ताए उक्किट्ठाए ( पसत्थाए ) तुरियाए चवलाए चंडाए जयणाए सिग्धाए उद्भूयाए दिब्वाए देवगइए तिरियमसंखेजाणं दीवसमुद्दाणं मज्झं मज्झेणं वीईवयमाणे २ जेणेव जंबुद्दीवे २ जेणेव भारहे वासे जेणेव आमलकप्पा णयरी जेणेव अंबसालवणे चेतिए जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छंति, तेणेव उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खनो आयाहिणपयाहिणं करेति २ ना वंदति नमसंति वंदित्ता नर्मसिता एवं वदासि अम्हे णं भंते! सूरियास्स देवस्स आभियोगा देवा देवाणुप्पियाणं वंदामो णर्मसामो सकारेमो सम्माणेमो कल्लाणं मगलं देवयं चेrयं पज्जुवासामो (सू०८) 'तए णमित्यादि, ततो णमिति पूर्ववत् ते आभियोगिका देवाः सूर्याभेन देवेन एवमुक्ताः सन्तो 'हट्ट जाव हियया' इति, अत्र यावच्छेदकरणात् 'हद्दुचित्तमाणंदिया पीरमणा परमसोमणस्सिया हरिसवसविसप्पमाणहियया' इति द्रष्टव्यं, 'करयलपरिग्ाहिय' मित्यादि, द्वयोर्हस्तयोरन्योऽन्यान्तरितालिकयोः सम्पुटरूपतया यदेकत्र मीलनं सा अञ्जलिस्तां करतलाभ्यां परिगृहीता निष्पादिता करतलपरिगृहीता तां दश नखा यस्यां एकैकस्मिन् हस्ते नखपञ्चकसम्भवात् दशनखा तो तथा आवर्त्तनमावर्त्तः शिरस्यादर्त्तो यस्याः सा शिरस्यावर्त्ता 'कण्ठेकाल उरसिलोमेत्यादिवत् अलुक् समासः, ताम्, For Peralta Use Only भगवन्त महावीरस्य वन्दनार्थे सूर्याभदेवस्य आभियोगिक-देवानाम् आगमनं ~ 41~ आभियोगिकागमनं ०८ ।।। १९ ।। Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ----------- मूलं [८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्राक दीप अनुक्रम अत एवाह-मस्तके कृत्वा विनयेन वचनं सूर्याभस्य देवस्य प्रतिशृण्वन्ति-अभ्युपगच्छन्ति, कथम्भूतेन विनयेनेत्याह-एवं देवो तहत्ति आणाए' इति हे देव ! 'एवं' यथैव यूयमादिशत तथैवाज्ञया भवदादेशेन कुर्म इत्येवंरूपेण, देवो इत्यत्रौकार आमत्रणे प्राकृतलक्षणवशात् , यथा 'अज्जो' इत्यत्र, प्रतिश्रुत्य वचनं 'उत्तरपुरच्छिम उत्तरपूर्व दिग्भागं, ईशानकोणमित्यर्थः, तस्या त्यन्तप्रशस्तत्वात् , अपकामन्ति गच्छन्ति, अपक्रम्य च वैक्रियसमुद्घातेन-वैक्रियकरणाय प्रयत्नविशेषेण समोहनन्ति समबहकान्यन्ते समवहता भवन्तीत्यर्थः, समवहताथात्मपदेशान् दूरतो विक्षिपन्ति, तथा चाह-'संखेजाणि जोयणाणि दंडं निस्सरन्ति' दण्ड अइव दण्ड:-ऊधि आयतः शरीरवाहल्यो जीवप्रदेशसमूहस्तं शरीरादहिः सख्येयानि योजनानि यावन्निसृजन्ति-निष्काशयन्ति, | निसृज्य तथाविधान् पुद्गलानाददते, एतदेव दर्शयति, तद्यथा-रत्नानां कर्केतनादीनां १ बत्राणां २ बर्याणां ३ लोहिताक्षाणां ४ मसारगल्लाणं ५ हंसगर्भाणां ६ पुद्गलानां ७ सुगन्धिकानां ८ ज्योतीरसानां ९ अञ्जनपुलकानां १० अञ्जनानां ११ रजतानां १२ जातरूपाणां १३ अडुनना १४ स्फटिकानां १५ रिष्टानां १६ योग्यान् यथावादरान्-असारान् पुद्गलान् परिशातयन्ति यथामूक्ष्मान -सारान् पुद्गलान् पर्याददते पर्यादाय चिकीर्पितरूपनिर्माणार्थं द्वितीयमपि वारं वैक्रियसमुद्घातेन समवहन्यन्ते, समवहत्य च यथोक्तानां रत्नादीनामयोग्यान् यथावादरान पुगलान परिभातयन्ति यथामूक्ष्मानाददते आदाय च ईप्सितानि उत्तरवैक्रियाणि विकुर्वन्ति, ननु । रत्नादीनां पायोग्याः पुद्गला औदारिका उत्तरवैक्रियरूपयोग्याश्च पुद्गला ग्राह्या वैक्रियास्ततः कथमेवं युक्तमिति ?, उच्यते, इह रत्नादिग्रहणं सारतामात्रप्रतिपादनार्थ, ततो रत्नादीनामिवेति द्रष्टव्यमिति न कश्चिदोषः, अथवा औदारिका अपि तैः गृहीताः सन्तो बक्रियतया परिणमन्ते, पुद्गलानां तत्तत्सामग्रीवशात् (तथा) तथापरिणमनस्वभावत्वादतोऽपि न कश्चिदोपः, तत एवमुसरक्रियाणि NEasaram.org भगवन्त महावीरस्य वन्दनार्थे सूर्याभदेवस्य आभियोगिक-देवानाम् आगमनं ~ 42 ~ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ----------- मूलं [८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सुत्राक दीप अनुक्रम श्रीराजमनी रूपाणि कृत्वा तया देवजनप्रसिद्धया उत्कृष्टया प्रशस्तविहायोगतिनामोदयात् प्रशस्तया शीघसञ्चरणात् 'त्वरितया त्वरा आभियोमलयगिरी- सञ्जाता अस्या इति त्वरिता तया प्रदेशान्तरक्रमणवती चपला तया क्रोधाविष्टस्येव श्रमासंवेदनात् चण्डेव चण्डा तया निरन्तरं । गिकागमः या वृत्तिःशीघ्रत्वगुणयोगात् शीघ्रा तया शीघया परमोत्कृष्टगपरिणामोषेता जवना तया वातोद्भूतस्य दिगन्तव्यापिनो रजस इव या गतिः सा उदूना तया दिव्यया-दिवि देवलोके भवा दिव्या तया देवगत्या तिर्यगसङ्ख्येयाना द्वीपसमुद्राणां मध्यंमध्येन, मध्येनेत्यर्थः, गृहग्रहेण मध्यंमध्येन पदंपदेन सुर्खसुखेनेत्यादयः शब्दाश्चिरन्तनव्याकरणेषु सुसाधवः प्रतिपादिता इति नायमपप्रयोगः, अब-al श्रीवीरानुपतन्तोऽवपतन्तः, समागच्छन्त इति भावः, पूर्वान् पूर्वान् द्वीपसमुद्रान् व्यतिक्रामन्तो व्यतिक्रामन्तः, उल्लङ्घयन्त इत्ययः, शेष मतिः सुगमं यावत् देवाइ समणे भगवं महावीरे देवा एवं वदासी-पोराणमेयं देवा !जीयमेयं देवा! किञ्चमेयं देवा ! करणिजमेयं देवा! आइनमेयं देवा! अभणण्णायमेयं देवा! जण्णं भवणवइवाणमंतरजोइसियवेमाणिया देवा अरहते भगवते बंदति नमसंति बदिना नमंसिता तओ साई साई णामगोयाई साधिति तं पोराणमेयं देवा! जाव अम्भणुण्णायमेयं देवा ! (सू०९) 'देवाइ समणे त्यादि, देवादियोगात् देवादि श्रमणो भगवान् महावीरस्तान् देवानेवमवादीत-पुराणेषु भवं पौराणमेतत्कर्म सभी देवाः !, चिरन्तनैरपि देवैः कृतमिदं चिरन्तनान् तीर्थङ्करान् प्रतीति तात्पर्यार्थः, जीतमेतद्-वन्दनादिकं तीर्थकुद्यो भो देवा ! १ इतः पाक अब्मणुण्णायमेयमिति वृत्तिः । Saintairatinidhi भगवन्त महावीरस्य वन्दनार्थे सूर्याभदेवस्य आभियोगिक-देवानाम् आगमनं ~ 43~ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ------------ मूलं [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक (१) दीप यतोऽभ्यनुज्ञातमेतत् सर्वैरपि तीर्थकवि देवास्ततः कर्तव्यमेतद् युष्मादृशा भो देवाः!, एतदेव व्याचष्टे-करणीयमेतद् भो देवाः। आचीर्णमेतत् कल्पभूतमेतद् भो देवाः, किं तदित्याह-'जन्न'मित्यादि, यत् 'णमिति पूर्ववत् भवनपतिव्यन्तरज्योतिष्कवैमानिका देवा अर्हतो भगवतो वन्दन्ते नमस्यन्ति, वन्दित्वा नमस्यित्वा च पश्चात्स्वानि २-आत्मीयानि २ नामगोत्राणि कथयन्ति, ततो युष्माकंमपि भो देवाः ! पौराणमेतत् यावदाचीर्णमेतदिति ।। तए णं ते आभिओगिया देवा समणेणं भगवया महावीरेणं एवं वुत्ता समाणा हट्ट जाब हियया समणं भगवं वदति णमंसंति बंदिता णमंसित्ता उत्तरपुरथिच्छिमं दिसीभागं अबक्कमंति अवकमित्ता देउब्धियसमग्याएणं समोहणंति २त्ता संखेजाई जोयणाई दंडं निस्सरंति, तंजहा-रयणाणं जाब रिट्ठाणं अहाबायरे पोग्गले परिसाउँति अहाबायरे २ ना दोच्चपि बेउब्बियसमुग्धाएणं समोहणंति २ चा संवट्टवाए विउब्बति, से जहानामए भइयदारए सिया तरुणे जुगवं बलवं अप्पार्यके [थिरसंघयणे ] थिरग्गहत्थे पडिपुण्णपाणिपायपिटुंतरोरु [संघाय] परिणए घननिचियवट्टबलिय (बलियवट्ट) खंधे चम्मेलुगदुषणमुट्ठियसमाहयगने उरस्सबलसमन्नागए तलजमलजुयल [फलिहनिभ] बाहू लंघणपवणजइणपमहणसमत्थे छेए दक्खे पट्टे कुसले मेहावी णिउणसिप्पोवगए एगं महं दंडसंपुच्छणिं वा सलागाहत्थर्ग वा वेणुसलाइयं वा गहाय रायंगणं वा रायतेपुरं वा देवकुलं वा सभं वा पर्व वा आरामं वा उज्जाणं वा अतुरियम अनुक्रम I Saintairatani Harama भगवन्त महावीरस्य वन्दनार्थे सूर्याभदेवस्य आभियोगिक-देवानाम् आगमनं ~ 44 ~ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) प्रत सूत्रांक [१०] दीप अनुक्रम [१०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. श्रीराजमश्री मलयगिरी या वृत्तिः ॥ २१ ॥ “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र - १ (मूलं + वृत्तिः ) Jan Eucation b मूलं [१०] आगमसूत्र [१३] उपांग सूत्र [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः चवलमसंभंते निरंतरं सुनिउणं सव्वतो समंता संपमज्जेज्जा, एवामेव तेऽवि सरियाभस्स देवस्स आभिओगिया देवा संवट्टवाए बिउब्वंति, संवट्टवाए २ ता समणस्स भगवओ महावीरस्स सव्वतो समंता जोयणपरिमण्डलं जं किंचि तणं वा पत्तं वा तहेव सव्यं आहुणिय २ एगंते एर्डेति एते २ ता खिप्पामेव उवसमंति, खिप्पा २ ना दोचंपि वेउब्वियसमुग्धाएणं समोहणंति, दोचंपि २ ना अभवद्दलए विउव्वंति अब्भः २ ता से जहाणामए भइगदारए सिया तरुणे जाव सिप्पोवगए एगं महं दगवारगं वादगथालगं वा दुगकलसगं वा दगकुंभगं वा आरामं वा जाव पर्व वा अतुरिय जाव सव्वतो समंता आवरिसेज्जा, एवामेव तेऽवि सूरियाभस्स देवस्स आभियोगिया देवा अभवद्दलए विउव्वंति अम्भ० २ नाखिप्पामेव पयणुतणायन्ति २ यित्ता खिप्पामेव विज्जुयाति २ चा समणस्स भगवओ महावीरस्स सव्वओ समता जोयणपरिमंडलं णञ्चोदगं णातिमट्टियं तं पविरलपप्फुसियं रयरेणुविणासणं दिव्वं सुरभिगंधोद (वास) वासंति वासेता हियरयं णटुरयं भट्ठर उवसंतरयं पसंतरयं करेंति, २ ना खिप्पामेव उवसामति २ ता तच्चपि वेउब्वियसमुग्धाएणं समोहति २ ना पुप्फवद्दलए विजयंति से जहाणामए मालागारदारए सिया तरुणे जाव सिप्पोबगए एवं महं पुप्फडलगं वा पुप्फचंगेरियं वा पुप्फछजियं वा गहाय रायंगणं वा जाव सव्वतो समंता कयग्गाहगाहियकरयलपन्भट्टविप्पमुक्केणं दसवनेणं कुसु भगवन्त महावीरस्य वन्दनार्थे सूर्याभदेवस्य आगमनार्थे समार्जनादिः For Parts Only ~ 45~ सूर्याभागमनायः संमार्जनादि सू० १० ॥ २१ ॥ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ------------ मूलं [१०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्राक [१०] मेणं मुक्तपुप्फपुंजोवयारकलितं करेजा, एवामेव ते मूरियाभस्स देवस्स आभिओगिया देवा पुप्फबद्दलए विउब्बति २ ना खिप्पामेव पयणुतणायन्ति खिप्पा २ चा जाव जोयणपरिमण्डलं जलथलयभासुरप्पभूयस्स विंटट्ठाइस्स दसद्धवन्नकुसुमस्स जाणुस्सेहपमाणमत्तिं ओहिवासं वासंति वासित्ता कालागुरुपवरकुंदुरुक्कतुरुकधूवमघमघंतगंधुयाभिरामं सुगंधवरगंधियं गंधवद्विभूनं दिव्वं सुरवराभिगमणजोगं करंति कारयति करेना य कारवेना य खिप्पामेव उवसामति २ ना जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छंति तेणेव उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिकखुत्तो जाव वंदित्ता नमंसित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियातो अंबसालवणातो चेइयाओ पडिनिकखमंति पडिनिकखमित्ता ताए उक्किद्वाए जाव वीइवयमाणे २ जेणेव सोहम्मे कप्पे जेणेव सरियाभे विमाणे जेणेव सभा महम्मा जेणेव सुरियाभे देवे तेणेव उवागच्छंति २ ना सूरियानं देवं करयलपरिग्गहियं सिरसावनं मत्थए अंजलिं कटु जएणं विजएणं बद्धाति २ ना तमाणत्तियं पञ्चप्पिणंति ॥ (मू०१०) 'तए णमित्यादि । सुगम, यावत् ' से जहानामए भइयदारए सिया' इत्यादि, स वक्ष्यमाणगुणो यथानामकोऽनिर्दिष्टनामकः कश्चिद्भुक्तिकदारका-भूति करोति भृतिका कर्मकरः तस्य दारको भूतिकदारकः स्यात् , किंविशिष्ट इत्याह-तरुणः प्रवर्द्धमानवयाः (ननु दारकः वर्धमानच्या ) एव भवति ततः किमनेन विशेषणेन !, न, आसन्नमृत्योः प्रवर्द्धमानवयस्त्वाभावात् , न द्यासन्न दीप अनुक्रम [१०] भगवन्त महावीरस्य वन्दनार्थे सूर्याभदेवस्य आगमनार्थे समार्जनादिः ~ 46~ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) (१३) --------- मूलं [१०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०] दीप अनुक्रम [१०] श्रीराजप्रश्नी मृत्युः प्रवर्धमानवया भवति, न च तस्य विशिष्टसामर्थ्यसम्भवः, आसनमृत्युत्वादेव, विशिष्टसामर्थ्यप्रतिपादनार्थ आरम्भस्त- मयोभागममलयगिरी- तोऽर्थवद्विशेषणं, अन्ये तु व्याचक्षते-इह यद्यं विशिष्टवर्णादिगुणोपेतमभिनवं च तत्तरुणमिति लोके प्रसिद्धं, यथा तरुणमिदमश्वत्थ- नाय संमाया दृत्तिः पत्रमिति, ततः स भृतिकदारकस्तरुण इति, किमुक्तं भवति ? अभिनवो विशिष्टवादिगुणोपेतश्चेति, बलं-सामर्थ्य तद् यस्यास्तीति | जेनादि बलवान् , तथा युगं सुषमदुष्पमादिकालः स स्वेन रूपेण यस्यास्ति न दोषदुष्टः स युगवान्, किमुक्तं भवति ?-कालोपद्रवोऽपि ॥ २२॥ सू०१० सामर्थ्यविघ्नहेतुः स चास्य नास्तीति प्रतिपत्त्यर्थमेतद्विशेषणं, युवा-यौवनस्था, युवावस्थायां हि बलातिशय इत्येतदुपादानं, 'अप्पायके ' इति अल्पशब्दोऽभाववाची, अल्पः-सर्वथा अविद्यमान आतङ्को-ज्वरादिर्यस्य सोऽल्पातकः स्थिरोऽग्रहस्तो यस्य | स स्थिराग्रहस्तः, 'दहपाणिपायपिटुंतरोरुपरिणए' इति दृढानि--अतिनिविडचयापन्नानि पाणिपादपृष्ठान्तरोरूणि परिणतानि यस्य स दृढपाणिपादपृष्ठान्तरोरुपरिणतः, सुखादिदर्शनात् पाक्षिकः क्तान्तस्य परनिपातः, तथा धनम् अतिशयेन निचिती-निविडतरचयमापनौ पलिताविव बलितौ वृत्तौ स्कन्धौ यस्य स घननिचितवलितवृत्तस्कन्धः, 'चम्मेद्रगघणमुद्रियसमाहयगते' इति चयन दुषणेन मुष्टिकया च-मुष्टया समाहत्य २ ये निचितीकृतगात्रास्ते चमेष्ट्रकदुषणमुष्टिकसमाहतनिचितगात्रास्तेषामिव गात्रं यस्य स चर्मेष्टकद्रुघणमुष्टिकसमाहतनिचितगात्राः, 'उरस्सबलसमण्णागए ' इति उरसि भवं उरस्यं तच्च तद्धलं च उरस्यबलं तत्समन्वा गतः-समनुमाप्तः उरस्यबलसमन्वागतः आन्तरोत्साहवीर्ययुक्त इति भावः, 'तलजमलयुगलबाहर तलौ-तालवृक्षों तयोर्यमलयुगल-O कसमश्रेणीकं युगलं तलयमलयुगलं तद्वदतिसरली पीवरौ च बाहू यस्य स तलयमलयुगलबाहुः 'लंघणपवणजइणपमदणसमस्थे' इति लड़ने-अतिक्रमणे प्लयने-मनाक् पृथुतरविक्रमवति गमने जवने--अतिशीघ्रगती प्रमर्दने कठिनस्यापि वस्तुनशूर्णनकरणे SAREarathinitiational | भगवन्त महावीरस्य वन्दनार्थे सूर्याभदेवस्य आगमनार्थे समार्जनादिः ~ 47~ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------------ मूलं [१०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्राक [१०] का समर्थः लहुनप्लवनजवनप्रमईनसमर्थः, कचित् 'लंघणपवणजइणवायामणसमत्थे' इति पाठः, तत्र व्यायामने-प्यायामकरणे इति व्याख्येयं, छेको-द्वासप्ततिकलापण्डितो, दक्ष:-कार्याणामविलम्बितकारी प्रष्ठो वाग्मी कुशलः सम्यक्रियापरिज्ञानवान् मेधावी जा परस्पराव्याहतः-पूर्वापरानुसन्धानदक्षः, अत एव 'निपुणसिप्पोबगए' इति निपुणः यथा भवति एवं शिल्पं-क्रियासु कौशलं उप-100 गतः प्राप्तो निपुणशिल्पोपगतः एक महान्तं शिलाकाहस्तकं-सरित्पादिशलाकासमुदाय सरित्पर्णादिशलाकामयीं सम्मार्जनीकामित्यर्थः, वाशब्दो विकल्पार्यो, ' दंडसंपुच्छणि वा' इति दण्डयुक्ता सम्पुच्छनी सन्मार्जनी दण्डसम्पुच्छनी तां वा 'वेणसिलागिर्ग बा' इति वेणुः-वंशस्तस्य शलाका वेणुशलाकास्ताभिनिचा वेणुशलाकिकी-वेणुशलाकामयी सम्मानी तो बा गृहीत्वा राजाङ्गणं राजान्तःपुरं वा देवकुलं वा 'सभा वा सन्तो भान्त्यस्यामिति सभा-ग्रामप्रधानानां नगरप्रधानानां यथासुखमवस्थानहेतुर्मण्डपिका तांचा 'प्रपा वा पानीयशाला 'आरामं वेति' आगत्यागत्य भोगपुरुषा वरतरुणीभिः सह यत्र रमन्ते- क्रीडन्ति स आरामो नगरानातिदूरवती क्रीडाश्रयः तरुखण्टः तं 'उज्जाणं वेति । ऊर्दू विलम्बितानि प्रयोजनाभावात् यानानि यत्र तदुद्यान-नगराकात्मत्यासन्नवी यानवाहनकीटागृहाद्याश्रयस्तरुखण्डः, तथा अत्वरितमचपलमसम्भ्रान्तं, त्वरायां चापल्ये सम्भ्रमे वा सम्यकचवरा पगमासम्भवात् , निरन्तरं न स्वपान्तरालमोचनेन, सुनिपुणं शक्ष्णस्याप्यचोक्षस्यापसारणेन, सर्वतः--सर्वासु दिक्षु विदिक्षा समन्ततः-सामस्त्येन सम्पमार्जयेत् , 'एवमेवे'त्यादि, सुगम यावत् 'खिप्पामेव पच्चुवसमंती'त्यादि, एकान्ते तृणकाष्टायपसनीय लिममेव-शीघ्रमेव प्रत्यपशाम्यन्ति प्रत्येकं ते आभियोगिका देवाः उपशाम्यन्ति , संवर्तकवायुविकुर्वण्णानिवजन्ते, संवर्तकवातविकुर्वणमुपसंहरन्तीति भावः, ततो 'दोचपि उब्वियसमुग्घाएणं समोहति । संवर्तकवातविकुर्वणार्थ दीप अनुक्रम [१०] SantaratanSA भगवन्त महावीरस्य वन्दनार्थे सूर्याभदेवस्य आगमनार्थे समार्जनादिः ~ 48~ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ------------ मूलं [१०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०] दीप अनुक्रम [१०] श्रीराजपनी हि यढेलाद्वयमपि वैक्रियसमुद्घातेन समवहननं तत्किलक इदं त्वब्भ्रवादलकविकुर्वणार्थ द्वितीयमत उक्तं-द्वितीयमपि वारं वैक्रिय- सूर्याभागममलयगिरी समुद्घातेन समबहन्यन्ते (नन्ति), समवहत्य चाभ्रवादलकानि विकुर्वन्ति, वा:-पानीयं तस्य दलानि वार्दलानि तान्येव वादलकानि नाय संमाया वृत्तिः मेघा इत्यर्थः, अपो विभ्रतीति अब्भ्राणि मेघाः, अग्भ्राणि सन्त्यस्मिन्निति 'अभ्रादिभ्य' इति मत्वर्थीयोऽप्रत्ययः, आकाशमित्यर्थः, जर्जनादि अन्धे वादलकानि अन्ध्रवादलकानि तानि विकुर्वन्ति, आकाशे मेघानि विकुर्वन्तीत्यर्थः, 'से जहानामए भइगदारगे सिया' इत्यादि ॥ २३ ॥ हा पूर्ववत् 'निउणसिप्पोवगए एग महमित्यादि, स यथानामको भृतिकदारक एक महान्तं 'दकवारकं वा' मृत्तिकामयभाजनविशेष Pादगभग वाति दकघर्ट, दकस्थालकं वा-कंसादिमयमुदकमतं भाजनं दककलसं वा-उदकभृतं भृङ्गारं 'आवरिसिज्जा' इति | आवपेत् आ-समन्तात्सिश्चेत् , 'खिप्पामेव पतणतणायंति ' अनुकरणवचनमेतत् प्रकर्षण स्तनितं कुर्वन्तीत्यर्थः, 'पविज्जयाईति 'ति, प्रकर्षेण विद्युतं विदधति, 'पुष्फबद्दलए विउच्चति । पुष्पवृष्टियोन्यानि वालिकानि पुष्पवालिकानि पुष्पवर्षकान मेघान् विकुवन्तीति भावः, 'एग महं पुष्फछज्जियं चा' एका महतीं छाद्यते-उपरि स्थग्यते इति छाद्या छाद्यैव छायिका पुष्पभूता छाधिका पुष्पछाथिका तो वा पटलकानि प्रतीतानि, कयग्गाहगाहयकरयलपभद्रवि(प्प)मकेणं ति इह मैथुनसंरम्भे यत् युवतेः केशेषु ग्रहणं कास कचग्रहस्तेन गृहीत कचग्रहगृहीत तथा करतलाद्वि(प)मुक्तं सत्यभ्रष्ट करतलमभ्रष्टवि(प्र)मुक्तं,प्राकृतत्वात्पदव्यत्ययस्ततो विशेषणसमासः, तेन, शेष सुगमं यावत् 'जएणं विजएणं बद्धाति । जयेन विजयेन बर्दापयन्ति, जयतु देवेत्येवं वर्धापयन्तीत्यर्थः, तत्र जया- ॥२३ परैरनभिभूयमानता प्रतापट्टद्धिश्च विजयस्तु-परेपामसहमानानामभिभवोत्पादः, बर्दापयित्वा च तां पूर्वोक्तामाज्ञप्तिको प्रत्यर्पयन्ति, आदिष्टकार्यसम्पादनेन निवेदयन्तीत्यर्थः ।। Santauraton immeland PATumstaram.org | भगवन्त महावीरस्य वन्दनार्थे सूर्याभदेवस्य आगमनार्थे समार्जनादिः ~ 49~ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) (१३) --------- मूलं [११] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [११] दीप अनुक्रम तए णं से सरियाभे देवे तेर्सि आभियोगियाणं देवाणं अंतिए एयम8 सोच्चा निसम्म हट्ठतुट्ठ जाव हियए पायत्ताणियाहिवई देवं सद्दावेति सद्दावेत्ता एवं वदासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! सूरियाभे विमाणे सभाए सुहम्माए मेघोघरसियगंभीरमहुरसदं जोयणपरिमंडलं सुसरघंट तिकूखुत्तो उल्लालेमाणे २ महया २ सद्देणं उग्घोसेमाणे २ एवं वयासी-आणवेति णं भो मूरिया देवे गच्छति णं भो सूरियाभे देवे जंबूद्दीवे दीवे भारहे वासे आमलकप्पाए णयरीए अंबसालवणे चेतिते समणं भगवं महावीरं अभिवंदए, तुम्भेऽविणं भो देवाणुप्पिया ! सब्बिड़ीए जाव णातियरवणं णियगपरिवाल सद्धिं संपरिवुडा साति २ जाणविमाणाई दुरूढा समाणा अकालपरिहीणं चेव मूरियाभस्स देवस्स अंतियं पाउब्भवह । (मू०११) 'तए णमित्यादि, ततो 'णमिति' पूर्ववत् स सूर्याभो देवस्तेषां 'आभियोगाणीति आ-समन्तादाभिमुख्येन युज्यन्ते-घेण्यकर्मसु व्यापार्यन्ते इत्याभियोग्या आभियोगिका इत्यर्थः, तेषामाभियोग्यानां देवानामन्तिके समीपे एनम्-अनन्तरोक्तमर्थं श्रुत्वा श्रवणविषयं कृत्वा श्रवणानन्तरं च निशम्य-परिभाव्य ' हट्टतुट्ठजावाहियए ' इति यावच्छब्दकरणात् ' हट्टतुट्ठचित्तमाणदिए पीइमणे परमसोमणस्सिए हरिसवसविसप्पमाणहियए' इति द्रष्टव्यं, पदात्यनीकाधिपतिं देवं शब्दयति, शब्दयित्वा एवमवादीत-क्षिप्रमेव भो देवानां प्रिय ! सभायां सुधर्मायां सुधर्माभिधानायां 'मेघोघरसियगंभीरमहुरसद' मिति मेघानामोघः-सातो मेघौघस्तस्य रसितंगर्जितं तद्गम्भीरो मधुरश्च शब्दो यस्याः सा मेघौधरसितगम्भीरमधुरशब्दा तां 'जोयणपरिमंडलं' ति योजन-योजनप्रमाणं : ISRurary on | भगवन्त महावीरस्य वन्दनार्थे गमनाय उद्घोषणा ~50~ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ------------ मूलं [११] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: श्रीराजप्रश्नी मलयगिरी- या वृत्तिः प्रत सूत्रांक ॥२४॥ [११] दीप परिमण्डल-गुणप्रधानोऽयं निर्देशः पारिमण्डल्यं यस्याः सा योजनपरिमण्डला तो सुस्वरां-सुस्वराभिधानां घण्टामुल्लालयन् २- सेनापतिताडयन् ताडयन्नित्यर्थः, महता २ शब्देन उद्घोषयन्-उद्घोषणां कुर्वन् एवं वदति-आज्ञापयति भोः सूर्याभो देवो गच्छति भोः सूर्याभो देवो जम्बूद्वीपं भारत वर्षे आमलकल्पां नगरीमाम्रशालवन चैत्यं यथा (तत्र) श्रमणं भगवं महावीर वन्दितं. घोषणा तत् तस्मात् , 'तुभवि णमिति यूयमाप ' णमिति पूर्ववद , देवानां मियाः! पूर्ववद् सर्वर्या-परिवारादिकया सर्वद्युत्या मु०११ यथाशक्तिविस्फारितेन समस्तेन शरीरतेजसा सर्ववलेन-समरतेन हस्त्यादिसैन्येन सर्वसमुदायेन-स्वस्वाभियोग्यादिसमरतपरिवारेण, सर्वादरेण समस्तयावच्छक्तितुलनेन सर्वविभूत्या-सर्वया अभ्यन्तरबैंक्रियकरणादिबाह्यरत्नादिसम्पदा सर्वविभूषयायावच्छक्तिस्फारोदारशङ्गारकरणेन 'सच्चसंभमेणति' सर्वोत्कृष्टेन संभ्रमेन, सर्वोत्कृष्टसम्भ्रमो नामेह स्वनायक विषयबहुमान-IN ख्यापनपरा स्वनायकोपदिष्टकार्यसम्पादनाय यावच्छक्तित्वरितत्वरिता प्रवृत्तिः, 'सव्यपुष्फवत्यगंधमलालंकारेणं' अत्र गन्धावासाः माल्यानि-पुष्पदामानि अलनारा-आभरणविशेषाः, ततः समाहारी द्वन्द्वस्ततः सर्वशब्देन सह विशेषणसमासः, सम्बदिव्यतुडियसहसंनिनाएणमिति सर्वाणि च तानि दिव्यत्रुटितानि च सर्वदिव्यत्रुटितानि तेषां शब्दाः सर्वदिव्यत्रुटितशब्दाः तेषामेकत्र मीलनेन यः सङ्गतेन नितरां नादो-महान् घोषः सर्वत्रुटितदिव्यशब्दसन्निनादस्तेन, इह अल्पेष्वपि । सर्वशब्दो दृष्टो यथा 'अनेन सर्व पीतं घृतामिति, तत आह-'महता इट्टीए' इत्यादि महत्या यावच्छक्तितुलितया ऋचा-1 परिवारादिकया, एवं 'महता जुईए' इत्याद्यपि भावनीयं, तथा महतां स्फूर्णिमा वराणां-प्रधानानां तुडिताना-आतोद्यानां यमक- ॥२४॥ समकम् -एककालं पटुभिः पुरुषः प्रवादिताना यो रवस्तेन, एतदेव विशेषेणाचष्टे-'संखपणवपडहभेरिझारिखरमुहिहुडुवमुरव अनुक्रम [११] JMERatinian Mumurary ou भगवन्त महावीरस्य वन्दनार्थे गमनाय उद्घोषणा ~514 Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) (१३) ------------ मूलं [११] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [११] दीप अनुक्रम मुइंगदुंदुभिनिग्धोसनाइतरवेण' शङ्कः-प्रतीतः, पणवो भाण्डाना, पडहः प्रतीतः भेरी-ढक्का झल्लरी-चौवनद्धा विस्तीर्णा वलयाकारा | स्वरमुही-काहला हुडका-प्रतीता महाप्रमाणो महेंलो मुरजः स एव लघुर्मदगो दुन्दुभि:-भेर्याकारा सङ्कटमुखी एतेषां द्वन्द्वस्तासां। निघोंषो-महान् ध्वानो नादितं च घण्टायामिव वादनोत्तरकालभावी सततध्वनिस्तल्लक्षणो यो स्वस्तेन, 'नियगपरिवार सदि संपरिखुदा' इति निजक:-आत्मीयः आत्मीयो यः परिवारस्तेन सार्दू, तत्र सहभावः परिवाररीतिमन्तरेणापि सम्भवति तत आह-'संपरिबुडा' सम्यक्-परिवाररीत्या परिहताः सम्परिनृताः, 'अकालपरिहीणं चेवेति परिहानिः-परिहीनं कालस्य परिहीनं कालविलम्ब इति भावः न विद्यते कालपरिहानं यत्र प्रादुर्भवने तदकालपरिहीनं, क्रियाविशेषणमेतत् , 'अंतिए पाउब्भवह अन्तिके-समीपे प्रादुर्भवत, समागच्छतेति भावः ।। तए णं से पायत्नाणियाहिवती देव मूरियाभेणं देवणं एवं बुने समाणे हट्ठतुट्ठजाबहियए एवं देवा ! तहत्ति आणाए विणएणं वयणं पडिसुणेति, पडि २ ना जेणेव सूरियाभे विमाणे जेणेव सभा सुहम्मा जेणेव मेघाघरसियगंभीरमहुरसहा जोयणपरिमंडला मस्सरा घंटा तेणेव उवागच्छति २.ता तं मेघोघरसितगंभीरमहरसह जायणपरिमंडलं मुसरं घंटे तिखत्तो उल्लालति । तए णं तीसे मेघीघरसितगंभीरमहरसदाते जायणपरिमंडलाते सुसरात घंटाए तिकखुत्तो उल्लालियाए समाणीए से सूरियाभे विमाणे पासायविमाणणिकखुडावडियसद्दघंटापडियासयसहस्ससंकुले जाए यावि होत्था । तएणं ते सूरियाभविमाणवासिणं बहूणं वेमाणियाणं देवाण य देवीण य एगंतरदपमननिञ्चप्पमत्नविसयसुहमुच्छि REarama | भगवन्त महावीरस्य वन्दनार्थे गमनाय उद्घोषणा ~52~ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) प्रत सूत्रांक [१२] दीप अनुक्रम [१२] “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र - १ (मूलं + वृत्तिः ) मूलं [१२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित. आगमसूत्र [१३], उपांग सूत्र [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः श्रीराजमनी : मलयगिरी या वृत्तिः ।। २५ ।। या सुसरघंटारवविउलबोल (तुरियचवल) पडिवोहणे कए समाण घोसणको उहलादिन्नकन्नएगग्गचितउवउत्तमाणसाणं से पायताणीयाहिवई देवे तंसि घंटारवंसि णिसंतपसंतंमि महया महया संदर्ण उग्घोसेमाणे उघोसेमाणे एवं वदासी-हंत सुणंतु भवंतो सूरियाभविमाणवासिणो बहवे वैमाणिया देवा यदेवीओ य! सूरियाभविमाणवरणो वयणं हियसुहत्थं आणवणियं भो ! सूरियाभे देवे गच्छद णं भी सूरिया देवे जंबूदीवं २ भारहं वासं आमलकप्पं नयरीं अंवसालवणं चेदयं समणं भगवं महावीरं अभिवंदए, तं तुम्भेऽवि देवाप्पिया ! सविडीए अकालपरिहीणा चैव सूरियाभस्स देवस्स अंतियं पाउम्भवह ॥ ( सू० १२ ) 'तए णं से' इत्यादि 'जाव पडिमुमित्ता' इति, अत्र यावच्छन्दकरणात् 'करयलपरिग्गहियं दसनहं सिरसावतं मत्थए अंजलि कट्टु एवं देवा । तहत्ति आणाए विणणं वयणं पडिमुणेइति द्रष्टव्यं तिक्खुत्तो उल्लाले ति त्रिकृत्वः- त्रीन् वारान् उछालयति - ताडयति, ततो 'ण' मिति वाक्यालङ्कारे तस्यां मेघौघरसितगम्भीरमधुर शब्दायां योजनपरिमण्डलायां सुस्वराभिधानायां घण्टायां त्रिकृत्वस्ताडितायां सत्यां यत् सूर्याभविमानं (तत्र) तत्मासादनिष्कुटेषु च ये आपतिताः शब्दाःशब्दवर्गणापुद्गलास्तेभ्यः समुच्छलितानि यानि घण्टामतिश्रुताशतसहस्राणि - घण्टामतिशब्दलक्षाणि तैः सकलमपि जातमभूत्, किमुक्तं भवति ?-घण्टायां महता प्रयत्नेन ताडितायां ये विनिर्गताः शब्दपङ्गलास्तत्प्रतिघातवशतः सर्वासु दिक्षु विदिक्षु च दिव्यानुभावतः समुच्छलितैः प्रतिशब्दः सकलमपि विमानमेकयोजनलक्षमानमपि बधिरितमजायत इति । एतेन द्वादशभ्यो योजनेभ्यः समागतः शब्दः श्रोत्रग्रावो भवति, न परतः, ततः कथमेकत्र ताडितायां घण्टायां सर्वत्र तच्छदश्रुतिरुपजायते । इति यच्चोयते भगवन्त महावीरस्य वन्दनार्थे गमनाय उद्घोषणा For Parts Only ~ 53~ सूर्याभादिमाने उद्घो पणा मृ० १२ ।। २५ ।। andrary org Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) (१३) ------------ मूलं [१२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२] दीप अनुक्रम [१२] तदपाकृतमवसेयं, सर्वत्र दिव्यानुभावतः तयारूपप्रतिशब्दोच्छलने यथोक्तदोषासम्भवात् । 'तए णमित्यादि, ततो 'णमिति पूर्ववत् तेषां सूर्याभदेवविमानवासिनो बहूनां वैमानिकदेवानां देवीनां च एकान्तेन सर्वात्मना रतौ-रमणे प्रसक्ता एकान्तरतिप्रमक्ता अत एव ।। नित्यं सर्वकालं प्रमत्ता नित्यप्रमत्ताः, कस्मादिति चेदत आह-'बिसयमुहमुच्छियात्ति' विषयसुखेषु मूञ्छिता-अध्युपपन्ना विषयसुखमू-- ञ्छिता अध्युपपन्नास्ततो नित्यप्रमत्ताः, ततः पदत्रयस्य पदद्वयमीलनेन विशेषणसमासः, तेषां 'सुसरघंटारवविउलबोलतुरियचचलपडिवोहणे' इति सुस्वराभिधानाया घण्टाया रवस्य यः सर्वासु दिक्षु विदिक्षु च प्रतिशब्दोच्छलनेन विपुलः-सकलविमानव्यापितया विस्तीणों बोल:-कोलाहलस्तन त्वरितं-शीघ्रं चपलं-आकुलं प्रतिबोधने कृते सति 'घोसणकोउहलादिन्नकन एगग्गचितउवउत्तमाणसाणमिति ' कीडग् नाम घोषणं भविष्यतीत्येवं घोषणे कुतूहलेन दत्ती कणों यैस्ते घोषणकुतूहलदत्तकाः , तथा एकाग्रं-घोषणाश्रवणकविषयं चित्तं येषां ते एकाग्रचित्ताः, एकाग्रचित्तत्वेऽपि कदाचिदनुपयोगः स्यादत आह उपयुक्तमानसाः, ततः पूर्वपदेन विशेषणसमासस्तेपा, पदात्यनीकाधिपतिर्देवस्तस्मिन् घण्टारवे 'निसंतपसंतसीति नितरां शान्तो निशान्तः अत्यन्तमन्दीभूतस्ततः प्रकर्षण सर्वात्मना शान्तः प्रशान्तः, ततश्छिन्नमरूद इत्यादाविच विशेषणसमासस्तस्मिन् महता २ शब्देन उद्घोषयन्नेवमवादीत् 'हन्त मुणंतु ' इत्यादि, हन्तेति हर्षे, उक्तं च-'हन्त हर्षेऽनुकम्पायामित्यादि, हर्षश्च स्वामिनाऽऽदिष्टत्वात् श्रीमन्महावीरपादवन्दनार्थं च प्रस्थानसमारम्भात् , शृण्वन्तु भवन्तो बहवः सूर्याभविमानवासिनो वैमानिकदेवा देव्यच, सूर्याभविमानपतेर्वचनं हितसुखार्थ हितार्थं सुखार्थं चेत्यर्थः, तत्र हितं जन्मान्तरेऽपि कल्याणाबई तथाविधकुशलं, सुखं तस्मिन् भवे निरुपद्रवता, आज्ञापयति भो देवानां प्रियाः सूर्याभी देवो यथा गच्छति भोः ! सूर्याभो देवो! 'जम्बूद्वीपं द्वीपमित्यादि तदेव यावदन्तिके प्रादुर्भवत ॥ REmainalina murary on | भगवन्त महावीरस्य वन्दनार्थे गमनाय उद्घोषणा ~ 54~ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ------------ मूलं [१३-१४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: दिवानां मूभान्तिके श्रीराजपनी मलयगिरीया तिः ॥२६॥ प्रत सूत्रांक [१३-१४] प्रादुर्भावः दीप अनुक्रम DEEPACCOM तए णं ते सरियाभविमाणयासिणो बहवे बेमाणिया देवा देवीओ य पायत्नाणियाहिवइस्स देवस्स अंतिए एयमढे सोचा णिसम्म हट्ठतुट्ठ जावहियया अप्पेगझ्या वंदणवत्तियाए अप्पेगइया पूयणवत्तियाए अप्पेगड्या सकारवानियाए एवं संमाणवत्तियाए कोउहलवत्तियाए अप्पे असुयाई सुणिस्सामो सुयाई अट्ठाई हेऊई पसिणाई कारणाई वागरणाई पुच्छिस्सामो, अप्पेगइया सूरियाभस्स देवस्स वयणमणुयत्तमाणा अप्पेगतिया अन्नमन्नमणुयत्तमाणा अप्पेगइया जिणभत्निरागेणं अप्पेगइया धम्मोति अप्पेगइया जीयमेयंति कहु सब्बिड़ीए जाव अकालपरिहीणा चेव सूरियाभस्स देवस्स अंतिय पाउम्भवंति। (सू०१३)।तएणं से सरि याभे देवे ते सरियाभविमाणवासिणो वहवे माणिया देवा यदेवीओ य अकालपरिहीणा चेव अंतियं पाउभवमाणे पासति पासित्ता हतुटु जाव हियए आमिओगियं देवं सद्दावति आभिऔ०२ सहाविना एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! अणगसंभसयसनिविटुं लीलट्ठियसालभंजियागं ईहामियउसभतुरगनरमगरविहगवालगकिंनररुरुसरभचमरकुंजरवणलयपउमलयभत्निचिनं खंभुग्गयवरवइरवेश्यापरिगयाभिरामं विजाहरजमलजुयलजंतजुनंपिव अञ्चीसहस्समालिणीयं रूवगसहस्सकलियं भिसमाणं चकूखुल्लोयणलेसं मुहफासं सस्सिरीयरूवं घंटावलिचलियमहरमणहरसरं मुह कंतं दरिसणिज णिउणोचियमिसिमिसिंतमणिरयणघंटियाजालपरिकखिनं जोयणसयसहस्सविच्छिण्णं दिव्वं गमणसजं सिग्घ दिव्ययानकारणं म्०१४ [१३-१४] IN२६॥ I m urary.org | भगवन्त महावीरस्य वन्दनार्थे गमनाय देवानाम् प्रादुर्भाव: ~55M Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) (१३) ------------ मूलं [१३-१४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३-१४] दीप अनुक्रम [१३-१४] गमणं णाम दिव्वं जाणं ( जाणविमाणं ) विउवाहि, विउविना खिप्पामेव एयमाणत्तियं पच्चप्पिणाहि ( सू०१४) 'तए णं ते' इत्यादि, ततस्ते सूर्याभविमानवासिनो बहवो वैमानिका देवा देव्यश्च पदात्यनीकाधिपतेर्देवस्य समीपे एनम्-अनन्तरोक्तमर्थं श्रुत्वा 'णिसम्म हटु तुटु जाब हियया' इति यावत्करणात् 'हतचित्तमाणंदिया पीइमणा परमसोमणस्सिया इरिसवसविसप्पमाणहियया' इति परिग्रहः, 'अप्पेगइया बंदणवत्तियाए' इति अपिः सम्भावनायामेकका:-कंचन सावन्दनमत्ययं चन्दनम्-अभिवादन प्रशस्तकायवागमनःप्रवृत्तिरूपं तत्पत्ययं तत् मया भगवतः श्रीमन्महावीरस्य कर्तव्यमि-10 त्येवंनिमित्तम् , अप्येककाः पूजनप्रत्ययं पूजन-गन्धमाल्यादिभिः समभ्यर्चनं अप्येककाः सत्कारप्रत्ययं सत्कारः-स्तुत्यादिगुणोनतिकरणं अप्येककाः सन्मानो मानसः प्रीतिविशेषः, अप्येककाः कुतूहलजिनभक्तिरागेण-कुतूहलेन-कौतुकेन कीदृशो भगवान् सर्वज्ञः सर्वदशी श्रीमन्महावीर इत्येवरूपेण यो जिने भगवति वर्द्धमानस्वामिनि भक्तिरागो-भक्तिपूर्वकोऽनुरागस्तेन अप्यके मूर्याभस्य वचनम्-आज्ञामनुवर्तमानाः अप्येककाः अश्रुतानि पूर्वमनाकणितानि स्वर्गमोक्षप्रसाधकानि वासि श्रीप्याम इतिबुद्धया अध्येककाः श्रुतानि-पूर्वमाकार्णतानि यानि शन्तिानि जातानि तानि इदानीं निःशान्तिानि करिष्याम इति बुद्धधा अप्येकका जीतमेतत्-कल्प एष इतिकृत्वा, 'सन्विड्डीए' इत्यादि प्राग्वत् । त एणं से आभिओगिए देवे सूरियाभेणं देवेणं एवं बुत्ने समाणे हटे जाव हियए करयलपरिम्गहियं जाब REauratani Son urary.orm | भगवन्त महावीरस्य वन्दनार्थे गमनाय देवानाम् प्रादुर्भाव: ~56~ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) --------- मूलं [१५...] (१३) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत श्रीराजपनी मलयगिरीया चिः ॥२७॥ सूत्रांक [१५] दीप पडिसुणेइ जाव पडिसुणेत्ता उत्तरपुरच्छिमं दिसीभागं अवक्कमति अवकमिना वेउवियसमुग्धारणं समोहणइ 1दिव्ययान२ना संखेजाई जोयणाई जाव अहाबायरे पोग्गले २ ता अहामुहमे पोग्गले परियाएइ २ ना दोचंपि उब्धिय कारणं समग्पारणं समोहणिना अणेगखंभसपसन्निविटुं जाव दिव्वं जाणविमाणं विउब्धि पवन याचि होत्था । मू०१४ तए णं से आभिओगिए देवे तस्म दिव्वस्स जाणविमाणस्स तिदिसि तओ तिसोवाणपडिरूवए विउव्वति, तंजहा-पुरच्छिमेणं दाहिणेणं उत्तरणं, तेसिं विसोवाणपडिरुवगाणं इमे एयारुवे वण्णावासे पण्णते, जहा-बहरामश णिम्मा रिट्ठामया पतिद्वाणा वेरुलियामया खंभा सुवण्णरुप्पमया फलगा लोहितकसमइयाओ सूइओ वयरामया संधी णाणामणिमया अवलंबणा अवलंबणबाहाओ य पासादीया जाव पडिरुवा । तेसि णं तिसोवाणपडिरूवगाणं पुरओ तोरणे विउब्वति, तोरणा [तेसि णं] णाणामणिमएस थंभेस उर्वनिविट्ठसंनिविट्ठविविहमुनंतरोवचिया विविहतारारूवोवचिया [ईहामियउसभतुरगणरमगरविहगवालगकिंनररुरुसरभचमरकुंजरवणलयपउमलयभनिचिना संभुग्गय(वर)वाइरवेझ्यापरिगताभिरामा विजाहरजमलजुयलजंतजुनाविव अच्चीसहस्समालिणीया रुवगसहस्सकलिया भिसमाणा भिभिसमाणा चखुकल्लोयणलेसा सुहफासा सस्सिरीयरुवा पासाइया ] जाव पडिरुवा ॥२७॥ 'तए णमित्यादि 'अणेगखंभसयसनिविदुःमिति अनेकेषु स्तम्भशतेषु सन्निविष्ट, 'लीलट्ठियसालिभंजियागामिति लीलया अनुक्रम [१५] JMEauratondal Hunaturanorm अत्र शिर्षक-स्थाने मूल संपादने सूत्र-क्रम विषयक स्खलना दृश्यते-सू० १५ स्थाने सू० १४ इति मुद्रितं सूर्याभदेवस्य दिव्ययान करणं ~57~ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) --------- मूलं [१५...] (१३) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५] दीप स्थिता लीलास्थिताः, अनेन तास पुत्तलिकानां सौभाग्यमावेदयति, लीलास्थिताः शालभज्जिकाः-पुत्तलिका यत्र तत्तथा 'ईहामियउसमतुरगनरमगरविहगवालगञ्जररुरुसरभचमरकुंजरवणलयपउमलयभत्तिचित्तमिति ईहामृगा-वृका ब्यालाः-स्वापदभुजङ्गा इहामृगऋषभनुरगनरमगरविहगव्यालकिनररुरुसरभचमर कुञ्जरवनलतापालतानां भक्त्या-विच्छित्त्या चित्रम् आलेखो यत्र तत्त्था, तथा स्तम्भोगतया स्तम्भोपरिवर्तिन्या बजरत्नमय्या वेदिकया परिगतं सत् यदभिरामं तत्स्तम्भोद्गतवजवेदिकापरिगताभिराम, 'विजाहरजमलजुगलजंतजुचपिव' इति विद्याधरयोर्यद यमलयुगलं-समवेणीकं इन्द्र विद्याधरयमलयुगलं तच तद् यन्त्रं चसञ्चरिष्णुपुरुषप्रतिमाद्यरूपं तेन युक्तं तदेव तथा, अर्चिषा-किरणानां सहचर्मालिनीयं परिचारणीय अर्चिःसहस्त्रमालिनीयं, तथा रूपकसहस्रकलितं, 'भिसमाणति । दीप्यमानं 'भिभिसमानम् अतिशयेन देदीप्यमानं, 'चक्खुल्लोरणलेसंति' चक्षुः क लोकने लिसतीच-दर्शनीयत्वातिशयात लिप्यतीव यत्र तत्तथा, 'सुहफासंति' शुभः कोमलः स्पर्शो यस्य तनथा, सश्रीकानि-19 सशोभाकानि रूपाणि-रूपकाणि यत्र तत् सश्रीकरूपं, 'घण्टावलिचलियमहुरमणहरसर मिति यष्टावले:-घण्टापले यतिवशेन चलिहनायाः कम्पितायाः मधुरः-श्रोत्रपियो मनोहरो-मनोनितिकरः स्वरो यत्र तत्तथा, चलितशब्दस्य विशेप्यात्परनिपातः प्राकृत त्वात् , 'शुभं' यथोदितवस्तुलक्षणोपेतत्वात् ‘कान्त' कमनीयं, अत एव दर्शनीयं, तथा 'निउणोचियमिसिमिसितमणिरयण-| |घंटियाजालपरिखित ' मिति निपुणक्रियमुचितानि-खचितानि 'मिसिमिसित'नि देदीप्यमानानि मणिरत्नानि यत्र तत्तथा तेन, कथंभूतेन ? घण्टिकाजालेन -क्षुद्रवण्टिकासमूहेन परिः-सामस्त्येन सितं-च्याप्तं यत्तत्तथा, योजनशतसहस्रविस्तीण-योजनलक्षविस्तार 'दिव्यं ' प्रधानं 'गमनसज्ज' गमनपवणं शीघ्रगमननामधेयं 'जाणविमाणं' यानरूपं-वादनरूपं विमानं यानविमानं, शेष माग्वत् । अनुक्रम HDOL [१५] Havam arary.org सूर्याभदेवस्य दिव्ययान करणं ~58~ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) --------- मूलं [१५...] (१३) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: श्रीराजपनी मलयगिरी- या वृत्तिः प्रत सूत्रांक [१५] ॥ २८ ॥ दीप अनुक्रम तस्स णमित्यादि, तस्स णमिति पूर्ववत् दिव्यस्य यानविमानस्य तिदिसि' इति तिस्रो दिशः समाहृताखिदिक तस्मिन दिन्ययानविदिशि, तत्र 'तिसोवाणपटिरुपए इति त्रीणि एकैकस्यां दिशि एकैकस्य भावात त्रिसोपानप्रतिरूपकाणि प्रतिविशिष्टं रूपं येषां कारण तानि प्रतिरूपकाणि त्रयाणां सोपानानां समाहारखिसोपानं त्रिसोपानानि च तानि प्रतिरूपकाणि चेति विशेषणसमासः, विशेषणस्यात्र परनिपातः पाकृतत्वात् । 'तेसि णमित्यादि, तेषां च त्रिसोपानप्रतिरूपकाणामयमेतद्रूपो वक्ष्यमाणस्वरूपो ‘वण्णावासो वर्णकनिवेशः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-'वनमया' वरत्नमया 'नेमी नेमिभूमिका तत्र ऊर्दै निर्गच्छन्तः प्रदेशाः रिष्ठरत्नमयानि मतिष्ठानानि-1 | निष्ठानानि त्रिसोपानमूलप्रदेशाः वैडूर्यमयाः स्तम्भाः सुवर्णरूप्यमयानि फलकानि त्रिसोपानाङ्गभूतानि, लोहिताक्षमय्यः सूचयःफलकद्वयसम्बन्धविघटनाभावहेतुपादुकास्थानीयाः 'बत्रमया' बज्ररत्नपूरिताः 'सन्धयः फलकद्वपापान्तरालपदेशाः नानामणि-10 मयानि अवलम्ब्यन्ते इति अवलम्बनानि-अवतरतामुत्तरतां चालम्बनहेतुभूता अवलम्बनबाहातो विनिर्गताः केचिदवयवाः, 'अब-13 लम्बणवाहाओ याति अवलम्बनवाहाश्च नानामणिमय्यः, अवलम्बनवाहा नाम उभयोः पायोरबलम्बनाश्रयभूता भित्तयः, 'पासा-/ इयाओ' इत्यादि पदचतुष्टयं प्राग्वन् । 'तेसि णमित्यादि, तेषां 'णमिति वाक्यालङ्कारे त्रिसोपानप्रतिरूपकाणां पुरतः प्रत्येक तोरणं प्राप्त तेषां च तोरणानामयमेतद्रुपो वर्णावासो-वर्णकनिवेशः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-तोरणा नानामणिमया इत्यादि, कचिदेवं पाठः 'तेसि णं तिसोबाणपडिरूवगाणं पुरतो तोरणे विउव्वद तोरणा नाणामणिमया' इत्यादि, मणय:-चन्द्रकान्तायाः, क ॥२८॥ विविधमणिमयानि तोरणानि नानामणिमयेषु स्तम्भेषु उपनिविष्टानि सामीप्येन स्थितानि, तानि च कदाचिचलानि अधबा अपदपतितानि वाऽऽशक्येरन तत आह-सम्यक्-निश्चलतया अपदपरिहारेण च निविष्टानि, ततो विशेषणसमासः, उपनिविष्टसन्निविष्टानि, 501840 [१५] unsuranorm अत्र शिर्षक-स्थाने मूल संपादने सूत्र-क्रम विषयक स्खलना दृश्यते-सू० १५ स्थाने सू० १४ इति मुद्रितं सूर्याभदेवस्य दिव्ययान करणं ~59~ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) --------- मूलं [१५...] (१३) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: "130050550 प्रत सूत्रांक [१५] विविधमत्तरी (रारूबी) बचियाई' इति विविधा-विविधविच्छित्तिकलिता मुक्ता-मुक्ताफलानि 'अन्तरेति अन्तराशब्दोऽगृहीतवीप्सोऽपि सामाद्वीप्सां गमयति, अन्तरा २ रूपोपचितानि यावता यत्र तानि तथा, 'विविहतारोवचियाई' विविधस्तारारूपैः-तारिकारुपैरुपचितानि, तोरणेषु हि शोभार्थं तारिका निवध्यन्ते इति प्रतीतं लोकेऽपीति विविधतारारूपोपचितानि 'जाव पडिरूवा' इति यावत्करकोणात् 'ईहामिगउसमतुरगनरमगरविहगवालगकिनररुरुसरभचमरकुंजरवणल यपउमलयभत्तिचित्ता खंभुनगयवइरवेक्ष्यापरिगयाभिरामा विजाहरजमलजुगलजंतजुत्ताविव एवं नाम स्तम्भद्वयसनिविष्टानि तोरणानि व्यवस्थितानि यथा विद्याधरयमलयुगलयन्त्रयुक्तानीव प्रतिभासते इति, 'अचीसहस्समालणीया रूवगसहस्सकलिया मिसिमाणा भिम्भिसमाणा चकूखलीयणलेसा सुहफासा, सस्सिरीयरूवा पासाइया दरिसणिज्जा अभिरुवा' इति परिग्रहः, कचिदेतत्साक्षाल्लिखितमपि दृश्यते । तेसि णं तारणाणं उप्पिं अट्ठमंगलगा पण्णता, तंजहा-सात्थियसिरिवच्छणंदियावत्तवद्धमाणगभद्दासणकलसमच्छदप्पणा (जाव पडिरूवा)। तमिं च णं तोरणाणं उप्पिं बहव किण्डचामरज्झए जाव मुक्किलचामरज्झए अच्छे मण्ह रुप्पपट्टे वइरामयदंडे जलयामलगंधिए सुरम्मे पासादीए दरिसणिज्जे अभिरुवे पडिरुवे विउब्वति । तेसि गंतारणाणं उप्पिं बहवे छनातिच्छ ने घंटाजुगल पड़ागाइपडागे उप्पलहत्थए कुमुदणलिणमुभगसोगंधियपोंडरीयमहापाडरीयसतपत्तसहस्सपत्नहत्थए सव्वररणामए अच्छे जाव पडिरुवे विउव्वति । तए णं से आभिभोगिए देवे तस्स दिवस जाणविमाणस्म अंती बहुममरमणिज्जं भूमिभागं विउच्चति । Chan दीप अनुक्रम 2 [१५] . 4500 A nmurary on सूर्याभदेवस्य दिव्ययान करणं ~ 60 ~ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ---------- मूलं [...१५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: कारणं प्रत श्रीराजप्रश्नी मलयगिरी- या वृत्तिः ... ॥२९॥ सूत्रांक [१५] दीप 'तेसिं तोरणाणं उप्पिमित्यादि सुगम, नवरं 'जाव पडिरूवा' इति यावच्छन्दकरणात् 'घट्टा मट्टा नीरया निम्मला निप्पकादिव्ययाननिकंकडच्छाया समिरीया सउज्जोया पासाइया दरिसणिज्जा अभिरुवा ' इति द्रष्टव्य । तेसि णमित्यादि, तेषां तोरणानामुपरि बहवः कृष्णचामरयुक्ता ध्वजाः कृष्णचामरध्वजाः, एवं बहवो नीलचामरध्वजाः, लोहितचामरध्वजाः, हरितचामरध्वजाः, शुक्चामरध्वजाः, मू०१४ कथम्भूता एते सर्वेऽपीत्यत आह-अरछा-आकाशस्फटिकवदतिनिर्मलाः श्लक्ष्णा:-क्ष्णपुद्गलस्कन्धनिमापिताः ‘रुप्पपट्टा' इति रूप्यो-रूप्यरयो बत्रमयस्य दण्डस्योपरि पट्टो येषां ते रूप्वपट्टाः 'वरदंडा' इति बनो-चत्ररत्नमयो दण्डो रूप्यपट्टमध्यवत्ती| येषां ते वदण्डाः, तथा जलजानामिय-जलजकुसुमानां पद्मादीनामिवामलो न तु कुद्रव्यगन्धसाम्मश्रो यो गन्धः स जलजामलगन्धः13 स विद्यते येषां ते जलजामलगन्धिकाः, अत एव सुरम्याः 'प्रासादीपा' इत्यादिविशेषणचतुष्टयं प्राग्वत् । 'तेसि णमित्यादि, तेषां तोरणानामुपरि बहूनि छपातिच्छत्राणि-छत्रान्-लोकपसिद्धात् एकसङ्ख्याकात् अतिशायीनि उत्राणि उपवेधोभावेन द्विस-1 इण्याकानि निसङ्ख्याकानि वा छवातिच्छवाणि, बायपताकाभ्यो लोकमसिद्धाभ्योऽतिशायिन्यो दीर्घत्वेन विस्तारेण च पताका:|| |पताकातिपताकाः, बहूनि घण्टायुगलानि, बहूनि चामरयुगलानि, बहव उत्पलहस्ताः-उत्पलाख्यजलजकुसुमसमूहविशेषाः, एवं बहवः | पग्रहस्तकाः नलिनहस्तकाः सुभगहस्तकाः सौगन्धिकहस्तकाः शतपत्रहस्तकाः सहस्रपत्रहस्तकाः, पद्मादिविभागन्याख्यानं माग्वत्, एते च प्रतिच्छादयः सर्वेऽपि रत्नमया अरछा-आकाशस्फटिकवदतिनिर्मला यावत्करणात् 'सहा लण्हा घटा मट्ठा नीरया निम्मला| निषका निर्णकडच्छाया सप्पभा समिरीया सउज्जोया पासाईया दरिसणिज्जा अभिरूवा' इति परिग्रहः। 'तस्स णमित्यादि, तरस मिति पूर्ववत् दिव्यस्य यानविमानस्य अन्तः- मध्ये बहुसमः सन् रमणीयो बहुरमणीयो भूमिभागः प्रचारः, किंविशिष्ट ? इत्याह अनुक्रम [१५] JAMEauraton IRAL अत्र शिर्षक-स्थाने मूल संपादने सूत्र-क्रम विषयक स्खलना दृश्यते-सू० १५ स्थाने सू० १४ इति मुद्रितं सूर्याभदेवस्य दिव्ययान करणं ~61~ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) प्रत सूत्रांक [१५] दीप अनुक्रम [१५] “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र - १ (मूलं + वृत्तिः) मूलं [... १५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [१३] उपांग सूत्र [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः Jan Education से जहाणामए आलिंगपुखरे ति वा मुइंगपुक्खरे इया सरतले इ वा करतले इ वा चंद्रमंडले इ वा सूरमंडले इ वा आसमंडले इ वा उरम्भचम्मे इ वा ( बसहचम्मे इ वा ) वराहचम्मे इ वा सीहचम्मे इ वा वरघचम्मे इ वा मिगचम्मे इवा (छगलचम्मे इवा) दीवियचम्मे इ वा अणेगसंकुकीलगसहस्सवितए णाणाविहपंचवन्नेहिं मणीहिं उवसोभिते आवडपञ्चावडसेढिपसेढिसोत्थिय (सोवत्थिय) पूसमाणग (वद्धमाणग) मच्छंडगमगरंडगजारामाराफुल्ला व लिव पउमपत्तसागरतरंग बसंतलय उमलयभत्तिचिनेहिं सच्छापहि सप्पमेहिं समरी इएहिं सउज्जोएहिं णाणाविहपंचवष्णेहिं मणीहिं उवसोभिएहिं तंजहा - किण्हेहिं लिहिहिं हालहिं सुकिल्लेहिं, तत्थ णं जे ते किव्हा मणी तेसिणं मणीणं इमे एतारूवे वष्णावासे पण्णत्ते, से जहानामए जीमूतए इ वा अंजणे इ वा खंजणे इ वा कज्जले इ वा गवले इ वा गलगुलिया वा भमरे इ वा भमरावलिया इ वा भमरपतंगसारे ति वा जंबूफले ति वा अदारिट्ठे इ वापरते इ वा गए इ वा गयकलमे इ वा किण्हसप्पे इ वा किण्हकेसरे इ वा आगासथिग्गले वा किन्हासोए इ वा किveकणवीरे इ वा किण्हबंधुजीवे इ वा भवे एयारूवे सिया ?, णो इणट्ठे समट्ठे, (ओवम् समणाउसो !) ते णं किण्हा मणी इत्तो इट्ठतराए चैव कंततराए चैव मणामतराए चैव मणुण्णतराए चेव वण्णेणं पण्णत्ता । तत्थ णं जे ते नीला मणी तेसि णं मणीणं इमे एयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते, सूर्याभदेवस्य दिव्ययान करणं For Pasta Use Only ~62~ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ---------- मूलं [...१५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: श्रीराजप्रश्नीला मलयगिरीया दृतिः शदिव्ययान कारणं प्रत मु०१४ सूत्रांक [१५] दीप अनुक्रम से जहानामए भिंग इ वा भिंगपने इवा सुएइ वा सुयपिच्छे इवा चासे इ वाचासपिच्छे इवा णीली इ वा णीलीभेदे इ वा पीलीगुलिया इ वा सामा इ वा उच्चन्ते इ वा वणराती इ या हलधरवसणे इ वा मोरग्गीवा इ वा अयसिकुसुमे इ वा बाणकुसुमे इ वा अंजणकेसियाकुसुमे इ वा नीलुप्पले इ वा णीलासोगे इ वा णीलबंधुजीवे इ वा णीलकणवीरे इ वा, भवेयारुवे सिया ?, णो इणटे समतु, ते णं णीला मणी एतो इद्रुतराए चेव जाव वण्णेणं पण्णता । तत्थ णं जे ते लोहियगा मणी तेसिणं मणीणं इमेयारूचे वण्णावासे पण्णने,से जहाणामए उरभरुहिर इ वा ससरुहिर इ वा नररुहिरे इ वा वराहरुहिरे दवा (महिमरुहिरे इवा) बालिंदगोवे इ वा बालदिवाकरे इ वा संझम्भरागेइ वा गुंजद्धरागे इ वा जामुअणकुसुम इ वा किंमुयकुसुमे इ वा पालियायकुसुमे इ वा जाइहिंगुलए ति वा सिलप्पवाले ति वा पवालअंकुरे इ वा लोहियकसमणी इ वा लक्सारमगे ति वा किमिरागकंवले ति वा चीणपिट्ठरासी ति वा रनुप्पल इ वा रनासागे ति वा रत्नकणवीर ति वा रत्नबंधुजीवे ति वा, भवेयारुवे सिया ?, णो इणटे सम8, ते णं लोहिया मणी इत्तो इट्ठतराए चेव जाव वण्णेणं पं० । तत्थ णं जे ते हालिहा मणी तेसिणं मणीणं इमेयारूवे वण्णावामे पण्णने- से जहाणामए चंपे ति वा चंपछल्ली ति वा (चंपगभेए इवा) हल्लिद्दा इ वा हलिहाभेदे ति वा हलिहगुलिया ति वा हरियालिया [१५] अत्र शिर्षक-स्थाने मूल संपादने सूत्र-क्रम विषयक स्खलना दृश्यते-सू० १५ स्थाने सू० १४ इति मुद्रितं सूर्याभदेवस्य दिव्ययान करणं ~63~ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ---------- मूलं [...१५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५] दीप वा हरियालभेदे ति वा हरियालगुलिया ति वा चिउरे इ वा चिउरंगरांत ति वा वरकणगे इवा वरकणगनिघसे इ वा [ सुवण्णसिप्पाए ति वा ] वरपुरिसवसणे ति वा अल्लकीकुसुमे ति वा चंपाकुसुमे इ वा कुहंडियाकुसुमे इ वा तडवडाकुसुमे इ वा घोसेडियाकुसुमे इ वा मुवष्णकुसुमे इ वा मुहिरण्णकुसुमे ति वा कोरंटवरमल्लदामे ति वा बीयो ( यकुसुमे ) इ वा पीयासोगे ति वा पीयकणवीरे ति वा पीयबंधुजीवे ति वा, भवेयारूवे सिया ?, णो इणटे समतु, ते णं हालिद्दा मणी एनो इद्रुतराए चेव जाव वण्णेणं पण्णना। तत्थ णे जे ते सुकिल्ला मणी तेसिणं मणीर्ण इमेयारूवे वण्णावासे पण्णने । से जहानामए अंके ति वा संखेति वा चंदे ति वा कुंदे ति वा दंते इवा (कुमुदोदकदयरयदहियणगोक्सीरपुर ) हंसावली इवा कोंचावली ति वा हारावली ति वा चंदावलीति वा सारतियघलाहए ति वा धंतधोयरुप्पपट्टे इवा सालिपिट्ठरासी ति वा कुंदपुप्फरासी ति वा कुमुदरासी ति वा मुक्कच्छिवाडी ति या पिहुणमिजिया ति वा भिसे ति वा मुणालिया ति वा गयदंते ति वा लवंगदलए ति वा पॉडरियदलए ति वा सेयासोगे ति वा सेयकणवीरे ति वा सेयबन्धुजीवे ति वा, भंवयारूवे सिया ?, णो इणढे सम8, ते णं मुकिल्ला मणी एनो इटुतराए चेव जाव बन्नेणं पण्णत्ता। 'से जहानामए' इत्यादि, तत्-सकललोकमसिद्ध 'यथेति दृष्टान्तोपदर्शने 'नामेति शिष्यामन्त्रणे, 'ए' इति वाक्यालङ्कारे, अनुक्रम [१५] REscammad murary.om सूर्याभदेवस्य दिव्ययान करणं ~64~ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ---------- मूलं [...१५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५] श्रीराजपनी आलिंगपुकखरे इ वेति आलिङ्गो-मुरजनामा वाधविशेषः तस्य पुष्करं-चर्मपुटं तत्किलात्यन्तसममिति तेनोपमा क्रियते, इति- दिव्यय मलयगिरीशब्दाः सर्वेऽपि स्वस्वोपमाभूतवस्तुपरिसमाप्तियोतकाः, बाशब्दाः समुच्चये, मृदङ्गने लोकमतीतो मर्दलस्तस्य पुष्करं मृदङ्गापुष्करं करणम या वृत्तिःका परिपूर्ण' पानीयेन भृतं तडाकं सरस्तस्य तलम्-उपरितनो भागः सरस्तलं, करतलं प्रतीत, चन्द्रमण्डलं सूर्यमण्डलं च यद्यपि तत्त्व वृत्त्या उत्तानीकृतार्द्धकपित्थाकारं पीठमासादापेक्षया वृत्तालेखमिति तद्तो दृश्यमानो भागो न समतालस्तथापि प्रतिभासते समतल इति तदुपादानं, आदर्शमण्डल सुप्रसिद्ध, 'उरम्भचम्मे इ. वेत्यादि, अत्र सर्वत्रापि 'अणेगसंकुकीलगसहस्सवितते । इति विशेषण योगः, उरभ्रः-उरणः, वृषभवराहसिंहव्याघ्रच्छगलाः प्रतीताः द्वीपी-चित्रकः, एतेषां प्रत्येकं चर्म अनेकैः शङ्खममाणैः कीलककसहस्रः, महद्भिाह कीलकैस्ताढितं प्रायो मध्ये क्षामं भवति, तथारूफ्ताडासम्भवात् अतः शङ्खग्रहणं, 'विततं ' विततीकृतं ताडितमिति भावः, यथाऽत्यन्तं बहुसमं भवति तथा तस्यापि यानविमानस्यान्तर्वहुसमो भूमिभागः, पुनः कथम्भूत इत्याह-'णाणाविहपंचवन्नेहिं| मणीटिं उबसोभिते ' नानाविधा:-जातिभेदानानाप्रकारा ये पञ्चवर्णा मणयस्तैरुपशोभितः, कथम्भूतैरित्याह-'आवडे' इत्यादि, आव दीनि मणीनां लक्षणानि, तत्रावः प्रतीतः एफस्यावर्चस्य प्रत्यभिमुख आवतः प्रत्यावर्तः श्रेगिः-तथाविधविन्दुजा पङ्किकास्तस्याश्च श्रेणेयर्या च निर्गता अन्या श्रेणिः सा मणिः स्वस्तिकः प्रतीतः सौबस्तिकपुष्पमाणवी लक्षणविशेषी लोकात्मत्येतब्यौ । बर्द्धमानफं-शरावसम्पुटं मत्स्यकाण्डकमकरकाण्डके प्रतीते 'जारमारेति' लक्षणविशेयी सम्यम्मणिलक्षगवेदिनो लोकाद्वेदितव्यो, का पुष्पावलिपनपत्रसागरतरङ्गवासन्तीलतापमलताः सुप्रतीताः तासां भक्त्या-विच्छित्त्या चित्रम्-आलेखो येषु ते आवर्गप्रत्यावनें-18॥३१॥ श्रेणिप्रश्रेणिस्वस्तिकसौवस्तिकपुष्पमाणववर्द्धमानकमत्स्याण्डकमकराण्डकजारमारपुष्पावलिपमपत्रसागरतरङ्गवासन्तीलतापमलताभ दीप Farli अनुक्रम [१५] SAREairabindARAN daunasurary.orm सूर्याभदेवस्य दिव्ययान करणं ~65M Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ---------- मूलं [...१५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५] दीप क्तिचित्रास्तः, किमुक्तं भवति ?-आवादिलक्षणोपेतैः, तथा सच्छायः सती शोभना छाया-निर्मलस्वरूपा येषां ते सच्छाया:, तथा सती-शोभना प्रभा-कान्तिर्येषां ने सत्प्रभाः तैः, 'समरीइएहि ' इति समरीचिकैः बहिानिर्गतकिरणजालसहितैः सोद्योतैःबहिर्व्यवस्थितप्रत्यासन्नवस्तुस्तोमप्रकाशकरोद्योतसहितैः एवम्भूतैर्नानाजातीयैः पञ्चवणमणिभिरुपशोभितः, तानेव पञ्चवर्णानाह जहा-कण्हेहिं' इत्यादि सुगम, 'नत्व णमित्यादि, 'तत्र' तेषां पश्चवर्णानां मणीनां मध्ये'णमिति वाक्यालङ्कमरे, ये ते कृष्णा मणयः, ते कृष्णमणय इत्येव सिद्धे ये इति वचनं भाषाकमार्थ, तेषां 'णमिति पूर्ववत् , अयम्-अनन्तरमुद्दिश्यमान एतद्रुपः-अनन्तरमेव क्ष्यमाणस्वरूपो वर्णावासो-वर्णकनिवेशः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-'से जहानामए' इत्यादि, स यथा नाम 'जीमत ' इति जीमतोबलाहकः, स चेह पाट्यारम्भसमये जलभृतो वेदितव्यः, तस्यैव प्रायोऽतिकालिमसम्भवात् , इतिशब्द उपमाभूतवस्तुनामपरिसमामियोतकः, वाशब्द उपमानान्तरापेक्षया समुच्चये, एवं सर्वत्र, अञ्जन-सौवीराजनं रत्नविशेषो वा, खञ्जनं दीपमल्लिकामल: कज्जलं-दीपशिखापतितं, मषी-तदेव कज्जलं ताम्रभाजनादिपु सामग्रीविशेषेण घोलितं मसीगुलिका घोलितकज्जलगुटिका, कचित कामसी इति वा मसीगुलिया' इति न दृश्यते, 'गवलं माहिषं शृङ्गं तदपि चोपरितनत्यम्भागापसारेण द्रष्टव्यं, तत्रैव विशिष्टस्य है। काकालिनः सम्भवात , तथा तस्यैव माहिपशङ्गनिविडतरसारनिवर्तिता गुटिका गवलगुटिका भ्रमर:-प्रतीतः भ्रमरावली- भ्रमर-13 पतिः भ्रमरपतङ्गन्सार:-भ्रमरपक्षान्तर्गतो विशिष्टकालिमोपचितपदेशः, जम्बूफलं प्रतीतं, आद्रारिष्ठकः-कोमलः काकः, परपुष्टःकोकिलः, गजी गजकलभश्च प्रतीतः, कृष्णसर्पः-कृष्णवर्णसर्पजातिविशेषः, कृष्णकेसर:-कृष्णबकुला आकाशथिग्गलं' शरदि| मेघविनिर्मुक्तमाकाशखण्डं, नद्धि कृष्णमतीव प्रतिभातीति तदुपादानं, कृष्णाशोककृष्णकणवीरकृष्णबन्धुजीवाः अशोककणवरिवन्धु अनुक्रम [१५] SNEaratini Sanitarary.org सूर्याभदेवस्य दिव्ययान करणं ~66~ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ---------- मूलं [...१५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत श्रीराजपनी मलयगिरी- या वृत्तिः ॥३२॥ सूत्रांक [१५] दीप जीवक्षभेदाः, अशोकादयो हि पश्चवर्णा भवन्ति ततः शेषवर्णव्युदासाथ कृष्णग्रहणं, एतावत्युक्ते त्वरावानिव शिष्यः पृच्छति- दिन्ययान भवे एयारुवे ' इति भवेत् मणीनां कृष्णो वर्णः 'एतद्र्पो' जीमृतादिरूपः, मूरिगह-नायमर्थः समर्थः' नायमर्थ उपपत्री करणम् यदुत-एवम्भूतः कृष्णो वर्णो मणीनामिति, यद्येवं तर्हि किमर्थं जीमूतादीनां दृष्टान्तत्वेनोपादानमत आह-औपम्यम्-उपमामात्रमेतत् उदितं हे श्रमण आयुष्मन् !, यावता पुनस्ते कृष्णा मणय 'इतो' जीमूतादेरिष्टतरका एव-कृष्णेन वर्णेन अभीप्सिततरका एव, तत्र किञ्चिदकान्तमपि केषाश्चिदिष्टतम भवति ततोऽकान्तताव्यवच्छित्त्यर्थमाह-कान्ततरका एवं ' अतिस्निग्धमनोहारिकालिमोपचिततया जीमूतादेः कमनीयतरकाः, अत एव मनोज्ञतरका एव-मनसा ज्ञायते-अनुकूलतया स्वप्रवृत्तिविषयीक्रियते इति मनोजमनोऽनुकलं ततः प्रकर्षविवक्षायां तरणत्ययः, तत्र मनोज्ञतरमपि किञ्चिन्मध्यमं भवेत , ततः सर्वोत्कर्षप्रतिपादनार्थमाह-'मन आप-101 तरका एव' द्रष्टणां मनांसि आमुवन्ति-आत्मवशता नयन्तीति मनापास्ततः प्रकर्षविवक्षायां तरणत्ययः, पाकृतत्वाच पकारस्य मकारे मणामसरा इति भवति । तथा 'तत्य णमित्यादि, तत्र तेषां मणीनां मध्ये ये ते नीला मणयस्तेषामयमेतद्रूपी वर्णावासोवर्णकनिवेशः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-' से जहानामए' इत्यादि स यथा नाम भृङ्ग:-कीटविशेषः पक्ष्यल: 'भृङ्गपत्रं' तस्यैव भृङ्गाभिधानस्य कीटविशेषस्य पक्ष्मः, शुक:-कीरः, शुकपिपई शुकस्य पत्रं, चापः-पक्षिविशेषः, 'चापपिच्छं' चापपक्षः, नीली प्रतीता, नीलीभेदो-नीलीच्छेदः, नीलीगुलिका-गुलिकाद्रव्यगुटिका, श्यामाको-धान्यविशेषः, 'उच्चतगो' दन्तरागः, वनराजी प्रतीता, ।। हलधरो-बलदेवस्तस्य वसनं हलधरवसनं, तच किल नीलं भवति सदैव तथास्वभावतया, हलधरस्य नीलवस्त्रपरिधानात् ॥ ३३ मयूरग्रीवापारापतग्रीवाअतसीकुसुमबाणक्षकुसुमानि प्रतीतानि, इत ऊर्दू कचित् 'इंदनीले इ वा महानीले इ वा मरगते अनुक्रम [१५] SAMEaratinidda Manmurary on सूर्याभदेवस्य दिव्ययान करणं ~67~ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) प्रत सूत्रांक [१५] दीप अनुक्रम [१५] “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र - १ (मूलं + वृत्तिः) मूलं [... १५] आगमसूत्र [१३], उपांग सूत्र [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि प्रणीत वृत्तिः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. इ वा ' इति दृश्यते तत्रेन्द्रनीलमहानीलमरकता रत्नविशेषाः प्रतीताः, अञ्जनकेशिका - वनस्पतिविशेषस्तस्य कुसुममञ्जनकेसिकाकुसुमं, नीलोत्पलं कुवलयं, नीलाशोककणवीर नीलबन्धुजीवा अशोकादिवृक्षविशेषाः भवेयारूवे इत्यादि माम्पद् व्याख्येयं । तथा ' तत्थ णमित्यादि, ' तत्र तेषां मणीनां मध्ये ये ते लोहिता मणयस्तेषामयमेतद्रूपो वर्णावासः प्रज्ञप्तः, तद्यथा' से जहानामए' इत्यादि, तद्यथा नाम शशकरुधिरं उरभ्रः ऊरणस्तस्य रुधिरं वराहः- शूकरस्तस्य रुधिरं मनुष्यरुधिरं महिषरुधिरं च प्रतीतं, एतानि हि किल शेषरुधिरेभ्यो लोहितवर्णोत्कटानि भवन्ति तत एतेषामुपादानं, वालेन्द्रगोपकः सद्योजातेन्द्रगोपकः स हि प्रवृद्धः सन्नीपत्पाण्डुरो रक्तो भवति ततो वालग्रहणं, इन्द्रगोपकः- प्रथमप्राकालभावी कीटविशेषः, बालदिवाकरः- प्रथममुद्गच्छन् सूर्यः, ॐ सन्ध्याभ्ररागो - वर्षासु सन्ध्यासमयभावी अभ्ररागः, गुञ्जा-लोकमतीता तस्यार्द्धं रागो गुजार्द्धरामः, गुञ्जाया हि अर्द्धमतिरक्तं भवति अर्द्ध चातिकृष्णमिति गुजार्द्धग्रहणं, जपाकुसुमकिंमुककुसुमपारिजातकुसुमजात्यहिला लोकप्रसिद्धाः, शिलामवालं - प्रवालनामा ॐ रत्नविशेष: प्रवालाङ्कुरः- तस्यैव रत्नविशेषस्य प्रवालस्याङ्कुरः, स हि तत्प्रथमोद्गतत्वेनात्यन्तरक्तो भवति ततस्तदुपादानं, लोहिताक्षमणिर्नाम रत्नविशेषः, लाक्षारसकुमिरागरक्तकम्बलचीनपिष्टराशिरक्तोत्पलरक्ताशोककणवीररक्तबन्धुजीवाः प्रतीताः, 'भवेयारूवे ' इत्यादि प्राम्वत् । 'तत्थ णमित्यादि, 'तत्र' तेषां मणीनां मध्ये ये हरिद्रा मणयस्तेषामेतद्रूपो वर्णावासः प्रज्ञप्तः, तद्यथा'से जहानामए' इत्यादि, स यथानाम चम्पकः सामान्यतः सुवर्णचम्पको वृक्षः, चम्पकच्छली- सुवर्णचम्पकत्वक, चम्पकभेद:सुवर्णचम्पकच्छेदः, हरिद्रा प्रतीता, हरिद्राभेदो-हरिद्राच्छेदः, हरिद्रागुटिका-हरिद्रासारनिर्वर्तिता गुटिका, हरितालिका- पृथिवीविकार| रूपा प्रतीता हरितालिकाभेदो-हरितालिकाच्छेदः, हरितालिकागुटिका - हरितालिकासारनिर्वर्तिता गुलिका, चिकुरो - रागद्रव्यविशेषः, सूर्याभदेवस्य दिव्ययान करणं For Parts Only ~68~ norary.org Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ---------- मूलं [...१५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५] दीप श्रीराजमश्नी चिकुराङ्गरागः चिकुरसंयोगनिर्मितो वस्त्रादौ रागः, वरकनकस्य-जात्यसुवर्णस्य यः कषपट्टके निधर्षः स वरकनकनिधर्षः परपुरु- दिव्ययानजलगिरी-16षो-वासुदेवस्तस्य वसनं वरपुरुपवसनं, तच किल पीतमेव भवतीति तदुपादान, अल्लुकीकुसुमं लोकताऽवसेय, चम्पककुसुम-सुवर्ण- करणम या वृत्तिःचम्पकपुष्पं कूष्माण्डीकुसुम-पुष्पफली कुसुमं, कोरण्टक:-पुष्पजातिविशेषः तस्य दाम कोरण्टकदाम तटवडा--आउली तस्याः कुसुम तिवडाकुसुम, घोशातकीकुसुमं सुवर्णयूधिकाकुसुमं च प्रतीतं, मुहिरण्यका-वनस्पतिविशेषस्तस्याः कुसुमं सुहिरण्यकाकुसुम, बीयको-कामुक २३॥शक्षा प्रतीतः तस्य कुमुमं धीयककुमुम, पीताशोकपीतकणवीरपतिबन्धुनीवाः प्रतीताः, 'भवेयारूवे । त्यादि प्राग्वत् । 'तत्थ णमि' हत्यादि, 'तत्र' तेषां मणीनां मध्ये ये शुका मणयस्तेषामयमेतद्रूपो वर्णावासः प्रज्ञप्तः, तयथा से जहानामए ' इत्यादि, | स यथानाम ' अङ्कगे' रत्नविशेषः, शचन्द्र (दतकुन्द ) कुमुद्रोदकोद करजोदधिधनगोक्षीरपूरकोचावलिहारावलि सावलिबलाकावलयः प्रतीताः, चन्द्रावली-तहागादिपु जलमध्यप्रतिविम्बितचन्द्रपतिः, 'सारइयवलाहगे इति वा' शारदिक:-शरत्कालभावी बलाहको मेघः, 'धन्तधोयरुप्पपट्टे इवेति' ध्मातः-अग्निसम्पर्कण निर्मलीकृतो धाता-भूतिखरण्ठितहस्तसंतजेनेन अतिनिशितीकृतो यो रुप्यपट्टी रजतपत्रकं स ध्यातधौतरुप्यपहः, अन्ये तु व्याचक्षते-ध्मातेन-अग्निसंयोगेन यो चौतः-शोधितो रूप्यपट्टः स ध्मातधीतरूप्यपट्टा, शालिपिष्टराशि:-शालिलोदपुञ्जः, कुन्दपुष्पराशिः कुमुदाशिव प्रतीतः, 'सुकछेवाडिया इवे' ति छेवाडिनामबल्लादिफलिका सा च कचिद्देशविशेषे शुष्का सती अतीव शुक्ला भवति ततस्तदुपादान, 'पेहुणमिजिया इवेति' पेहुण-मयूरपिच्छं तन्मध्यवर्तिनी पेहुणमिञ्जिका सा चातिशुक्रुति तदुपन्यासः, विसं 'पद्मनीकन्दः, 'मृणालं पद्मतन्तु गजदन्तलवङ्गन्दलपुण्डरीकदलश्वेताशो- ॥३३॥ कवेतकणवीर श्वेतबन्धुजीवाः प्रीताः, 'भवेयारूवे सिया' इत्यादि प्राग्वत् । तदेवमुक्त वर्णस्वरूपं, सम्पति गन्धस्वरूपं प्रतिपादनार्थमाह अनुक्रम [१५] सूर्याभदेवस्य दिव्ययान करणं ~69~ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ---------- मूलं [...१५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५] दीप तसिणं मणीणं इमेयारूवे गंधे पण्णन, से जहानामए कोट्ठपुडाण वा तगरपुडाण वा एलापुडाण वा चोयपुडाण वा चंपापुडाण या दमणापुडाण वा कुंकुमपुडाण वा चंदणपुडाण वा उसीरपुडाण वा मरुआपुडाण वा जातिपुडाण वा जूहियापुडाण वा मल्लियापुडाण वा हाणमल्लियापुडाण वा केतगिपुडाण वा पाइलिपुडाण वा णोमालियापुडाण वा अगुरुपुडाण वा लवंगपुडाण वा कप्परपुडाण वा वासपुडाण वा अणुदायसि वा ओभिज्जमाणाण वा कोट्टिजमाणाण वा भंजिजमाणाण वा उक्किरिजमाणाण वा विक्किरिजमाणाण वा परिभुजमाणाण वा परिभाइजमाणाण वा भंडाओ वा भई साहरिज्जमाणाण वा ओराला मणुण्णा मणहरा घाणमणनिब्युतिकरा सब्बतो समंता गंधा अभिनिस्मयंति, भवेयारवे, सिण?,णो इणट्ठ समढे, ते णं मणी एनो इट्ठतराए चेव गंधेणं पन्नना। 'तेसि णमित्यादि, तेषां मणीनामयमेतद्रूपो गन्धः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-' से जहानामए ' इत्यादि, प्राकृतत्वात् 'से' इति बहुवचनार्थः प्रतिपत्तव्यः, ते यथा नाम गन्धा अभिनिर्गच्छन्तीति सम्बन्धः, कोठं-गन्धद्रव्यं तस्य पुटाः कोष्ठपुटास्तेवा, वाशब्दाः सर्वत्रापि समुच्चये, इह एकस्य पुटस्य प्रायो न तादृशो गन्ध आयाति, द्रव्यस्याल्पत्वात् , ततो बहुवचनं, तगरमपि गन्धद्रव्यं, एलाः प्रतीताः, चोयं-गन्धद्रव्यं चम्पकदमनककुङ्कमचन्दनोशीरमरुकजातीयूथिकामल्लिकानानमल्लिकाकेतकीपाटलीनवमालिकाऽगुरुलबङ्गकुसुमवासकर्पूराणि प्रतीतानि, नवरसुशीरं-वीरणीमूलं स्लानमल्लिका-सानयोग्यो मल्लिकाविशेषः, एतेषां पुटानाम-121 अनुक्रम [१५] armurary.orm सूर्याभदेवस्य दिव्ययान करणं ~ 70~ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ---------- मूलं [...१५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५] दीप अनुक्रम श्रीराजप्रश्नीनुवाते-आघायकविवक्षितपुरुषाणामनुकूले वाते वाति सति उद्भिद्यमानानामुद्घाश्यमानानां वाशब्दः सर्वत्रापि समुच्चये 'कु-दिव्ययानमलयगिरी-हिज्जमाणाण वा ' इति इह पुटैः परिमितानि यानि कोष्टादीनि गन्धद्रव्याणि तान्यपि परिमेये परिमाणोपचारात् कोष्ठपुटादीनीत्यु- करणम् या वृत्तिःच्यन्ते तेषां कुट्यमानानाम्-उदूखले खुद्यमानानां 'भजिज्जमाणाण वा' इति श्लक्ष्णखण्डीक्रियमाणाना एतच्च विशेषणद्वयं कोष्ठादिद्रव्या शाणापवसेयं, तेषामेव प्रायः कुट्टनश्लक्ष्णखण्डीकरणसम्भवात् , न तु यूथिकादीना, 'उक्किरिजमाणाण वा' इति क्षरिकादिभिः कोष्टादिपटानां ॥३४॥ कोष्ठादिद्रव्याणां वा उत्कीर्यमाणानां 'विकिरिजमाणाण वा' इति विकीर्यमाणानामितस्ततो विप्रकीर्यमाणानां परिभुज्जमाणाण वा' परिभोगाय उपयुज्यमानाना, कचित् 'परिभाइज्जमाणाण वा ' इति पाठस्तत्र परिभाइज्जमाणानां पार्ववत्तिभ्यो मनाग दीय-12 मानानां, 'भंडाओ भंडे साहरिजमाणाण वा' इति भाण्डात्-स्थानादेकस्मादन्यद् भाई-भाजनान्तरं संद्वियमाणानां उदारा:स्फारास्ते चामनोज्ञा अपि स्युरत आह-मनोज्ञा-मनोऽनुकूलाः तच्च मनोज्ञत्वं कुत इत्याह-मनोहराः-मनो हरन्ति-आत्मवशं नयन्तीति . मनोहराः, इतस्ततो विप्रकीर्यमाणेन मनोहरत्वं, कुतः? इत्यार-घ्राणमनोनिविकराः, एवंभूताः सर्वतः सर्वासु दिक्षु समन्ततःसामस्त्येन गन्धा अभिनिस्सरन्ति, जिघ्रतामभिमुखं निस्सरन्ति, कचित् ' अभिनिस्सवन्तीति । पाठः, तत्रापि स एवार्थों नवरमभितः सवन्तीति शब्दसंस्कारः, एवमुक्ते शिष्यः पृच्छति- भवेयारुवे सिया' स्यादेतत् यथा भवेद् एतद्रूपस्तेषां मणीनां गन्धः ?, मूरिराह-'नो इणढे समढे ' इत्यादि प्राग्वत् । ॥३४॥ तेसि णं मणीणं इमेयारूचे फासे पण्णचे, से जहानामए आइणेति वा रूए ति वा बूरे इ वा णवणी [१५] आ Cardiarary.org सूर्याभदेवस्य दिव्ययान करणं ~71~ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) प्रत सूत्रांक [१५] दीप अनुक्रम [१५] “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र - १ (मूलं + वृत्तिः) मूलं [...१५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [१३], उपांग सूत्र [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि प्रणीत वृत्तिः Education ए इ वा हंसगम्भतुलिया इ वा सिरीसकुसुमनिचये इ वा बालकुसुमपत्तरासी ति वा भवेयारूवे मिया?. it इट्टे समट्ठे, तणं मणी एतो द्रुतराए चैव जाव फासेणं पन्नत्ता ॥ ' तेसि णमित्यादि, तेषां 'णमिति प्राग्वन्मणीनामयमेतद्रूपः स्पर्शः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-' से जहानामए' इत्यादि, तद्यथाअजिनकं चर्ममयं वस्त्रं रुतं प्रतीतं चूरो- वनस्पतिविशेषः नवनीतं त्रक्षणं हंसगर्भतूलीशिरीषकुसुमनिचयाश्च प्रतीताः, 'बालकुमुदपनरासी इव' इति बालानि-अचिरकालजातानि यानि कुमुदपत्राणि तेषां राशिर्वालकुमुदपत्रराशिः, कचिद् 'वालकुसुमपत्रराशि: ' इति पाठः, 'भवे एयाख्वे' इत्यादि प्राग्वत् । ! तएण से आभियोगिए देवे तस्स दिवस जाणविमाणस्य बहुमज्झदसभागे एत्थ णं महं पिच्छाघरमंडवं विउच्च अणेगखंभसयसंनिवि अब्भुग्गयसुकयवरं वेश्या तोरणवरर इयसालभंजियागं सुमिलिदुविट्ठलमंत्रियपमत्थंवरु लियविमलखंभं णाणामणि [ कणगरयण] खचियउज्जल बहुम सम सुविभ सभाइए ईहामियउसभतुरगनरमगरविहगवालगकिन्नररुरुसरभचमर कुंजरवणलयपउम लयभत्तिचित्तं कंचणमणिरयणथूभियागं णाणाविहपंचवण्णघंटा पडागपरिमंडियग्गसिहरं चवलं मरीतिकवयं विणिम्यंत लाउलोइयमहियं गोसीस [ सरम ] रतचंदणदरदिनपंचंगुलितलं उवचिय चंद्रणकलर्स चंदणघडसुकयतोरणपडिदुवारदेसभागं आसत्तोसत्तविजलवट्टवग्घारियमल्लदामकलावं पंचवष्णसरससुरभि - सूर्याभदेवस्य दिव्ययान करणं For Parts Only ~72~ anibrary o Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) प्रत सूत्रांक [१५] दीप अनुक्रम [१५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. श्रीराजमनी मलयगिरीया वृत्तिः ॥ ३५ ॥ Jan Eatin “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र - १ (मूलं + वृत्तिः) सूर्याभदेवस्य दिव्ययान करणं मूलं [...१५] आगमसूत्र [१३], उपांग सूत्र [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः मुक्कपुप्फपुंजोवयारकलियं कालागुरुपवरकुंदरूक्कतुरुकधूवमघमतगंजु दुग्राभिरामं सुगंधवरगंधियं गंधवट्टिभूतं दिव्यं तुडियमद्दसंपणाइयं अच्छरगणसंघविकिण्णं पासाइयं दरिसणिज्जं जाब पडिरूवं । तस्स णं पिच्छाघरमंडवस्स बहुसमरमणिज्जभूमिभागं विउब्वति जाव मणीणं फासो । तस्स णं पेच्छाघरमंडवस्स उल्लोयं विच्यति पउमलयभत्तिचित्तं जाव पडिरूवं । तस्स बहुसमरमणि जस्त भूमिभागस्स बहुमज्झसभाए एत्थ णं महं एगं वदरामयं अक्खाडगं विउब्वति । तस्स णं अक्वाइयस्स बहुमज्झदेसभागे एत्थ णं महेगं मणिपेढियं विउब्बति अट्टजीयणाई आयामविकखंभेणं चत्तारि जोयणाई बाहल्लेणं सव्वं मणिमयं अच्छं सहं जाव पडिवं । तीसे णं मणिपढियाए उवरि एत्थ णं महेगं सिंहासणं विउव्वद तस्स णं सीहासणस्स इमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते तवणिज्जमया चकला रययामया सीहा सोवणिया पाया णाणामणिमयाई पायसीसगाईं जंबूणयमयाईं गत्ताई वदरामया संधी णाणामणिमये बच्चे, से णं सीहासणे इहामियउसभतुरगनरमगरविहगवाल गर्किन्नररुरुसरभ चमरकुंजरवणलयपउमलयभत्तिचित्तं [सं] सारसारोवचियमणिरयणपायवीडे अच्छरगमिउमसूरगणयतवकु संत लिम्बकेसरपञ्चथुयाभिरामे सुविरइयरयाणे उवचियखोमदुगुल्ल पट्टपडिच्छायणे रतंसुअसं सुरम्मे आईणगरूयबूरणवर्णीयतूलफासे मउ पासाइए ४ । For Par Lise Only ~73~ दिव्ययानकरणम् सू० १५ ।। ३५ ।। Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ---------- मूलं [...१५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५] दीप 'तए णमित्यादि, ततः स आभियोगिको देवस्तस्य दिव्यस्य यानविमानस्य बहुमध्यदेशभागे अत्र महत्प्रेक्षागृहमण्डपं विकुति, कथम्भूतमित्याह-अनेकस्तम्भशतसनिविष्टं तथा अधुगता-अत्युत्कटा सुकृता-मुष्ट निष्पादिता वरवेदिकानि तोरणानि बररचिताः शालभञ्जिकाध यत्र तदभ्युद्गतसुकृतवरवेदिकातोरणवररचितशालभञ्जिकार्क, तथा मुश्लिटा विशिष्टा लसंस्थिताः-मनोज्ञ-10 संस्थानाः प्रशस्ताः प्रशस्तवास्तुलक्षणोपेता वैडूयविमलस्तम्भा-चैयरत्नमया विमलाः स्तम्भा यत्र तत् सुश्लिष्टविशिष्टलष्टसंस्थितपशस्तवड्यविमलस्तम्भ, तथा नाना मणयः खचिता यत्र भूमिभागे स नानामणिखचितः मुखादिदर्शनात् क्तान्तस्य पाक्षिकः परनिपातः नाणामणिखचित उज्ज्वलो बहुसमा अत्यन्तसमः मुविभक्तो भूमिभागो यत्र तत् नानामणिखचितोज्ज्वलबहुसममुविभक्तभूमिभाग, तथा इहामृगा काः ऋषभतुरगनरमगरविहगाः प्रतीताः ब्याला:-स्वापदभुजगाः किंनरा-व्यन्तरविशेषाः रुरचो मृगाः सरभाः-आटव्या महाकायाः पशवः चपरा-आटच्या गावः कुञ्जरा-दन्तिनः वनलता-अशोकादिलताः पालताः पविन्यः एतासां भक्त्या-विच्छित्त्या |चित्रम्-आलेखो यत्र तदिहामृगऋषभतुरगनरमकरविहगव्यालकिन्नररुरुसरभचमरकुञ्जरवनलतापमलताभक्तिचित्रं, तथा स्तम्भोगतया-स्तम्भोपरिवर्तिन्या बन्चरत्नमय्या वेदिकया परिगतं सद् यदभिरामं तत् स्तम्भोगतवनवेदिकापरिगताभिरामं, 'विजाहरजमलजुगलजन्तजुत्तं पिब अञ्चीसहस्समालिणीय मिति विद्या धरन्तीति विद्याधरा-विशिष्टविद्याशक्तिमन्तः तेषां यमलयुगलानि-समानशीलानि द्वन्द्वानि तेषां यन्त्राणि-प्रपश्चविशेषास्तैर्युक्तमिव अर्चिषां-मणिरत्नप्रभाज्वालानां सहस्रमालनीयं-परिचा-2 चारणीयं, किमुक्तं भवति ?-एवं नाम अत्यद्भुतमणिरत्नप्रभाजालैराकलितमिव भाति यथा नूनमिदं न स्वाभाविकं, फिन्त विशिष्टविद्याशक्तिमत्पुरुषप्रपश्चप्रभावितामिति, 'रूवगसहस्सकलितं भिसिमाणं भिभिसमाणं चकखुल्लोयणलेसं मुहफास सस्सि-R अनुक्रम [१५] Santaintamanna muraryorg सूर्याभदेवस्य दिव्ययान करणं ~ 74~ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ---------- मूलं [...१५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५] दीप अनुक्रम श्रीराजपनी जारीयरूवामिति माग्वत्, कचिदेतन दृश्यते, 'कश्चणमणिरयणथूभियाग'मिति काश्चनं च मणयश्च रत्नानि च काश्चनमणिर-दिव्ययानमलयगिरी- नानि तेषां तन्मयी स्तूपिका-शिखरं यस्य तत्तथा नानाविधाभिः-नानाप्रकाराभिः पञ्चवर्णाभिर्घष्टाभिः पताकाभित्र परि सामस्त्येन करणम् या वृत्तिः मण्डितमग्रं शिखरं यस्य तन्नानाविधपश्चवर्णघण्टापताकापरिमण्डिताग्रशिखर, चपलं-चञ्चलं चिकचिकीयमानत्वात् मरीचिकवचं-कि रणजालपरिक्षेपं विनिर्मुश्चत् ' लाउल्लोइयमहियामिति लाइयं नाम-यद्भूमोमयादिनोपलेपनं उल्लोइयं-कुड्यानां मालस्य च सेटि" कादिभिः सम्पृष्टीकरणं लाउल्लोइयाभ्यामिव महितं पूजितं लाउलोइयमहियं, तथा गोशीण-गोशीर्षनामकचन्दनेन दर्दरेण बहलेन चपेटाकारेण वा दत्ताः पश्चाङ्गुलयस्तला-हस्तका यत्र तद्दोशीर्षरक्तचन्दनददरदत्तपश्चाङ्गालितलं, तथा उपचिता-निवेशिताः चन्दनकलशा-मङ्गलकलशा यत्र तदुपचितचन्दनकलश, 'चंदणघडसुकयतोरणपडिदुवारदेसभागमिति' चन्दनघदैः- चन्दनकलशैः सुकृतानि-सुष्ठ कृतानि शोभितानीति तात्पर्यार्थः, यानि तोरणानि तानि चन्दनघटसुकृतानि तानि तोरणानि प्रति द्वारदेशभाग-द्वारदेश-13 भागे यत्र तत् चन्दनघटसुकृततोरणप्रतिद्वारदेशभार्ग, तथा 'आसोसत्तविपुलबट्टबग्धारियमल्लदामकलाब 'मिति आ-अवाङ, अधोभूमी लग्न इत्यर्थः, उत्सतं-ऊर्बसक्तं उल्लोचतले उपरि सम्बद्ध इत्यर्थः विपुलो-विस्तीर्णः वृत्तो-वषुलः वग्यास्यि इति-प्रल-16 लम्बितो माल्यदामकलापः पुष्पमालासमूहो यत्र तदासकोत्सतविपुलवृत्तमलम्बितमाल्यदामकलापं, तथा पश्चवर्णेन सरसेन-सच्छा-14 येन सुरभिणा मुक्तेन-क्षिसेन पुष्पपुञ्जलक्षणेनोपचारेण-पूजया कलितं पञ्चवर्णसरससुरभिमुक्तपुष्पपुजोपचारकलितं, 'कालागुरुषव ||३६ जारकुन्दुरुक्कतुरुकधूवमघमघंतगन्धुद्धयाभिरामं सुगंधवरगंधियं गंधचट्टिभूय' मिति प्राग्वत, तथा अप्सरोगणानां सङ्यः-समुदायस्तेन सम्यग् रमणीयतया विकीर्ण-व्याप्तमप्सरोगणसङ्घविकीर्ण, तथा दिव्यानां त्रुटितानाम् आतोद्यानां वेणुवीणामृदङ्गादीनां ये| क [१५] Jumitaram.org सूर्याभदेवस्य दिव्ययान करणं ~ 75~ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) प्रत सूत्रांक [१५] दीप अनुक्रम [१५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. Ja Eratur “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र - १ (मूलं + वृत्तिः) मूलं [... १५] आगमसूत्र [१३], उपांग सूत्र [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः शब्दास्तैः सम्प्रणादितं सम्यक् - श्रोत्रमनोहारितया प्रकर्षेण नादितं-शब्दवद दिव्यत्रुटितशब्दसम्मणादितं, ' अच्छं जाव पटिरुव' मिति यावच्छब्दकरणात् ' अच्छं सहं घट्टं मठ्ठे नीरयं निम्मलं निष्पकं निकंकडच्छायं सप्पभं समिरियं सज्जोयं पासाइयं दरिसणिज्जं अभिरुवं पडिरूत्र' मिति द्रष्टव्यं एतच प्राग्वद्धाख्येयं । 'तस्स णमि 'त्यादि, तस्य 'णमिति प्राग्वत् प्रेक्षागृहमण्डपस्यान्तः-मध्ये बहु35) समरमणीयं भूमिभागं विकुर्वन्ति, तद्यथा--आलिंगपुष्करमिति वे त्यादि, तदेव तावद्वक्तव्यं यावन्मणिस्पर्शसूत्रपर्यन्तः, तथा चाह--'जावमणीणं फासो' इति । 'तस्स णमित्यादि, तस्य णमिति पूर्ववत् प्रेक्षागृहमण्डपस्य उल्लोकम् - उपरिभागं विकुर्वन्ति पद्मलताभक्तिचित्रं 'जाव पडिख्वमिति, यावच्छन्दकरणात् 'अच्छे सह भित्यादिविशेषणकदम्बकपरिग्रहः । ' तस्स णमित्यादि, तस्य बहुसमॐ रमणीयस्य भूमिभागस्य बहुमध्यदेशभागे अत्र 'ण 'मिति पूर्ववत् एकं महान्तं वज्रमयमक्षपार्ट विकुर्वन्ति, तस्य चाक्षपाटकस्य बहुमध्यदेशभागे तत्रैकां महतीं मणिपीठिकां विकुर्वन्ति, अष्टौ योजनान्यायामविष्कम्भाभ्यां चत्वारि योजनानि बाहुल्येन - उच्चैस्त्वेनेति । भावः कथंभूतां तां विकुर्वन्तीत्यत आह सर्वमणिमयी' सर्वात्मना मणिमयीं यावत्करणादच्छामित्यादिविशेषण समूहपरिग्रहः, तस्याश्च मणिपीठिकाया उपर्यत्र महदेकं सिंहासनं विकुर्वन्ति, तस्य च सिंहासनस्यायमेतद्रूपो वर्णावासः प्रज्ञप्तः, तद्यथा तपनीयमयाः चकला ॐ रजतमयाः सिंहास्तैरुपशोभितं सिंहासनमुच्यते, सौवर्णिकाः सुवर्णमयाः पादाः नानामणिमयानि पादशीर्षकाणि-पादानामुपरितना, अवयवविशेषाः, जम्बूनदमयानि गात्राणि वज्रमया - वञ्चरत्नापूरिताः सन्धयो- गात्राणां सन्धिमेलाः नानामणिमयं वेथं-तज्जातः 'से णं सीहासण इत्यादि' तत् सिंहासनमीहामृगऋषभतुरगनरमकरव्यालककिन्नररुरुसरभचमरवनलतापद्मलताभक्तिचित्रं '[सं] सारसारोवचियमणिरयणपायपीढ' मिति [सं] सारसारैः -प्रधानैः मणिरत्नैरुपचितेन पादपीठेन सह यत्तत्तथा प्राकृतत्वाच्च पदोपन्यासव्य ७ सूर्याभदेवस्य दिव्ययान करणं For Pasta Use Only ~76~ 03010301083030 Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ---------- मूलं [...१५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: विमान प्रत सूत्रांक [१५] श्रीराजप्रश्नीत्ययः 'अच्छरयमउममूरगनवतयकुसन्तलिम्बकेसरपञ्चत्थुयाभिरामे इति' अस्तरकम्-आच्छादकं मृदु यस्य मसूरकस्य तद-दिव्ययानमलयगिरी- स्तरकमृदु, विशेषणस्य परनिपातः प्राकृतत्वात् , नवा त्वक् येषां ते नवत्वचः कुशान्ताः-दर्भपर्यन्ता नवत्वचच ते कुशान्ताश्च नवत्वया वृत्तिःकुशान्ता:-प्रत्यग्रत्वग्दर्भपर्यन्तरूपाणि लिम्बानि-कोमलानि नमनशीलानि च केसराणि मध्ये यस्य ममूरकस्य तत् नवत्वकु करणम् शान्तलिम्बफेशरम् आस्तरकमृदुना ममरकेण नवत्यकुशान्तलिम्बफेसरेण प्रत्यवस्तृतम्-आच्छादितं सत् यदभिरामं तत्तथा, ॥ ३७॥ विशेषणपूर्वापरनिपातो यादृच्छिकः प्राकृतत्वात् , 'आईणगरुअबूरनवणीयतूलफासे ' इति पूर्ववत् , तथा 'सुचिरइयरयत्ताणे तथा सुष्टु विरचितं सुविरचितं रजखाणमुपरि यस्य तत्सुविरचितरजस्त्राणं, "उवचियखोमियदुगुलपट्टपहिच्छयणमिति, उपचितं-परिकर्मित यत्क्षामं दुकूलं कार्पासिकं वस्त्रं परिच्छादनं रजखाणस्योपरि द्वितीयमाच्छादनं यस्य तत्तथा, तत उपरि 'रत्तंसुयसंधुडे' इति रक्तांशुकेन-अतिरमणीयेन रक्तेन वस्त्रेण संवृतम्-आच्छादितमत एव सुरम्यं, 'पासाइए दरिसणिजे अभिख्ये पडिरूले ' इति प्राग्वत् ।। तस्स गं सिंहासणस्स उवरि एत्थ णं महेगं विजयस विउबंति, संखंक( संख)कुंदगरय अमयमहियफणगुंजसंनिगासं सबरयणामयं अच्छं सहं पासादीयं दरिमणि अभिरुवं पडिरूवं । तस्सणं सीहासणस्स उवार विजयदूसस्स य बहुमज्झदेमभागे एल्थ णं (महं एगं) पयरामयं अंकुस विउचंति, तस्सिं च णं वयरामयंसि अंकुसंसि कुंभिक्के मुत्तादामं विउर्वति । से णं कुंभिक्के मुत्तादामे अन्नहिं चउहि अद्धकुंभिकहिं मुनादामहिं तदद्धञ्चनपमाणेहि सवओ समता संपरिखिचे । ते णं दामा तवणिज DISHA दीप अनुक्रम [१५] RELIGunintentiational Thingstaram.org सूर्याभदेवस्य दिव्ययान करणं ~ 77~ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ---------- मूलं [...१५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५] दीप लंबसगा सुवण्णपयरगमंडियग्गा णाणामाणिरयणविविहहारद्वहारउवसोभियसमुदाया ईसिं अण्णमण्णमसपना वाएहिं पुब्बावरदाहिणुनरागएहिं मंदाय मंदाय एइज्जमाणाणि २ पलंघमाणाणि २ पेजंज[पज्झंझ] माणाणि २ उरालेण मणुनेणं मणहरेणं कण्णमणणिज्बुतिकरणं सद्देणं ते पएसे सवओ समंता आपूरेमाणा सिरीए अतीव २ उपसोभेमाणा चिटुंति । तए णं से आभिओगिए देवे तस्स सिंहासणस्स अबरुत्तरेण उत्तरेणं उत्तरपुरच्छिमेणं एत्थ णं सरिआभस्म देवस्स चउण्डं सामाणियसाहस्सीणं चत्तारि भद्दासणसाहस्सीओ विउवा, तस्स णं सीहासणस्स पुरच्छिमेणं एस्थ णं सूरियाभस्त देवस्म चउण्डै अग्गमहिसीणं सपरिवाराणं चत्नारि भद्दाराणसाहस्सीओ विउच्वइ, तस्स णं सीहासणस्स दाहिणपुरच्छिमणं एस्थ ण सरियाभस्स देवस्स अभिंतरपरिसाए अट्ठण्हे देवसाहस्सीणं अट्ठ भद्दामणसाहस्मीओ विउबइ, एवं दाहिणणं मज्झिमपरिसाए इसण्हं देवसाहस्सीणं दस भद्दासणसाहसीओ विउबति दाहिणपञ्चस्थिमेणं बाहिरपरिसाए बारसहं देवसाहस्सीणं बारस भद्दासणसाहस्सीओ विउव्यति पञ्चत्थिमण सनण्हं अणियाहिवतीणं सन भद्दासणे विउवति, तस्स णं सीहासणस्स चउदिसि एस्थण मरियाभस्स देवस्स सोलसण्हं आयरक्खदेवसाहस्सीणं सोलस भद्दासणसाहस्सीओ विउत्वति, तंजहा-पुरच्छिमेणं चत्नारि साहस्सीओ दाहिणणं चत्तारि माहस्सीओ पञ्चत्थिमे णं चत्तारि साहस्सीओ उत्तरेणं अनुक्रम [१५] Santaratinid सूर्याभदेवस्य दिव्ययान करणं ~ 78~ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ---------- मूलं [...१५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: श्रीराजप्रश्नी मलयगिरी या वृत्तिः ॥ ३८॥ दिव्ययानविमानकरणम् प्रत सूत्रांक [१५] सु०१५ दीप चनारि साहस्सीओ । तस्स दिवस जाणविमाणस्स इमेयारूचे वण्णावासे पण्णने, से जहानामए अइरुग्गयस्स वा हेमंतियवालियमूरियस्स वा खयरिंगालाण वा रतिं पज्जलियाण वा जावाकुसुमवणस्स वा किंसयवणस्स वा पारियायवणस्स वा सव्वतो समंता संकुसुमियस्स, भवेयारूचे सिया ?, णो इणटे समटे, तस्स णं दिव्वस्स जाणविमाणस्स एतो इट्रतराए चेव जाव वण्णणं पण्णने, गंधो य । फासो य जहा मणीणं । तए णं से आभिआगिए देवे दिवं जाणविमाणं विउब्बइ २ ना जेणेव मुरियाभे देवे तेणेव उवागच्छद २ ता सूरियाभं देवं करयलपरिग्गहियं जाव पञ्चप्पिणंति ॥ (स०१५) 'तस्स णमित्यादि, तस्य सिंहासनस्योपर्युल्लोके 'अत्र' अस्मिन् स्थाने महदेकं विजयदुष्य-वस्त्रविशेषः, आह च जीवाभिगममूलटीकाकृत-'विजयदृष्यं वस्खविशेष ' इति, तं विकुर्वन्ति-स्वशक्त्या निष्पादयन्ति, कथम्भूतमित्याह-- 'शकुन्ददकरजोऽमृतमथितफेनपुञ्जसन्निकाशं' शङ्कः प्रतीतः, कुन्देति-कुन्दकुमुर्म दकरजः-उदककणाः अमृतस्य क्षीरोदधिजलस्य मथितस्य यः फेनपुञ्जो-डिण्डीरोत्करः तत्सन्निकाशं-तत्समप्रभ, पुनः कथम्भूतमित्याह-'सव्वरयणामय' सर्वात्मना रत्नमयं 'अच्छे सहं पासाइयमि'त्यादिविशेषणजाल प्राग्वत् । तस्स णमित्यादि, तस्य सिंहासनस्योपरि तस्य विजयदुष्यस्य बहुमध्यदेशभागेऽत्र महान्तमेकं वज्रमयं-बजरत्नमयमकुशम्-अङ्कुशाकारं मुक्तादामावलम्बनाश्रयं विकुर्वन्ति, तस्मिंश्च बत्रमयेऽनुशे महदेकं कुम्भाग्रं-मगधदेशप्रसिद्धं कुम्भपरिमाणं मुक्तादाम विकुर्वन्ति । 'से णमित्यादि, तत्कुम्भाग्रं मुक्तादाम अन्यैश्चतुर्भिः कुम्भागः-कुम्भपरिमाणैर्मुक्तादाम अनुक्रम [१५] BSIT३८॥ JAMEauraton सूर्याभदेवस्य दिव्ययान करणं ~79~ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ---------- मूलं [...१५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५] दीप काभिस्तदोच्चत्वप्रमाणमात्रैः सर्वतः सर्वासु दिक्षु समन्ततः-सामस्त्येन सम्परिक्षिप्तं व्याप्तं । ' ते णं दामा' इत्यादि, तानि पश्चापि| दामानि तवणिज्जलंबूसगा (गम्गा?)' तपनीयमया लम्ब्समा -आभरणविशेषरूपा (पाः सुवर्णप्रतरकाः सुवर्णपत्राणि|| तः मण्डित-शोभितं अग्रं-अग्रभागो येषां तानि तथा अ) प्रभागे येषां प्रलम्बमानानां तानि तथा, 'नानामणिरत्नैः । नानामणिरत्नमयविविधैः-विचित्रहारैरर्द्धहारैश्चोपशोभितः-सामस्त्येनोपशोभितः समुदायो येषां तानि तथा, तथा ईपत्-मनाक अन्योऽन्य-परस्परं असंप्राप्तानि-असंलग्नानि पूर्वापरदक्षिणोत्तरागतैः (वातैः) मन्दाय मन्दाय इति-मन्द मन्दं 'एज्जमानानि कम्पमानानि 'भूशाभीण्याविच्छेदे द्विः पाक्तमवादेरित्यविच्छेदे दिर्वचनं यथा पचन्ति पचन्तीत्यत्र, एवमुत्तरत्रापि, ईपत्कम्पनवशादेव प्रकर्षत इतस्तती मनाक् चलनेन लम्बमानानि २ ततः परस्परं सम्पर्कवशतः 'पेजमाणा पेजंजमाणा' इति शब्दायमानानि २|| उदारेण स्फारेण शब्देनेति योगः, स च स्फारशब्दो मनाप्रतिकूलोऽपि भवति तत आह-'मनोज्ञेन । मनोऽनुकूलेन, तञ्च मनोऽनुकूलत्वं लेशतो स्यादत आह-'मनोहरेण ' मनांसि श्रोतणां हरति-एकान्तेनात्मवशं नयतीति मनोहरो 'लिहादेराकृतिगणवादच प्रत्ययः । तेन, तदपि मनोहरत्वं कुत इत्याह-'कर्णमनोनितिकरण 'निमित्तकारणहेतुपु सर्वासां विभक्तीनां पायो दर्शन मिति वचनात् हेतौ तृतीया, ततोऽयमर्थः प्रतिश्रोतु कर्णयोर्मनसश्च निनिकरः-सुखोत्पादकस्ततो मनोहरस्तेनेत्यम्भूतेन शब्देन तान् प्रत्यास-- बान मदेशान् सर्वतो-दिक्षु समन्ततो-विदिक्षु आपूरयन्ति २, शत्रन्तस्य स्यादाविदं रूपं, अत एव श्रिया-शोभया अतीवोपशोभमानानि । २ तिष्ठन्ति । 'तए णमित्यादि, ततः स आभियोगिको देवस्तस्य सिंहासनस्यापरोत्तरेण, वायव्ये कोणे इत्यर्थः,उत्तरेण-उत्तरस्या उत्तरपुरशरिछमेण ईशान्यां 'अत्र' एतामु तिमषु दिक्षु सूर्याभस्य देवस्य चतुर्णां सामानिकसहस्राणां योग्यानि चत्वारि भद्रासनसहस्राणि विकु अनुक्रम [१५] Santaratani सूर्याभदेवस्य दिव्ययान करणं ~80~ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ---------- मूलं [...१५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सुत्रांक [१५] दीप श्रीराजपनी कार्वति, पूर्वस्यां चतसृणामग्रमहिषीणां सपरिवाराणां चत्वारि भद्रासनसहस्राणि दक्षिणपूर्वस्यामभ्यन्तरपर्षदोऽष्टानां देवसहस्राणां योग्यानि दिव्ययानमलयगिरी- अष्टौ भद्रासनसहस्राणि दक्षिणस्यां मध्यमपर्षदो दशाना देवसहस्राणां योग्यानि दश भद्रासनसहस्राणि, दक्षिणापरस्या नैर्ऋतकोण इत्यर्थः, या तिः बाह्यपर्षदो द्वादशानां देवसहस्राणां द्वादश भद्रासनसहस्राणि पश्चिमायां सप्तानामनीकाधिपतीनां सप्त भद्रासनानि विकुर्वति । तदनन्तरं करणय तस्य सिंहासनस्य चतसपु दिक्षु अत्र सामानिकादिदेवभद्रासनानां पृष्ठतः सूर्याभस्य देवस्य सम्बन्धिना पोडशानामात्मरक्षफदेवसहस्राणां ॥३९॥ हायोग्यानि पोटश भद्रासनसहस्राणि विकुर्वति, तद्यथा-चत्वारि भद्रासनसहस्राणि पूर्वस्यां चत्वारि दक्षिणतचत्वारि पश्चिमायां चत्वारिम्०१५ उत्तरतः सर्वसयया सप्ताधिकानि चतुःपञ्चाशत्सहस्राणि ५४००७ भद्रासनानां विकुर्वति । 'तस्स णे दिवसेत्यादि, तस्य 'णमिति पूर्ववत् दिव्यस्य यानविमानस्यायम्-अनन्तरं वक्ष्यमाणस्वरूपो वर्णावासो-वर्णकनिवेशः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-'से जहानामए' इत्यादि, स यथानाम अचिरोद्गतस्य-क्षणमात्रमुद्गतस्य ' हैमन्तिकस्य' शिशिरकालभाविनो पालमूर्यस्य स अत्यन्तमारक्तो भवति दीप्यमान-1 श्वेत्युपादानं, वाशब्दाः सर्वेऽपि समुच्चये, खादिराङ्गाराणि वा 'रत्ति'मिति सप्तम्यर्थे द्वितीया प्राकृतत्वात् यथा-'उय विणयभत्तिल्ले अरेमसिसिरे दहे गए मूरे कसो रत्ति मुद्धे पाणियसद्धा सउणयाणमि त्यत्र, ततोऽयमर्थः-रात्री प्रज्वलितानां जपाकुसुमचनस्य । वा किंशुकवनस्य वा पारिजातवनस्य वा सर्वतः-सर्वासु दिक्षु समन्तत:-सामस्त्येन 'ससुमितस्य' सम्यक कुसुमितस्य, अत्रान्तरे शिष्यः पृच्छति याहगप एतेषां वर्णाः भवेयारूचे सिया' इति स्यात्-कश्चिद् भवेदेतद्रूपस्तस्य दिव्यस्य यानविमानस्य वर्णः । निराह-'नो इणटे समटे, तस्स णं दिव्बस्स जाणविमाणस्स एत्तो इगुतराए चेव कंततरागे चेव मणुनतरागे चेव मणामतरागे चेव वण्णे पण्णते' इति पाग्वत् व्याख्येयम्, 'गंधो फासो जहा मणीणमिति गन्धः स्पर्शः यथा माग् मणीनामुक्तस्तथा अनुक्रम [१५] SAMEauratbina I mranorm सूर्याभदेवस्य दिव्ययान करणं ~81~ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ---------- मूलं [...१५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: T प्रत सूत्रांक [१५] दीप वक्तव्यः, स चै-'तस्स णं दिबस्स जाणविमाणस्स इमे एयारूचे गंधे पण्णचे, तंजहा से जहानामए कोद्रपुडाण वा तगरपुडाण वा' इत्यादि । 'तए णं से आभिओगिए देवे' इत्यादि, यावत्करणात् 'करयलपरिग्गहियं दसनई सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कदु जएणं विजएणं बद्धावेद वद्धाविना एयमाणत्तियमिति द्रष्टव्यम् । तए णं से सरिआभे देव आभिओगस्स देवस्स अंतिए एयमढें सोचा निसम्म हट्ठ जाव हियए दिवं जिणिंदाभिगमणजोग्ग उत्तरवेउब्बियरुवं विउच्वति २ ता चउहिं अग्गमहिसीहिं सपरिवाराहि दाहि अणीएहि, तंजहा-गंधब्वणीएण य णडाणीपण य सद्धिं संपरिचुडे तं दिव्वं जाणविमाणं अणुपयाहिणीकरमाणे २ पुरच्छिमिल्लेणं तिसोमाणपडिरुवएणं दुरूहति दुरुहिना जेणेव सिंहासणे तेणेब उवागच्छद २ ता सीहासणवरगए पुरत्थाभिमुहे सण्णिसण्णे । तए णं तस्स मूरिआभस्स देवस्स चनारि सामाणियसाहस्सीओ तं दिव्वं जाणविमाणं अणुपयाहिणीकरमाणा उत्तरिल्लणं तिसोवाणपडिरूवएणं दुरुहति दुरुहिना पनयं २ पुषणत्थेहिं भद्दासणेहिं णिसीयंति, अवसेसा देवा य देवीओ य तं दिव्वं जाणविमाणं जाव दाहिणिल्लेणं तिसोवाणपडिरूवएणं दुरूहति २ ना पनेयं २ पुरणत्थेहिं भदासणेहिं निसीयति । तए णं तस्स सरियाभस्स देवस्स तं दिव्वं जाणविमाणं दुरूढस्स समाणस्स अट्ठट्ठमंगलगा पुरतो अहाणुपुबीए संपत्थिता, तंजहा-मोत्थियसिरिवच्छ जाव दप्पणा। अनुक्रम [१५] | भगवन्त-वन्दनार्थे सूर्याभदेवस्य गमनं ~82~ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ------------ मूलं [१६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: श्रीराजमश्नी मलयगिरी प्रत सूत्रांक या दृचिः ॥४०॥ दीप अनुक्रम तयणतरं च णं पुण्णकलसभिंगार दिव्या य छत्तपडागा सचामरा दसणरतिया आलोयदरिसणिज्जा वाउ यविजयवेजयंतीपडागा ऊसिया गगणतलमणुलिहंती पुरतो अहाणुपुब्बीए संपत्थिया । तयणंतरं चणे वेरुलियभिसंतविमलदंडं पलंबकोरंटमल्लदामोवसोभितं चंदमंडलनिभं समुस्सियं विमलमायवनं पवरसीहासणं च मणिरयणभत्तिचित्तं सपायपीढं सपाउयाजोयसमाउत्तं बहुकिंकरामरपरिग्गाहियं पुरतो अहाणुपुबीए संपत्थियं । तयाणंतरं च णं वइरामयवट्ठलट्ठसंठियसुसिलिट्ठपरिघट्ठमट्ठसुपतिट्ठिए विसिटे अणेगवरपंचवण्णकुडभीसहस्सुस्सिए [ परिमंडियाभिरामे ] वाउदुयविजयवेजयंतीपडागच्छत्नातिच्छनकलिते तंगे गगणतलमणुलिहंतसिहर जाअणसहस्समूसिए महतिमहालए महिंदज्झए पुरतो अहाणुपुब्बीए संपत्थिए । तयाणंतरं च णं सुरूवणेवत्थपरिकच्छिया मुसज्जा सवालंकारभूसिया महया भढचडगहपहगरेणं पंचअणीयाहिवईणो पुरतो अहाणपबीए संपत्थिया। [ तयाणतरं च णं बहवे आभिआंगिया देवा देवीओ य सरहिं २ रूवेहिं साहिं २ विसेसेहिं सएहि २ विंदोहि सपाहिँ २ णेज्जाएहिं सएहिं २ णेवत्यहि पुरतो अहाणुपुबीए संपत्थिया ] तयाणतरं च णं सूरियाभविमाणवासिणो बहवे माणिया देवा य देवीओ य सबिड्डीए जाव रूवेणं सुरियाभं देवं पुरतो पासतो य मग्गतो य समणुगच्छति ॥ सू०१६॥ dlin४०॥ REairatna N ounsuranorm | भगवन्त-वन्दनार्थे सूर्याभदेवस्य गमनं ~83~ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ------------ मूलं [१६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६] दीप 'तए णं से मूरियाभे देवे' इत्यादि, दिव्यं-प्रधान जिनेन्द्रस्य-भगवतो वर्द्धमानस्वामिनोभिगमनाय-अभिमुखं गमनाय 27 योग्यम्-उचितं जिनेन्द्राभिगमनयोग्यमुत्तरवैक्रिय रूपं विकुति, विकुचित्वा चतसाभिरग्रमहिषीमिः सपरिवाराभिभ्यामनीकाभ्यां तद्यथा-गन्धर्वानीकेन नाव्यानीकेन च, साई, तत्र सहभावः स्वस्वामिभावमन्तरेणापि दृष्टो, यथा समानगुणविभवयोयोमित्रयोः, अतः स्वस्वामिभावप्रकटनार्थमाह-'संपरिबुडे । सम्यगाराधकभावं बिभ्राणैः परिवृतः-सम्परिद्वतः तत् दिव्यं यानाबमानमनुप्रदीक्षणी-15 कुर्वन्-पूर्वतोरणानुकूल्येन प्रदक्षिणीकुर्वन् पूर्वेण तोरणेनानुपविशति-स्वसिंहासनानुकुल पविशति, प्रविशन् पूर्वेण 'त्रिसोपानप्रतिरूपकेण प्रतिविशिष्टरूपेण त्रिसोपानेन तद् यानविमानं 'दुरुहइ'त्ति आरोहति, आरुब च 'जेणेवेति यस्मिन्नेव देशे तस्य मणिलापीटिकाया उपरि सिंहासनं तत्रोपागच्छति, उपागत्य च सिंहासनबरगतः सन् पूर्वाभिमुखः 'सनिषण्णः सम्यक-सकलसेवक जनचमत्कारकारिण्या उपवेशनस्थित्योपविष्टः । 'तए णमित्यादि, ततस्तस्य सूर्याभस्य देवस्य चत्वारि सामानिकदेवसहस्राणि तद्दिव्यं यानविमानमनप्रदक्षिणीकुर्वन्ति, उत्तरेण त्रिसोपानपतिरूपकेणारोहन्ति, 'पुन्वणत्थेहि इत्यादि, अत्र सप्तम्यर्थे तृतीया, पूर्व-19 अन्यस्तेषु भद्रासनेषु निषीदन्ति, अवशेषाः-अभ्यन्तरपर्षदादयो देवा देव्यश्च दक्षिणेन त्रिसोपानप्रतिरूपकेणारोहन्ति, आरुह्य च स्वेषु भद्रासनेषु निषीदन्ति । 'तए णमित्यादि, ततस्तस्य सूर्याभस्य देवस्य तद् दिव्यं यानविमानमारूढस्य पुरतोऽष्टाष्टमङ्गलकानि यथानुपूर्व्या-वक्ष्यमाणपाठनमेणेत्यर्थः, सम्पस्थितानि, तद्यथा-' सोत्थियसिरिवच्छे त्यादि, पूर्व स्वस्तिकः तदनन्तरं श्रीवत्स-1 स्तदनन्तरं पूर्णकलशभृङ्गारदिव्यातपत्रपताकाः सचामराः, कथम्भूताः? इत्याह 'दर्शनरतिका' दर्शने-अवलोकने रतिर्यासु ता दर्शनरतिकाः,इह दर्शनरतिकमपि किञ्चिदालोकदर्शनीयं न भवत्यमङ्गलत्वात् यथा गर्भवती युवतिः, अत आह-आलोके–बहिः प्रस्थानसमयभाविनि , अनुक्रम [१६] REmaina Tam uraryorg भगवन्त-वन्दनार्थे सूर्याभदेवस्य गमनं ~84~ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ------------ मूलं [१६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: सूर्याभ प्रत २०१६ सूत्रांक [१६] दीप श्रीराजप्रश्नी दर्शनीया द्रष्टुं योग्या मङ्गल्यत्वात् , अन्ये त्याहुः-आलोके दर्शनीया न पुनरत्युच्चा आलोकदर्शनीया, तथा वातोद्भुता विजयमूचिका मलयगिरी- वैजयन्तीति विजयवैजयन्ती च उत्सृता-ऊवीकृता गगनतलम्-अम्बरतलमनुलिखन्ती-अभिलङ्गयन्ती 'पुरतो' यथानुपूर्व्या सम्पया वृत्तिःस्थिता । 'तयनंतरं च णमित्यादि, तदनन्तरं 'बेरुलियभिसंतविमलदंड मिति 'बैड्यों ' चैडूर्यरत्नमयो भिसंतो-दीप्यमानो विमलो ... निर्मलो दण्डो यस्य तत्तथा 'पलंबकोरंटमल्लदामोबसोहियामिति, प्रलम्बते इति प्रलम्बि तेन-प्रलम्बमानेन कोरण्टमाल्यदाम्ना-कोरण्ट॥७१ " पुष्पमालयोपशोभितं प्रलम्बकोरण्टमाल्यदामोपशोभितं चन्द्रमण्डलनिभं दीप्ल्या शोभया वर्तुलतया चन्द्रमण्डलाकारं समुत्सृतं सम्यगूध्वींकृतं विमलमातपत्र तथा प्रवरं सिंहासनं मणिरत्नैः भक्त्या-विच्छित्त्या चित्रं यत् तन्मणिरत्नभक्तिचित्रं, सह पादपीठं यस्य तत्सपादपीठं, तथा 'सपाउयाजोगसमाजुत्त'मिति, पादुकायोगः-पादुकाद्वितयं तस्य समायोजनं समायुक्तं सह पादुकायोगसमायुक्तं | यस्य तत्तथा 'बहुकिङ्करामरपरिग्गाहियमिति बहुभिः किङ्करैः-किङ्करकल्पैरमरैः परिगृहीतं 'पुरतो' यथानुपूर्दा सम्पस्थितं । तदनन्तरं 'बदरामयवट्ठलट्ठसंठियसुसिलिटुपरिघट्टमट्ठमुपइदिए'त्ति, वज्रमयो-वज्ररत्नमयः तथा वृत्तं वर्तुलं लटुं-मनोज्ञं संस्थितं -संस्थानमाकारो यस्य स वृत्तलष्टसंस्थितः तथा मुश्लिप:--सुश्लेषापनावयवो मसण इत्यर्थः परिपुष्ट इव परिघृष्टः खरशानया पाषाणप्रति-| |मावत् मृष्ट इव मृष्टः सुकुमारशाणया पाषाणप्रतिमेव सुप्रतिष्ठितो न तु तिर्यकपतिततया वक्रः तत एतेषां पदानां पदद्वयमीलनेन कर्मधारयः, अत एव शेषध्वजेभ्यो विशिष्ट:-अतिशायी, तथा अनेकानि अनेकसङ्ख्याकानि बराणि-प्रधानानि पञ्चवण्णानि कुडभी-| सहस्राणि उत्सृतानि यत्र सोऽनेकवरपश्चवर्णकुडभीसहस्रोत्सृतः, कान्तस्य परनिपातो सुखादिदर्शनात् , वातोद्भूतविजयवैजयन्तीपताकाच्छयातिच्छपकलितः, तुङ्गः अत्युच्चो योजनसहस्रप्रमाणोच्छ्यत्वात् ,तथा गगनतलम्-अम्बरतलमनुलिखत् शिखरम्-अग्रभागो अनुक्रम [१६] REaratindian Maraya | भगवन्त-वन्दनार्थे सूर्याभदेवस्य गमनं ~85~ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ------------ मूलं [१६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६] MORE दीप यस्य स तथा योजनसहस्रमुत्सृतः अत एव 'महइमहालए' इति, अतिशयेन महान महेन्द्रध्वजः 'पुरतो' यथानुपूर्व्या संपस्थितः । तदनन्तरं ' सुरूवनेवत्थपरिकच्छिया' इति, सुरूप नेपथ्यं परिकक्षितं-परिगृहीतं यस्तै तथा, तथा मुष्टु अतिशयेन सज्जाः-परिपूर्णाः स्वसामग्रीसमायुक्ततया प्रगुणीभूताः-सालङ्कारविभूषिताः ‘महता भडचडगरपहकरेणीति महता-अतिशयेन भटचटकरपहकरेणचटकरप्रधानभटसमूदन पश्चानीकानि पश्चानीकाधिपतयः 'पुरतो' यथाऽनुपूा सम्पस्थिताः । तदनन्तरं च मूर्याभविमानवासिनो [2 बहवो वैमानिका देवा देव्यश्च सर्वा यावत्करणात 'सव्वजुईए सबवलणमित्यादि परिग्रहः, सूर्याभं देवं पुरतः पार्श्वतो मार्गतः -पृष्ठतः समनुगच्छति । तए णं से सूरियाभे देवे तेणं पंचाणीयपरिखित्तेणं बहरामयवट्टलट्ठसंठिएण जाव जोयणसहस्समूसिएणं महतिमहालतेणं महिंदज्झएणं पुरतो कडिजमाणेणं चउहि सामाणियसहस्सेहि जाव सोलसहिं आयरकखदेवसाहस्सीहि अन्नेहि य बहहिं सूरियाभविमाणवासीहिं चेमाणिएहिं देवहिं देवीहि य सद्धिं संपरिखुड़े सविड़िए जाव रवेणं सोधम्मस्स कप्पस्स मझमझेणं तं दिव्यं देविईि दिर्च देवजुति दिवं देवाणुभावं उवदंसेमाणे २ पडिजागरेमाणे २ जेणेव सोहम्मकप्पस्स उनरिल्ले णिजाणमग्गे तेणेव उवागच्छति, २ जोयणसयसाहस्सितहिं विग्गहहिं ओवयमाणे वीतीचयमाणे ताए उक्किट्ठाए जाय तिरियमसंखिज्जाणं दीवसमुद्दाणं मझमाझेणं वीइवयमाणे २ जेणेव नंदीसरवरदीचे जेणेव दाहिणपुरच्छिमिल्ले रतिकरपब्बते अनुक्रम [१६] REaratinidio Mumurary.om सूर्याभदेवस्य भगवत् महावीर पार्श्वे आगमनं ~86~ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) (१३) -------- मूलं [१७-१९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: श्रीराजमश्नी मलयगिरी या वृतिः वीरपा - गमनम् प्रत सूत्रांक [१७-१९]] ॥ ४२ ॥ दीप अनुक्रम [१७-१९] तेणेव उवागच्छति २ नातं दिवं देविईि जाव दिवं देवाणुभावं पडिसाहरेमाणे २ पडिसंखेवमाणे २ जेणेव जंबुद्दीवे २ जेणेव भारहे वासे जेणेव आमलकप्पा नयरी जेणेव अंचसालवणे चेइए जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छद २ ता समणं भगवं महावीरं तेणं दिवेणं जाणविमाणेणं तिखुनी आयाहिणं पयाहिणं करे। २ता समणस्स भगवतो महावीरस्स उत्तरपुरच्छिमे दिसिभागे तं दिव्वं जाणविमाणं ईसिं चउरंगुलमसंपत्त्रं धरणितलंसि ठवेइ ठविना चउहि अग्गमाहिसीहि सपरिवाराहिं दोहि अणीयाहिं तंजहा गंधवाणिएण य णट्टाणिएण यसद्धिं संपरिबुडे ताओ दिवाओ जाणविमाणाओ पुरच्छिमिल्लेणं तिसोवाणपडिरूवएणं पच्चोरुहति । तए णं तस्स सरियाभस्स देवस्स चत्वारि सामाणियसाहस्सीओ ताओ दिवाओ जाणविमाणाओ उत्तरिल्लेणं तिसोवाणपडिरुवएणं पञ्चोरुहति, अवसेसा देवा य देवीओ य ताओ दिवाओ जाणविमाणाओ दाहिणिल्लेणं तिसोवाणपडिरूवएणं पञ्चोरुहंति । तए णं से सरियाभे देवे चउहि अम्गमहिसीहिं जाव सोलसर्हि आयरक्खदेवसाहस्सीहि अण्णेहि य बहूहिं सरियाभविमाणवासीहि बेमाणिएहिं देवहिं देवीहि य सद्धिं संपरिखुढे सबिडीए जाव णाइयरवेणं जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छति २त्ता समणं भगवं महावीरं तिखुनो आयाहिणपयाहिणं करेति २ना वंदति नमसति वंदित्ता नमंसिता एवं वयासी-अहं णं भंते ! मरिया देवे देवाणुप्पियाणं बंदामि SAREairatonudel niuranorm सूर्याभदेवस्य भगवत् महावीर पार्वे आगमनं ~87~ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ----------- मूलं [१७-१९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१७-१९] दीप अनुक्रम [१७-१९]] णमंसामि जाव पज्जुवासामि (सू०१७) सूरियाभाति समणे भगवं महावीरे सूरियाभं देवं एवं वयासीपोराणमयं सरियामा ! जीयमेयं सूरियामा ! किच्चमेयं सरियामा ! करणिजमयं सूरियामा ! आइण्णमेयं सूरियामा! अब्भणुण्णायमेयं मूरियामा ! जे णं भवणवइवाणमंतरजोइसवेमाणिया देवा अरहते भगवते वंदति नमसंति बन्दित्ता नमंसित्ता तओ पच्छा माई साई नामगोताई साहिति. ने पाराणमेयं सरियामा ! जाव अभणुनायमेयं सूरियामा ! (सू०१८) तए णं से सूरिया देवे समणेणं भगवया महावीरेणं एवं बुने समाणे हट्ठ जाव समणं भगवं महावीरं वंदति नमंसति वैदित्ता नमंमिना गच्चामण्णे णातिदूरे मुस्मसमाणे णमंसमाण अभिमुहे विणएणं पंजलिउडे पज्जुवासति ॥ (सू० १९॥) 'तपणामित्यादि ततः स मूर्याभो देवः तेन पञ्चानीकपरिक्षिप्तेन यथोक्तविशेषणविशिष्टेन महेन्द्रध्वजेन पुरतः प्रकृष्यमाणेन चतुर्भिः सामानिकसहश्चतसृभिः सपरिवाराभिरग्रमहिषीभिस्तिसृभिः पर्षद्भिः सप्ताभिरनीकाधिपतिभिः पोदशभिरात्मरक्षदेवसहरी रन्यैश्च बहुभिः सूर्याभविमानवासिभिर्वैमानिकवर्देवी भिश्च सार्द्ध सम्परिवृतः सर्वदा सर्वद्युत्या यावत्करणात्-'सन्चवलेणं सच्चकासमुदएणं सवादरणं सबविभूसाए सवविभूइए सवसंभमेणं सवपुष्फवस्थगंधमल्लालंकारेणं सबदिवतुडियसहसन्निनाएणं महया इड्डीए महया जुइए महया बलेणं महया समुदएणं महया वस्तुडियजमगसमयपद्धप्पबाइयरवेणं संखपणवषडहभेरिझल्लरिखरमहिहाइकमरयमई-1 Killगदुंदुभिनिग्घोसनाइयरवेण' मिति परिगृयते, सौधर्मस्य कल्पस्य मध्येन तां दिन्या देवदि दिव्या देवद्युति दिव्यां देवानुभूति 'लाले | सूर्याभदेव-कृत् भगवत् महावीरस्य पर्युपासना ~88~ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ----------- मूलं [१७-१९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक या वृतिः। [१७-१९] दीप अनुक्रम [१७-१९]] श्रीराजमश्नीमाणे २ 'इति उपलालयन् २ लीलया उपभुञ्जान इति भावः, येनैव सौधर्मस्य कल्पस्योत्तराहो निर्माणमाम्गों-निर्गमनमार्गस्तेनैव मूर्याभपयुमलयगिरी-पानोपागच्छति, 'ताए उकिडाए' इत्यादि पूर्ववद्यावत् दिव्यया देवगत्या योजनशतसहस्रकैः-योजनलक्षममाणविग्रह:-क्रम- पासना कारवपतन-अधस्तादवतरन् व्यतिब्रजश्च-गच्छंच तिर्यग असङ्ख्येयानां द्वीपसमुद्राणां मध्यंमध्येन 'जेणेव ति नन्दीश्वरो द्वीपः यस्मिन प्रदेशे यस्मिन्नेव च प्रदेशे तस्मिन्नन्दीश्वरे द्वीपे दक्षिणपूर्वः-आग्नेयकोणवर्ती रतिकरनामा पर्वतस्तस्मिन्नुपागच्छति, उपागत्य च न मू०१७ दिव्यां देवदि यावद् दिव्यं देवानुभावं शनैः २ प्रतिसंहरन् २ एतदेव पर्यायेण व्याचष्टे-पतिसपिन् २ यस्मिन् प्रदेशे जम्बूद्वीपो नाम १८-१९ द्वीपः तत्र च जम्मूद्वीपे यस्मिन् प्रदेशे भारतवर्ष तस्मिंश्च भारतवर्षे यस्मिन् प्रदेशे आमलकल्पा नगरी तस्याश्चाऽऽमलकल्पाया नगर्या बहि-15 यस्मिन्मदेशे आम्रशालवन चैत्य तस्मिंश्च चैत्ये यस्मिन् प्रदेशे श्रमणो भगवान् महावीरः । तेणे ति तत्रोपागच्छति, सर्वत्र तृतीया सप्तम्यर्थे द्रव्या प्राकृतत्वात् , उपागम्य च श्रमणं भगवन्तं महावीर तेन प्रागुक्तस्वरूपेण दिव्येन यानविमानेन सह त्रिकृत्वः-त्रीन | वारान् आदक्षिणप्रदक्षिणीकरोति, आदक्षिणप्रदक्षिणीकृत्य च श्रमणस्य भगवतो महावीरस्यापेक्षया य उत्तरपूर्वो दिग्भागस्तमपक्रामति-गच्छति अपक्रम्य च तद् दिव्यं यानविमानमीषद् एतदेव प्रकटयति-चतुरगुग्लं, चतुर्भिरडग्लरित्यर्थः असम्पाप्तं सत्.. धरणीतले स्थापयति स्थापयित्वा चतमभिरग्रमहिपीभिः सपरिवाराभिः द्वाभ्यामनीकाभ्यां तयथा-गन्धर्वानीफेन नाटयानीकेन च साई सम्परितृतस्तस्माद् दिव्यात् यानाविमानात् पूर्वण त्रिसोपानप्रतिरूपकेण प्रत्यवतरति, चत्वारि सामानिकदेवसहस्राण्युत्तरेण, शेषा दक्षिणेन । 'लए णमि' त्यादि, 'बंदामि नमसामि जाव पज्जुवासामी'त्यत्र यावच्छब्दकरणात् 'सकारेमि सम्मामि कल्लाणं ॥ ४३ ॥ मंगलं देवयं चेइयं पज्जुवासेमि' इति परिग्रहः, ततः 'मूरियाभाई' इत्यादि, मूरियाभात् आदि:-मुख्यः पर्युपासकतया यस्य स JAMEmiratinidi FaPranaamvam ucom सूर्याभदेव-कृत् भगवत् महावीरस्य पर्युपासना ~89~ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) प्रत सूत्रांक [१७-१९] दीप अनुक्रम [१७-१९] “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र - १ ( मूलं + वृत्तिः ) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. मूलं [ १७-१९] आगमसूत्र [१३] उपांग सूत्र [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः सूर्याभादिः श्रमणो भगवान् महावीरस्तं सूर्याभं देवमेवमवादीत् 'पोराणमेयमित्यादि प्राम्बत्, 'नवासने' इत्यादि, नात्यासन्नःनातिनिकटोऽवग्रहपरिहारात् नात्यासन्ने वा स्थाने वर्त्तमान इति गम्यम् 'नाइदूरे' इति नं- नैवातिदूर:- अतिविप्रकृष्टोऽनौचित्यपरिहारात् नातिदूरे वा 'सुस्मृसमाणे' इति भगवद्वचनानि श्रोतुमिच्छन् 'अभिमुहे' इति अभि- भगवन्तं लक्ष्यीकृत्य मुखमस्येति अभिमुखो, भगवतः सम्मुख इत्यर्थः, विनयेन हेतुना ' पंजलिङडे' इति प्रकृष्टः प्रधानो ललाटतटघटितत्वेन अञ्जलिः - हस्तन्यासविशेषः कृतो येन स प्राञ्जलिकृतः, सुखादिदर्शनात् क्तान्तस्य परनिपातः पर्युपास्ते- सेवते । तए णं समणे भगवं महावीरे सरियामस्स देवस्स तीसे य महतिमहालियाए परिसाए जाव परिसा जामेव दिसिं पाउन्भूया तामेव दिसिं पडिगया (०२०) तए णं से सरियामे देवे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिe धम्मं सोचा निसम्म हटुतुद्रु जाव हयहियए उट्ठाए उट्ठेति उद्वित्ता समणं भगवं महावीरं बंदद मंसद वंदित्ता नमसिनता एवं वयासी अहन्नं भंते! सरियामे देवे किं भवसिद्धिए अभवसिद्धते ? सम्मदिट्ठी मिच्छदिट्टी ? परिनसंसारिते अणतसंसारिए? सुलभबोहिए दुलभबोहिए ? आराहते विराहते ? चरिमे अचरिमे ? सरियाभाइ समणे भगवं महावीरे सरियाभं देवं एवं वदासी-सरियाभा! तुमं णं भवसिद्धिए णो अभवसिद्धिते जाव चरिमे णो अचरिमे ( सू० २१ ) तए णं से सरियामे देवे समणेणं भगवया महावीरेणं एवं वृत्ते समाणे हट्टतुट्ट चित्तमादिए परमसोमणस्से समणं भगवं महावीरं वदति सूर्याभदेव-कृत् भगवत् महावीरस्य पर्युपासना For Penal Use On ~90~ January org Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “राजप्रश्निय'- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ----- मूलं [२०-२३] (१३) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२०-२३] श्रीराजप्रश्नी मलयगिरी या वृत्तिः पर्षपति गमः ०२० आराधका ॥४४॥ दिप्रश्नाः दीप अनुक्रम [२०-२३] नमंमति २ एवं वदासी-तुम्भ णं भंत ! सर्व जाणह सव्यं पासह (मबओ जाणह सम्वी पासह) सर्व कालं जाणह सर्व कालं पासह सव्व भाव जाणह सवे भावे पासह जाणंति ण देवाणुप्पिया मम पुर्वि वा पच्छा वा ममेयरुवं दिवं दविड़ि दिवं देवजुई दिवं देवाणुभागं लद्धं पत्तं अभिसमष्णागयंति, तं इच्छामि णं देवाणुपियाणं भनिपुत्वगं गायमातियाणं समणाणं निग्गंथाणं दिवं दविड़ि दिध्वं देवजुइंदिवं देवाणुभावं दिवं बनीमतिबद्धं नट्टविहि उवदंसित्तए (सू० २२) तए णं समणे भगवं महावीरे मूरियाभणं देवणं एवं बुन समाण मूरियाभस्म देवस्स एयमद्रं णो आढाति णो परियाणति तुसिणीए मंचिद्वति । तए णं से मूरियाभे देव ममणं भगवं महावीरं दोचपि एवं ययासी-तुब्भेणं भंते ! म जाणह जाव उदसित्तए तिका ममणं भगवं महावीरं तिखुनो आयाहिणपयाहिणं करेद २ बंदति नममति २ ना उत्तरपुरच्छिमं दिमीभागं अतिक्कमति २ नावउवियसमुग्घाएणं समोहणति २ चा मंखिजाई जोयणाई दंडं निस्सरति २ ना अहाबायर० २ अहासहुमे०२ दोच्चपि विउब्वियसमुग्घाएणं जाव बहुसमरमणिजं भूमिभार्ग विउब्वति, से जहानामए आलिंगपुक्खरे इ वा जाव मणीण फासो, तस्म णं बहुसमरमाणिज्जस्म भूमिभागस्स बहुमझदसभागे पिच्छाघरमंडवं विउवति, अणेगखंभमयसनिविटुं यण्णता बहुसमरमणिजभूमिभागं विउवद उल्लायं अक्खाडगं च मणिपेढियं च विउवति, तीसे णं मणि मू०२१ नाटयविधि| प्रश्नः मू०२२ नाट्यदर्श ॥४४॥ सूर्याभदेव-कृत् भगवत् महावीरस्य पर्युपासना एवं नृत्य-प्रदर्शनं ~91~ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) (१३) ----------- मूलं [२०-२३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२०-२३] दीप अनुक्रम [२०-२३] पढियाए उबरि सीहासणं सपरिवारं जाव दामा चिट्ठति । तए णं स मूरियाभे देवे समणस्म भगवतो महावीरस्स आलाए पणामं करेति २ ना अणुजाणउ मे भगवंतिकडु सीहासणवरगए तित्थयराभिमुहे मण्णिसणे । तए णं से सरियामे देव तप्पडमयाए णाणामणिकणगरयणविमलमहरिहनिउणोवचियमिसिमिसिंतविरतियमहाभरणकडगतुडियवरभूमणुजलं पीवरं पलं दाहिणं भुयं पमारेति । तओ णं सरिसयाणं सरित्तयाणं मरिचयाणं सरिसलावण्णरूवजोवनगुणोववेशणं एगाभरणवमणगहियणिजोआणं दुहतीसंवलियग्गणियत्थाणं आविद्धतिलयामेलाणं पिणिद्धगेविजकंचुयाणं उप्पीलियचित्तपट्टपरियरमफेणकावनरइयसंगयपलंबवत्थंतचित्तचिल्ललगनियंसणाणं एगावलिकंठरइयमो - तवच्छपरिहत्थभूमणाणं अट्ठमयं णट्टसज्जाणं देवकुमाराणं णिगच्छति । तयाणतरं च णं णाणामणि जाव पीवरं पलंचं वाम भुयं पहरिति, तभी णं सरिमयाण सरित्तयाण सरिबतीणं सरिमलावण्णरुवजोवणगुणोपवेयाणं एगाभरणवमणगहियनि जोयाणं दुहतोमवेल्लियग्गनियत्थीणं आविद्धतिलयामेलाणं पिणद्धगंदजकंचुतीणं णाणामणिरयणभूगणविराइयंगमंगाणं चंदाणणाणं चंदद्धसमनिलाडाणं चंदाहियसोमदसणाणं उनका इव उजोवेमाणीणं भिंगारागारचारुवेमाणं हसियभणियचिट्ठियविलासमललियमलावनिउणजुत्तीवधारकुमलाण गहियाउजाणं अट्ठमयं नहसजाणं देवकुमारियाणं णिग्गच्छइ । तए णं Santaratime amaramorm | भगवत् महावीरस्य संमुख: सूर्याभदेव-कृत् नाट्यविधि-दर्शनं ~ 92 ~ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ----------- मूलं [२०-२३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: नाट्यदर्श प्रत सूत्रांक [२०-२३] श्रीराजप्रश्नी । मलपगिरीया वृत्तिः ॥४५॥ दीप अनुक्रम [२०-२३] से मरिया देव अट्ठसयं संखाणं विउबति अट्ठसयं संखवायाणं विउबइ अट्ठसयं सिंगाणं विउबइ अट्ठयसं सिंगवायाणं विउवइ अट्ठसयं संखियाणं विउवइ अट्ठसयं संखियवायाणं विउबद अट्ठसयं खरमुहीणं विउबइ अट्ठसयं सरमुहिवाइयाणं विउबइ अट्ठमयं पेयाणं विउबति अट्ठसयं पेयावायगाणं अट्रसयं पीरपीरियणं विउबइ एवमाइयाई एगणपण्णं आउज्जविहाणाई विउबर २ ना तए ण ते बहवे देवकुमारा य देवकुमाराओ य सद्दावेति, नए णं ते वहये देवकुमारा य देवकुमारीयो य सरियाभेणं दवणं सद्दाविण ममाणा हट्ट जाव जेणेब सरियामे देवे तेणेव उवागच्छन्ति तेणेब २ ना मरियाभ देवं करयलपरिगहियं जाव बद्धाविना एवं वयासी-संदिसंतु णं देवाणुप्पिया ! जं अम्हहि कायचं, तए णं से सरियामे देव ते पहले देवकुमारा य देवकमारीओ य एवं वासी-गच्छह णं तुमे देवाणुप्पिया! समणं भगवं महावीरं तिक्खुनो आयाहिणपयाहिणं करेह करिना बंदह नमसह वंदिता नमंसित्ता गोयमाइशणं समणाणं निग्गंथाणं तं दिवं देविडिं दिवं देवजुर्ति दिवं दिवाणुभावं दिवं पत्तीसइपर्छ णट्टविहि उपदंसह उवदसित्ता खिप्पामेव एयमाणनियं पञ्चप्पिणह । तए णं ते बहवे देवकुमारा देवकुमारियो य सूरियाभणं देवेणं एवं वुत्ता समाणा हट्ठजाव करयल जाव पडिसुणंति २ जेणेव समणे भगवं महावीरे तणेव उवागच्छंति २ समणं भगवं महावीरं जाव नमसिना जेणेव गोयमादिया समणा निग्गंथा तेणेव ४५ | भगवत् महावीरस्य संमुख: सूर्याभदेव-कृत् नाट्यविधि-दर्शनं ~93~ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ----------- मूलं [२०-२३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२०-२३] दीप अनुक्रम [२०-२३] उवागच्छंति, तए णं ते बहवे देवकुमारा देवकुमारियो य समामेव समोसरण करति, समा२ता समामेव पंतिओ बंधंति, समामेव पंतिी बंधिता समामेव पंतिओ नमसंति समामेव २ सित्ता समामेव पंतीश्री अवणमंनि २ ना समामेव उन्नमंति २ एवं सहितामेव ओनमंति एवं सहितामेव उन्नमंति सहियामेव उण्णमिना थिमियामेव ओणमंति थिमियामेव उन्नमन्ति संगयामेव ओनमंति संगयामेव उन्नमंनि २ ना समामेव पसरति २ ना समामेव आउज्जविहाणाई गेण्हति समामेव पवाएंसु पगाइस पणचिंसु, किंत?, उरेण मंदै सिरेण तारं कंठेण वितारं तिविहं तिसमयरेयगरइयं गुंजावककुहरोवगूढ र तिठाणकरणसुद्धं मकुहरगुंजंतवंसततीतलताललयगहसुसंपउन महुरं समं सललियं मणोहरं मिउरिभियपयसंचारं मुरड सुणइ वरचारुरुवं दिवंणट्टसज्ज गेयं पगीया विहोत्था, किंते ?, उद्धमंताणं संखाणं सिंगाणं संखियाणं खरमहीणं पेयाणं परपिरियाणं आहंमंताणं पणवाणं पडहाणं अप्फालिजमाणाणं भंभाणं होरंभाणं [वीणाणं वियधी(पंची)]] तालिजंताणं भेरीणं झल्लरीणं दुंदुहीणं आलिवंताणं [मुरयाणं] मुइंगाणं नन्दीमुईगाणं उनालिजंताणं आलिंगाणं कुंटुंबाणं गोमूहीणं महलाणं मुच्छिताणं वीणाणं विपंचीणं वल्लकीणं कुट्टिजंताणं महंतीणं कच्छभीणं चिनवीणाणं सारिजंताणं बद्धीसाणं सुघोसाणं णदिघोसाणं फुट्टिजंतीणं भामरीणं छन्भामरीणं परिवायणीणं छिप्पंतीगं तृणाणं तूंबवीणाणं Saintairatna Holluoranmera | भगवत् महावीरस्य संमुख: सूर्याभदेव-कृत् नाट्यविधि-दर्शनं ~94~ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ----------- मूलं [२०-२३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: श्रीराजमना मलयगिरी हात्तः प्रत सूत्रांक [२०-२३] ॥४६॥ दीप अनुक्रम [२०-२३] आमोडिजंताणं आमोताणं कुंभाणं नउलाणं अच्छिजंतीणं मुगुंदाणं हुडुक्कीणं विचिक्कीणं बाइज्जताणं नाट्यदर्शकरडाणं डिडिमाणं किणियाणं कडंबाणं बाइज्जंताणं दहरगाणं दद्दरिगाणं कृतवाणं कलमियाणं मडयाणं आवडिज्जंताणं तलाण तालाणं कंसतालाणं घट्टिजंताणं रिंगिरिसियाण लतियाण मग मू०२३ रियाणं सुसुमारियाणं फूमिजंताणं वंसाणं वेलणं वालीणं परिल्लीणं बद्धगाणं, तए णं मे दिवे गीए दिवे नट्टे दिवे वाइए एवं अभुए सिंगारे उराले मणुने मणहरे गीते मणहर नढे मणहर वातिए उप्पिजलभूत कहकहभूते दिवं देवरमणे पवनेयावि होत्था, नए णं ते बहव देवकुमारा य देवकुमारीओ य समणम भगवी महावीरस्स सोत्थियसिरिवच्छणं दियावत्तवद्धमाणगभद्दासणकलसमच्छदप्पणमगल्लभत्तिचित्तं णामं दिवं नट्टविधि उवदसति (स. २३) ततः श्रमणो भगवान महावीरः मूर्याभस्य देवस्य श्वेतस्य राज्ञो धारणीप्रमुखानां च देवीनां तस्यान ' महइमहालिताए । इति अतिशयेन महत्या 'इसिपरिसाए । इति ऋषयः-त्रिकालदर्शनिनस्तेषां पर्षत् तस्याः, अवध्यादिजिनपर्षद इत्यर्थः, मुनिपपदोयथोक्तानुष्ठानानुष्टायिसाधुपर्षदः 'जतिपरिसाए । इति यतन्ते उत्तरगुणेषु विशेषत इति यतयो विचित्रद्रव्याद्यभिग्रहाद्युपेताः साधवस्तेषां पपदो यतिपर्षदः, 'चिदुपरिसाए' इति विद्वत्परिषदः-अनेकविज्ञानपर्षदो देवपर्षदः इक्ष्वाकुपर्षदः क्षत्रियपर्षदः कौरव्यपर्षदः अ कथम्भूताया इत्याह-'अणेगसयाए ' इति अनेकानि पुरुषाणां शतानि सङ्ख्यया यस्यां सा अनेकशता तस्याः 'अणेगवंदाए' इति अनेकानि वृन्दानि यस्याः सा तथा तस्याः, 'अणेगसयबंदपरिवाराए' इति अनेकशतानि अनेकशतसङ्ग्यानि वृन्दानि परिवारो dancinrary.org | भगवत् महावीरस्य संमुख: सूर्याभदेव-कृत् नाट्यविधि-दर्शनं ~ 95~ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) Tohaaraa प्रत सूत्रांक [२०-२३] दीप अनुक्रम [२०-२३] “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र - १ (मूलं + वृत्तिः) मूलं [२०-२३] ... आगमसूत्र [१३], उपांग सूत्र [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. Jan Eatin ॐ यस्याः सा तथा तस्याः, 'महतिमहालियाए परिसाए' अतिशयेन महत्या पर्षदः 'ओहबले ' इति ओघेन प्रवाहेण बलं यस्य, न तु कथयतो बलहानिरुपजायते इति भावः, ' एवं जहा उनवाइए तहा भाणियव्वमिति, एवं यथा औपपातिके ग्रन्धे तथा वक्तव्यं, तचैवं- 'अइवले महाचले अपरिमियबलवीरियतेयमाहप्पकंतिजुत्ते सारदनवथणियमहुरगंभीरकुंचनिग्धोसदुंदुभिस्सरे उरेवित्थडाए कंठेवट्टियाए सिरेसमावनाए अगरलाए अमम्यणाए फुडविसयमहुरगंभीरगाहिगाए सव्वक्खरसन्निवाइयाए गिराए सव्वभासाणुगाॐ मिणीए सव्वसंसयविमोयणीए अपुणरुत्ताए सरस्सईए जोयणनीहारिणा सरेणं अद्धमागहाए भासाए भासइ, अरिहाधम्मं परिकहेइ, तंजहा अस्थि लोए अस्थि अलोए अस्थि जीवे अन्थि अजीवेत्यादि, तावत् यावत् तए णं सा महइमहालिया मणुस्सपरिसा समणस्स भगवतो महावीरस्स अंतिए धम्मं सोचा निसम्म हट्टतुट्टा समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करे करिता बंद नमसइ २ ता एवं वयासी सुयवखाए णं भंते! निम्गंथे पावयणे, नत्थि णं केई समणे माहणे वा एरिसं धम्ममा - ॐ इक्खित्तए, एवं वइत्ता जामेव दिसि पाउब्भूता तामेव दिसिं पडिगया । तए णं सेए राया समणस्स भगवतो महावीरस्स ॐ अंतिए धम्मं सोचा निसम्म हतुचित्तमानंदिए जाव हरिसवसविसप्पमाणाहियए समणं भगवं महावीरं बंदर नमसर वंदिता ॐ नमसित्ता पसिणाई पुच्छर पुच्छित्ता अट्ठाई परियाएर परियाइता उडाए उडेइ उद्वित्ता समणं भगवं महावीरं बंद नमसइ २ एवं बयासी-सुयक्खाए णं भंते । निग्गंथे पात्रयणे जाव एरिसं धम्ममाइक्वित्तए, एवं वइत्ता हत्थिं दुरूहइ दुरूहित्ता समणस्स भगवतो महावीरस्स अंतियाभो अंग्रसालवणाओ हमाओ पडिनिकत्तम पडिनिक्खमित्ता जामेन दिसिं पाउन्भूर तामेव दिसिं पडिगते" इति इदं च प्रायः सकलमपि सुगमं नवरं यामेव दिशमवलन्त्र्य, किमुक्तं भवति ? यतो दिशः सकाशात् प्रादुर्भूतः - समवसरणे ॐ भगवत् महावीरस्य संमुखः सूर्याभदेव कृत् नाट्यविधि-दर्शनं For Parata Lise Only ~96~ 7058168835383939 rary.org Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ----------- मूलं [२०-२३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२०-२३] दीप अनुक्रम [२०-२३] श्रीराजपची समागतस्तामेव दिशं प्रतिगतः । सम्पति सूर्याभो देवो धर्मदेशनाश्रवणतो जातप्रभूततरसंसारविरागः स्वविषयं भव्यत्वादिकं पि- नाट्यदर्शमलयमिरी-च्छिषुर्यत्करोति तदाह-'तए णमित्यादि, 'भवासद्धिए' इति वैः सिद्धिर्यस्यासी भवसिद्धिको, भव्य इत्यर्थः, तद्विपरीतोऽमवासिया वृत्तिः द्धिकः, अभव्य इत्यर्थः, भन्योऽपि कश्चिन्मिथ्याष्टिर्भवति कश्चित्सम्यग्दृष्टिस्तत आत्मनः सम्यग्दृष्टित्वनिश्चयाय पृच्छति-सम्यग.... ष्टिको मिथ्यादृष्टिकः, सम्यग्दृष्टिरपि कश्चित्परिमितसंसारो भवति कश्चिदपरिमितसंसारः, उपशमश्रेणिशिर प्राप्तानामपि केषाश्चि-12 दिनन्तसंसारभावाद, अतः पृच्छति-परीत्तसंसारिकोऽनन्तसंसारिकः ?, परीत्तः-परिमितः स चासो संसारश्च परीनसंसार: सोऽस्या स्तीति परीत्तसंसारिका, 'अतोऽनेकस्वरादिकप्रत्ययः, एवमनंतश्चासौ संसारधानन्तसंसारः सोऽस्यास्तीति अनन्तसंसारिकः, परीत्तसंसारिकोऽपि कश्रित सुलभवोधिको भवति यथा शालिभद्रादिका, कश्चिदुर्लभयोधिको यथा पुरोहितपुत्रजीवः, ततः पृच्छति सुलभा बोधिः-भवान्तरे जिनधर्मप्राप्तिर्यस्यासौ सुलभयोधिका, एवं दुर्लभवोधिकः, सुलभवोधिकोऽपि कश्चिद्रोधि लब्ध्वा विराधयति ततः पृच्छति-आराधयति-सम्यक पालयति बोधिमित्याराधकः, तद्विपरीतो विराधकः, आराधकोऽपि कवितद्भवमोक्षगामी न भवति ततः पृच्छति-चरमोऽचरमो वा, चरमोऽनन्तरभावी भवो यस्यासौ चरमः ' अभ्रादिभ्य' इति मत्वर्थीयोऽप्रत्ययस्ताविपरीतोऽचरमः, एवमुक्ते मूर्याभादिः श्रमणो भगवान् महावीरस्तं मूर्याभ देवमेवमवादीत-भोः मूर्याभ ! त्वं भवसिद्धिको नाभवसिद्धिकः, यावत्करणात् 'सम्मद्दिट्ठी नो मिच्छादिट्ठी परित्तसंसारिए नो अणंतसंसारिए मुल्लमबोहिए नो दुल्लभबोहिए आराहए नो विराहए' इति परिग्रहः ।। ' तुब्भे णं भंते ! ' तुम्भे इति यूयं णमिति वाक्यालङ्कारे भदन्त ! सर्व केवलवेदसा जानीय सर्व केवलदानेन पश्यप, अनेन द्रव्यपरिग्रहः, तत्र सर्वशब्दो देशकात्स्न्येऽपि वर्त्तते यथा अस्य सर्व Plurasaram.org | भगवत् महावीरस्य संमुख: सूर्याभदेव-कृत् नाट्यविधि-दर्शनं ~97~ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ----------- मूलं [२०-२३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२०-२३] दीप अनुक्रम [२०-२३] स्यापि ग्रामस्यायमधिपतिरिति सचराचरविपयज्ञानदर्शनप्रतिपादनार्थमाह-सव्वतो जाणह सचओ पासह ' सर्वतः--सर्वत्र दिक्षु ऊर्ध्वमधो लोकेऽलोके चेति भावः, जानीय पश्यथ च, अनेन क्षेत्रपरिग्रहः, तत्र सर्वद्रव्यसर्वक्षेत्रविषयं वार्त्तमानिकमात्रमपि ज्ञानं दर्शनं वा सम्भाव्येत ततः सकलकालविषयज्ञानदर्शनपतिपादनार्थमाह-सर्वकालम् अतीतमनागतं वर्तमानं च जानीय पश्यथ, एतेन कालपरिग्रहः, तत्र कश्चित् सर्वव्यसर्वक्षेत्रसर्वकालविषयमपि ज्ञानं सर्वपर्यायविषयं न सम्भावयेत् यथा मीमांसकादिः अत आह-सर्वान् भावान्-पर्यायान् प्रतिद्रव्यमात्मीयान् परकीयांश्च केवलवेदसा जानीय केवलदर्शनेन पश्यथ, अथ भावा दर्शनविषया न भवन्ति ततः कथमुक्त-सब्बे भावे पासह ' इति ?, नैष दोषः, उत्कलितरूपतया हि ते भावा दर्शनविषया न भवन्ति, अनुकलितरूपतया तु ते भवन्त्येव, तथा चोक्तम्-" निर्विशेष विशेषाणां, ग्रहो दर्शनमुच्यते,"इति, ततो 'जाणति णमितिपूर्ववत देवानां । प्रियाः पूर्वमपि अनन्तरमुपदर्यमाननाट्यविधेः पश्चादपि च उपदय॑माननाव्यविधेः, उत्तरकालं मम एतद्रूपां दिव्या देवदि दिव्यां दवद्युतिं । दिव्यं देवानुभावं लब्धं (लब्ध) देशान्तरगतमपि किश्चिद्भवति तत आह प्राप्त, प्राप्तमपि किश्चिदन्तरायवशादनात्मवशं भवति तत आहअभिसमन्वागतं, तत 'इच्छामि णमित्यादि, इच्छामिणमितिपूर्ववत् देवानां प्रियाणां पुरतो भक्तिपूर्वकं बहुमानपुरस्सरं गौतमादीनां श्रमणानां निर्ग्रन्थानां दिव्यां देवर्द्धि दिव्यां देवद्युतिं दिव्यं देवानुभावमुपदर्शयितुं द्वात्रिंशद्विधं-द्वात्रिंशत्यकारं नाट्यावध नाट्यविधानमुपदर्शयितुमिति । 'तए णमित्यादि, ततः श्रमणो भगवान महावीरः सूर्याभेण देवेन एवमुक्तः सन् मूर्याभस्य देवस्यैनम्-बनअन्तरोदितमर्थं नाद्रियते-न तदर्थकरणायादरपरो भवति, नापि परिजानाति अनुमन्यते, स्वतो वीतरागत्वात् गौतमादीनां च नाट्य-15 विधेः स्वाध्यायादिविघातकारित्वात् , केवलं तूष्णीकोऽवतिष्ठते, एवं द्वितीयमपि वारं, तृतीयमपि वारमुक्तः सन् भगवानेवमवतिष्ठति । SAREaratundha | भगवत् महावीरस्य संमुख: सूर्याभदेव-कृत् नाट्यविधि-दर्शनं ~ 98~ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) प्रत सूत्रांक [२०-२३] दीप अनुक्रम [२०-२३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. श्रीराजमनी मलयगिरी या वृत्तिः ॥ ४८ ॥ “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र - १ ( मूलं + वृत्तिः ) Education मूलं [२०-२३] आगमसूत्र [१३] उपांग सूत्र [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः 'तए णमित्यादि, ततः पारिणामिक्या बुध्ध्या तत्त्वमवगम्य मौनमेव भगवत उचितं न पुनः किमपि वक्तुं केवलं मया भक्तिरात्मीयोपदर्शनीयेति प्रमोदातिशयतो जातपुलकः सन् सूर्याभो देवः श्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्दते- स्तौति नमस्यति-कायेन बन्दित्वा नमस्थित्वा च 'उत्तरपुरच्छिमं दिसीभागमित्यादि सुगमं, नवरं बहुसमभूमिवर्णनमेक्षागृहमण्डपवर्णनमणिपीठिका सिंहासनतदुपर्युलो चाङ्कुशमुक्तादामवर्णनानि च प्राग्वद् भावनीयानि । 'तए णमित्यादि, ततः सूर्याभो देवस्तीर्थङ्करस्य भगवतः आलोके प्रणामं करोति, कृत्वा चानुजानातु भगवान् मामित्यनुज्ञापनां कृत्वा सिंहासनवरगतः सन् तीर्थकराभिमुखः सनिषण्णः । 'तए णमित्यादि, ततः सूर्याभी देव ॐ' तत्प्रथमतया' तस्य नाट्यविधेः प्रथमतायां दक्षिणं भुजं प्रसारयति, कथम्भूतमित्याह-'नानामणिकणगरयण विमलमहारिहनिपुणोविचियमिसिमिसंतविरइयमहाभरणकडगतुडियवरभूसणुजन्' इति नानाविधानि मणिकनकरत्नानि येषु तानि नानामणिकनकरत्नानि मणयो नानाविधाश्चन्द्रकान्तादयः कनकानि नानाविधानि नानावर्णतया रत्नानि नानाविधानि कर्केतनादीन, तथा त्रिमलानि - निर्मलानि तथा महान्तमुपभोक्तारमर्हन्ति यदिवा महम्-उत्सवं क्षणमर्हन्तीति महार्हाणि तथा निपुणं निपुणबुद्धिगन्यं ॐ यथा भवति एवं ओविया' इति परिकर्मितानि 'मिसिमिसंतात्त' दीप्यमानानि विरचितानि महाभरणानि यानि कटकानिकलाचिकाभरणानि तुटितानि चाहुरक्षका अन्यानि य यानि वरभूषणानि तैरुज्ज्वलं - भास्वरं तथा पीवरं स्थूलं प्रलम्बं दीर्घं । 'तए णमित्यादि, ततः तस्माद् दक्षिणभुजात् अष्टशतम्-अष्टाधिकं शतं देवकुमाराणां निर्गच्छति, कथम्भूतानामित्याह-सदृशानां, समानाकाराणामित्यर्थः, तत्राकारेण कस्यचि (चित् सदृशोऽपि वर्णतः सदृशो न भवति ततः सदृग्वर्णत्वप्रतिपादनार्थमाह- ' सरितयाण' मिति, सदृशी सहग् वर्णत्व येषां ते तथा, सहकत्वगपि कश्चित् वयसा विसदृशः सम्भाव्येत तत आह-' सरिव्ययाणं भगवत् महावीरस्य संमुख: सूर्याभदेव कृत् नाट्यविधि-दर्शनं For Pale On ~99~ नाट्यदर्शनम् सू० २३ ॥ ४८ ॥ nary org Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) प्रत सूत्रांक [२०-२३] दीप अनुक्रम [२०-२३] “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र - १ ( मूलं + वृत्तिः ) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. मूलं [२०-२३] आगमसूत्र [१३], उपांग सूत्र [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः सदृक्-समानं वयो येषां ते तथा तेषां 'सरिसलावण्णरूवजोव्वणगुणोत्रवेयाण' मिति सदृशेन लावण्येन - लवणिन्ना अतिसुभगया। शरीरकान्त्येति भावः, रूपेण-आकृत्या यौवनेन-यौवनिकया गुणैः- दक्षत्वप्रियंवदत्वादिभिरुपपेताः सदृशलावण्यरूपयौवनगुणोपपेतास्तेषां, 'एगाभरणवसनगहियनिज्जोगाणामिति एकः समानः आभरणवसनादिः - आभरणवसनलक्षणो गृहीतो निर्योगः-उपकरणमर्थानाटयोपकरणं यैस्ते तथा तेषां 'दुहओ संवेल्लियम्गनियत्थानं ति द्विघातो- द्वयोः पार्श्वयोः संवेल्लितानि संवृत्तानि ग्राणि यस्य तद् द्विधातः संवेहिताम्रं न्यस्तं सामर्थ्यादुत्तरीयं यैस्ते तथा तेषां तथा 'उप्पीलियचित्तपट्टपरियर सफेणगावत्तरसंगयप लंबवत्थंतचित्तचिल्ललगनियंसणाण' मिति, उत्पीडितः - अत्यन्तावद्धश्चित्रपट्टो - विचित्रवर्णपट्टरूपः परिकरो यैस्ते तथा यस्मिन्नावर्त्तने फेनविनिर्गमो भवति स सफेनकावर्त्त उच्यते ततः सफेनकावर्त्तेन रचिता सङ्गता-नाटयविधानुपपन्नाः प्रलम्बा वस्त्रान्ता यस्य निवसनस्य तत्तथा तत् चित्रं चित्रवर्णं चिल्ललगं देदीप्यमानं निवसनं परिधानं येषां ते तथा, ततः पूर्वपदेन विशेषणसमासस्तेषां 'एगावलिकंठरइयसोभंतवच्छ परिहत्थभूसणाण' मिति, एकावलिर्या कण्ठे रचिता तया शोभमानं वक्षो येषां ते तथा परिहत्थशब्दो देश्यः परिपूर्णवाचकः, पडिहत्थानि पूर्णानि भूषणानि येषां ते तथा ततः पूर्वपदेन कर्म्मधारयस्तेषां, 'नट्टसज्जाणं' नृत्ये सज्जा:प्रगुणीभूता नृत्यसज्जास्तेषां । तदनन्तरं च यथोक्तविशेषणविशिष्टं वामं भुजं प्रसारयति, तस्माद् वामभुजात् अष्टशतं देवकुमारिकाणां विनिर्गच्छति, कथम्भूतमित्याह--' सरिसवाणं सरित्तयाणं सरिव्वयाणं सरिसलावण्णरूवजोन्त्रण गुणोवत्रेयाणं एगाभरणवसणगहियनिज्जोईणं दुहतोसंवेल्लियग्गनियत्थीणाम'ति पूर्ववत् 'आविद्धतिलयामेलाणं' आविद्धस्तिलक आमेल-शेखरको यकाभिस्ता आविद्धतिलकामेलास्तासां 'पिणद्धगेवेजकञ्चुकाणमिति, पिनद्धं ग्रैवेयकं - ग्रीवाभरणं कञ्चुकच यकाभिस्तास्तथा तासां, भगवत् महावीरस्य संमुख: सूर्याभदेव कृत् नाट्यविधि-दर्शनं For Pal Use Only ~ 100~ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ----------- मूलं [२०-२३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२०-२३] दीप अनुक्रम [२०-२३] श्रीराजमश्नी नानामणिकगारयणभूसणविराइयंगमंगीण मिति, नानाविधानि मणिकनकरलानि येषु भूषणेषु तानि नानामाणिकनकरत्नानि नाट्यविधि: मलयगिरी नामणिकनकरत्नभूपर्णविराजितान्यङ्गमङ्गानि-अङ्गप्रत्यङ्गानि यास तास्तथा तासां, 'चंदाणगाणं चन्दद्धसपनिहालाणं चन्दाया वृत्तिः हियसोमदंसणाणं उक्का इव उज्जोवेमाणीणमिति सुगमं 'सिङ्गारागारचारुवेसाणं हसियभणियचिट्ठियविलाससलालयसलावणिउण जुत्तोवयारकुसलाणं महियाउजाणं नट्टसज्जाणमिति पूर्ववत् । 'तए णं से भूरियाभे देवे' इत्यादि, ततः (स) मर्याभो देवोऽष्टशतं शबानां | माविकर्वति, अष्टशतं शववादकानाम १, अष्टशतं शृङ्गाणामष्टशतं शृङ्गवादकानां २ अष्टशत अडिकानां अष्टशतं शडिकावादकाना२, हस्वः शङ्खो जात्यन्तरात्मकः शडिका, तस्या हि स्वरो मनाक् क्ष्णिो भवति, न तु शवदतिगम्भीरः, तथा अशां वरमुखीनां -काहलानां असतं खरमुखीवादकानाम् ३, अष्टशतं पेयाना, पेया नाम महती काहला, अष्टशतं पेयवादकानां ४, अष्टशतं पीरिपरिकाणां-कोलिक-10 पुटवनद्धमुखवाद्यविशेषरूपाणामष्टशतं पीरिपीरिवादकनां ५ अष्टशतं पणवाना, पणवो-भाण्डपरहो लघुपटहो वा अशतं पगववादकानां 51६ अष्टशतं पन्हानां अष्टशतं पटहवादकानां ७ अष्टशतं भम्भानां भम्भा-हका अष्टशत भन्भावादकानां ८ अटश होरम्भाणी, होरम्भा-महाढ का अशतं होरम्भावादकानां ९ अष्टशतं भेरीणा-ढकाकृतिवाधविशवरूपाणामष्टशतं भेरीवादकानां १० अशनं | का झल्लरीणां झारीनाम-चौवनद्धा विस्तीर्णवलयाकारा अशतं झल्लरीवादकानां ११ अष्टशतं दुन्दुभीनामष्टशतं दुन्दुभिवादकानां दुन्दुभिर्भयाकारा सङ्कटमुखी देवातोयविशेषः १२ अष्टशतं मुरुजानां महाप्रमागो मर्दलो मुरुजः अष्टशतं मुरुजवादकानां |१३ अष्टशतं मृदङ्गानां लघुमदलो मुदङ्गोऽष्टशतं मृदङ्गवादकानां १४ अष्टशतं नन्दीमृदङ्गानां नन्दीमृदङ्गो नाम एकतः ॥ ४९ ॥ सङ्कीर्णोऽन्यत्र विस्तृतो मुरजविशेषः, अष्टशतं नन्दीमृदङ्गवादकानां १५ अष्टशतमालिङ्गानां आलिङ्गने-मुरजवायविशेष एवाष्टश REscandana aaurary.org | भगवत् महावीरस्य संमुख: सूर्याभदेव-कृत् नाट्यविधि-दर्शनं ~ 101~ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) (१३) ----------- मूलं [२०-२३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२०-२३] दीप अनुक्रम [२०-२३] तमालिङ्गवादकानां १६ अष्टशतं कुस्तुम्बाना कुस्तुम्बः-चावनद्धपुटो वाद्यविशेषः अष्टशतं कुस्तुम्बबादकाना १७ अष्टशतं गोमुखीनां, मोमुखी लोकतोऽवसेया, अष्टशतं गोमुखीवादकानां १८ अष्टशतं मर्दलाना, मईल:-उभयतः समः, अष्टशवं मर्दलवादकानां १९ अष्टशतं विपञ्चीनां, विपश्ची-त्रितन्त्री वीणा, अष्टशतं विपञ्चीवादकानां २०, अष्टशतं बल्लकीना, बल्लकी-सामान्यतो वीणा, अष्टशतं बल्लकीवादकानां २१ अष्टशतं भ्रामरीणामष्टशतं भ्रामरीवादकानां २२ अष्टशतं पद्भ्रामरीणामष्टशतं पभ्रामरीवादकानां २३ अष्टशतं परिवादिनीनां परिवादिनी-सप्ततन्त्री वीणा अष्टशतं परिवादिनीवादकानां २४ अष्टशतं ववीसानामष्टशतं ववीसावादकानां २५ अष्टशतं सुघोषाणामष्टशतं सुघोषावादकानां २६ अष्टशतं नन्दिघोषाणामष्टशतं नन्दीघोपवादकानां २७ अष्टशतं महतीनां, महती-शततन्त्रिका वीणा अष्टशतं महतीवादकाना २८ अष्टशतं कच्छभीनामष्टशतं कल्छभीवादकानां २९ अष्टशनं चित्रवीणानां अष्टशतं चित्रवीणावादकानां ३० अष्टशतमामोदानामष्टशतं आमोदवादकानां ३१ अष्टशतं झञ्झानामशतं झञ्झावादकानां ३२ अष्टशतं नकुलानां अष्टशतं नकुलवादकानां ३३ अष्टशतं तूणानामष्टशतं तूणावादकानां । ३४ अष्टशतं तुम्बवीणानां तुम्बयुक्ता वीणा या तुम्बवीणा अधकल्यप्रसिद्धा अष्टशतं तुम्बवीणावादकानां ३५ अष्टशतं मुकुन्दानां मुकुन्दो-मुरुजवायविशेषो योऽतिलीनं पायो वाद्यते अष्टशतं मुकुन्दवादकानां ३६ अष्टशतं हुडुकानामष्टशतं हुडकावादकानां हुडुका मतीता ३७, अष्टशनं चिवि[विचि] कीनामष्टशतं चिवि[विचि] कीवादकानां ३८, अष्टशतं कस्टीनाराष्टशतं कस्टीवादकानां, करटी प्रतीता ३९ अष्टशतं डिण्डिमानामष्टशतं डिण्डिमवादकाना, मधमप्रस्तावनास्तबका पणवविशेषः डिण्डिमः४०, अष्टशतं किणितानामष्टशन किणितवादकानां ४१ अष्टशतं कटवानामशतं कडवावादकाना, कडवा-करटिका ४२, अष्टशतं दर्दरकाणामहशतं दर्दरवादकाना, दईरकः ~ 102~ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ----------- मूलं [२०-२३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२०-२३] दीप अनुक्रम [२०-२३] श्रीराजपनी प्रतीतः ४३, अष्टशतं दर्दरिकाणामष्टशतं दर्दरिकावादकानां लघुदईरको दर्दरिका ४४ अष्टशतं कुस्तुम्बराणामष्टशतं कुस्तुम्बर- नाट्यविधिः मलयगिरी- चादकानां ४५ अष्टशतं कलशिकानामष्टशतं कलशिकावादकानां ४६, अष्टशतं कलशानामष्टशतं कलशचादकानां ४७, अष्टशतं या वृत्तिः | तालानामष्टशतं तालवादकानां ४८, अष्टशतं कांस्यतालानामष्टशतं कांस्यतालवादकाना ४९, अष्टशत रिंगिसिकानामष्टशतं रिंगिसि॥५०॥ कावादकानां ५०, अष्टशतमङ्गरिकाणामष्टशतमङ्गरिकावादकानां ५१, अष्टशतं शिशुमारिकाणामतं शिशुमारिकाबादकानां ५२, | अष्टशतं वंशानामष्टशतं वंशवादकानां ५३ अष्टशत बालीनामष्टशतं बालीवादकानां, वाली-तूणविशेषः, स हि मुखे दत्त्वा वायते ५४, अष्टशतं वेणूनामष्टशतं वेणुवादकानां ५५, अष्टशनं परिलीनामष्टशतं परिलीवादकानां ५६, अष्टशतं बद्धकानामष्टशतं बद्धकवादकाना, बद्धकस्तूणविशेषः ५७, अव्याख्यातास्तु भेदा लोकतः प्रत्येतव्याः, एवमादीनि बहन्यातोद्यानि आतोयवादकांश्च विकुर्वति, सर्वसत्यया तु मूलभेदापेक्षयाऽऽतोयभेदा एकोनपश्चाशत् , शेषास्तु भेदा एतेधेवान्तर्भवन्ति, यथा वंशातोद्यविधाने बालीवेणुपरिलीवनगा इति । एवमाइयाई एगुणपण्णं आतोज्जविहाणाई विउच्चइ ' इति, विकुचित्वा च तान् स्वयंविकुर्वितान् देवकुमारान् देवकुमारिकाच शब्दयति, ते च शब्दिता हृष्टतुष्टानन्दितचित्ताः सूर्याभसमीपमागच्छन्ति, आगत्य च करतलपरिगृहीतं दशनखं शिरसाव च मस्तकेऽञ्जलिं कृत्वा जयेन विजयेन वर्धापयित्वा एवमवादिषुः-सन्दिशन्तु देवानां पिया यदस्माभिः कर्त्तव्यं, ततः स सूर्याभो। देवस्तान् बहून देवकुमारान् देवकुमारिकाश्च एवमवादीत् गच्छत यूयं देवानां पियाः श्रमणं भगवन्तं महावीरं विकृत्व आदक्षि ॥५०॥ प्रदक्षिणं कुरुत कृत्वा च वन्दध्वं नमस्यत वन्दित्वा नमस्थित्वा गौतमादीनां श्रमणानां निर्ग्रन्धानां तां देवजनप्रसिद्धां दिव्यां देवदि , दिव्या देवद्युतिं दिव्यं देवानुभावं दिव्यं द्वात्रिंशद्विधं नाटयविधिमुपदर्शयत, उपदर्य चैतामाज्ञप्तिको क्षिप्रमेव प्रत्यर्पयत। 'तए णमि'-al JAMEmiratinatil Mamtaram.om | भगवत् महावीरस्य संमुख: सूर्याभदेव-कृत् नाट्यविधि-दर्शनं ~ 103~ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ----------- मूलं [२०-२३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२०-२३] दीप अनुक्रम [२०-२३] त्यादि, ततस्ते बहवो देवकुमारा देवकुमारिकाश्च सूर्याभेन देवेन एवमुक्ताः सन्तो हृष्टा यावत्लतिशृण्वन्ति, अभ्युपगच्छन्तीत्यर्थः, पतिश्रुत्य च यत्र श्रमणो भगवान्महावीरस्तत्रोपागच्छति उपागत्य च श्रमणं भगवन्तं महावीरं त्रिकृत्य आदक्षिणप्रदक्षिणीकुर्वन्ति कत्वा च बन्दन्ते नमस्यन्ति वन्दित्वा नमस्यित्वा च यस्मिन्प्रदेशे गौतमादयः श्रमणास्तत्र समकालमेव-एककालमेव समवसरन्ति.. मिलन्तीत्यर्थः, समवसत्य च समकमेव-एककालमेव अवनमन्ति-अधो नीचा भवन्ति, अवनम्य च समकमेव उन्नमन्ति, ऊर्ध्वमवति एन्ते इति भावः, तदनन्तरं चैवं क्रमेण सहितं सङ्गन्तं स्तिमितं चावनमनमुन्नमनं च वाच्यम् , अमीषां च सहितादीनां भेदः सम्यसाकोशलोपेतनाटयोपाध्यायादेवागन्तव्यः, ततः स्तिमितं समकमुन्नम्य समकमेव प्रसरन्ति, प्रसृत्य च समकमेव यथायोगमातोद्यवि धानानि गृह्णन्ति, गृहीत्वा च समकमेव प्रवादितवन्तः समकमेव प्रगीतवन्तः समकमेव प्रनर्तितवन्तः, 'किन्ते' इत्यादि, किश्च ते देवकुमारा देवकुमारिकाच एवं प्रगीता अप्यभवन्निति योगः, कथमित्याह-'उरेण मैद'मिति, सर्वत्र सप्तम्यर्थे तृतीया, उरसि मन्दं यथा । भवति एवं प्रगीताः, 'शिरेण तारं कण्ठेन वितार मिति शिरसि कण्ठे च तारं अतिशयेन यथावल्लक्षणोपेतं, किमुक्तं भवति ?-उरसि प्रथमतो गीतमुत्क्षिप्यते उत्क्षेपकाले च गीतं मन्दं भवति, 'आदिमिउमारभंता' इति वचनात् , अन्यथा गीतगुणक्षतेः, तत उक्तं ' उरसि मन्द'मिति, ततो गायतां मूर्धानमभिन्नन स्वर उच्चस्तरो भवति, स्थानकं च द्वितीयं तृतीयं वा समधिरोहति, ततः शिरसि तारामित्युक्तं, शिरसश्च प्रतिनिहत्तः सन् स्वरः कण्ठे घुलति धुलश्चातिमधुरो भवति ततः कण्ठे वितारमित्युक्तं तिवितिसमयरेयारइयमिति, 'गुंजावककुहरोवगू' गुञ्जनं गुञ्जा गुञ्जापधानानि यानि अबक्राणि-शब्दमार्गाप्रतिकूलानि कुहराणि तेषूपगूढं गुञ्जावक्रफुहरोपगूढं, किमुक्तं भवति ?-तेषां देवकुमाराणां देवकुमारिकाणां च तस्मिन् प्रेक्षागृहमण्डपे गायता गीतं तेषु प्रेक्षागृहमण्डपस Panorammaru | भगवत् महावीरस्य संमुख: सूर्याभदेव-कृत् नाट्यविधि-दर्शनं ~ 104~ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ----------- मूलं [२०-२३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२०-२३] दीप अनुक्रम [२०-२३] श्रीराजप्रश्नी तेवन्येषु च कुहरेपु खानुरूपाणि प्रतिशब्दसहस्राण्युत्थापयवर्तते इति, 'रत्तमिति रक्त इह यत् गेयरामानुरक्तेन गीतं गीयते तत् नाट्यविधिः मळयगिरी- रक्तमिति तद्विदा प्रसिद्धं, 'तिद्वाणकरणसुध्ध'मिति त्रीणि स्थानानि-उर प्रभृतीनि तेषु करणेन कियया शुद्धं त्रिस्थानकरणशुद्ध या वृत्तिः तद्यथा-उरःशुद्धं कण्ठ शुद्धं शिरोविशुदं च, तत्र यदि उरसि स्वरः स्वभूमिकानुसारेण विशालो भवति तत उरोविशुद्ध स एव यदि कण्ठे वर्तितो भवति अस्फुटितश्च ततः कण्ठविशुद्धं यदि पुनः शिरः प्राप्तः सन् सानुनासिको भवति ततः शिरोविशुद्ध, यदि वा ॥५१॥कायत उरकण्ठशिरोभिः श्रेष्मणा अव्याकुलितविशुद्धगीयते तत उरकण्ठशिरीविशुद्धत्वात्रिस्थानकरणविशुद्ध, तथा सकुहरो गुञ्जन यो वंशो ये च तन्त्रीतलताललयग्रहास्तेषु मुष्ठ-अतिशयेन सम्पयुक्तं सकुहरगुजदंशतन्त्रीतलताललयग्रहसुसम्पयुक्तं, किमुक्तं भवति ?-सकुहरे वंशे गुञ्जति तन्व्यां च बाधमानायां यशतन्त्रीस्वरेणाविरुदं तत् सकुहरगुजदंशतन्त्रीसुसन्मयुक्तं, तथा परस्परहतहस्ततलस्वरानुवति यत् तत् तलसुसम्पयुक्तं, यत् मुरजकंशिकादीनामातोद्यानामाहतानां यो ध्वनिः पादोत्क्षेपो यच नृत्यता नर्तिकापादोत्लेपस्तेन समं तत् तालसुसम्पयुक्तं, तथा शृङ्गमयो दारूमयो दन्तमयो वा योजुलिकोशिकस्तेनाहतायास्तन्याः स्वरप्रकारो लयस्तमनुसरन् गेयलयसुसम्पयुक्तं, तथा यः प्रथमं वंशतन्त्र्यादिभिः स्वरो गृहीतस्तनमार्गानुसारि ग्रहमुसम्मयुक्तं, तथा महरा 'ति मधुरस्वरेण गीयमानं, मधुरं कोकिलारुतवत् , तथा 'सममिति तलवंशस्वरादिसमनुगत समं 'सललिय'ति यत्स्वरघोलनामकारेण ललतीच तत् सह ललितेन-ललनेन वर्तते इति सललितं, यदि वा इति यत् श्रोत्रेन्द्रियस्य शब्दस्पर्शनमतीव मूक्ष्म-d मुत्पादयति सुकुमारमिव च प्रतिभासते तत्सललितमिति, अत एव मनोहरं, पुनः कथम्भूतमित्याह-'मउरिभितपदसञ्चारं तत्र मृदुर्मुदुना- ॥ ५१ स्वरेण युक्तो न निष्ठुरेण तथा यत्र स्वरोऽक्षरेषु घोलनास्वरविशेपेषु च सञ्चरन् रङ्गवीव प्रतिभासते(स)पदसञ्चारो रिमित उच्यते, मृदुरि | भगवत् महावीरस्य संमुख: सूर्याभदेव-कृत् नाट्यविधि-दर्शनं ~ 105~ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ----------- मूलं [२०-२३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२०-२३] दीप अनुक्रम [२०-२३] OS30- 9 भितः पदेषु गेयनिवद्धेषु संचारो यत्र गेये तन्मदुरिभितपदसञ्चारं, तथा 'सुरइ ' इति शोभना रतियस्मिन् श्रोतां ततः सुरति तथा शोभना नतिर्नामोऽवसानो यस्मिन् तत् सुनति तथा वरं-प्रधानं चारु-विशिष्टचङ्गिन्मोपेतं रूपं-स्वरूपं यस्य तदरचारुरूपं दिव्यंप्रधानं नृत्तसज गेयं प्रगीता अप्यभवन , 'कि ते' इत्यादि, किश्च ते देवकुमारा देवकुमारिकाध प्रगीतवन्तः प्रतिवन्तश्च 'उद्धयंताणं संखाणमित्यादि, अत्र सर्वत्रापि पठी सप्तम्पर्थे, ततोऽयमों-यथायोगमुयायमानादिषु शादिषु, इह शशृङ्गशटिका-10 खरमुहीपेया परिपिरिकाणां वादनमुद्ध्यानमिति प्रसिद्ध, प्रणवपटहानामामोटनं मंभाहोरम्भाणामास्कालनं भेरीझल्लरीदुन्दुभीनां ताडनं मुरजमृदङ्गन्नन्दीमृदङ्गानामालपनं आलिङ्गकुस्नुम्बगोमुखीमदलानामुत्तालनं वीणाविपश्चीवलकीनां मच्छेनं भ्रामरीषड्भ्रामरीपरिवादनीनां स्पन्दनं बवासा (ववीसा) सुघोपानन्दियोपाणां सारणं महतीकच्छपीचित्रवीणानां कुट्टनं आमोदमान-Is कुलानामामोटनं तुन्वतूणवीणानां स्पर्शनं मुकुन्दहुडकाविचिकीकडवानां मूर्छनं करटाडिडिमकिणिककडवानां वादनं दर्दरददरिकाकुस्तुन्वकलसिकामहुकानापुत्ताडनं तलतालकंसतालानामाताइन रिङ्गिासिकालतिकामकरिकाशिशुमारिकागा घान वंशवेणुवालीपिरलीपिरलीवधगाना फुकनमत उक्तं 'उद्धमंताणं संखाण मित्यादि, 'तए णं से दिवे गीए' इत्यादि, यत एवं प्रगीतअवन्त इत्यादि, ततो णमिति पूर्ववत् तदिव्यं गोतं दिव्यं वादितं दिव्यं नृत्तमभवदितियोगः, दिव्यं नाम प्रधान, 'एवमभुए गीए इत्यादि, 'अग्भुए गीए अभुए वाइए अन्भुए नट्टे' अद्भुतं-आश्चर्यकारि 'सिंगारे वाइए सिंगारे नट्टे' सिंगारं-शृङ्गार शृङ्गाररसोपेतत्वात् , अथवा शृङ्गारं नामालङ्कृतमुच्यते, तत्र यदन्यान्यविशेषकरणेनालङ्कृतमिव गीतं वादनं नृनं वा तत् शृङ्गारामिति, 'उराले गीए उराले चाइए उराले न? ' उदारं-स्फारं परिपूर्णगुणोपेतत्वात् , नतु कचिदपि हीनं, 'मणुण्णे गीए मणुणे वाइए मणुने नट्टे' मनोज़-मनोऽनुकूल - 0:30 SAREnatur a l | भगवत् महावीरस्य संमुख: सूर्याभदेव-कृत् नाट्यविधि-दर्शनं ~ 106~ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ----------- मूलं [२०-२३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: मू०२३ प्रत सूत्रांक [२०-२३] दीप अनुक्रम [२०-२३] श्रीराजमनी कष्टणां श्रोतृणां च मनोनिवृतिकरमिति भावः, तच्च मनोनितिकरत्वं सामान्यतोऽपि स्यात् अतः प्रकर्षविशेषमतिपादनार्थमाह-| मलयगिरी- मणहर ' इति, 'मणहरे गीए मणहरे वाइए मणहरे नट्टे' मनो हरति-आत्मवशं नयति तद्विदामप्यतिचमत्कारकारितयेति मनोहरम् , या दृत्तिःपतदेवाह - उपिन्जलभूते उपिजलम्-आकुलकं उत्पिञ्जलभूते आकुलके भूते, किमुक्तं भवति ?--महर्टिकदेवानामध्यतिशायितया परमक्षोभोत्पादकत्वेन सकलदेवासुरमनुजसमूहचित्ताक्षेपकारीति, 'कहकहभूते ' इति कहकहेत्यनुकरणं, कहकहेति भूत-प्राप्तं कहकहभूतं, किमुक्तं भवति?-निरन्तरं तत्तद्विशेषदर्शनतः समुच्छलितप्रमोदभरपरवशसकलदिकचकवालबत्तिप्रेक्षकजनकृतमशसावचनबोलकोलाहलव्याकुलीभूतमिति, अत एव दिव्यं देवरमणमपि देवानामपि रमणं-क्रीडनं प्रवृत्तमभूत् । 'तए ण ते बहवे देवकुमारा य' इत्यादि, ततस्ते बहवो देवकुमारा देवकुमारिकाश्च श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य पुरतो गौतमादिश्रमणानां स्वस्तिकश्रीवत्सनन्यावर्तवर्द्धमानकभद्रासनकलशमत्स्यदर्पणरूपाणामष्टानां मडलकानां भक्त्या-विच्छित्त्या चित्रम्-आलेखनमाकाराभिधानं वा यस्मिन् स स्वस्तिकश्रीवत्सनन्द्यावर्त्तवर्द्धमानकभद्रासनकलशमत्स्यदर्पणमङ्गलभक्तिचित्रः, एवं सर्वत्रापि व्युत्पत्तिमात्रं यथायोगं परिभाषनीयं, सम्पग्भावना तु कत्तुं न शक्यते, यतोऽमीषां नाट्यविधीनां सम्यक् स्वरूपमतिपादन डीपूर्वान्तर्गते नाट्यविधिप्राभृते, तच्चेदानी व्यवच्छिन्नमिति प्रथमं दिव्यं नाट्यविधिमुपदर्शयति, तए णं ते बहवे देवकुमारा य देवकुमारीओ य सममेव समोसरणं करेंति २ ता ते चेव भाणिय जाब दिवे देवरमणे पर्वतयावि होत्था, तए णं ते बहवे देवकुमारा य देवकुमारीओ य । ५२ ।। Tidluminary.org | भगवत् महावीरस्य संमुख: सूर्याभदेव-कृत् नाट्यविधि-दर्शनं ~ 107~ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) प्रत सूत्रांक [२४-२५] दीप अनुक्रम [२४-२५] “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र - १ (मूलं + वृत्तिः ) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित. Jan Eucation h मूलं [ २४-२५] आगमसूत्र [१३], उपांग सूत्र [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः समणस्स भगवओ महावीरस्स आवडपच्चावडसेडिगसेढिसोत्थियसोवत्थिअपूसमाणगमच्छंडम गरंडजागमारा फुल्लावलिप उमपत्नसागर तरंग वसंत लतापउमलयभत्तिचित्तं णाम दिवं विहिं उवति । एवं च एकेकियाए पट्टविहीए समोसरणादीया एसा बनवया जाव दिवे देवरमणे पवतेवि यावि होत्था । तए णं ते बहवे देवकुमारा देवकुमारियाओ य समणस्स भगवतो महावीरस्स ईहामिह उस तुरगनरमगर विहग वालगकिंनररुरुसरभचमर कुंजरवणलय उमलयभत्तिचित्तं णामं दिवं विहिं वदति ३ । एगतो व दुहओ वक्कं [ एगती खुहे दुहओ खुहं ] एगओ चकवालं दुहओ चक्कवालं चक्कद्वचक्कवालं ४ णामं दिवं णट्टविहिं उपसंति चंदावलिपविभत्तिं च वलियावलिपविभर्त्तिं च हंसावलिपविभर्त्ति च सरावलिपविभत्तिं च एगावलिपविभत्तिं च तारावलिपविभत्तिं च मुत्तावलिपविभसिं च कणगावलिपविभत्तिं च रयणावलिपविभत्तिं च णामं दिवं णट्टविहं उपसंति ५ चंदुग्गमणपविभत्तिं सूरुग्गमणपविभत्तिं च उग्गमणुग्गमणपविभत्तिं च णामं दिवं णट्टविहं उवदंसेति ६ चंदागमणपविभत्तिं च सुरागमणपविभत्तिं च आगमणागमणपविभत्तिं च णामं दिवं णट्टविहं उवदंसंति ७ चंद्रावरणपविभत्तिं च सूरावरणपविभत्तिं च णामं दिवं णट्टविहं उपसंति ८ चंदत्थमणपविभत्तिं च सूरत्थमणपविभत्तिं च अत्थमणऽत्थमणपविभतिं नाम दिवं ट्टविहं उवदंसंति ९ चंदमंडलपविभनिं च सुरमं भगवत् महावीरस्य संमुख: सूर्याभदेव कृत् नाट्यविधि-दर्शनं For Parts Only ~ 108~ 85020005001001080107 Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ---------- मूलं [२४-२५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: नाट्यविधिः श्रीराजमश्नी मलयगिरीया वृत्तिः मू०२४ प्रत सूत्रांक [२४-२५] दीप अनुक्रम [२४-२५]] डलपविभत्तिं च नागमंडलपविभत्तिं च जक्खमंडलपविभन्निं च भूतमंडलपविभन्निं च [रक्वस महोरग. गंधव मंडलपविभनि च ] मंडलपविभन्निं णामं दिवं गट्टविहं उबदसति १० उसमललियवकतं सीहललिययतं हयविलंबियं गयविलंबियं मत्तहयविलसिय मत्तगयविलसियं दुयविलंपियं णाम दिवं णट्टविहिं उवदंसंति ११ सागरपविभर्ति च नागरपविभत्तिं च सागरनागरपविभन्निं च णामं दिवं गट्टविहे उबदसंति १२ गंदापविभन्निं च चंपापविभनि च नन्दाचंपापविभत्तिं च णाम दिवं णविह०१३मच्छंडापधिभनिं च मयरंडापविभनि च जारापविभन्निं च मारापविभन्निं च मच्छंडामयरंडाजारामारापविभर्ति च णाम दिवंणविहिं उबदसति १४ कत्तिककारपविभन्निं च सनिखकारपविभतिं च गनिगकारपविभनिं च पत्तिधकारपविभतिं च उत्तिटकारपविभत्तिं च ककारसकारगकारघकारडकारपविभनि च णामं दिवं पट्टविहं उवदंसेति 1५ एवं चकारवग्गोवि १६ टकारवग्गोवि १७ तकारवग्गोवि १८ पकारवग्गोवि १९ असोयपल्लवपविभतिं च अंबपल्लवपविभनि च जंबपल्लवपविभत्तिं च कोसंचपल्लवपविभनिं च पल्लव २ पविभनि च णामं दिवं गट्टविहं उवदंसति २०पउमलयापविभनि च जाव सामलयापविभतिं च लयालयापविभानं च णाम दिवं गट्टविहं उबईसेंति २१ दुयणामं गढविहं उवदंसंति २२ विलंबियं णामं पट्टविहि २३ दुरविलंबियं णाम णट्टविहि २४ अंचियं २५ रिभियं २६ अंचियरि ॥५३॥ | भगवत् महावीरस्य संमुख: सूर्याभदेव-कृत् नाट्यविधि-दर्शनं ~ 109~ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) प्रत सूत्रांक [२४-२५] दीप अनुक्रम [२४-२५] “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र - १ (मूलं + वृत्तिः ) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. मूलं [ २४-२५] आगमसूत्र [१३], उपांग सूत्र [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः भिर्य २७ आरभई २८ भसोलं २९ आरभडभसोलं ३० उप्पयनिवयपवत्तं संकुचियं पसारियं रया (a) रयत संतणामं दिवं णट्टविहिं उपदंसेति ३१ । तए णं ते बहवे देवकुशरा य देवकुमारीयाओ य समामेव समोसरणं करेंति जाव दिवे देवरमणे पवने याचि होत्था तए णं ते बहवे देवकुमारा देवकुमारीओ व समणस्स भगवओ महावीरस्स युवभवच रियणिबद्धं च ( देवलोय चरियनिबद्धं च ) चवणचरियणिबद्धं च संहरणचरियनिबद्धं च जम्मणचरियनिबद्धं च अभिसेअचरियनिबद्धं च बालभावचरनिबद्धं जोवणचरियनिबद्धं च कामभोगचरियनिबद्धं च निक्खमणचरियनिवद्धं च तवचरणचरिनिबद्धं च ( णाणुप्पाश्चरियनिवद्धं च ) तित्थपवत्तणचरियनिष्यरिनिवाणचरियनिवद्धं च चरमचरियनवद्धं च णामं दिवं णट्टविहिं उवदंसति ३२। तए णं ते बहवे देवकुमारा व देवकुमारीओय चउवि वाइनं वाति, तंजा-ततं विततं घर्ण सिरं, तए णं ते बहवे देवकुमाराय देवकुमारीओ य चउविहं गयं गायंति, तंजहा उक्खितं पायत्तं मंदार्य रोयावसाणं च । तए णं ते बहवे देवकुमारा य देवकुमारियाओ य चउविहं णट्टविहिं उवसन्ति, तंजहाअंचियं रिभिर्यं आरभ भसोलं च तए णं ते बहने देवकुमाराय देवकुमारियाओ य चउविहं afari अणित, जहा - दिट्ठेतियं पार्टितियं सामन्तोवणिवाइयं अंतोज्ज्ञावसायिं तए णं ते भगवत् महावीरस्य संमुखः सूर्याभदेव कृत् नाट्यविधि-दर्शनं For Penal Use On ~ 110~ r Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ---------- मूलं [२४-२५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति श्रीराजमश्नी मलयगिरीया वृत्तिः प्रत सूत्रांक [२४-२५] ॥५४॥ बहवे देवकमारा य देवकुमारियाओ य गोयमादियाणं समणाणं निम्गंथाणं दिवं देविहि दिवं देवजुनि नाट्योपसंदिवं देवाणुभागं दिवं पत्नीसइबद्धं नाडयं उबदसित्ता समणं भगवं महावीरं तिसुनो आयाहिणपयाहिणं हार स्वस्थाकरेइ २ ना वंदति नमसति वंदित्ता नमंसित्ता जेणेव सूरियामे देवे तेणेव उवागच्छन्ति तेणेव उबाग नगतिश्च च्छिता सरियाभं देवं करयलपरिग्गहियं सिरसावनं मत्थए अंजलिं कट्ट जएणं विजएणं बद्धावति २ म०२५ ना एवमाणनियं पञ्चप्पिणति (स.२४) तए णं से सूरिया देवे तं दिवं देविहिं दिवं देव जुई दिवं देवाणुभावं पडिसाहरद पडिसाहरेता सणेणं जाते एगे एगभए तए णं से सरियाभे देव समणं भगवं महावीर तिक्खुनी आयाहिणपयाहिणं करेइ बंदति णमंसति वंदिता णमसिना निगपरिवालसद्धिं संपरिबुडे तमेव दिवं जाणविमाणं दुरूहति दुरूहिना जामेय दिसिं पाउदभूया तामेव दिसि पडिगया ॥ (सू.२५) ततो द्वितीयं नाट्यविधिमुपदर्शयितुकामा भूयोऽपि पागुरुप्रकारेण समकं समवसरणादिकं कुर्वन्ति, तथा चाह-'तए णं ते बहवे देवकुमारा य देवकुमारीओ य समकमेव समोसरणं करेंति' इत्यादि प्रागुक्तं तदेव तायद्वक्तव्यं यावत् 'दिवे देवरमणे पचत्ते । याचि होत्था' इति । 'तए णमित्यादि, ततस्ते बहवो देवकुमारा देवकुमारिकाच श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य पुरतो गीतमादीनां श्रमणानां आवत्तेप्रत्यावतश्रेणिप्रश्रेणिस्वस्तिकपुष्पमाणवकवर्द्धमानकमत्स्याण्डकमकराण्डकजारमारपुष्पावलिपनपत्रसागरतरवासन्ती-| ॥ ५४॥ लतापद्मलतापक्तिचित्रं नाम द्वितीयं नाट्यविधिमुपदर्शयन्ति । तदनन्तरं तृतीयं नाट्यविधिमुपदर्शयितुं भूयस्तथैव समवसरणादिकं दीप अनुक्रम [२४-२५]] aaurary.org | भगवत् महावीरस्य संमुख: सूर्याभदेव-कृत् नाट्यविधि-दर्शनं ~111~ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ---------- मूलं [२४-२५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२४-२५] दीप अनुक्रम [२४-२५] कुर्वन्ति, एवं समवसरणादिकरणविधिरेकैकस्मिन्नाव्यविधी प्रत्येक २ तावद्वक्तव्यो यावद्देवरमणे पवत्ते यावि होत्था इति तत ईहामृगऋपभतुरगनरमकरविहगल्यालकिन्नररुरुसरभचमरकुञ्जरवनलतापमलताभक्तिचित्रं नाम तृतीय दिव्यं नाट्यविधिमुपदर्शयन्ति ३.2 तदनन्तरं भूयोऽपि समवसरणादिविधिकरणानन्तरमेकतो चर्क-एकतश्चक्रवालं द्विधातश्चक्रवालं चकार्द्ध चकवाल नाम चतुर्थ दिव्यं नाट्यविधिमुपदर्शयन्ति ४, तदनन्तरमुक्तविधिपुरस्सरं चन्द्रावलिपविभक्ति मूर्यावलिपविभक्ति वलयावलिपविभक्ति हंसावलिपविभाक्ति एकावलिपविभक्ति ताराबलिप्रविभाक्ति मुक्तावलिपविभक्ति कनकावलिपविभक्ति रत्नावलिपविभक्त्यभिनयात्मकमावलिपविभक्ति नाम पञ्चमं नाट्यविधिमुपदर्शयन्ति ५ तदनन्तरमुक्तक्रमेण चन्द्रोद्मप्रविभक्तिसूर्योगमप्रविभक्तियुक्तमुद्गमनोद्गमनपविभक्तिं नाम पठं नाटयविधिमुपदर्शयन्ति ६ तत उक्तप्रकारेण चन्द्रागमनपविभक्तिसूर्यागमनपविभक्तियुक्तमागमनपविभक्तिनाम सप्तमं नाट्यविधिमुपदर्शयन्ति ७, तदनन्तरमुक्तक्रमेण चन्द्रावरणप्रविभक्तिमूर्यावरण विभक्तियुक्तमावरणावरणाविभक्तिनामकमष्टमं नाट्यविधि ८ तत उक्तक्रमणैव चन्द्रास्तमयनाविभक्तिसूर्यास्तमयनपविभक्तियुक्तमस्तमयनपविभक्तिनामकं नवमं नाटयविधि ९ तत उक्तमकारेण चन्द्रमण्ड-Tar लपविभक्तिमूर्यमण्डलपविभक्तिनागमण्डलपविभक्तियक्षमण्डलपविभक्तिभूतमण्डलपविभक्तियुक्तं मण्डलपविभक्तिनामक दशमं दिव्यं । नाट्यविधि १० तदनन्तरं उक्तक्रमेण ऋषभमण्डलपविभक्तिसिंहमण्डलपविभक्तिहयविलम्बितमजविलम्बितहपविलसितगजविलसितमत्तयविलसितमत्तगजविलसितमत्तहयविलंबितमत्तगजबिलांबतं विलंबिताभिनयं द्रतविलम्वितं नाम एकादर्श नाट्यविधि ११ तदनन्तरं सागरप्रविभक्तिनागरपविभक्तिअभिनयात्मकं सागरनागरप्रविभक्तिनाम द्वादशं नाट्यविधि १२ ततो नन्दापविभक्तिचम्पापविभक्तचात्मकं नन्दाचम्पापविभक्तिनाम त्रयोदशं नाट्यविधि १३ ततो मत्स्याण्डकमविभक्तिमकराण्डकमविभक्तिजारमविभक्तिमारप REairatna S undaramorg | भगवत् महावीरस्य संमुख: सूर्याभदेव-कृत् नाट्यविधि-दर्शनं ~112~ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ---------- मूलं [२४-२५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२४-२५] ॥५५॥ दीप अनुक्रम [२४-२५] श्रीराजपनी विभक्तियुक्तं मत्स्याण्डकमकराण्डकजारमारपविभक्तिनाम चतुर्दशं नाट्यविधि १४ तदनन्तरं क्रमेण क इति) ककारपविभक्तिः, ख सूर्याभकृत मलयगिरी- इति खकारमवि० ग इति गकारमय इति धकारम ङ इति उकारमविभक्तिरित्येवं क्रमभाविककारादिपविभक्तिअभिनयात्मक द्वात्रिंशद्विषं या दृचिःककारखकारगकारचकारडकारप्रविभक्तिनामक पञ्चदशं दिव्यं नाट्यविधि १५ एवं चकारछकारजकारझकारअकारमविभक्तिनामकं का नृत्यं पोडशं दिव्यं नाटयविधि १६ टकारठकारडकारढकारणकारपविभक्तिनामकं सप्तदशं दिव्यं नाट्यावधि १७ तकारथकारदकारधकारनकारप्रविभक्तिनामक अष्टादशं नाट्यविधि १८ पकारफकारबकारभकारमकारप्रविभक्तिनामकमेकोनविंशतितमं दिव्यं नाट्यविधि| ०१५ १९ततोऽशोकपल्लवप्रविभक्त्याम्रपल्लवप्रविभक्तिजम्बूपल्लवप्रविभक्तिकोशम्बपल्लवप्रविभक्त्यभिनयात्मक पल्लुचपविभक्तिनामकं विंशतितम दिव्यं नाट्यविधि २० तदनन्तरं पद्मलतापविभक्तिनागलतापविभक्तिअशोकलतापविभक्तिचम्पकलतापविभक्तिचूतलतापविभक्तिबनलतापविभक्तिवासन्तीलतापविभक्तिकुन्दलतापविभक्तिअतियुक्तकलतापावभक्तिश्यामलतापविभक्तिअभिनयात्मकं लतापविभक्तिनामकमेकविंशतितमं दिव्यं नाट्यविधि २१ तदनन्तरं तं नाम द्वाविंशतितमं नाट्यविधि २२ ततो विलम्बितं नाम त्रयोविंशतितम २३ द्रुतविलम्वितं नाम चतुर्विंशतितम २४ अश्चितं नाम पञ्चविंशतितमं २५ रिभितं नाम पड्रिंशतितमं २६ अश्चितरिभितनाम सप्तविंशतितमं २७ आरभट नाम अष्टाविंशतितम २८ भसोलं नाम एकोनत्रिंशति(त)म २९ आरभदभसोलं नाम त्रिंशत्तम ३010 तदनन्तरमुत्पातनिपातप्रसक्तं सहुचितप्रसारितरेवकरचितं भ्रान्तसम्भ्रान्तं नाम एकत्रिंशत्तमं दिव्यं नाट्यविधिमुपदर्शयन्ति ३१ तदनन्तरं च श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य चरमपूर्वमनुष्यभवचरमच्यवनचरमगर्भसंहरणचरमभरतक्षेत्रावसर्पिणीतीर्थकरजन्माभिषेकचरमबालभावचरमयौवनचरमकामभोगचरमनिष्क्रमणचरमतपश्चरणचरमज्ञानोत्पादचरमतीर्थप्रवर्त्तनचरमपरिनिर्वाणनिवदं चरमनिबद्धं | ॥ ५५ | भगवत् महावीरस्य संमुख: सूर्याभदेव-कृत् नाट्यविधि-दर्शनं ~ 113~ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ---------- मूलं [२४-२५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२४-२५] नाम द्वात्रिंशत्तमं दिव्यं नाट्यविधिमुपदर्शयन्ति ३२ । तदनन्तरं वहवो देवकुमारा देवकुमारिकाश्च नाट्यविधिपरिसमाप्तिमङ्गलभूतं । चतुर्विध वादित्रं वादयन्ति, तद्यथा-वतं-मृदङ्गपटहादि वितत-चीणादि घन-कंसिकादि सुधिर-शकाहलादि, तदनन्तरं चतुर्विध गीतं गायन्ति, तद्यथा-उक्षिप्तं प्रथमतः समारभ्यमाणं पादान्तं पादवृद्ध वृद्धादिचतुर्भागरूपपादबद्धमितिभावः, 'मन्दाय ' मिति मध्यभागे मूर्छनादिगुणोपेततया मन्दं मन्दं घोलनात्मक रोचितावसानमिति-रोचितं यथोक्तलक्षणोपेततया भावितं सत्यापितामितियावत् अवसानं यस्य तद्रोचितावसानं । 'तए णामित्यादि, ततश्चतुर्विधं नर्तनविधिमुपदर्शयन्ति, तद्यथा-'अश्चित'मित्यादि, 'तए । 'मित्यादि, ततचतुर्विधमाभनयमभिनयन्ति, तथथा-दान्तिकं प्रात्यन्तिक सामान्यतो विनिपातं लोकमध्यावसानिकमिति, एते. ननविषयोऽभिनय विधयश्च नाटयकुशलेभ्यो वेदितव्याः 'तए णं ते बहने देवकुमारा देवकुमारीओ' इत्यादि उपसंहारसूत्रं सुगम, नवरं 'एगभूए' इति एकभूतः अनेकीभूयैकत्वं प्राप्त इत्यर्थः, 'नियगपरियाल सद्धिं संपरिबुडे । इति, निजकपरिवारेण सार्दै परिवृतः। भंतेति भयवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदति नमंसति २ एवं पयासी-मूरियाभस्म णं भंते ! देवस्स एसा दिवा देविड़ी दिवा देवजुत्ती दिवे देवाणुभावे कहिं गते कहिं अणुपविट्ठे ?, गो. ! सरीरं गते सरीरं अणुपविट्ठ, से केण?णं भंते ! एवं बुच्चइ ?-सरीरं गते सरीरं अणुपविट्ठे ?, गो० से जहानामए कूडागारसाला सिया दुहतो लिला दुहतो गुत्ता गुत्तदुवारा णिवाया णिवायगंभीरा,तीसे णं कूडागारसालाते अदूरसामंते दीप अनुक्रम [२४-२५] Santarating | भगवत् महावीरस्य संमुख: सूर्याभदेव-कृत् नाट्यविधि-दर्शनं ~114~ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ---------- मूलं [२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: कूटाकारशा प्रत सुत्रांक श्रीराजप्रश्नी मलयगिरी या वृत्तिः ॥५६॥ लादृष्टान्तः कियसंहरणे ०२६ [२६] दीप अनुक्रम [२६] इत्थ णं महंगे जणसमूहे चिट्ठति, तए णं से जणसमूह एगं महं अभवद्दलगं वा यासवहलगं वा महापायं वा इजमाणं पासति २ ता तं कूडागारसालं अंतो अणुपपिसिना णं चिट्ठइ, से तेण?णं गोपमा ! एवं बुच्चति-सरीरं अणुपवितु (सू. २६) भदन्तेत्यामन्त्रणपुरस्सरं भगवान् गौतमः श्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्दते नमस्यति वन्दित्वा नमस्थित्वा 'एवं ' वक्ष्यमाणकारणावादीत , पुस्तकान्तरे स्विदं वाचनान्तरं दृश्यते, 'तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जिट्टे अंतेवासी' इत्यादि, अस्य व्याख्या तस्मिन् काले तस्मिन् समये गंशब्दो वाक्यालङ्कारार्थः, श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य 'ज्येष्ठ इति प्रथमोऽन्तेवासी-शिष्यः, अनेन पदद्वयेन तस्य सकलसङ्घाधिपतित्वमावेदयति, इन्द्रभूतिरिति मातापितृकृतं नामधेयं नामेतिप्राकतत्वात विभक्तिपरिणामेन नाम्नति द्रष्टव्यं, एवमन्यत्रापि यथायोगं भावनीयम्, अन्तेवासी च किल विवक्षायां श्रावकोऽपि स्यादतस्तदाशङ्कनव्यवच्छेदार्थमाह- अनगारः न विद्यते अगारं-गृहमस्येत्यनगारः, अयं च विगीतगोत्रोऽपि सम्भाव्येतात आह-गौतमो गोत्रेण गौतमायगोत्रसमन्वित इत्यर्थः, अयं च तत्कालोचितदेहपरिमाणापेक्षया न्यूनाधिकदेहोऽपि स्पादत आह-सप्तोत्सेधः-सप्तहस्तप्रमाणशरीरोच्छायः, अयं चेत्थम्भूतो लक्षणहीनोऽपि शङ्कन्धेतातस्तदाशङ्कापनोदार्थमाह-'समचउरंससंठाणसंदिए' इति, समाः-शरीरलक्षणशास्त्रोक्तप्रमाणाविसंवादिन्यश्चतस्रोऽसयो यस्य तत् समचतुरखं अस्त्रयस्त्विह चतुर्दिग्विभागोपलक्षिताः शरीरावयवा द्रष्टच्याः, अन्ये त्याहुः-समा-अन्यूनाधिकाश्चतस्रोऽप्यस्रयो यत्र तत् समचतुरसं तञ्च तत् संस्थानं च, संस्थानम्-आकारः तश्च, वामदक्षिणजान्यो ।। ५६ ॥ Santairatinidi Hauntiarary ou गौतमस्वामिन: वर्णनं ~115~ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ---------- मूलं [२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सुत्रांक [२६] दीप अनुक्रम [२६] रन्तरं आसनस्य ललाटोपरिभागस्य चान्तरं वामस्कन्धस्य दक्षिणजानुनश्चान्तरामति, अपरे वाहुः-विस्तारोत्सेधयोः समत्वात समचतुरस्रं तच तत्संस्थानं च २, संस्थानम्-आकारस्तेन संस्थितो-व्यवस्थितो यः स तथा 'जाव उठाए उद्देइ' इति यावत्करणात वजरिसहसंघयणे कणगपुलगनिघसपम्हगोरे उग्गतवे दित्ततवे तत्ततवे महातवे उराले घोरे घोरगुणे घोरतबस्सी घोरवंभचेर-1 वासी उच्छ्नसरीरे संवित्तविपुलतेयलेसे चउदसपुची चउनाणोवगए सवक्खरसन्निवाई समणस्स भगवती महावीरस्स अदरसामन्ते उजाणू अहोसिरे झाणकोट्ठोवगए संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ, तए णं से भगवं गोयमे जायसड़े जायसंसए जायकोउहल्ले जपन्नसड़े उपनसंसए उत्पन्नकोउहले संजायसढे संजायसंसए संजायकोउहल्ले समुप्पण्णसड़े समुप्पण्णसंसए समुप्पष्णकोउहाले । उहाए उद्रेइ इति द्रष्टव्यं, तत्र नाराचमुभयतो मर्कटबन्धः ऋषभस्तदुपरि वेष्टनपट्टः कालिका अस्थित्रयस्यापि भेदकमस्थि एवं-15 रूपं संहननं यस्य स तथा, तथा कनकस्य-सुवर्णस्य यः पुलको-लवस्तस्य यो निकपः कपपके रेखारूपस्तथा पद्मग्रहणेन पद्मकसराण्युच्यन्ते अवयवे समुदायोपचारात् यथा देवदत्तस्य हस्ताग्ररूपोऽवयवोऽपि देवदत्तः, तथा च देवदत्तस्य हस्ताग्रं स्पृष्टा लोको वदति-स्पृष्टो मया देवदत्त इति, कनकपुलकनिकपवत् पनवच्च यो गौरः स कनकपुलकनिकषपद्मगौरः, अथवा कनकस्य यः पुलको-वत्वे सति बिन्दुस्तस्य निकषो वर्णतः सदृशः कनकपुलकनिकषः, तथा पद्मवत्-पअकेसरवत् यो गौरः स पद्मगौरः, ततः पदद्वयस्य कर्मधारयसमासः, अयं च विशिष्टचरणरहितोऽपि शङ्कयेत तत आह-'उग्गतवे' इति, उग्रम्-अधृष्यं तपः-अनशनादि यस्य स तथा, यदन्येन प्राकृतेन पुंसा न शक्यते चिन्तयितुमपि मनसा तद्विधेन तपसा युक्त इत्यर्थः, तथा दीप्तं जाज्वल्यमान | दहन इव कर्मवनगहनदहनसमर्थतया ज्वलितं तपो-धर्मध्यानादि यस्य स तथा, 'तत्ततवे' इति तप्तं तपो येन स तप्ततपाः, एवं REmiratinine murary.org गौतमस्वामिन: वर्णनं ~116~ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ---------- मूलं [२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सुत्रांक [२६] दीप अनुक्रम [२६] श्रीराजप्रश्नी हितेन तपस्तप्तं येन सर्वाण्यपि अशुभानि कर्माणि भस्मसात् कृतानीति ' महातवे । इति महान्-प्रशस्तमाशंसादोषरहितत्वात् तपो भगवद्गीतममलयगिरी- यस्य स महातपाः, तथा 'उराले' इति, उदार:-प्रधानः अथवा उरालो-भीष्मः उप्रादिविशिष्टतपःकरणतः पार्थस्थानामल्पसत्त्वा- वर्णनं या दृत्तिः नामनिभयानकर नामतिभयानक इति भावः, तथा घोरो-निपुणः परीपहेन्द्रियादिरिपुगणविनाशनमधिकृत्य निर्दय इतियावत् , तथा घोरा अन्यैर्दुरनु | 25 आपक चरा गुणा मूलगुणादयो यस्य स घोरगुणः, तथा घोरैस्तपोभिस्तपस्वी घोरतपस्वी, 'घोरवंभचेरवासी' इति घोर-दारुणमल्प- मू० २६ सत्त्वदुरनुचरत्वात् ब्रह्मचर्यं यत् तत्र वस्तुं शीलं यस्य स तया, 'उच्छुड़सरीरे' इति उच्छूढम् उज्नितमिवोज्नितं संस्कारपरित्यागात् शरीरं येन स उच्छूशरीरः, 'संखित्तविउलतेउलेसे' इति साविमा-शरीरान्तर्गतत्वेन हस्वतां गता विपुला-विस्तीर्णा अनेकयोजनप्रमाणक्षेत्राश्रितवस्तुदहनसमर्थत्वात् तेजोलेश्या-विशिष्टतपोजन्यलब्धिविशेषप्रभवा तेजोज्वाला यस्य स तथा, 'चउदसपुत्री' इति चतुर्दश पूर्वाणि विद्यन्ते यस्य तेनैव तेषां रचितत्वात् असौ चतुर्दशपूर्वी, अनेन तस्य श्रुतकेवलितामाह, स चावधिज्ञानादिविकलोपि स्यादत आह-चउनाणोवगए। मतिश्रुतावधिमनःपर्यायज्ञानचतुष्टयसमन्वितः, उक्तविशेषणद्वययुक्तोऽपि कश्चिन्न समग्रश्रुतविषयव्यापिज्ञानो भवति चतुर्दशपूर्वविदामपि षट्स्थानपतितत्वेन श्रवणादत आह-'सर्वाक्षरसन्निपाती' अक्षराणां सन्निपाताः-संयोगाः अक्षरसन्निपाताः सर्वे च ते अक्षरसन्निपाताश्च सर्वाक्षरसन्निपातास्ते यस्य ज्ञेयाः स तथा, किमुक्तं भवति ?-या। काचित् जगति पदानुपूर्वी वाक्यानुपूर्वी वा संभवति ताः सर्वा अपि जानातीति, एवंगुणविशिष्ठो भगवान् विनयराशिरिष साक्षा-IN दितिकृत्वा शिप्याचारत्वाच्च श्रमणस्य भगवतो महावीरस्यादूरसामन्ते विहरतीति योगः, तत्र दूरं-विप्रकृष्टं सामन्तं-सन्निकृष्टं तत्पहतिषेधाददूरसामन्तं ततो नातिदूरे नातिनिकटे इत्यर्थः, किंविशिष्टः सन् तत्र विहरतीत्यत आह-' उर्दुजाण अहोसिरे ऊर्ध्व ॥५७॥ गौतमस्वामिन: वर्णनं ~117~ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ---------- मूलं [२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सुत्रांक [२६] जानुनी यस्यासार्बजानुः, अधःशिरा नो? तिर्यग्वा विक्षिप्तदृष्टिः किन्तु नियतभूभागनियमितदृष्टिरित्यर्थः, 'झाणकोदोवगए। इति ध्यान-धर्मध्यानं शुक्लथ्यानं च तदेव कोष्ठः-कुशूलो ध्यानकोष्ठस्तमुपगतो ध्यानकोष्ठोपगतो, यथा हि कोष्टके धान्य प्रक्षिप्तमविभसतं भवति एवं भगवानपि ध्यानतोऽविप्रकीर्णेन्द्रियान्तःकरणवृत्तिरित्यर्थः, 'संयमेन' पश्चाश्रवनिरोधादिलक्षणेन तपसा-1 अनशनादिना चशब्दोऽत्र समुच्चयार्थों लुमो द्रष्टच्या, संयमतपोग्रहणमनयोः प्रधानमोक्षाङ्गताख्यापनार्थं, प्राधान्यं संयमस्य नवकर्मा-12 नुपादानहेतुत्वेन तपसश्च पुराणकर्मनिर्जराहेतुत्वेन, तथाहि- अभिनवकर्मानुपादानात् पुराणकर्मक्षपणाच जायते सकलकर्मक्षयलक्षणो मोक्षस्ततो भवति संयमतपसोर्मोक्षं प्रति प्राधान्यमिति 'अप्पाणं भावमाणे विहरति । इति, आत्मानं वासयन् तिष्ठति । 'तए ण' मित्यादि, ततो ध्यानकोष्ठोपगतविहरणादनन्तरं 'ण'मिति वाक्यालङ्कारे स भगवान् गौतमो 'जातसड़े। इत्यादि, जात-- श्रद्धादिविशेषणविशिष्टः सन् उत्तिष्ठतीति योगः, तत्र जाता-प्रवृत्ता श्रद्धा-इच्छा वक्ष्यमाणार्थतत्वावगर्म प्रति यस्यासी जातश्रद्धःतथा जातः संशयो यस्य स जातसंशयः, संशयो नाम अनवधारितार्थं ज्ञानं, स चै-इत्थं नामास्य दिव्या देवद्धिविस्तृता अभवन् । इदानी सा क गतेति, तथा 'जायकुतूहले ' इति जातं कुतूहलं यस्य स जातकुतूहल:, जातौत्सुक्य इत्यर्थः, तथा कथममुमर्थ भग वान् प्ररूपयिष्यति इति, तथा 'उप्पन्नसड़े। उत्पन्ना पागभूता सती भूता श्रद्धा यस्यासी उत्पन्नश्रद्धः, अब जातश्रद्ध इत्येतदेवास्तु हाकिमर्थमुत्पन्नश्रद्ध इति, प्रवृत्तश्रद्धवेनवोत्पन्नश्रद्धत्वस्य लब्धत्वात् , न हि अनुत्पन्ना श्रद्धा प्रवर्तते इति, अत्रोच्यते, हेतुत्वप्रदर्शनार्थ, तथाहि-कथं पत्नश्रद्धः १, उच्यते, यत उत्पन्नश्रद्धः, इति हेतुत्वदर्शनं चोपपन्न, तस्य काव्यालङ्कगरत्वात् यथा 'प्रवृत्तदीपामप्रवृत्तभास्करां, प्रकाशचन्द्रां युबुधे विभावरी'मित्यत्र, अत्र हि यद्यपि प्रवृत्तदीपादित्वादेवाप्रवृत्तभास्करत्वमुपगतं तथाप्यप्रदृत्तभास्करत्वं । दीप अनुक्रम [२६] SAMERatani LEAJanuaryana गौतमस्वामिन: वर्णनं ~118~ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ---------- मूलं [२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: भगवद्गीतमवर्णन प्रत सुत्रांक ०२५ [२६] दीप अनुक्रम [२६] श्रीराजमश्नी प्रवृत्तदीपत्वादेहेतुतयोपन्यस्तमिति सम्यक्, 'उप्पन्नसट्टे उप्पन्नसंसये ' इति प्राग्वत् , तथा 'संजायसङ्के' इत्यादि पदषट्कं प्राग्वत् मलयगिरी-कानवरमिह संशब्दः प्रकर्षादिवचनो वेदितव्यः, 'उद्याए उट्टेइ 'त्ति उत्थानमुत्था-उर्द्ध वर्त्तनं तया उत्तिष्ठति, इह 'उडेइ । इत्युक्ते या वृत्तिः क्रियारम्भमात्रमपि प्रतीयेत यथा वक्तमुत्तिष्ठते ततस्तद्वयवच्छेदार्थमुत्थायेत्युक्तं उत्थया उत्थाय जेणेवेत्यादि यस्मिन् दिग्भागे श्रमणो भगवान् महावीरो वर्तते । तेणेवेति तस्मिन्नेव दिग्भागे उपागच्छति, उपागत्य च श्रमणं प्रिकृत्व: त्रिवारान् आदक्षिण- प्रदक्षिणीकरोति, आदक्षिणप्रदक्षिणीकृत्य च वन्दते नमस्यति बन्दित्वा नमस्थित्वा एवमवादीत् । 'मूरियाभस्स णं भंते! इत्यादि, कहिंगए। इति क गतः ?, तत्र गमनमन्तरप्रवेशाभावेऽपि दृष्टं यथा भित्तौ गतो धृलिरिति, एषोऽपि दिव्यानुभावो यद्येवं कचित्मत्यासन्ने प्रदेशे गतः स्याततो दृश्येत न चासो दृश्यते, ततो भूयः पृच्छति-'कहिं अणुपविट्टे' इति कानुप्रविष्टः ? कान्तलीन इति भावः । भगवानाह-गौतम ! शरीरं गतः शरीरमनुमाविष्टः पुनः पृच्छति- सेकेणण' मित्यादि, अथ केनार्थेन केन हेतुना भदन्त ! एवमुच्यते-शरीरं गतः शरीरमनुपविष्टः?, भगवानाह-गौतम ! 'से जहानामए ' इत्यादि, कूटस्येव-पर्वतशिखरस्येवाकारो यस्याः सा कूटाकारा, यस्या उपरि आच्छादनं शिखराकारं सा कुटाकारेति भावः, कुटाकारा चासौ शाला च कूटाकारशाला, यदिवा कटाकारेण शिखराकृत्योपलक्षिता शाला कुटाकारशाला स्यात, 'दुहतो लित्ता' इति वहिरन्तब गोमयादिना लिप्ता गुप्ता-बहिम्प्राकारा-1 वृता गुप्तद्वारा द्वारस्थगनात् यदिवा गुप्ता गुप्तद्वारा केषाञ्चित् द्वाराणां स्थगितत्वात् केपाश्चिचास्थगितत्वादिति निवाता-बायोरप्रवेSशात किल महद् गृह निवात पायो न भवति तत आह-निवातगम्भीरा-निवाता सती गम्भीरा निवातगम्भीरा, निवाता सती विशाला इत्यर्थः , ततस्तस्याः कूटाकारशालाया अदूरसामन्ते-नातिदूरे निकटे वा प्रदेशे महान् एकोऽन्यतरो जनसमूहस्तिष्टति, स च एक SAREaratundana Edunioranorm गौतमस्वामिन: वर्णनं ~119~ Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) प्रत सूत्रांक [२६] दीप अनुक्रम [२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित. Jan Educator “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र - १ (मूलं + वृत्तिः) सूर्याभविमानस्य वर्णनं मूलं [२६] आगमसूत्र [१३], उपांग सूत्र [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः महत् अभ्ररूपं वाईल अभ्रवाईलं, धाराभिपातरहितं सम्भाव्य वर्षं वादलमित्यर्थः, वर्षमधानं वादलकं वर्षवार्दकं वर्ष कुर्वन्तं वादलक महावात वा 'एज्जमाण' मिति आयान्तं - आगच्छन्तं पश्यति, दृष्ट्वा च तं 'कूडागारसालं' द्वितीया षष्ठयर्थे तस्याः कूटाकारशालाया अन्तरं ततोऽनुप्रविश्य तिष्ठति, एवं सूर्याभस्यापि देवस्य सा तथा विशाला दिव्या देवधिर्दिव्या देवद्युतिर्दिव्यो देवानुभावः शरीरमनुमविष्टः 'से-एणद्वेण' मित्यादि, अनेन प्रकारेण गौतम ! एवमुच्यते ' मूरियाभस्से ' त्यादि, भूयो गौतमः पृच्छति कहिं णं भंते! सरियामरस देवस्स सरियामे णामं विमाणे पत्रने ?, गोयमा ! जंबूदीवे दीवे मंदरस्स पवयस्स दाहिणेणं इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिजातां भूमिभागातो उ चंदिमसरियगहगणणक्खततारारूवाणं बहूई जेोयणाई बहूई जोयणसयाई बहूई जोयणसहस्साईं बहूई जोयणसय सहस्माई बहुईओ जोयणकोडीओ बहुईओ जोयणसय सहस्सकोडीओ उडूं दूरं बीतीवत्ता एत्थ णं सोहम्मे कप्पे नाम कप्पे पन्नते पाईणपडी आयते उदीर्णदाहिणविच्छिष्णे अद्धचंदठाणसंठिते अचिमालिभासरासिवअसं जाओ जोयण कोडाकोडीओ आयामविक्रमेणं असंखे जाओ जोयण कोडाकोडीओ परिकुवेवेणं इत्थ णं सोहम्माणं देवाणं बत्तीसं विमाणावासस्य सहरसाईं भवतीति मकखायं, ते णं विमाणा सवरयणामया अच्छा जाव पडिरुवा, तेसिणं विमाणाणं बहुमज्झदेसभाए पंच वर्डिसया पं० तंजहा१ असोगबर्डिस २ सन्तयन्नवहिंसते ३ चंपकवर्डिसते ४ चूयगवसिते ५ मझे सोहम्मदडिसए, ते पं For Penal Use Only ~ 120~ A R Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ---------- मूलं [२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: मूर्याभवि श्रीराजमश्नी मलयगिरीया वृत्तिः मानवर्णनं प्रत सू०२७ सत्राक [२७] दीप वडिंसगा सवरयणामया अच्छा जाव पडिरुवा, तस्स णं सोहम्मवसिगस्स महाविमाणस्स पुरच्छिमेणं तिरियमसंखेज्जाई जोयणसयसहस्साई वीईवइना एत्थ णं सूरियाभस्स देवस्म सूरिया नाम विमाण पन्नने, अद्धतेरस जोयणसयसहस्साई आयामविकखंभेणं गुणयालीसं च सयसहस्साई बावनं च सहस्साई अद्ध य अडयाले जोयणसते परिक्खेवेणं, से णं एगणं पागारेणं सबओ समंता संपरिखिते, से णं पागारे तिनि जोयणसयाई उई उच्चत्तेणं मूले एग जोयणसयं विक्खंभेणं मझे पन्नासं जोयणाई विकखंभेणं उप्पिं पणवीसं जायणाई विकूखंभेणं मृले विच्छिन्ने मज्झे संखिने उप्पिं तणुए गोपुच्छसंठाणसंठिए सबकणगामए अच्छे जाव पडिरूवे, सेणं पागारे णाणा माण] विहपंचवन्नेहिं कविसीसाहि उवसोभिते, तंजहा-किण्हेहि नीलहिँ लोहितेहिं हालिद्देहिं सुकिल्लेहिं कविसीसएहि, ते णं कविसीसगा एगं जोयणं आयामेणं अद्धजोयणं विखंभेणं देसूणं जोयणं उई उच्चत्तेणं सबमणि(रयणा)मया अच्छा जाव पडिरूवा, सरियाभस्स णं विमाणस्स एगमेगाए बाहाए दारसहस्सं २ भवतीति मक्खायं, ते णं दारा पंचजोयणसयाई उई उच्चत्तेणं अड्राइजाई जोयणसयाई विक्रखंभेणं तावइयं चेव पवेसेणं सेया वरकणगथूमियागा ईहामियउसमतुरगणरमगरविहगवालगकिन्नररुरुसरभचमरकुंजरवणलयपउमलयभनिचिना खंभुग्गयवरवयरवेइया परिगयाभिरामा विजाहरजमलजुयलजंतजुनंपिव अच्चीसहस्समा अनुक्रम [२७]] SantarainRNA L u miarary.org सूर्याभविमानस्य वर्णनं ~121~ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ---------- मूलं [२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सत्राक [२७] लिणीया रूवगसहस्सकलिया भिसमाणा भिभिसमाणा चक्खुल्लोयणलेसा सुहफासा ससिरीयरूवा यन्नो दाराणं तेसिं होइ, तंजहा-बहरामया णिम्मा रिट्ठामया पइट्ठाणा बेरुलियमया सूइखंभा जायरूचीबचियपवरपंचवन्नमणिरयणकोट्टिमतला हंसगम्भमया एलया गोमेजमया इंदकीला लोहियकखमतीतो दारचेडीओ जोईरसमया उत्तरंगा लोहियकखमईओ सूईओ वयरामया संधी नाणामणिमया समुग्गया वयरामया अम्गला अग्गलपासाया रययामयाओ आवत्नणपेढियाओ अंकुत्तरपासगा निरंतरियषणकवाडा भिनीस चेव भिनिगुलिता छप्पन्ना तिणि होति गोमाणसिया तइया जाणामणिरयणवालरुवगलीलट्ठिअसालभंजियागा बयरामया कुड्डा रययामया उस्सेहा सवतवणिज्जभया उल्लोया णाणामणिरयणजालपंजरमणिवंसगलोहियक्खपडिवंसगरययभोमा अंकामया पक्खा पक्खबाहाओ जोइरसामया वंसा वंसकवेडयाओ रयणामयाओ पट्टियाओ जायरूवमईओ ओहाडणीओ वइरामईओ उवरिपुच्छणाओ सबसेयरययामयाच्छायणे अंकामया कणगडतवणिजथूभियागा सेया संखतलविमलनिम्मलदधिषणगोखीरफेणरययणिगरप्पगासा तिलगरयणद्धचंदचित्ता नाणामणिदामालंकिया अंतो बहिं च सण्हा तवणिज्जवालुयापत्थडा सुहफासा सस्सिरीयरुवा पासाईया दरिमणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा (सूत्र २७) दीप अनुक्रम [२७] Asia REaratanimal सूर्याभविमानस्य वर्णनं ~122~ Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ---------- मूलं [२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: मयाभावमानवर्णनं प्रत म्०२७ सत्राक [२७] दीप श्रीराजपनी कसूर्याभस्य देवस्य सूर्याभ विमानं प्रजन?, भगवानाह-गौतम ! अस्मिन् जम्बूद्वीपे यो मन्दर पर्वतस्तस्य दक्षिणतोऽस्या रत्नप्रभायाः मलयगिरी | पृथिव्या बहुसमरमणीयात् भूमिभागादूर्दै चन्द्रसूर्यग्रहगणनक्षत्रतारारुषाणामपि पुरतो बहूनि योजनानि बहूनि योजनशतानि ततो बुद्धया या वृत्तिः बहुबहुतरोष्टवनेन बहूनि योजनसहस्राप्येवमेव बहूनि योजनशतसहस्राणि एवमेव च वीर्योजनकोटीरेवमेव च बहीर्योजनकोटीकोटीरूद्ध ॥६ ॥ | दरमुरलुत्य अत्र-सार्द्धराजुप्रमाणे प्रदेशे सौधर्मो नाम कल्पः प्रज्ञतः, स च प्राचीनापाचीनायतः, पूर्वापरायतः इत्यर्थः, उदग्दक्षिण| विस्तीर्णः, अर्द्धचन्द्र संस्थान संस्थितो, द्वौ हि सौधर्मेशानदेवलोकी समुदिती परिपूर्णचन्द्रमण्डल संस्थानसंस्थिती, तयोश्च मेरोदक्षिणवती या साधर्मकल्प उत्तरवर्ती ईशानकल्पः ततो भवति सौधर्मकल्पः चन्द्रसंस्थानसस्थितः, 'अचिमाली' इति अचीषि-किरणानि तेषां माला| चिर्माला सा अश्यास्तीति अधिर्माली किरणमालासङ्घल इत्यर्थः, असत्येययोजनकोटीकोटी: 'आयामविवखंभेणं' ति आयामश्च विष्कम्भवायामविष्कम्भं समाहारो द्वन्दरतेन, आयामेन च विष्कम्भेन चेत्यर्थः, असङ्स्येया योजनकोटीकोट्या 'परि खेवेणं' परिधिना ' सबरयणामए' इति सर्वात्मना सनमयः 'जाव पडिरूचे' इति यावत्करणात् ' अच्छे सण्हे घड़े महे इत्यादिविशेषणकदम्बकपरिग्रहः, 'तत्थ ण' मित्यादि, तत्र सौधम्में कल्पे द्वात्रिंशत् विमानशतसहस्राणि भवन्ति इल्याख्यातं मया शेपेश्च तीर्थकृतिः ॥' ते गं विमाणे ' त्यादि, तानि विमानानि सूत्रे पुंस्त्वं प्राकृतत्वात् सवरत्नमयानि-सामस्त्येन रत्नमयानि 19' अच्छाने' आकाशस्फटिकवदतिनिर्मलानि अत्रापि यावत्करणात् ' सहा लण्हा घट्टा मट्ठा नीरया' इत्यादि विशेषणजातं द्रष्टव्यं, तथ पागेवानेकशी व्याख्यातं ' तेसिण' मित्यादि, तेषां विमानानां यामध्यदेशभागे त्रयोदशप्रस्तटे सर्वत्रापि विमानावतंसकानां: स्वस्वकल्पचरमप्रस्तटवर्तित्वात् पञ्चावंतसका:-पश्च विमानावतंसकाः प्रज्ञताः, तद्यथा-अशोकावतंसकः-अशोकावतंसकनामा, अनुक्रम [२७] ॥६०॥ CHAMPA antaram.org सूर्याभविमानस्य वर्णनं ~123~ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ---------- मूलं [२७] (१३) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सत्राक [२७] दीप सच पूर्वस्यां दिशि, ततो दक्षिणस्यां सप्तपर्णावतंसकः पश्चिमायां चम्पकावतंसकः उत्तरस्यां चूतावतंसकः मध्ये सौधर्मावतंसकः, ते च पश्चापि विमानावतंसकाः सर्वरत्नमया ' अच्छा जाव पडिरूवा' इति यावत्करणादत्रापि सहा लण्हा घट्टा मट्टा' इत्यादि विशेपणजातमवगन्तव्यम् , अस्य च सौधर्मावतंसकस्य पूर्वस्यां दिशि तिर्यक असङ्येयानि योजनशतसहस्राणि व्यतिव्रज्य-अतिक्रम्यात्र सूर्याभस्य देवस्य मूर्याभं नाम विमानं प्रज्ञप्त, अर्दै त्रयोदर्श येषां तानि अर्द्धबयोदशानि, सार्दानि द्वादशेत्यर्थः, योजनशतसहस्राव्यायायविष्कम्भेन, एकोनचत्वारिंशत् योजनशतसहस्राणि द्विपञ्चाशत्सहस्राणि अष्टौ च योजनशतानि अष्टचत्वारिंशदधिकानि, ३९५२८४८ किश्चिद्विशेषाधिकानि परिक्षेपेण' परिधिना, इदं च परिक्षेपपरिमाणं 'विवखंभवग्गदहगुणकरणी वहस्स परिरओ होइ' इति करणवशात् स्वयमानेतव्यं, सुगमत्वात् । ‘से णं एगण' मित्यादि, नदिमानमेकेन प्राकारेण सर्वतः-सर्वासु दिक्षु समअन्तत:-सामस्त्येन परिक्षिप्तं ॥ ' से णं पागारे' इत्यादि, स प्राकारः त्रीणि योजनशतानि ऊर्ध्वमुच्चस्त्वेन मूले एक योजनशतं निष्क भण मध्यभागे पञ्चाशत् , मूलादारभ्य मध्यभागं यावत् योजने योजने योजनत्रिभागस्य विष्कम्भतखुटितत्वात् , उपरि-मस्तके | पञ्चविंशतियोजनानि विष्कम्भेण, मध्यभागादारभ्योपरितनमस्तकं यावत् योजने योजने योजनषडागस्य विष्कम्भतो हीयमानतया लभ्यमानत्वात् , अत एव मूले विस्तीर्णो मध्ये संक्षिप्तः, पञ्चाशतो योजनानां त्रुटितत्वात् , उपरि तनुकः पञ्चविंशतियोजनमात्रविस्तारात्मकत्वात् , अत एव गोपुच्छसंस्थानसंस्थितः, 'सबरयणामए अच्छे इत्यादि विशेषणजातं प्राग्वत् , ' से णं पागारे । इत्यादि, सपाकारो 'णाणाविहपंचवहिं । इति नानाविधानि च तानि पञ्चवर्णानि च नानाविधपञ्चवर्णानि तैः, नानाविधत्वं च . पञ्चवर्णापेक्षया द्रष्टव्यं कृष्णादिवर्णतारतम्यापेक्षया वा, पश्चवर्णत्वमेव प्रकटयति- 'कण्हेहिं' इत्यादि, 'ते णं कविसीसगा. PDFN093999999 अनुक्रम [२७]] SANEmirabina Mirasaram.org सूर्याभविमानस्य वर्णनं ~124~ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ---------- मूलं [२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सत्राक [२७] दीप श्रीराजप्रश्नी भइत्यदि, तानि कापशीर्षकाणि प्रत्येकं योजनमेकमायामतो-दयेणार्द्ध योजनं विष्कम्भेण देशोनयोजनमुच्चस्त्वेन 'सबरयणामया' मूर्याभविमालयगिरी इत्यादि विशेषणजातं प्राग्वत् । 'मूरियाभस्स ण' मित्यादि, एकैकम्यां बाहायां द्वारसहसमिति सर्वसङ्ख्यया चत्वारि द्वारसहस्राणि,31मानद्वारया वृत्तिः तानि च द्वाराणि प्रत्येकं पञ्चयोजनशतान्यू उच्चस्त्वेन अर्द्धतृतीयानि योजनशतानि विष्कम्भतः 'तावइयं चेवे' ति अर्द्धतृतीयान्येव का वर्णन योजनशतानि प्रवेशतः 'सेया' इत्यादि, तानि च द्वाराणि सर्वाण्युपरि श्वेतानि-श्वेतवर्णोपेतानि बाहुल्येनारत्नमयत्वात् ... ।। ६१ ॥ 'वरकणगधूभियागा' इति बरकनका-बरकनकमयी स्तूपिका-शिखरं येषां तानि तथा, हामिगउसभतुरगनरमगरविहगवालग- ०२० भु किन्नररुरुसरभचमरकुंजरवणलयपउमलयभनिचित्ता खंभुग्गयवरवयरवेझ्यापरिगयाभिरामा विजाहरजमलजुयलजंतजुत्ताचिव अची-10 सहस्समालिणीया रूवगसहस्सकलिया भिसमाणा भिन्भिसमाणा चक्खुल्लोयणलेसा सुहफासा सस्सिरीयरूवा' इति विशे-12 पणजातं यानविमानबद्भावनीयं, 'बन्नो दाराणं तेसि होइ । इति तेषां द्वाराणां वर्णः-स्वरूप व्यावर्णनमयं भवति, तमेव कथयति तंजहे त्यादि, तद्यथा-'बदरामया णिम्मा' इति नेमा नाम द्वाराणां भूमिभागार्दै निकामन्तः प्रदेशास्ते सर्वे चत्रमया बन-19 रत्नमयाः, वनशब्दस्य दीर्घत्वं प्राकृतत्वात् , एवमन्यत्रापि द्रष्टव्यं, 'रिद्वामया पइट्राणा' रिष्टमया-रिष्टरत्नमयानि प्रतिष्ठानानि-10 मूलपादाः 'वेरुलियमया खंभा' इति वैडूर्यरत्नमयाः स्तम्भाः' जायस्वोवचियपवरपंचवन्न[चर]मणिरयणकुट्टिमतला ' जातरूपेणसुवर्णेन उपचितैः-युक्तः प्रवरैः-प्रथानः पश्चवर्गमणिभिः चन्द्रकान्तादिभिः रत्नैः-कर्केतनादिभिः कुहिमतलं-बद्धभूमितलं येषां ते तथा ' हेसगन्भमया एलुबा ' हंसगर्भपया-हंसगर्भाख्यरत्नमया एलुका-देहल्यः 'गोमेजमया इंदकीला' इति गोमेज्ञकरत्नमया ॥ ६१॥ इन्द्रकीसाः, ' लोहियक्रवमईओ' लोहिताक्षरत्नमय्यः ' चेढाओ' इति द्वारशाखा 'जोइरसमया उत्तरंगा' इति द्वारस्योपरि । अनुक्रम [२७]] REscalin mararyom सूर्याभविमानस्य वर्णनं ~125~ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ---------- मूलं [२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः प्रत सत्राक [२७] हतियग्व्यवस्थितमुत्तरङ्ग तानि ज्योतीरसमयानि -ज्योतीरसाख्यरत्नात्मकानि 'लोहियक्खमईओ' लोहिताशमय्यो लोहिताक्षर नाधिकाः सूचयः-फलकद्वयसम्बन्धविघटनाभावहेतुः पादुकास्थानीयाः 'वइरामया संधी' बजमयाः सन्धयः सन्धिमेलाः फलकानां किमुक्तं भवति ?-बजरत्नपूरिताः फलकानां सन्धयः, 'नाणामणिमया समुग्गया' इति समुद्गका इव समुद्गका:-शूचिकागृहाणि । तानि नानामणिमयानि 'वयरामया अग्गला अग्गलपासाया' अर्गलाः-प्रतीताः अर्गलामासादा यत्रार्गला नियम्यन्ते, आह च जीवाभिगममलटीकाकार:- अर्गलापासादो यत्रार्गला नियम्यन्ते इति" एते ये अपि बजरत्नमय्यौ 'स्ययामयाओ आवत्तणपेढियाओ इति आवर्तनपीठिका नाम यत्रेन्द्रकीलको भवति, उक्तञ्च विजयद्वारचिन्तायां जीवाभिगममूलटीकाकारण- "आवर्तनपीठिका कायनेन्द्रकीलको भवतीति ' अंकुत्तरपासगा' इति अङ्कन-अङ्करत्नमया उत्तरपार्धा येषां द्वाराणा तानि अनत्तरपार्यकाणि 'निर तरियषणकवाडा' इति निर्गता अन्तरिका-लम्वन्तररूपा येषां ते निरन्तारका अत एव घना निरन्तरिका धनाः कपाटा येषां द्वाराणां , तानि निरन्तरिकधनकपाटानि 'भित्तिसु चेव भित्तिगुलिया छप्पन्ना तिमि होंति' इति तेषां द्वाराणां प्रत्येकमुभयोः पाश्चयोः भित्तिषु-16 भित्तिगताः भित्तिगुलिका-पीठकस्थानीयाः तिस्रः षट्पञ्चाशत्प्रमाणा भवन्ति 'गोमाणसिया (सजा) तइया' इति गोमनस्यः शय्या 'तइया' इति तावन्मात्राः षट्पञ्चाशत्त्रिकसङ्ख्याका इत्ययः ‘णाणामणिस्य णवालरूवगलीलट्ठियसालभंजियागा' इति इदं । दारविशेषणमेव, नानामगिरत्नानि-नानामाणिरत्नमयानि व्यालरूपकाणि लीलास्थितशालभजिकाच-लीलास्थितपुत्तलिका येपु तानि तथा ' चयरामया कूडा रययामया उस्सेहा' इति कूडो-माडभाग उच्छ्यः -शिखरं, आह च जीवाभिगममूलटीकाकृत्-'कूडो माडभाग उच्छ्यः शिखर' मिति, नवरमत्र शिखराणि तेषामेव माडभागानां सम्बन्धीनि वेदितव्यानि, द्वारशिखराणामुक्तत्वात वक्ष्य दीप अनुक्रम [२७] d. REmiratna Hिarary.ou सूर्याभविमानस्य वर्णनं ~ 126~ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ---------- मूलं [२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत मलयगिरीया वृत्तिः ॥ ६२ ॥ सत्राक [२७] दीप माणत्वाच्च, ' सचतवणिज्जमया उल्लोया ' उल्लोका-उपरिभागाः सर्वतपनीयमयाः-सर्वात्मना तपनीयरूपसुवर्णविशेषमयाः 'नाणा र्याभविमणिश्यणजालपंजरमणियंसगलोहियवखपडिवंसगरययभोमा' इति मणयो-मणिमया चंशा येषु तानि मणिमयवंशकानि लोहिताख्यानि-लोहितारख्यमयाः प्रतिवंशा येषु तानि लोहितारख्यपतिवंशकानि रजता-रजतमयी भूमियेषां तानि रजतभूमानि प्राकृत मानदार वर्णन त्यात्समासान्तः मणिवंशकानि लोहिताख्यप्रतिवंशकानि रजतभूमानि नानामणिरत्नानि नानामणिरत्नमयानि जालपञ्जराणिगवाक्षापरपर्यायाणि येपु तानि तथा, पदानामनन्वयोपनिपातः प्राकृतत्वान् , ' अंकामया पक्खा पवरखवाड़ाओ' इति अङ्को-रत्न-- मू०२७ विशेषस्तन्मयाः पक्षास्तदेकदेशभूताः पक्षबाहवोऽपि तदेकदेशभूता एवाङमय्यः, आह च जीवाभिगममूलटीकाकृत-"अडुपयाः पक्षास्तदेकदेशभूना एवं पक्षवाहवोऽपि द्रष्टव्या" इति, 'जोईरसामया वैसा बसकवेलुका य' इति ज्योतीरसं नाम रत्नं तन्मया पंचाः-महान्तः पृष्टवंशा 'बंसकवेलया य' इति महतां पृष्ठवंशानामुभयतस्तिर्यक् स्थाप्यमाना बंशाः कवेलुकानि प्रतीतानि 'स्ययामईओ पट्टिआओ' इति रजतमय्यः पहिका वंशानामपरि कम्बास्थानीयाः 'जायरूपमईओ ओहाडीयो जातरूपं-सुवर्णविशेषस्तन्मय्यः 'ओहाटणीओ' अवघाटिन्यः आच्छादनहेतुकम्बोपरिस्थाप्यमानमहाप्रमाणीकलिचस्थानीयाः ‘वयरामईओ उवरिंक पुञ्छणाओ' इति बत्रमय्यो-बजरत्नामिका अवघाटनीनामुपरि पुछन्यो-निविडतराच्छादनहेतुश्चक्षणतरतृणविशेषस्थानीयाः, उक्तं च जीवाभिगममूलटीकाकारेण-"ओहाटणाग्रहणं महत क्षुलुकं च पुञ्छना इति" 'सबसेयरययामयाच्छायणे' इति सर्वश्वतंत्र रजतमयं पुञ्छनीनामुपरि कबेलुकानामध आच्छादनं 'अन्मयकणगकूडतवणिज्जथूभियागा' अन्मयानि बाहुल्येनारत्न- ॥ २ ॥ मयानि पक्ष२वालादीनामरत्नात्मकत्वात् कनकानि-कनकमयानि कूटानि-महान्ति शिखराणि येषां तानि कनककूटानि तप अनुक्रम [२७] Alumiorary om सूर्याभविमानस्य वर्णनं ~127~ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ---------- मूलं [२७] (१३) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सत्राक [२७] नीयानि-तपनीयस्तूपिकानि, ततः पदत्रयस्यापि कर्मधारयः, एतेन यत् प्राक् सामान्येन उरिक्षप्तं ' सेयावरकणगधूभियागा' इति । तदेव प्रपञ्चतो भावितमिति, सम्मति तदेव श्वेतत्वमुपसंहारव्याजेन भूय उपदर्शयति सेया-श्वेतानि, श्वेतत्वमेवोपमया द्रदयति5- संखतलविमलनिम्मलदधिषणगोखीरफेणस्ययनिगरप्पगासा' इति विगतं मलं विमलं यत् असलं-शङ्कास्योपरितनो भागो यश्चक निर्मलो दधिधनः-घनीभूतं दधि गोक्षीरफेनो रजतनिकरश्च तद्वत प्रकाशः-प्रतिभासी येषां तानि तथा 'तिलगरयणद्धचंदचिता 10 इति तिलकरत्नानि-पुष्ट्रविशेषास्तैर्द्धचन्द्रश्च चित्राणि नानारूपाणि तिलकरत्नार्द्धचन्द्रचित्राणि, कचित् 'सङ्कनलाविमलनिम्मकालदहियणगोखीरफेणरययनियरप्पगासद्ध चंदचित्ताई' इति पाठः, तत्र पूर्ववत् पृथक पृथक् व्युत्पत्तिं कृत्वा पश्चात् पदद्वयस्य २ कर्म धारयः, नाणामणिदामालंकिया' इति नानामणयो-नानामणिमयानि दामानि-मालास्तरलङ्कृतानि नानामणिदामालङ्कृतानि अन्तबहिश्च श्लक्ष्णानि-पक्ष्णपुद्गलस्कन्धनिर्मापितानि तवाणिज्जवालुयापत्थडा' इति तपनीया:-तपनीयमय्यो या वालुका:-सिकतास्तासां प्रस्तटः-प्रस्तरो येषु तानि तथा ' मुहफासा' इति सुखः-मुखहेतुः स्पों येषु तानि मुखस्पानि सश्रीकरूपाणि प्रासादीयानीत्यादि प्राग्वत् । तसि णं दाराणं उभओ पासे दुहओ निसीहियाए सोलस २ चंदणकलसपरिवाडीओ पन्नताओ, ते णं चंदणकलसा बरकमलपइट्ठाणा सुरभिवरवारिपडिपुष्णा चंदनकयचच्चागा आविद्धकंठेगुणा पउमुप्पलपिहाणा सबरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा महया २ इंदकभसमाणा पन्नता समणा उसो!, तसिणं दाराणं उभओ पासे दुहओ णिसीहियाए सोलम २ णागदंतपरिवाडीओ पन्नताओ, ने णं णागदंता दीप अनुक्रम [२७] REmiratining Himanarayan सूर्याभविमानस्य वर्णनं ~128~ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) प्रत सूत्रांक [२८] दीप अनुक्रम [२८] “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र - १ (मूलं + वृत्तिः) मूलं [२८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१३], उपांग सूत्र [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः श्री राजश्री मलयगिरी या वृत्तिः ॥ ६३ ॥ Education T मुनाजालतरुसियहेमजालगवक्खजालखिंखिणी (घंटा) जालपरिखित्ता अब्भुग्गया अभिणिमिट्ठा तिरियसुसंपग्गहिया अहेपन्नगद्धरुवा पन्नगद्धठाणसंटिया सङ्घवयरामया अच्छा जाव पडिरूवा महया महया गतममाणा पत्ता समणाउसो ! तेसु णं णागतए बहवे किन्हसुत्वन्द्रववग्धारितमल्लदामकलावा गील० लोहित-हालिद ० सुकिलसुत्त वट्टबग्घारितमल्लदामकलावा, ते णं दामा तवणिज्जलंबूसगा सुवक्षयरमंडियगा जाव कन्नमणणिव्युत्तिकरणं संदेणं ते पदेसे सबओ समता आपूरेमाणा २ सिरीए अईव २ उसोभेमाणा चिट्ठति । तेसिणं णागदंताणं उबरिं अन्नाओ सोलस सोलस नागदंतपरिवाडीओ पं०, ते णं णागदंता तं चैव जाव महता २ गयदंतसमाणा पन्नत्ता समणाउसो ! तेसु नागदंतसुबहवे रययामया सिक्कगा पन्नत्ता, तेसु णं रययामएसु सिक्कए बहवे बेरुलियामईओ धूवघडीओ पं०, ताओ णं धूवघडीओ कालागुरुपवरकुंदुरुक्क तुरुक्क धूवमघमर्धतगंधुद्धयाभिरामाओ सुगंधवरगंधियातो गंधवट्टिश्याओ ओरालेणं मणुष्णेणं मणहरेण घाणमणणिव्वुइकरेणं गंधेणं ते पदेसे सओ समता जाव चिट्ठति । तेसि णं दाराणं उभओ पासे दुहओ णिसीहियाए सोलस सोलस सालभंजियापरिवाडीओ पन्नताओ, ताओ णं सालभंजियाओ लीलट्ठियाओ सुपइट्ठियाओ सुअलंकियाओ णाणाविहरागवसणाओ णाणामल्लपिणद्धाओ मुट्ठिगिज्झसुमज्झाओ आमेलगजमलजुयलवट्टियअभुन्नयपीणर For Par Use Only मूल-संपादने अत्र शिर्षक-स्थाने सूत्र क्रमांकने एका स्खलना दृश्यते यत् सू० २८ स्थाने सू० २७ मुद्रितं सूर्याभविमानस्य वर्णनं ~ 129~ सूर्याभवि मानकरवर्णनं स्० २७ ॥ ६३ ॥ nary org Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ---------- मूलं [२८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सत्राक १२८ दीप अनुक्रम [२८] इयसठियपीवरपोहराओ रनावंगाओ असियकेसीओ मिउविसयपसत्यलक्षणसंवल्लियग्गसिरयाओ ईसिं असोगवरपायवसमुट्ठियाओ वामहत्थग्गहियग्गसालाओ ईसिं अद्धच्छिकउक्खचिट्ठिएणं लूसमाणीओ विव चक्खल्लोयणलेसेहिं अन्नमन्नं खेज्जमाणिओ (विव) पुढविपरिणामाओ सासयभावमुबगशाओ चन्दाणणाओ चंदविलासिणीओ चंदद्धसमणिडालाओ चंदाहियसोमदंसणाओ उक्का(विव उजावेमाणाओ) विजुषणमिरियसूरदिप्पंततेयअहिययरसन्निकासाओ सिंगारागारचारुवेसाओ पामा० दरसि० (पडि. अभि०) चिट्ठति ( सूत्रम् २७) तेषां द्वाराणां प्रत्येकमुभयोः पार्थयोरेफैकनैपोधिकाभावेन 'दुहतो' इति द्विधातो द्विमकारायां नैपेवियां, नपेधिकीनिपीदनस्थान, आह च जीवाभिगममूलटीकाकृत् -"नैपेधिकी निषीदनस्थान"मिति, प्रत्येक षोडशश कलश परिपाटयः प्रज्ञप्ताः, ते च चन्दनकलशा बरकमलपट्टाणा । इति वरं-मधानं यत्कमलं तत् प्रतिष्ठानम्-आधारो येषां ते घरकमलप्रतिष्ठानाः, तथा सुरभिवरवारिप्रतिपूर्णाश्चन्दनकृतचर्चाका:-चन्दनकृतोपरामाः ' आविद्धकण्ठेगुणा इति आविद्धा-आरोपितः कण्ठे गुणी-रक्तमूत्ररूपो येषां ते आविद्धकण्ठेगुणाः, कण्ठे कालबत् सप्तम्या अलुक, 'पउमुप्पलपिहाणा' इति पद्ममुत्पलं च यथायोग पिधानं येषां ते पद्मोत्पलपिधानाः 'सवरयणामया अच्छा सहा लण्हा' इत्यादि यावत् पडिरूवगा' इति विशेषणकदम्बकं प्राग्वत् 'महया' इति अतिशयेन महान्तः कुम्मानामिन्द्र इन्द्रकुम्भी राजदन्तादिदर्शनादिन्द्रशब्दस्य पूर्वनिपातः महाँचासौ इन्द्रकुम्भश्च तस्य समाना महेन्द्रकुम्भसमानाः-महाकलशप्रमाणाः प्रज्ञप्ता हे श्रमण! हे आयुष्मन | । Santaratana marary.org मूल-संपादने अत्र सूत्र-क्रमांकने एका स्खलना दृश्यते यत् सू० २८ स्थाने सू० २७ मुद्रित सूर्याभविमानस्य वर्णनं ~130~ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ---------- मूलं [२८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: श्रीराजमनी माळयगिरी- या वृत्तिः प्रत सत्राक [२८] ।। ५४ दीप अनुक्रम [२८] तसिणं दाराण' मिति तेषां द्वाराणां प्रत्येकमुभयोः पार्श्वयोरेकैकनषेधिकीभावेन या द्विधा नैषेधिकी तस्यां प्रत्येकं पोडश षोडश सूर्याभावनागदन्तपरिपाटयः भज्ञताः, नागदन्ता अङ्कुटकाः, ते च नागदन्ता 'मुसाजालंतरुसियहेमजालगवक्खजालखिखिणि(घंटा)जाल मानद्वारपरिखित्ता' इति मुक्ताजालानामन्तरेषु यानि उत्सृतानि-लम्बमानानि हेमजालानि-सुवर्णमयदामसमूहा यानि च गयाक्षजालानि-- वर्णन गवाक्षाकृतिरत्नविशेषमालासमूहा यानि च किङ्किणीघटाजालानि-क्षुद्रघण्टासमूहास्तैः परिक्षिप्ताः-सर्वतो व्याप्ताः 'अभु गयाइति अभिमुखमुद्गताः अग्रिमभागे मनाक उन्नता इति भावः 'अभिनिसिद्दा' इति अभिमुख-चाहि गाभिमुखं निस्पृष्टा- मू०२७ निर्गता अभिनिस्पृष्टाः 'तिरियसुसंपरिग्गहिया ' इति तिर्यक् भित्तिपदेशः सुष्टु-अतिशयेन सम्यक् मनागप्यचलनेन परिगृहीताः सुसम्परिगृहीताः, 'अपनगद्धरुवा' इति अधः-अधस्तनं यत् पन्नगस्य सर्पस्याः तस्येव रूपम् आकारो येषां ते अध:पन्नगाधरूपाः ।। अधःपन्नगार्द्धवदतिसरला दीपांश्चति भावः, एतदेव व्याचष्टे- पनगाईसंस्थानसंस्थिता: अधापकगा संस्थानाः 'समवयरामया सर्वात्मना वनमया 'अच्छा सण्हा' इत्यारभ्य 'जाव पडिरूवा' इति विशेषणजातं प्राग्वत् , 'महया' इति अतिशयेन महान्तो| गजदन्तसमाना-गजदन्ताकाराः प्रज्ञप्ता हे श्रमण! हे आयुष्मन् !! 'तेसुगंणागदंतएसु बहवे किप्हसुतबद्धा तेषु नागदन्तकेषु बहवः कृष्णमूत्रबद्धा 'वग्यारिय' इति अवलम्बिता माल्यदायकलापा:-पुष्पमालासमूहा बहवो नीलसूत्रावलम्बितमाल्यदामकलापा एवं लोहितहारि शुक्लसूत्रबद्धा अपि वाच्याः। तेणं दामा' इत्यादि, तानि दामानि तवणिज्जलंचूसगा' इति तपनीयः-तपनीयमयो लम्बूसगो-दाम्नामग्रिमभागे मण्डनविशेपो येपा तानि तथा, जाब लंबूसकानि, 'सुबन्नपयरगमडिया' इति पार्थतः सामस्त्येन सुवर्णप्रतरेण-सुवर्णपत्रकेम ॥ ६४॥ मण्डितानि सुवणप्रतरमाण्डितानि 'नाणाविहमणिरयणविविहहारउवसोहियसमुदया' इति नानारूपाणां मणीनां रत्नानां च 2018 Gunaranorm मूल-संपादने अत्र शिर्षक-स्थाने सूत्र-क्रमांकने एका स्खलना दृश्यते यत् सू० २९ स्थाने सू० २७ मुद्रितं सूर्याभविमानस्य वर्णनं ~ 131~ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) --------- मूलं [२८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सत्राक १२८ दीप अनुक्रम [२८] कविविधा-विचित्रवर्णा हारा-अष्टादशसरिका अर्द्धहारा-नवसरिकास्तैरुपशोभितः समुदायो येषां तानि तथा 'जाब सिरीए अईव २ वसोभेमाणा चिति । इति अत्र यावत्करणादेवं परिपूर्णः पाठो द्रष्टव्यः 'सिमप्णोष्णमसंपत्ता पुवावरदाहिणुत्तरागएहिं पाएहि मंदाय मंदाय एइज्जमाणा पइज्जमाणा पलंबमाणा पझंझमाणा ओरालेण मणुप्णेणं मणहरणं कप्णमणनिश्करण सदेणं ते परसे सतओ समंता आपूरेमाणा २ सिरीए अईब २ उचसोभेमाणा चिट्ठति । एतच्च मागेव यानविमानवर्णने व्याख्यातमिति न भूयो का व्याख्यायते । तेसि णं णागर्दताणमित्यादि. तेषां नागदन्तानामुपरि प्रत्येकमन्याः षोडश पोडश नागदन्तपरिपाटयः मज्ञप्ताः ते च नागदन्ता यावत्करणात् 'मुत्ताजातरुसियहेमजालगवक्खजालविखिणिघंटाजालपरिखित्ता' इत्यादि प्रागुक्तं सर्व द्रष्टव्य यावत् गजदन्तसमानाः प्रज्ञप्ता हे श्रमण ! हे आयुष्मन् !' तेसु णं णागर्दतएसु' । इत्यादि, तेषु नागदन्तकेषु बहूनि रजतमयानि सिककानि प्रज्ञप्तानि, तेषु वररजतमयेषु सिक्केषु बहवो बलयो वैडूर्यमय्यो-पैडूर्यरत्नात्मिका धृषघटिकाः 'कालागुरुपवरकुंदुरुकतुरुकधूवमघमते त्यादि प्राम्बत् नवरं 'घाणमणनिब्बुदकरेण मिति घाणेन्द्रियमनोनितिकरण । तेसि ण मित्यादि, तेषां द्वाराणां प्रत्येकमुभयोः पार्श्वयोरेकैकनपेथिकीभावेन द्विधातो-द्विप्रकारायां नषधिक्यां षोडश पोडश शालभञ्जिकाप रिपाट्यः प्राप्ताः, ता. शालभञ्जिका लीलया ललिताङ्गनिवेशरूपया स्थिता लीलास्थिताः, 'सुपइट्ठियाओ' इति सुमनोज्ञतया प्रतिष्ठिताः सुप्रतिष्ठिताः 'सुअलंकियाओ' मुष्ठ अतिशयेन रमणीयतया अलङ्कृताः स्वलन्कृताः 'णाणाविहरागवसणाओ' इति नानाविधोनानाप्रकारो रागो येषां तानि नानाविधरागाणि तानि यसनानि-वस्त्राणि यास तास्तथा 'नानामल्लपिनद्धाओ' इति नानारूपाणि माल्यानि-पुष्पाणि पिनद्धानि-आविद्धानि यास ता नानामाल्यपिनद्धाः, तान्तस्य परनिपातः सुखादिदर्शनात् , wwwreparationwrawa SAMEmirathin murary.orm सूर्याभविमानस्य वर्णनं ~ 132~ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ---------- मूलं [२८] (१३) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: श्रीराजप्रश्नी मळयगिरी- या दृचिः प्रत सत्राक २७ (२८) दीप अनुक्रम [२८] मुट्ठिगिज्झसुमज्झाओ' इत मुष्टिया सुष्टु-शोभनं मध्य-पगभागो यासा तास्तथा, 'आमेलगजमलजुगलवाट्टयअम्भुन्नयपी- मूर्याभविणरइयसंठियपीवरपओहराओ' पीनं-पीचरं रचितं संस्थितं-संस्थानं यकाभ्यां तो पीनरचितसंस्थानौ आमेलक:-आपीट: मानद्वारशेखरक इत्यर्थः तस्य यमलयुगलं-समश्रेणिकं ययुगलं तद्वत् बत्तिता-पद्धस्वभावाबुपचिवकठिनभावाविति भावः अभ्युनतो पीनरचितसंस्थानौ च पयोधरी यासांतास्तथा, रतावंगाओ' इति रक्तोऽपाङ्गो-नयनोपान्तरूपो यासा तास्तथा, 'असियकेसिओ इति असिताः-कृष्णाः केशा यासां ता असितकेश्यः, एतदेव सविशेषमाचष्टे-'मिउबिसयपसस्थलक्खणसंवेल्लियग्गसिरयाओ' मदवा-कोमला विशदा-निर्मलाः प्रशस्तानि-शोभनानि अस्फुटिताग्रत्वमभृतीनि लक्षणानि येषां ते प्रशस्तलक्षणाः 'संवेलित संवृतमा येषां ते संवेल्लितायाः शिरोजाः-केशा यासां ता मृदुविशदप्रशस्तलक्षणसंवेल्लित्ताग्रशिरोजाः, 'ईसिं असोमवरपायवसमुट्ठियाओ' || ईषत् मनाक् अशोकवरपादपे समुपस्थिता:-आश्रिता ईपदशोकवरपादपसमुपस्थितास्तथा 'वामहत्थग्गहियग्गसालाओ' वामहस्तेन गृहीतमय शालायाः-शाखायाः अर्थादशोकपादपस्य यकाभिस्ता वामहस्तगृहीताप्रशाला: 'ईसिं अद्धच्छिकडक्खचिट्ठिएणं लूसमाणीओ विवेति ईपन-मनाक् अर्दै-तिर्यक् वलितमक्षि येषु कटाक्षरूपेषु चेष्टितेसु तमुष्णन्त्य इच सुरजनानां मनांसि चक्खुल्लोयणलेसेहिं य अन्नमन्नं खिज्जमाणीओ विव 'अन्योऽन्यं परस्परं चक्षुषां लोकनेन-आलोकनेन ये लेशाः-संश्लेपस्तैःखिद्यमाना इच, किमुद्धं भवति ?-एवंनामानस्ति(मर्यन्वलिताक्षिकटाक्षः परस्परमवलोकमाना अवतिष्ठन्ति यथा नूनं परस्परं सौभाग्यासहनतस्तिर्यग्वलिताक्षिकटाक्षः परस्परं खिद्यन्ति इबेति, 'पुढविपरिणामाओ' इति पृथिवीपरिणामरूपाः शाश्वतभावमुपगता विमानवता 'चंदाणणाओ' इति चन्द्र इवाननं-मुखं यास तास्तथा 'चंदविलासिणीओ' इति चन्द्रवत् मनोहरं विलसन्तीत्येवंशीलाच मूल-संपादने अत्र शिर्षक-स्थाने सूत्र-क्रमांकने एका स्खलना दृश्यते यत् सू० २९ स्थाने सू० २७ मुद्रितं सूर्याभविमानस्य वर्णनं ~ 133~ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ---------- मूलं [२९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सुत्रांक [२९] दीप अनुक्रम [२९] द्रविलासिन्यः 'चंदद्धसमनिडालाओ' इति चन्द्रार्द्धसमम्-अष्टमीचन्द्रसमान ललाट यासा तास्तथा 'चंदाहियसोमदसणाओ इति चन्द्रादपि अधिकं सोमं सुभगकान्तिमत् दर्शनम् -आकारो यास तास्तथा उल्का इच उद्योतमानाः 'विज्जुघणमरिचिसूरदिप्पं ततेयअहिययरसन्निकासातो' इति विद्युतो ये घना-बहलतरा मरीचयस्तेभ्यो यच्च मूर्यस्य दीप्यमानं दीप्त-नेजस्तस्मादपि अधिकतरः सन्निकाश:-प्रकाशो यासां तास्तथा, 'सिंगारागारचारुवेसाओ पासाइयाओ दरिसणिज्जाओ पडिरुवाओ अभिरुवाओ चिट्ठति ' इति प्राग्वत् ॥ तेसिणं दाराणं उभओ पासे दुहओ णिसीहियाए सोलस सोलस जालकड़गपरिवाडीओ पन्नना, ते णं जालकडगा सबरयणामया अच्छा जाब पडिरूवा । तेसिणं दाराणं उभओ पासे दुहाओ निसीहियाए सोलस सोलस घंटापरिवाडीओ पन्नत्ता, तासि णं घंटार्ण इमेयारूवे पन्नावासे पन्नने, तंजडा-जंबूणयामईओ घंटाओ वयरामयाओ लालाओ णाणामणिमया घंटापासा तवणिजामइयाओ संखलाओ स्ययामयाओ रज्जूतो, ताओ णं घंटाओ ओहस्सराओ मेहस्सराओ सीहस्सराओ दुंदुहिस्सराओ कुंचस्सराओ 'णंदिस्सराओ दिघोसाओ मंजुस्सराओ मंजुघोसाओ सुस्सराओ मुस्सरणिग्योसाओ उरालणं मणुनेणं मणहरेणं कन्नमणनिव्वुइकरेणं सदेणं वे पदेसे सबओ समंता आपरेमाणीओ २ जाव चिट्ठति ॥ तेसिणं दाराणं उभओ पासे दही णिसीहियाए सोलस सोलस वणमालापरिवाडीओ पन्ननाओ, REaicatinidiaNE 15 m arary.org सूर्याभविमानस्य वर्णनं ~ 134~ Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ---------- मूलं [२९] (१३) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः श्रीराजप्रश्नी मलयनिरी या वृत्तिः सूर्याभविमानद्वारवर्णनं प्रत । सूत्रांक मू०२७ [२९] दीप अनुक्रम [२९] ताओ णं वणमालाओ णाणामणिमयदुमलयकिसलयपल्लवसमाउलाओ छप्पयपरिभुज्जमाणा सोहंतसस्सिरीयाओ पासाईयाओ४। तेसि णं दाराणं उभओ पासे दुहओ णिसीहियाए सोलस २ पगंठगा पन्नना, ते णं पगंठगा अडाइज्जाई जोयणसयाई आयामविखंभेणं पणवीसं जोयणसयं पाहल्लेणं सववयरामया अच्छा जाव पडिरूवा। तेसिणं पगंठगाणं उपरि पत्तेयं २ पासायब.सगा पन्नता, ते णं पासायबसगा अडाइजाई जोयणसयाई उई उच्चनेणं पणवीस जोयणसय विक्वंभेणं अभुग्गयमूसिअपहसिया इव विविहमणिरयणभन्निचित्ता वाउ यविजयवेजयंत पडागछ नाइछत्तकलिया तुंगा गंगणतलमणुलिहतसिहरा जालंतरयणपंजरुम्मिलियव मणिकणगथूभियागा वियसियसयवनपोंडरीया तिलगरयणद्ध चंदचित्ता णाणामणिदामालं किया अंतो बहिं च सहा तवाणिज्जवालुयापत्थडा सुहफासा सस्सिरीयरुवा पासादीया दरिसणिज्जा जाव दामा उरि पगंठगाणं झया छत्नाइछना । तेसि णं दारांणं उभओ पासे सोलस सोलस तोरणा पन्नता, णाणामणिमया णाणामणिमएस खंभेसु उवणिपिट्ठसन्निविट्ठा जाच पउमहत्थगा, तेसिणं तोरणाणं पुरओ दो दो सालभंजियाओ पन्नताओ, जहा हेट्ठा तहेव तेसि ण तोरणाणं पुरओ नागदंता पनना जहा हेट्ठा जाव दामा, तेसिणं तोरणाणं पुरओ दो दो हयसंघाडा गयसंघाडा नरसंघाडा किन्नरसंघाडा किंपुरिससंघाडा महोरगसंघाडा गंधवसंघाडा उसभसंघाडा ॥६६ REnatanShi A arasaram.org मूल-संपादने अत्र शिर्षक-स्थाने सूत्र-क्रमांकने एका स्खलना दृश्यते यत् सू० २९ स्थाने सू० २७ मुद्रितं सूर्याभविमानस्य वर्णनं ~135~ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) (१३) --------- मूलं [२९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सुत्रांक [२९] दीप अनुक्रम [२९] सबरयणामया अच्छा जाव पडिरुवा, एवं वीही पंतीओ मिहुणाई। तेसिणं तोरणाणं पुरओदो दो पउमलयाओ जाव सामलयाओ णिचं कुसुमियाओ सबरयणामया अच्छा जाव पडिरुवाओ। तेसिणं तोरणाणं पुरओ दो दो अखय (दिसा) सोवत्थिया पन्नना, सबरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा, तेसिणं तोरणाणं पुरओ दो दो चंदणकलसा पनत्ता, ते णं चंदणकलसा वरकमलपइट्ठाणा तदेव । तेसि णं तोरणाणं परतो दो दो भिंगारा पन्नता, ते गं भिंगारा वरकमलपइट्ठाणा जाव महया मत्तगयमुहाकितिसमाणा पन्नता समणाउसो! । तेसि णं तोरणाणं पुरओ दो दो आयंसा पन्नना, तेसि णं आयंसाणं इमेयारूचे बनावासे पन्नने, तंजहा-तवणिज्जमया पगंठगा बेरुलियमया सुरया वरामया दोचारंगा णाणामणिमया मंडला अणुग्घसितनिम्मलाते छायाते समणुबद्धा चंदमंडलपडिणिकासा महया अद्धकायसमाणा पन्नता समणाउमो ! । तेसि णं तोरणाणं पुरओ दो दो वरनाभथाला पं० अच्छतिच्छडियसालितंदुलणहसंदिट्ठपडिपुन्ना इव चिट्ठति सबजंबूणयमया जाव पडिरूबा महया महया रहचकवालसमाणा पं० समणाउसो ! । तेसि णं तोरणाणं पुरओ दो दो पातीओ, ताओ णं पाईओ अच्छीदगपरिहत्थाओं णाणामणिपंचवन्नस्स फलहरियगस्स बहुपडिपुन्नाओ विव चिटुंति सवरयणामईओ अच्छा जाव पडिरुवाओ महया महया गोकलिंजरचक्कसमाणीओ पन्नताओ समणाउसो!। १२ सूर्याभविमानस्य वर्णनं ~ 136~ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) --------- मूलं [२९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः श्रीराजप्रश्नी बलयगिरी प्रत सुत्रांक या वृत्तिः ॥६७॥ [२९] दीप तेतिणं तोरणाणं पुरओ दो दो सुपइट्ठा पन्नत्ता णाणाविहभंडविरइया इव चिटुंति सवरयणामया अच्छा जाव पडिरुवा । तेसिणं तोरणाणं पुरओ दो दो मणगुलियाओ पन्नत्ताओ, तामिण मणगुलियासु बहवे सुवन्नरूप्पमया फलगा पन्नत्ता, तेसु णं सुवन्नरूप्पमएसु फलगेसु बहवे वयरामया नागदंतया पन्नत्ता, तेसु णं वयरामएसु णागर्दतएसु बहचे वयरामया सिक्कगा पन्नना, तेसु णं वयरामएस सिक्कगेस किण्हसुत्नसिकगवच्छिता णीलसुत्तसिक्कगवच्छिया लोहियसुत्नसिकगवच्छिया हालिहसुत्नसिक्कगवच्छिया सुक्किलसुत्तसिक्कगवच्छिया बहवे वायकरगा पन्नना सवे वेरुलियमया अच्छा जाब पडिरूवा । तेसिणं तोरणाणं पुरओ दो दो चित्ता रयणकरंडगा पं० से जहाणामए रन्नो चाउरंतचक्कवट्टिस्स चिने रयणकरंडए वेरुलियमणिफलिहपडलपञ्चोयडे साते पहाते ते पतेसे सबतो समंता ओभासति उज्जोवेति तवति भासति एवमेव तेवि चित्ता रयणकरंडगा साते पभाते ते पएसे सबओ समंता ओभासंति उज्जोवेति तवंति पगासंति, तेमि ण तोरणाणं पुरओ दो दो हयकंठा गयकंठा नरकंठा किन्नरकंठा किंपरिसकंठा महोरगकंठा गंधवकंठगा उसभकंठा सबबयरामया अच्छा जाव पडिरुवा, तेसु णं हयकंठएसु जाव उसभकंठएसु दो दो पुष्फचंगेरीओ (मल्लचंगेरीओ) चुन्नचंगेरीओ (गंधचंगेरीओ)वत्थचंगेरीओ आभरणचंगेरीओ सिद्धत्थचंगेरीओ लोमहत्थचंगेरीओ पन्ननाओ सवरयणामयाओ अच्छाओ अनुक्रम [२९]] SARERatine मूल-संपादने अत्र शिर्षक-स्थाने सूत्र-क्रमांकने एका स्खलना दृश्यते यत् सू० २९ स्थाने सू० २८ मुद्रितं सूर्याभविमानस्य वर्णनं ~ 137~ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) --------- मूलं [२९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सुत्रांक [२९] जाव पडिरुवाओ, तासु णं पुष्फचंगेरीआसु जाव लोमहत्थचंगेरीस दो दो पुष्फपडगाई जाव लोमहत्थपडलगाई सबरयणामयाई अच्छाई जाव पडिरूवाइ । तेसिणं तोरणाणं पुरओ दो दो सीहासणा पन्नत्ता, तेसिणं सीहासणाणं वन्नओ जाव दामा, तेसि णं तोरणाणं पुरओ दो दो रुप्पमया छत्ना पन्नत्ता, तेणं छत्ता वेरुलियविमलदंडा जंबूणयकन्निया वइरसंधी मुनाजालपरिगया अट्ठसहस्सवरकंचणसलागा दहरमलयसुगंधी सबोउयसुरभी सीयलच्छाया मंगलभत्तिचित्ता चंदागारोवमा। तेसिणं तोरणाणं पुरओ दो दो चामराओ पन्ननाओ, ताओ णं चामराओ (चंदप्पभवेरुलियवरनानामणिरयणखचियचिनदण्डाओ) णाणामणिकणगरयणविमलमहरिहतवणिज्जुजलविचिनदंडाओ वल्लियाओ संखककुंददगरयअमयमहियेफणपुंजसन्निगासातो सुहमरययदीहवालातो सबरयणामयाओ अच्छाओ जाव पडिरुवाओ। तेसि णं तोरणाणं पुरओ दो दो तेल्लसमग्मा कोट्रसमुग्गा पत्नसमुग्गा चोयगस० तगरस० एलास. हरियालसहिंगुलयस० मणोसिलास० अंजण सबरयणामया अच्छा जाच पडिरुवा ॥ सू०२८॥ 'तसि ण' मित्यादि तेषां द्वाराणां प्रत्येकमुभयोः पार्श्वयोरेकैकनषेधिकीभावेन या द्विधा नैषेधिकी तस्यां षोडश पोडश जालकटकाः प्रज्ञप्ताः, जालकटको जालककीर्णो रम्यसंस्थानः प्रदेशविशेषः, ते च जालकटकाः 'सबरयणामया अच्छा सण्हा जाव पडिरूबा' इति प्राग्वत् । 'तेसिण' मित्यादि, तेषां द्वाराणां प्रत्येकमुभयोः पायोर्दिधातो नैधिक्या षोडश घण्टापरिपाट्यः प्रज्ञप्ताः, तासां दीप अनुक्रम [२९]] TANT aurary.com मूल-संपादने अत्र शिर्षक-स्थाने एवं सूत्र-क्रमांकने एका स्खलना दृश्यते यत् सू० २९ स्थाने सू० २८ मुद्रितं सूर्याभविमानस्य वर्णनं ~ 138~ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) --------- मूलं [२९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः प्रत सूत्रांक [२९] दीप अनुक्रम [२९] भीराजमनीच घण्टानामयमेतद्पो वर्णावासो-वर्णकनिवेशः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-जम्बूनदमय्यो घण्टा बन्नमय्यो लालाः नानामणिमया घण्टापाः सूर्याभाविमळयगिरी- तपनीयमय्यः शङ्कला यासु ता अवलम्बितास्तिष्ठन्ति रजतमय्यो रजवः 'ताओ णं घण्टाओ' इत्यादि, ताश्च घण्टा ओपेन-प्रबाहेण मानवर्णनं या दृत्तिः स्वरो यास ता ओघस्वरा मेघस्येवातिदीर्घः स्वरो यासा ता मेघस्वराः हंसस्येव मधुरः स्वरो यासा ता हंसस्वराः, एवं क्रौञ्च स्वराः सिंहस्येव च प्रभूतदेशव्यापी स्वरो यास ताः सिंहस्वराः एवं दुन्दुभिस्वरा द्वादशविधतूर्यसङ्घातो नन्दिा नन्दिस्वराः नन्दि॥६८|| वन घोपो हादो यास ता नन्दिघोषाः मञ्जू:-प्रियः स्वरो यास ता मञ्जूवरा, एवं मजूघोषाः, किंबहुना ?, सुस्वराः सुस्वरघोषाः, 'उरालेण'मित्यादि माग्वत् ।। 'तेसि ण'मित्यादि, तेषां द्वाराणा प्रत्येकमुभयोः पार्श्वयोः द्विधातो नैषेधिक्यां षोडश: २ बनमालापरिपाटयः प्रज्ञप्ताः, ताथ बनमाला नानाद्रुमाणां नानालतानां च यानि किशलयानि ये च पल्लवास्तैः समाकुला:-सम्मिश्राः 'छप्पयपरिभुजमाणा सोभन्तसस्सिरीया' इति षट्पदैः परिभुज्यमानाः सत्यः शोभमानाः पदपदपरिभुज्यमानशोभमानाः अत एव सश्रीकाः 'पासाईया' इत्यादि पदचतुष्टयं प्राग्वत् ॥ 'तेसिणं दाराण' मित्पादि, तेषां द्वाराणां । मत्येकमुभयोः पार्थयोरेकैकनषेधिकीभावेन या द्विधा नैपेधिकी तस्यां घोडश २ प्रकण्ठकाः प्रज्ञप्ताः, प्रकण्ठको नाम पीठविशेषः, आह च जीवाभिगममूलटीकाकार:-प्रकण्ठौ पीठविशेषाविति, ते च प्रकण्ठकाः प्रत्येकमदतृतीयानि योजनशतान्यायामविकम्भाभ्यां पञ्चविंश-पञ्चविंशत्यधिकं योजनशतं 'बाइल्येन' पिण्डभावेन 'सबवयरामया' इति सर्वात्मना ते प्रकण्ठकाः बत्रमयाबजरत्नमया, 'अच्छा सण्हा' इत्यादि विशेषणजातं माग्वत्, 'तेसि णं पगंठगाण' मित्यादि, तेषां प्रकण्ठकानां उपरि प्रत्येक प्रत्येक-इह एक प्रति प्रत्येकमित्याभिमुख्ये वर्तमान प्रतिशब्दः समस्यते, ततो चीप्साधिवक्षायां द्विवचनं, मासादावतंसकाः प्रज्ञप्ताः, का॥ ६८॥ Santaraanimla IL u miarary.org मूल-संपादने अत्र शिर्षक-स्थाने सूत्र-क्रमांकने एका स्खलना दृश्यते यत् सू० २९ स्थाने सू० २८ मुद्रितं सूर्याभविमानस्य वर्णनं ~139~ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) (१३) --------- मूलं [२९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सुत्रांक [२९] दीप अनुक्रम [२९]] पासादावतंसका नाममासादविशेषाः, उक्तं च जीवाभिगममूलटीकार्या-"प्रासादावतंसकौ-पासादविशेषा'विति, ते चप्रासादावतकासका अर्धतृतीयानि योजनशतानि ऊर्ध्वम् उच्चैस्त्वेन पञ्चविंशं योजनशतं विष्कम्भेन, 'अभुम्णयमूसियपहसियाविव' अभ्युद्गता-आमिमुख्येन सर्वतो विनिर्गता उत्सृताः-प्रबलतया सर्वासु दिक्षुपसृता या प्रभा तया सिता इव-बद्धा इव तिष्ठन्तीति गम्यते, अन्यथा कथमिव ते अभ्युद्गता निरालम्बाः तिष्ठन्तीति भावः, 'विविहमणिरयणभत्तिचित्ता' विविधा-अनेकमकारा ये मणयः-चन्द्रकान्तादयो यानि च रत्नानि-कर्केतनादीनि तेषां भक्तिभिः-विच्छित्तिविशेषैश्चित्रा-नानारूपाः आश्चर्यवन्तो वा नानाविधमाणिरत्नभक्तिचित्राः, 'वाउद्धयविजयवेजयंतीपदागछताइछत्तकलिया' वातोद्धता-बायुकम्पिता विजयः-अभ्युदयस्तत्सूचिका वैजयन्त्यभिधाना याः पताका अथवा विजया इति बैजयन्तीना पार्यकर्णिका उच्यन्ते तत्पधाना वैजयन्त्यो विजयवैजयन्त्यः, पताकास्ता एव विजयबर्जिता छत्रातिछत्राणि-उपर्यपरि स्थितान्यातपत्राणि तैः कलिता वातोद्भूतविजयवैजयन्तीपताकाछत्रातिच्छाकलिताः, तुङ्गा-उच्चा उच्चैस्त्वेनार्द्धतृतीययोजनशतप्रमाणॐत्वात् अत एव 'गगनतलमणुलिहतसिहरा' इति गगनतलं-अम्बरतलम् अनुलिखन्ति-अभिलयन्ति शिखराणि येषां ते तथा, जालानि जालकानि तानि च भवनभित्तिषु लोके प्रतीतानि, तदन्तरेषु विशिष्टशोभानिमित्तं रत्नानि येषु ते जालान्तररत्नाः, सूत्रे चात्र विभतिलोपःप्राकृतत्वात् , तथा पञ्जरात् उन्मीलिता इव-बहिष्कृता इव पञ्जरोन्मीलिता इव, यथा किल किमपि वस्तु पजरात-वंशादिमयाअच्छादनविशेषात् बहिष्कृतमत्यन्तमविनष्टच्छायत्वात् शोभते एवं तेऽपि मासादावतंसका इति भावः, तथा मणिकनकानि-माणिकनकमय्यः स्तूपिका:-शिखराणि येषां ते मणिकनकस्तूपिकाः, तथा विकसितानि यानि शतपत्राणि पुण्डरीकाणि च द्वारादौ प्रतिकृतित्वेन स्थितानि तिलकरत्नानि-भित्त्यादिषु पुण्ड्रविशेषा अर्द्धचन्द्राश्च द्वारादिषु तैश्चित्राः-तथा नानारूपा आश्चर्यभूता वा विकसितशतपत्रपुण्डरीकतिलक Santaratinully सूर्याभविमानस्य वर्णनं ~140~ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) (१३) --------- मूलं [२९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: मीराजमश्नी मळयगिरी- या वृत्तिः मानवर्ण प्रत सुत्रांक ॥६९।। [२९] दीप रत्नार्द्धचन्द्रचित्राः, तथा नाना-अनेकरूपाणि यानि मणिदामानि-मणिमयपुष्पमालास्तैरलङ्कृतानि-शोभितानि नानामणिदामालङ्क- मूर्याभा तानि तथा अन्तर्बहिश्च नष्णा-मसृणाः, तथा तपनीयं-सुवर्णविशेषस्तन्मय्या वालुकायाः प्रस्तटः-प्रस्तारो येषु ते तपनीयवालुकामस्तटाः | 'मुहफासा सस्सिरीयरूवा पासाईया' इत्यादि प्राग्वत्तेषां च प्रासादावतंसकानामन्तभूमिवर्णनापर्युल्लोकवर्णनं सिंहासनवर्णनमुपरि विजयदृष्यवर्णनं बञापशवर्णनं मुक्तादामवर्णनं च यथा प्राक् यानविमाने भावितं तथा भावनीयो तसि णमित्यादि,तेषां द्वाराणां प्रत्येक सू०२८ मुभयोः पार्थयोरेकैकनषेधिकीभावेन या द्विधा नैषेधिकी तस्यां पादेश षोडश तोरणानि प्रज्ञप्तानि, तानि च तोरणानि नानामणिमयानीत्यादि तोरणवर्णनं यानविमानमिव निरवशेष भावनीयं, 'वेसिणं तोरणाणं पुरओ' इत्यादि, तेषां तोरणानां पुरतः प्रत्येक देशालभक्षिके, शालभतिकावर्णनं पावत्, 'तसिण' मित्यादि, तेषां तोरणानां पुरतो द्वौ द्वौ नागदन्तको प्राप्तौं, तेषां च नागदन्त-IS कानां वर्णनं यथाऽधस्तादनन्तरमुक्तं तथा वक्तव्यं, नवरमत्रोपरि नागदन्तका न वक्तव्या अभावात् , 'तेसि णमित्यादि तेषां तोरणानां पुरतो द्वौ द्वौ हयसडनटी, सङ्घाटशब्दो युग्मवाची यथा साधुसङट इत्यत्र, ततो देवे हययुग्मे इत्यर्थः, एवं गजनरकिन्नरकिंपुरुषमहोरगगन्धर्वपभसङ्गाटा अपि वाच्याः, एते च फयम्भूताः? इत्याह- 'सबरयणामया अच्छा सण्हा' इत्यादि पावत् , यथा चामीषा। हयादीनामष्टानां सङ्गाटा उक्तास्तथा पङ्खयोऽपि वीथयोऽपि मिथुनकानि च वाच्यानि, तत्र सङ्घाटाः-समानलिङ्गन्युग्मरूपा पुष्पावकीर्णकाश्च एकदिग्व्यवस्थिताः श्रेणिः-पङ्किरुभयोः पार्श्वयोरेकैकश्रेणिभावेन यत् श्रेणिदर्य सा वीथिः स्त्रीपुरुषयुग्मं मिथुनक 'तेसि णामित्यादि, तेषां तोरणानां पुरतो वे दे पद्मलते यावत्करणात् दे द्वे नागलते द्वे दे अशोकलने दे द्वे चम्पकलते द्वे दे चूतलते द्वे । वासन्तीलते द्वे द्वे कुन्दलते द्वे द्वे अतिमुक्तलते इति परिगृह्यते, द्वे द्वे श्यामलते, ताश्च कथम्भूता इत्याह--'णिचं कुसुमियाओ' इत्यादि अनुक्रम [२९]] मूल-संपादने अत्र शिर्षक-स्थाने सूत्र-क्रमांकने एका स्खलना दृश्यते यत् सू० २९ स्थाने सू० २८ मुद्रितं सूर्याभविमानस्य वर्णनं ~141~ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) --------- मूलं [२९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सुत्रांक [२९] यावत्करणात् 'निश्चं मउलियाओ निचं लवइयाओ निचं धवइयाओ निचं गुच्छियाओ निच्चं जमालयाओ निचं जुयलियाओ निच्छ विनमियाओ निच्चं पणमियाओ निचं मुविभत्तपिण्डमञ्जरिवडिंसगधराओ निच्चं कुसुमियमउलियलवइयथवइयगुलइयगोच्छियविणमियपणमियसुविभत्तपडिमञ्जरिवर्डिसगधरीओ' इति परिगृह्यते, अस्य व्याख्यानं माग्वत् , पुनः कथम्भूता इत्याह-'सत्वरयणामया जाव पडिरूवा' इति, अत्रापि यावत्करणात् 'अच्छा सण्हा' इत्यादिविशेषणसमूहपरिग्रहः, स च माम्बद्भावनीयः, 'तेसि णामित्यादि, तेषां तोर णानां पुस्तः प्रत्येक द्वौ द्वौ दिक्सौबस्तिको-दिमोक्षको ते च सर्वे जाम्बूनदमयाः, कचित्पाठः 'सव्वरयणामया अच्छा' इत्यादि, प्राग्वत् 'तोस डणमित्यादि द्वौ द्वौ चन्दनकलशौ प्रज्ञप्ती,वर्णकः चन्दनकलशानां 'वरकमलपइटाणा' इत्यादिरूपः सर्वःप्राक्तनो बक्तव्यः, 'तेसि णमित्यादि द्वौ द्वौ भृङ्गारौ, तेषामपि कलशानामिव वर्णको वक्तव्यो, नवरं पर्यन्ते 'महयामत्तगयमहामुहागिइसमाणा पन्नत्ता समणाउसो!' इति वक्तव्यं । का मत्तगयमहामुहागिइसमाणा' इति मनो यो गजस्तस्य महत्-अतिविशालं यत् मुखं तस्याकृतिः-आकारस्तत्समाना:-तत्सदृशाः प्रज्ञताः, 'तसि णमित्यादि तेषां तोरणानां पुरतो द्वौ द्वावादर्शको प्रज्ञप्ती, तेषां चादर्शकानामयमेतद्रूपो वर्णावासो-वर्णकनिवेशः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-तपनीयमयाः प्रकण्ठका:-पीठविशेषाः, अङ्मयानि-अङ्करत्नमयानि मंडलानि यत्र प्रतिबिंबसम्भूतिः 'अणोग्धसियनिम्मलाए' इति अवघर्षणमवघर्षितं भावे तमत्ययः तस्य निर्मलता--अवधर्षितनिर्मलता भूत्यादिना निर्मार्जनमित्यर्थः अवधर्षितस्याभावो|ऽनवधर्पिता तेन निर्मला अनवधर्षितनिर्मला अनवधर्षितनिर्मलया छायया समनुबद्धा युक्ताः 'चन्दमण्डलपडिनिकासा'| इति चन्द्रमण्डलसदृशाः 'महया महया' अतिशयेन महान्तोकायसमानाः काया प्रमाणाः प्रज्ञप्ता हे श्रमण हे आयुष्मन् ! तेसि णमित्यादि तेषां तोरणानां पुरतो वे वे वज्रनाभे-बज्रमयो नाभिर्ययोस्ते वज्रनाभे स्थाले प्रज्ञप्ने तानि च स्थालानि तिष्ठन्ति, दीप अनुक्रम [२९]] REairatna SNETuranorm सूर्याभविमानस्य वर्णनं ~142~ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) (१३) --------- मूलं [२९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत म०२८ सुत्रांक [२९] दीप श्रीराजमनी अच्छत्तिपछडियतंदुलनहसंदट्ठपडिपुना इव चिट्ठति' 'अच्छा' निर्मलाः शुद्धाः स्फटिकवत् त्रिच्छटिताः-त्रीन् वारान् छटिताः अत एव सूर्याभविमरायगिरी- नखसन्दष्टाः नखा:-नखिकाः सन्दष्टा मुशलादिभिः छटिता येषां ते तथा सुखादिदर्शनात् तान्तस्य परनिपातः अच्छै खिच्छटितैःमानवर्णनं वृत्तिः शालितण्डुलैर्नवसन्दष्टैः परिपूर्णाः, पृथ्वीपरिणामरूपाणि तानि तथा केवलमेवमाकाराणीत्युपमा, तथा चाह-'सबजम्बूणयमया' ॥७॥ सर्वात्मना जम्बूनदमयानि 'अच्छा सहा' इत्यादि प्राग्वत् 'महया महया' इति अतिशयेन महान्ति रथचक्रसमानानि प्रज्ञप्तानि हे श्रमण! REE आयुष्मन् ! 'तेसि णमित्यादि तेषां तोरणानां पुरतो द्वे द्वे 'पाईओ' इति पायो प्रशते, ताश्च पायः 'सक्छोदगपडिहस्थाओ' इति स्वच्छपानीयपरिपूर्णाः 'नाणाविहस्स फलहरियस्स बहुपडिपुनाविवे ' ति अत्र षष्ठी तृतीयार्थे 'बहु पडिपुत्रेति चैकवचना माकृतत्वात, नानाविधैः फलहरितहरितफलैर्बहु-प्रभूतं प्रतिपूर्णा इव तिष्ठन्ति न खलु तानि फलानि किं तु तथारूपाः शाश्वतभावमुपागताः पृथ्वीपरिणामास्ततः उपमानमिति, 'सबरयणामईओ' इत्यादि प्राग्वत्, 'महये ति अतिशयेन महत्यो गोकलिञ्जगचक्रसमानाः प्रज्ञप्ताः हे श्रमण हे आयुष्मन् 1, 'तोस णमित्यादि तेषां तोरणानां पुरतो द्वौ सुमतिष्ठको-आधाराविशेषी प्रज्ञप्ती, ते च सुप्रतिष्ठकाः सुसौषधिप्रतिपूर्णा नानाविधैः पञ्चवर्णैः प्रसाधनभाण्डैश्च बहुपरिपूर्णा इव तिष्ठन्ति, उपमाभावना : माग्वत् , 'सबरयणामइओ' इत्यादि तथैव, 'तेसि ण' मित्यादि तेषां तोरणानां पुरतो दे दे मनोगुलिका नाम पीठिका, उक्त पर जीवाभिगममूलटीकायां-"मनोगुलिका नाम पीठिके"ति, ताच मनोगुलिकाः सर्वात्मना वैडूर्यमय्यो 'अच्छा' इत्यादि माग्वत । तासु णं मणोगुलियासु वहवे' इत्यादि तासु मनोगुलिकासु सुवर्णमयानि रूप्यमयानि च फलकानि प्राप्तानि, तेषु सुवर्णरूप्यमयेषु ॥ ७०॥ फलकेषु बहवो वजमया नागदन्तकाः-अङ्कटकाः [सिबकेषु] तेषु च नागदन्तकेषु बहूनि रजतमयानि सिक्ककानि प्रज्ञप्तानि, तेषु च अनुक्रम [२९]] SAMEnirahinel मूल-संपादने अत्र शिर्षक-स्थाने सूत्र-क्रमांकने एका स्खलना दृश्यते यत् सू० २९ स्थाने सू० २८ मुद्रितं सूर्याभविमानस्य वर्णनं ~143~ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) --------- मूलं [२९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सुत्रांक [२९] रजतमयेषु बहवो वातकरका-जलशून्याः करका प्राप्ताः, तद्यथा-'किण्हमुत्ते'त्यादि गवच्छ-आच्छादनं गवच्छा सञ्जाता एप्पिति गवछिका (ता)कृष्णमूत्रः कृष्णमूत्रमयैर्गवारिक( तैरिति गम्यते, सिककेषु गवच्छिताः कृष्णमूत्रसिकगगवरिछता एवं नीलम्नसिकग-15 का गवरिछता इत्यापपि भावनीयं, ते च वातकरकाः सर्वात्मना वैडूर्यमया 'अच्छा' इत्यादि प्राग्वत् । 'तेसि ण मित्यादि. तेषां तोरमणानां पुरतो द्वौ दी चित्रौ-आश्चर्यभूतौ रत्नकरण्डकौ पशप्तौ से जहानामए' इत्यादि, स यथा नाम राज्ञश्चतुरन्तचक्रवर्तिनः-चतुर्ष पूर्वा-IMedi परदक्षिणोत्तररूपेषु अन्तेषु-पृथिवीपर्यन्तेषु चक्रेण वचितुं शीलं यस्य तस्यैव चित्र:-आश्चर्यभूतो नानामणिमयत्वेन नानावर्णो वा वरुलियनाणामणिफलियपडलपच्चोयडे' इति बाहुल्येन बैडूर्यमणिमयः 'फलिहपडलपच्चोयडे' इति स्फटिकपटलावच्छादितः 'साए - पभाए' इत्यादि स यथा राज्ञश्चतुरन्तचक्रवर्तिनः प्रत्यासम्मान प्रदेशान् सर्वतः सर्वासु दिक्षु समन्तत:-सामस्त्येन अवभासयति । एतदेव पर्यायत्रयेण ग्याचष्टे उद्योतयति तापयति प्रभासयति 'एवमेवेत्यादि सुगम 'तेसि णं तोरणाणमित्यादि, तेषां तोरणानां पुरतो द्वा द्वौ हयकण्ठप्रमाणौ रत्नविशेषौ एवं गजनरकिन्नरकिंपुरुषमहोरगगन्धर्वषभकण्ठा अपि वाच्याः, उक्तं च जीवाभिगममलटीकाकारेण-"हयकण्ठौ-हयकण्ठप्रमाणी रत्नविशेषौ एवं सर्वेऽपि कण्ठा वाच्या" इति, तथा चाह- 'सवरयणामया' इति, सर्वे रत्नमया-रत्नविशेषरूपा 'अच्छा' इत्यादि प्राम्वत् । 'तेसि 'मित्यादि तेषां तोरणानां पुरतो द्वौ द्वौ पुष्पचङ्गेयौं प्रश एवं माल्यचूर्णगन्धवस्त्राभरणसिद्धार्थकलोमहस्तकचङ्गोऽपि वक्तव्याः, एताश्च सर्वा अपि सर्वात्मना रत्नमया 'अच्छा'इत्यादि प्राग्वत् , एवं पुष्पादीनामष्टानां पटलकान्यपि द्विद्विसङ्ख्याकानि वाच्यानि, 'तेसिणं तारणाण' मित्यादि, तेषां तोरणानां Kापुरतो दे दे सिंहासने प्राप्ते, तेषां च सिंहासनानां वर्णकः मागुक्तो निरवशेषो वक्तव्यः, 'तेसि णमित्यादि, तेषां तोर-|| दीप अनुक्रम [२९]] SAMEmirational सूर्याभविमानस्य वर्णनं ~144~ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ---------- मूलं [२९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सुत्रांक [२९] दीप अनुक्रम [२९]] श्रीराजमश्नीणानां पुरतो वे द्वे छत्रे रूप्यमये प्रज्ञने, तानि च छत्राणि वैडूर्यरत्नमयविमलदण्डानि जाम्बूनदकर्णिकानि वजसन्धीनि-वन- मूर्याभविमझयगिरी- रत्नापूरितदण्डशलाकासन्धीनि मुक्ताजालपरिगतानि अष्टौ सहस्राणि-अष्टसहस्रसङ्ख्या वरकाश्चनशलाका-वरकाञ्चनमय्यः शलाका मानवर्णन या वृत्तिः येषु तानि, तथा 'दद्दरमलयसुगंधिसबोउयसुरभिसीयलछाया' इति दईर:-चीवराषनई-कुण्डिकादिभाजनमुखं तेन गालिवातास्तत्र पका वा ये मलय इति-मलयोद्भवं श्रीखण्डं तत्सम्बधिनः सुगन्धा ये गन्धवासास्तद्वत सर्वेष ऋतुप सुरभिः शीतला च म्०२८ छाया येषां तानि तथा, 'मंगलभत्तिचिचा' अष्टानां स्वस्तिकादीनां मङ्गलानां भक्त्या-विच्छित्त्या चित्रम्-आलेखो येषा तानि । तथा 'चंदागारोधमा' चन्द्राकारः चन्द्राकृतिः सा उपमा येषां तानि तथा, चन्द्रमण्डलवत् वृत्तानीति भावः, 'तेसि ण' मित्यादि, तेषां तोरणाना पुरतो दे द्वे चामरे प्रज्ञले, तानि च चामराणि 'चंदप्पभवेरुलियवयरनाणामणिरयणखचितचित्तदंटाओ' इति चन्द्रप्रभःचन्द्रकान्तो वज्रं वैडूर्य च प्रतीतं चन्द्रप्रभवज्रवैडूर्याणि शेषाणि च नानामणिरत्नानि खचितानि येषु ते तथा एवंरूपावित्रा-नाना-15 कारा दण्डा येषां चामराणां तानि तथा, 'सुहुमरययदीहवालाओ' इति मूक्ष्मा रजतमया दीर्घा वाला येषां तानि तथा, 'शंखककुंशाददगरयअमयमहियफेणपुंजसन्निकासाओ' इति 'शङ्ख प्रतीतः अङ्को-रत्नविशेषः 'कुंदे ति कुन्दपुष्पं दकरज-उदककणाः अमृतम-4 थितफेणपुल:-क्षीरोदजलमथनसमुत्थः फेनपुञ्जस्तेषामिव सन्निकाशः-प्रभा येषां तानि तथा, 'अच्छा' इत्यादि प्राम्बत् ।'तेसि | तोरणाण' मित्यादि, तेषां तोरणानां पुरतो द्वौ द्वौ तैलसमुद्गको सुगन्धितैलाधारविशेषी, उक्तं च जीवाभिगममूलटीकाकारेण-17 "तैलसमुद्को सुगन्धितैलाधारौ" एवं कोष्ठादिसमुद्गका अपि वाच्याः, अत्र सङ्ग्रहणिगाथा-तिल्ले कोट्ट समुग्गे पत्ते चोए य तगर एला ॥७१ ॥ य। हरियाले हिंगुलए मणोसिला अंजणसमुग्गा ॥१॥'सबरयणामया' इति एते सर्वेऽपि सर्वात्मना रत्नमया 'अच्छा इत्यादि प्राग्वत् । REmiratulana मूल-संपादने अत्र शिर्षक-स्थाने सूत्र-क्रमांकने एका स्खलना दृश्यते यत् सू० २९ स्थाने सू० २८ मुद्रितं सूर्याभविमानस्य वर्णनं ~145~ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) प्रत सूत्रांक [३०] दीप अनुक्रम [३०] “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र - १ (मूलं + वृत्तिः ) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. Jan Education मूलं [३०] आगमसूत्र [१३], उपांग सूत्र [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः सूरिया णं विमाणे एगमेगे दारे अट्ठसयं चक्कज्झमाणं अट्ठसयं मिगज्झयाणं गरुडज्झायाणं छत्तज्झयाणं पिच्छज्झायाणं सउणिज्झायाणं सीहज्झयाणं उसभज्झायाणं अट्ठसय सेयाणं चउविसाणाणं नागवरकेऊणं एवमेव सपुवावरेणं सूरियां विमाणे एगमेगे दारे असीयं कउसहस्त्रं भवतीति मक्खायें, सूरिया विमाणे पुष्णा पण्णाट्ठि भोमा पन्नत्ता, तसि णं भोमाणं भूमिभागा उल्लोया य भाणिया, तेसि णं भोमाणं च बहुमज्झदे सभागे पंत्तयं पत्तेयं सीहासणे, सीहामणवन्नतो सपरिवारो, अवसेसेस भोमेसु पत्तेयं पत्तेयं भद्दासणा पन्नत्ता । तेसि णं दाराणं उत्तमागारा सोलसविहहिं रयणेहिं उवसोभिया, तंजहारयणेहिं जाव रिट्ठेहिं, तेसि णं दाराणं उप्पिं अट्ठट्ठमंगलगा सझया जाव छत्तातिछत्ता, एवमेव सपुवावरेणं सरियाभे विमाणे चत्तारि दारसहस्सा भवतीतिमखायं, अमांगवणे सत्तिवणे चंपवणे चूथगवणे, सूरियाभस्स विमाणस्स चउद्दिसिं पंच जोयणसयाई अत्राहाए चनारि वणसंडा पन्नता, तंजा-पुरच्छ्रिमेणं असोगवणे दाहिणेणं सत्तवन्नवणे पञ्चत्थिमणं चंपगवणे उत्तरेणं चूयगवणे, ते णं वणखंडा साइरेगाई अद्धतेरस जोयणसयसहस्साई आयामेणं पंच जोयणसयाई विकखंभेणं पत्तेयं पत्ते पागारपरिखित्ता किण्हा किण्हाभासा वणखंडवन्नओ ।। सू० २९ ॥ ' सूरिया णं विमाणे एगमेगे दारे अट्ठसयं चक्कज्झयाण ' मित्यादि, तस्मिन सूर्याभे विमाने एकैकस्मिन द्वारे For Penal Use Only मूल-संपादने अत्र शिर्षक-स्थाने सूत्र क्रमांकने एका स्खलना दृश्यते यत् सू० ३० स्थाने सू० २९ मुद्रितं सूर्याभविमानस्य वर्णनं ~146~ netary org Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) (१३) --------- मूलं [३०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक भौराजपनी पलयगिरी- या वृत्तिः ॥ ७२ ॥ सू० [३०] दीप अनुक्रम [३०] अष्टाधिक शतं चकध्वजाना-चक्रलेखरूपचिटोपेतानां श्वजानामेवं मृगगरुडरुद्धछत्रपिच्छशकुनिसिंहषभचतुर्दन्तहस्तिध्वजाना- सूर्याभविमपि प्रत्येकमष्टशतमष्टशतं वक्तव्यं 'एवमेव सपुब्बावरेण' एवमेव-अनेनैव प्रकारेण सपूर्वापरेण सह पूर्वेः अपरैश्च वर्तते इति । सपूर्वापरं सङ्ख्यानं तेन सूर्याभे विमाने एकैकस्मिन् द्वारे अशीतमशीतं अशीत्यधिकं २ केतुसहस्रं भवतीत्याख्यातं मया अन्यैश्च तीर्थकृद्धिः, 'तसि ण' मित्यादि, तेषां द्वाराणां संबन्धीनि प्रत्येकं पञ्चषष्टिः२ भौमानि-विशिष्टानि स्थानानि प्रज्ञप्तानि, तेषां च भूमाना है भूमिभागा उल्लोकात्र यानविमानवद्वक्तव्याः, तेषां च भौमानां वहुमध्यदेशभागे यानि त्रयविंशत्तमानि भौमानि तेषां बहुमध्यदेशभागे प्रत्येकं प्रत्येकं सूर्याभदेवयोम्यं सिंहासनं तेषां च सिंहासनानां वर्णकोऽपरोत्तरोत्तरपूर्वादिषु सामानिकादिदेवयोग्यानि । भद्रासनानि च क्रमेण यानविमानवद्वक्तव्यानि शेषेषु च भामेषु प्रत्येकमेककं सिंहासन परिवाररहितं । 'तसि ण'मित्यादि, तेषां द्वाराणा उत्तमा आकारा-उपरितना आकारा उत्तरंगादिरूपाः कचित् 'उवरिमागारा' इत्येव पाठः, षोडशविधै रत्नैरुपशोभितास्तद्यथा-'रयणेहिं जाव रिटेहि इति रत्नैः-सामान्यतः कर्केतनादिभिर्यावत्करणात् बजः २ वैडूः ३ लोहिताः ४ मसारगल्लैः ५ हंसमभैः ६ पुलकैः ७ सौगन्धिकः ८ ज्योतीरसः ९ अर्बेन: १० अञ्जनः ११ रजतैः १२ अञ्जनपुलकैः १३ जातरूपैः १४ स्फटिकैरिति परिग्रहः १५ घोडशै रिष्ठैः १६ 'तेसि णमित्यादि, तेषां द्वाराणां प्रत्येकमुपरि अष्टौ ? अष्टौ स्वस्तिकादीनि मङ्गलकानि इत्यादि यानविमानतोरणवत्तावद्वाच्यं यावद् बहवः सहस्रपत्रहस्तका इति, अत ऊर्दू केषुचित पुस्तकान्तरेखेवं पाठः 'एवमेव सपुषावरेणं मूरियाभे विमाणे चचारि दारसहस्सा भवतीति मक्खायामिति सुगमं 'सूरियाभस्स ण मित्यादि सूर्याभस्य विमानस्य चतुर्दिश-चतस्रो दिशः समाहृताश्चतुर्दिक तस्मिन् चतुर्दिशि चतसृषु दिक्षु पञ्च पश्च योजनशतानि SHERamera N omurary.om मूल-संपादने अत्र शिर्षक-स्थाने सूत्र-क्रमांकने एका स्खलना दृश्यते यत् सू० ३० स्थाने सू० २९ मुद्रितं सूर्याभविमानस्य वर्णनं ~147~ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ---------- मूलं [३०] (१३) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सुत्रांक [३०] दीप अनुक्रम [३०] अवाहाए' इति बापनं बाधा आक्रमणमित्यर्थः न चाधा अवाघा-अनाक्रमण तस्यामवाधायां कृत्येति गम्यते, अपान्तराल VII मुलपति भावः, चत्वारो बनखण्डाः प्रजाता:, अनेकजातीयानामुत्तमानां महीरहाणां समूहो बनखण्डः, उक्तश्च जीवाभिग माँ -'अणेगजाईहिं उत्तमेहिं रुक्खेहि वणसंडे' इति, 'तद्यथेत्यादिना तानेव वनखण्डान् नामतो दिग्भेदतश्च दर्शयति, अशोकक्षप्रधान वनमशोकवनमेवं सप्तपर्णवन चम्पकवनं चूतवनमपि भावनीय, 'पुरच्छिमेण 'मित्यादि पाठसिद्धं, अत्र | संग्रदणिगाथा-'पुण असोगवणं दाहिणतो होइ सत्तिवप्णवर्ण । अवरेणं चंपकवणं चूयवर्ण उत्तरे पासे ॥१॥ तेण'-15 मित्यादि, ते च वनखण्डाः सातिरेकानि अप्रयोदशानि-सा नि द्वादश योजनशतसहस्राणि (आयामतः) पश्चयोजन-11 तानि विष्कम्भतः प्रत्येकं २ प्रकारपरिक्षिताः, पुनः कथंभूतास्ते बनखण्डा ? इत्याइ-'किण्हा किण्होभासा जाव | पडिमोयणा सुरम्मा' इति यावत्करणादेवं परिपूर्णः पाठः सूचितो-नीला नीलोभासा हरिया हरियोभासा सीया सीयोभासा निडा निदोभासा विवा तिचोभासा किण्हा किण्हरछाया नीला नीलच्छाया हरिया हरियच्छाया सीया सीयच्छाया निद्धारा निद्धच्छाया घणकडियकोडरछाया रम्मा महामेह निकुरुवभूया, ते णं पायवा मूलमंत्रो कंदमंतो खंधमंतो तयमंतो पवालमतो पत्तमतो पुप्फर्मती बीपमंतो फलको अणुपुबमुजायरूइलबट्टपरिणया एगसंधा अणेगसाहपसाहविडिमा अणेगनरयामप्पसारियअगेज्मघणविपुलबट्टखंघो अच्छिदपत्ता अविरलपत्ता अवाइणपचा अणीइयपत्ता निद्धयजरडपंडुपचा नवहरियभिसंतपत्तभारंधयारगंभीरदरिसणिज्जा वणिग्गयवरतरुणपत्तपल्लवकोमलउज्जलचलंत किसलयकुमुमपबालपल्लवंकुरम्मसिहरा निच्च कुसुमिया निचं मालिया निचं लव इया निचे थवइया निचं गुलइया निचं गोच्छिया निच्च जमलिया निचं जुयलिया निच विणमिया निच्चं SAREnatanimal TAGurasurary.com सूर्याभविमानस्य वर्णनं ~148~ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) प्रत सूत्रांक [३०] दीप अनुक्रम [३०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित. श्रीराजप्रश्ना मलयगिरीया वृत्तिः ॥ ७३ ॥ “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र - १ (मूलं + वृत्तिः ) सूर्याभविमानस्य वर्णनं मूलं [३०] आगमसूत्र [१३] उपांग सूत्र [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः पण मिया निच्च कुकुमियम उलियल बइ यथवइयगुलइयगोच्छिय जमलियजुवलियरिणमियपणमियसुविभत्तपडिमंजरिवडेंसयधरा सुयवरहिणमयणस लागा कोइलकोरक भिंगार ककोरल जीवजीवक नंदीमुखकविं जल पिंगल रख गकारंडका कलईससारस अगस उमिगुणवियरियस इयमरस र नाइयपिडियदरियभमरमहुयरि पहकर परिलेत उप्पय कुनुमासव लोलमहुर गुमगुमंत गुं जैव देसभागाफिल वाहिर पत्तोच्छन्ना पुत्तेहि य पुप्फेदि य उपच्छन्नपलिन्छना नीरोगका मउफासा अकंटगा गाणाविहगुडगुड व गोवसहिया विचित्तमुहके भूया वाविपुक्खरणिदीहियासु य सुनियेसियरम्मजालघरमा पिंडिमनोहारिमलुगंधसुरभिमणहरं च वर्द्धाणि सुयंता सुहकेऊ देउबहुला अणेगसगडरहजाणजुग्गगिल्लिथिल्सिीयसंदमाणी पडिमोयणा सुरम्मा इति' अस्य व्याख्या इह मायो वृक्षाणां मध्यमे वयसि वर्त्तमानानि पत्राणि कृष्णानि भवन्ति ततस्तद्योगात् वनखण्डा अपि कृष्णाः, न चोपचारमात्रात्ते कृष्णा इति व्यपदिश्यन्ते किन्तु तथा प्रतिभासनात्, तथा चाह- 'कृष्णावभासा' यावति भागे कृष्णा भासपत्राणि सन्ति तावति भागे ते वनखण्डाः कृष्णा अवभासन्ते, ततः कृष्णोऽवभासो येषां ते कृष्णावभासा इति, तथा हरितत्वमतिक्रान्तानि कृष्णत्वमसंप्राप्तानि पत्राणि नीलानि वयोगाद्वनखण्डा अपि नीलाः, न चैतदुपचारमात्रेणोच्यते किन्तु तथावभासात्, तथा चाह नीलावभासाः, समासः प्राग्वत्, यौवने सान्येव पत्राणि किसलयत्वं रक्तत्वं चातिक्रान्तानि ईपत् दरिवालामानि पाण्डूनि सन्ति हरितानीति व्यपदिश्यन्ते, ततस्तयोगात् वनखण्डा अपि हरिताः, न चैतदुपचारमात्रादुच्यते, किन्तु तथाप्रतिभासाद, तथा चाह-दरिवावभासाः, तथा बाल्यादतिक्रान्तानि वृक्षाणां पत्राणि शीतानि भवन्ति तवस्तखण्डा अपि शीता इत्युक्ताः, न च न ते गुणतस्तथा किन्तु तथैव तथा चाह-शीतावभासाः, अधोभागवर्त्तिनां वैमानिक For Pale Only ~ 149~ 4G-40049469)-450544) सूर्याभवि मानवर्णनं सू० ३० ॥ ७३ ॥ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) --------- मूलं [३०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः प्रत सुत्रांक [३०] दीप अनुक्रम [३०] देवानां देवीनां तद्योगशीतवातसंस्पर्शतः ते शीता बनरू ण्टा अवभार.न्ते इति, तथा एते कृष्णनीलहरितवर्णा यथा स्वस्मिन् A स्वरूपे अत्यक्ते स्निग्धा भाष्यन्ते तीवाश्च ततः तयोगात् वनखण्डा अपि स्निग्धाः तीवाश्च इत्युक्ताः, न चैतदुपचारमा किन्तु तथावभासोऽप्यस्ति सत उक्त-स्निग्धावभासास्तीत्रावभासा इति, इहावभासो भ्रान्तोऽपि भवति यथा मरुमरीचिकामु 4 जलावभासस्ततो नावभासमात्रोपदर्शनेन यथावस्थितं वस्तुस्वरूपं वर्णितं भवति किन्तु तयास्वरूपप्रतिपादनेन, ततः कृष्ण स्वादीनां तथास्वरूपप्रतिपादनार्थमनुवादपुररसर विशेषणान्तरमाह-'किण्हा किण्हच्छाया' इत्यादि, कृष्णा बनखण्डाः, All कुन इत्याह-कृष्णच्छाया: 'निमित्तकारणहेतषु सर्वासां विभक्तीनां प्रायो दर्शन मिति वचनात् हेतौ प्रथमा, ततोऽयमर्थ:0 यस्मात् कृण्णा छाया-आकारः सविसंवादितया तेषां तस्मात् कृष्णाः, एतदुक्तं भवति-सर्वाविसंवादितया तत्र कृष्ण आकार | उपलभ्यते, न च भ्रान्तावभाससंपादितसचाकः सर्वाविसंवादी भवति, ततस्तस्वकृपया ते कृष्णा न भ्रान्तावभासमात्रव्यवस्थापिता इति, एवं नीला नीलच्छाया इत्याद्यपि भावनीय, नवरं शीता: शीतच्छाया इत्यत्र छायाशब्द आतपप्रतिपक्षवस्तुवाची द्रष्टव्यः, 'धन कहितडियच्छाया' इति इह शरीरस्य मध्यभागे कटिस्ततोऽन्यस्यापि मध्यभागः कटिरिव कटिरित्युच्यते, कटि| स्तटमिव कटितट पना-अयोऽपशाखामशाखानुप्रदेशतो निविडा करितटे-मध्यभागे छाया येषां ते तथा, मध्यभागे निविडतररछाया इत्यर्थः, अत एव रम्यो-रमणीयः तथा महान् जलभारावनतम दृट्कालभावी यो मेघनिकुरुम्बो-मेघसमूहस्तं भूता-गुणैः प्राप्ता महामेघनिकु रंबभूता, महा यकृन्दोपमा इत्यर्थः। ते णं पायवा' इत्यादि, अशोकवरपादपपरिवारभूतमागुक्ततिलकादिवृक्षवर्णनवत् परिभावनीय, नवरं 'सुयचरहिणमयणसलागा' इत्यादि विशेषणमत्रोपमया भावनीय, 'अणेगसगढरहजाणे L inmarary.org सूर्याभविमानस्य वर्णनं ~150~ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) प्रत सूत्रांक [३१-३२] दीप अनुक्रम [३१-३२] “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र - १ (मूलं + वृत्तिः ) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित. श्रीराजमश्री मलयगिरी या वृत्तिः ॥ ७४ ॥ मूलं [ ३१-३२] आगमसूत्र [१३], उपांग सूत्र [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि प्रणीत वृत्तिः त्यादि तदाकारभावतः ॥ ( मू. ३० ) ॥ तेसिंणं वणसंडाणं अंतो बहुसमरमणिजा भूमिभागा, से जहा नामए आलिंगपुक्खरेति वा जाव णाणाविपचवणेहिं मणीहि य तणेहि य उथसोभिया, तेसिं णं गंधो फासी यच्ची जह कमं, तेसि णं भंते! तणाण य मणीण य पुच्यावरदाहिणुत्तरातेहिं वातेहिं मंदाणं एइयाणं वेड्या कंपिया लिया फंदियाणं घटियाणं खोभियाणं उदीरिदाणं केरिसए सद्दे भवति ?, गोयमा ! से जहा नामए सीयाए वा संदमाणीए वा रहरस वा सच्छन्तरस सम्झयस्स सटरस सपडागस्स सतोरणवरस्स सनंदिघोसस्स सखिखिणिहेमजालपरिखित्तस्स हेमवयचित्ततिणिस कणगणिज्जन्तदारुायरस संपिक मंडल घुरागरस कालायस सुकर के मिजंसकम्मरस आणवरतुरगसंप तस्स कुसलणरच्छेयसार हिसुसंगहियरस सरसययतीसतोणपरिमंडियस्स सक्कडावयंसगस्स सचावसरपहरणा वरणभरियजुस सज्जस्स रायंगणंसि वा रायतेवरंसि वा रम्मंसि वा मणिकुfearfarai अभिधहिज्जमाणरस वा नियहिज्जमाणस्स वा ओरालक्ष्णोष्णा कष्णमafrogsकरा सदा सव्वओ समता अभिणित्सवंति, भवेयारूये सिया !, णो इणट्टेससमहे, से जहाणामए यालीवीणाए उत्तरदामुच्छियाए अंके सुपइट्टियाए कुसलनरनारिसु संपरिग्गहियाते चंदणकोणपरियहियाए पुष्वरत्तावर रुकालसमयंसि मंदार्थ मंदार्थ बेइयाए पवेश्याए चालि For PP Use Only मूल-संपादने अत्र शिर्षक-स्थाने सूत्र क्रमांकने एका स्खलना दृश्यते यत् सू० ३१-३२ स्थाने सू० ३० मुद्रितं सूर्याभविमानस्य वर्णनं ~ 151~ सूर्याभविः मानवर्णन सू० ३० ॥ ७४ ॥ andra org Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ---------- मूलं [३१-३२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३१-३२ दीप अनुक्रम [३१-३२] याए घट्टियाए खोभियाए उदीरियाए ओराला मणुण्णा मणहरा कण्णमणनिव्वुइकरा सदा सवओ समंता अभिनिस्सर्वति, भवेयारूवे सिया?, णो इणट्टे समद्दे से जहानामए किन्नराण वा किंपुरिसाण वा महोरगाण वा गंधवाण वा भद्दसालवणगयाणे वा नंदणवणगयाणं वा सोमणसवणगयाणं वा पंडगवणगयाणं वा हिमवंतगच्छंगयमलयमंदरगिरिगुहासमन्नागयाण वा एगी सनिहियाण समागयाणं सक्रिसन्नाणं समुबविट्टाणं पमुइयपछीलियाणं गीयरइगंधव्यहसियमणाण गज्जे पाजं कत्थं गेय पयबई पायबई उक्खित्तायपयत्ताय मंदाय रोइयावसाणं सत्तसरसमन्नागयं छदोसविप्पमुक एकारसालंकार अगुणोववेय गुंतवैसकुहरोवगूढ़ रत्तं तिद्वाणकरणसुर्ज संकुलरगुंतवंसततीतलताललयगहसुसंपउत्तं महुरे समं सुललियमणोहरे मउयरिभियपयसंचारं सुति वरचारुरुवं दिव्य गर्दै सज्ज गेये पगीयाण, भवेयारवे सिया, हंता सिया ॥ (सू०३१) तेसिण वणसंहाण तत्थ तत्थ तहिं देसे देसे बहओ खडाखडियातो वाधीयाओ पुक्खरिणीओ दीहियाओ गुंजालियाओ सरपंतिआओ क्लिपंतियाओ अच्छाओ सहाओ रययामयकूलाओ समतीरातो रयरामयपासाणातो तवणिज्जतलाओ सुवष्णमुम्भरययवालुयाओ वेरुलियमणिफा-. लियपडलपचोयडाओ सुओयारसु उत्ताराओ णाणामणिसुबहाओ चउकोणाओ अणुपुरासुजातर्गभीरसीयलजलाओ संन्न पत्तभिसमुणालाओ बहुउप्पलकुमुयनलिणसुभगसोगंधियपोखरीयसय AREauratonintamanand सूर्याभविमानस्य वर्णनं ~ 152~ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ---------- मूलं [३१-३२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: वर्यागतिक मानवर्णन श्रीराजप्रश्नी मलयामिरीया वृत्तिः प्रत सूत्रांक [३१-३२ ॥७२॥ वत्तसहस्सपत्तकेसरफुल्लोवचियाओ छप्पयपरिभुजमाणकमलाओ अच्छविमलसलिलपुष्णाओ अप्पेगइयाओ आसवोयगाओ अप्पेगइयाओ खोरोयगाओ अप्पेगइयाओ धीयगाओ अपेगइयाओखीरोयगाओ अप्पेगइआओ खारोयगाओ अप्पेगतियाती उयगरसेण पण्णताओ पासादीयाओ दरिसणिजाओ अभिरुवाओ पडिरूवाओ तासिणं वाधीणं जाव बिलपंतीण पत्तेय २ चरहिसिंचत्तारि तिसोपाणपडिरूवगा पण्णत्ता, तेसि णं तिसोपाणपडिरूवगाणं वन्नओ, तोरणाणं झया उत्ताइछत्ता य यहा, तासु णं खुड्डाखुड़ियासु वावीसु जाय पिलपंतियासु तत्व २ देसे बहवे उप्पायपषयगा नियइपव्यययगा जगइपय्वया दारुइज्जपचयगा दगमंडया दगणालगा दगमंचगा पुसड्डा खुडखुडगा अंदोलगा पवखंदोलगा सबरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा, तेसु णं उप्पायपवएसु जाव पक्खंदोलएसु बहाई हसासणाई कोचासणाई गरुलासणाई उष्णयासणाई पणयासणाई दीहासणाई पक्खासणाई भद्दासणाई उसभासणाई सीहासणाई पउमासणाई दिसासोवत्थियाई सबरयणामयाई अच्छाई जाव पडिरूवाई, तेसणं वणसंदेसु तत्थ तत्थ तहिं तहिं देसे देसे यहवे आलियघरगा मालियघरगा कयलिघरगा लयाघरगा अच्छणघरगा पिच्छणघरगा मंडणघरगा पसाहणघरगा गम्भघरगा मोहनघरगा सालघरगा जालघरगा चित्तघरगा कुसुमपरगा गंघघरगा आयंसघरगा सदरपणामया अच्छा जाव. पडिरूवा, तेसु णं आलियघरगेसु जाव गंधव दीप अनुक्रम [३१-३२] ॥७ ॥ मूल-संपादने अत्र शिर्षक-स्थाने सूत्र-क्रमांकने एका स्खलना दृश्यते यत् सू० ३१-३२ स्थाने सू० ३० मुद्रितं सूर्याभविमानस्य वर्णनं ~ 153~ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ---------- मूलं [३१-३२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३१-३२ दीप अनुक्रम [३१-३२] तहिं २ घरएसु यहुई हंसासण जाव दिसासोवधिआसणाई सदरयणामयाई जाव पडिरुवाई। तेसु णं वणसंसु तत्थ तत्थ देसे २ तहिं २ वह जातिमंडवगा जूहियमंडवगा णवमालियमंडवगा वासंतिमंडवगा सूरमल्लियमंडवगा दहिवासुयमंडवगा तबोलिमंडवगा मुद्दियामंडवगा णागलयामंडवगा अतिमुत्तयलयामंडवगा आप्फोवगामालुयामंडवगा अच्छा सहरयणामया जाय पडिरूवाओ, तेसु णं जालिमंडवएमु जाच मालूयामंडवएसु बहवे पुढविसिलापट्टगा हंसासणसंठिया जाव दिसासोवत्थियासणमंठिया अण्णे य बहवे मंसलघुविसिहसं ठाणसंठिया पुतविसिलापहगा पपणत्ता समणाओ!, आईणगायबूरणवणीयतूलफासा सहरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा, तत्थ णं यहवे बेमाणिया देवा य देवीओ य आसयंति सयंति चिट्ठति निसीयंति तुयइंति हसंति रमति ललति कीलंति किति मोहेति पुरा पोराणाणं सुचिष्णाण सुपडिताण सुभाण कडाण कम्माण कल्लणाण कल्लाणं फलविवायगं पञ्चणुम्भवमाणा विहरति (सू०३२) 'तेसि णं चणसंडाण' मित्यादि, तेषां वनखा रानाम-मध्ये बहुसमरमणीया भूमिभागा: प्रता, तेषां च भूमिभागानां 'से जहा नामए 'आलिंगपुरखरे इवा' इत्यादि वर्णनं मागुक्तं तावद्वाच्यं यावन्मणीनां स्पर्शों, नवरमा तृणान्यपि वक्तव्यानि, तानि चैव-'नाणाविहपंचवरणाहि मणीहि य तणेहि य उबसोभिया, तंजहा-किण्हेहि य नीलेहि य जाव सुकिले, तत्थ ण जे ते कण्हा तणा य मणी य तैसि णं अयमेथारुये बनायासे पन्नते, से जहानामए जीमूतेइ वा' इत्यादि । सम्पति SAMEnirahini Treasurary.org सूर्याभविमानस्य वर्णनं ~154~ Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) (१३) ---------- मूल [३१-३२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: मयोभ मानवर्णन प्रत सूत्रांक [३१-३२ श्रीगजननी मलयगिरीया वृत्तिः ॥ ७६ ॥ दीप अनुक्रम [३१-३२] तेषां मणीनां तृणानां च बातेरिताना शब्दरवरूपप्रतिपादनार्थमाह-'तेसि गंभंते ! तणाण य मणीण थ' इत्यादि, तेषां णमिति पूर्ववत् भदन्त !-परमकल्याणयोगिन् तृणानां पूर्वापरदक्षिणोत्तरगतैतिर्मन्दायंति-मन्द मन्दं एमितानां कम्पितानां व्येजितानां-विशेषतः कम्पितानां, एतदेव पर्यायशब्देन च्याच कम्पितानां चालितानां-इतस्ततो मनाक् विक्षिप्ताना, एतदेव पर्यायेण व्याचट्टे-स्पन्दिताना, तथा घट्टितानां-परस्पर संघर्षयुक्तानां, कथं घट्टिता इत्याह-क्षोभिताना, स्वस्थानाञ्चालनमपि कुत इत्याह-उदीरिता नार-मावस्येन प्रेरिताना, कीरशः शन्दः प्राप्त ?, भगवानाह-'गोयमे ' स्यादि, गौतम ! स यथानामकः शिपिकाया या स्यन्दमानिकाया चा स्थस्य वा. तत्र सिबिया जम्पानविशेषरूपा उपरिच्छादिता कोष्ठाकारा, तथा दीर्थो जम्पानविशेषः पुरुषस्वप्रमाणावकाशदा या स्यन्दमानिका, अनयोश्च शब्दः पुरुषोत्पाटितयोः क्षुद्रहेमघटिकादिच-|| लनवनतो थेदितव्यः, स्थश्वेह संग्रामस्या प्रत्येयोऽग्रेस नविशेषणानाम यथासंभवात् , तस्य च फलकवेदिका यस्मिन् काले ये || पुरुषास्तदपेक्षया ततिप्रमाणाऽरसेया, तस्य च रथय विशेषणान्यभिधते-'सछत्तस्स' इत्यादि, सच्छत्रस्य सध्वजस्य सघण्टाकस्य-उभयपाद दिलम्बिमहाप्रमाणघाटोपेतस्य स.पताकरय सह तोरणवर-प्रधानतोरण यस्य ससतोरणवरस्तस्य, सह नन्दीघोषी-द्वादश तूर्यनिनादो यस्य स सनन्दिघोषस्तस्य, तथा सह किङ्किण्या-क्षुद्रघण्टा येषामिति सकिङ्किणीकानि, हेमजालानि-यानि हेममयदामसमूहारतः सर्वास दिनु पर्यन्तेषु-बहिम्मदेषु परिक्षिमो-ध्याप्तस्तस्य, तथा हेमवत-हिमवत्पर्वतभाबि | चित्र-विचित्रमनोहारिविशेषोपेतं तिनिशतर संबन्धि कनक विरितं दारु-काष्ठं यस्य स हैमवत चित्रतैनिशकनकनियुक्तदारुकतस्य, सूत्रे च द्वितीयः ककारः स्वाथिकः पूर्वस्य च दीर्घवं प्राकृतत्वात् , तथा मुष्ठु-अतिशयेन सम्यक् पिनद्ध ॥ ७ ॥ SAREatin For P OW Leucorarycom मूल-संपादने अत्र शिर्षक-स्थाने सूत्र-क्रमांकने एका स्खलना दृश्यते यत् सू० ३१-३२ स्थाने सू० ३० मुद्रितं सूर्याभविमानस्य वर्णनं ~155~ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ---------- मूलं [३१-३२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३१-३२ दीप अनुक्रम [३१-३२] बद्धमरकमण्डल धृव यस्य स सुसपिनकारकमंडलधूःकरतस्य, तथा कालायसेन-लोहेन मुष्ठ-अतिशयेन कृतं नेमे:-बाह्यपरिधेर्यन्त्रस्य च-अरकोपरिफलक चक्रवालस्य कर्म यस्मिन् स कालायसकृतनेमियन्त्रकर्मा तस्य, तथा आकीर्णा-गुणाप्ता ये वरा-प्रधानास्तुरगास्ते सुरतु-अतिशयेन सम्यक प्रयुक्ता-योमिता यस्मिन् स आकीर्णवरतुरगमुसंप्रयुक्तः तस्य, प्राकृतत्वात बहुव्रीहावपि क्तान्तस्य परनिपातः, तथा सारथिकर्मणि ये कुशला नरास्तेषां मध्ये अतिशयेन डेको-दक्षः सारथिस्तेन मुष्ठसम्यक् परिगृहीतस्य, तथा 'सरसयबत्तीसतोणपरिमंडियस्स' इति शराणां शतं प्रत्येक येषु तानि शरचतानि तानि च तानि द्वात्रिंशत् तूणानि तैमण्डितः शरशतद्वात्रिंशतणमष्टितः, किरकं भवति !-एवं नाम तानि द्वात्रिंशत् शरशतभृतानि तूणानि स्थस्य सर्वतः पर्यन्तेष्ववल श्चितानि यथा तानि संग्रामायोपकल्पितस्यातीव मण्डनाय भवन्तीति, तथा कष्टका-कवचं सह कण्टको यस्य स सकण्टक: सकङ्कटोऽवतंसा-शेखरो यस्य स सकङ्कटावतंसस्तस्य, तथा सह चापं येषां ते सचापा ये शरा यानि च कुन्तमलिमुसण्डिप्रभृतीनि नानाप्रकाराणि प्रहरणानि यानि च कवचकाटकप्रमुखानि आवरणानि तैभृत:-परिपूर्णः, तथा योधानां युद्ध तनिमित्तं सथा-प्रगुणीभूतो यः स योपयुद्ध सज्जरततः पूर्वपदेन सह विशेषणसमासः तस्य, इत्थंभूतस्य राजाङ्गणे वा 8| अन्तःपुरे वा रम्ये वा मणिकुहिमतले-मणिबद्धभूमितले अभीक्षणमभीक्ष्णं कुटिमतलपदेशे वा 'अभिघहिज्जमाणस्से ति अभि खच्यमानस्य वेगेन गच्छतो ये उदारा मनोज्ञा कर्णमनोनिवृतिकराः सर्वतः समन्तात् जीवाभिगममूलटीकायामपि उप्पित्य श्वासयुक्तमिति, तथा उत्-पावल्येन अतितालमस्थानतालं वा उचाल, इलक्षणस्वरंण काकस्वरं, सानुनासिकं अनुनासिकाविनिर्गतस्वरानुगतमिति भावा, तथा अगुणीववेय 'मिति अष्टभिर्गुणरुऐनमष्टगुणोपेतं, ते चाष्टावमी गुणा: पूर्ण रक्तमलस्कृत सूर्याभविमानस्य वर्णनं ~156~ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) प्रत सूत्रांक [३१-३२] दीप अनुक्रम [३१-३२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित. श्रीर। जमश्री मलयगिरी - या वृत्ति ॥ ७७ ॥ “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र - १ (मूलं + वृत्तिः ) Jan Education मूलं [ ३१-३२] आगमसूत्र [१३], उपांग सूत्र [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः व्यक्तमविघुष्टं मधुरं समं सललितं च, तथा चोक्तम्- “ पुणं रतं च अलंकिये च यतं तहेब अविघुद्धं । महुरं समं सललियं अट्ठ गुणा होंति गेयस्स ||१||” तत्र यत् स्वरकलाभिः परिपूर्ण गीयते तत्पूर्ण, गेयरागानुरक्तेन यत् गीयते तद् रक्तं, अन्योऽन्यस्वरविशेषकरणेन यदलङ्कृतमिव गीयते तदलङ्कन, अक्षरस्वरस्फुटकरणती व्यक्तं विस्वरं क्रोशतीव विघुष्टं न तथा अविघुष्टं, मधुरस्वरेण गीयमानं मधुरं कोकिलारुतवत्, तालवंशस्वरादिसमनुगतं समं, तथा यह स्वरघोलनाप्रकारेण लरतीय तत् सह ललितेन-ललनेन वर्त्तत इति सललितं यदिवा यत् श्रोत्रेन्द्रियस्य शब्दस्य स्पर्शनमतीव सूक्ष्ममुत्पादयति सुकुमारमिव च प्रतिभासते तत् सललितं । इदानीमेतेषामेवाष्टानां मध्ये कियतो गुणान अन्यच प्रतिपिपादयिषुरिदमाह - 'रत्तं तिहाणकरणं सुद्धं तत् 'कुहरगुंजत स तंतीतलताललयमा सुपतं महुरं समं सललियं मनोहरं मउयरिभियपयसंचारं सुरई सुनतिं वरचारुरूवं दिवं नहं सज्जं गेयं पगीयाण' मिति यथा माक नाटयविधौ व्याख्यातं तथा भारनीयं 'जारिसए सद्दे हवइ' मगीतानां गातुमारब्धवतां यादृशः शब्दोऽतिमनोहरो भवति स्यात् कथंचिद्भयेदेतद्रूपस्तेषां तृणानां मणीनां च शब्दः १, एवमुक्ते भगवानाह गौतम ! स्यादेवंभूतः शब्दः ॥ ( सू० ३१ ) 'तेसि णं वणसंडाण' मित्यादि तेषां 'ण'मिति वाक्यालङ्कारे बनखा डानां मध्ये तत्र तत्र देशे 'तत्र तत्रे' तिव स्यैव देशस्य तत्र तत्र एकदेशे 'बहूई' इति वह्नयः 'खुड्डाखुड्डियाओ' इति हिकालिका लघवो लघवी इत्यर्थः, वाप्यथतुरस्राः पुक्खरियो वृत्ताकारा अथवा पुष्कराणि दियंते यासु ताः पुष्करिण्यो दीर्घिका ऋउथ्यो नयः वक्रा नयो गुञ्जालिकाः, बहूनि केवल केवलानि पुष्पाकीर्णकानि सरांसि एकान्तया व्यवस्थितानि सरः पङ्क्तिः सललितास्ता बहून्यः सरःप For Parts Only मूल-संपादने अत्र शिर्षक-स्थाने सूत्र क्रमांकने एका स्खलना दृश्यते यत् सू० ३१-३२ स्थाने सू० ३० मुद्रितं सूर्याभविमानस्य वर्णनं ~ 157 ~ h-409)-45042-449)-410002459) ००% 109- सूर्याभवि मानवर्णन सू० ३० Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ---------- मूलं [३१-३२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३१-३२ दीप अनुक्रम [३१-३२] क्तयः तथा येषु सरासु पङ्तया व्यवस्थितेषु कूपोदकं प्रणालिकया संचरति सा सरम्पतिः ता बहन्यः सरासर पतयः, तथा विलानीव विलानि-कूपास्तेषां पङ्क्तयो बिलपङ्क्तयः, एताच सर्वा अपि कथंभूता इत्याइ-अच्छा:-स्फटिकवद्दहिर्निर्मलपदेशाः श्लक्ष्णा:-दलक्ष्णपुद्गलनिष्पादितबहिम्मदेशाः लक्ष्णदलनिष्पन्नफ्टवत् , तथा रजतमयं-रूप्यमयं कूल यासा ता रजतमयकूला:, तथा समं न गाभावात् विषमं तीरं-तीरवर्तिजलापूरितं स्थानं यास ताः सपतीराः, तथा वनपयाः पाषाणा यासां ता वनमयपापाणाः, तथा तपनीय-हेमविशेष: तपनीयमयं तले यासां वास्तपनीयतला, तथा "सुवष्णसुजझरययवालुयाउ' इति सुवर्ण-पीसकान्ति हेम मुम्भ-रूप्यविशेषः रजतं-प्रतीतं तन्मया बालुका यासु ताः सुवर्णमुम्भरजतवालुकाः, 'वेरुलियमणिफलिहपडलपच्चोयडाओ' इति वैडूर्यमणिमयानि स्फटिकपटलमयानि च प्रत्यवतटानि-तटसमीपवर्तिनः अत्युनतप्रदेशा यासां ता वैडूर्यमणिस्फटिकपटलपत्यवसटार, 'सुओयारसुउत्ताराउ' इति । मुखेनावतारो-जलमध्ये प्रवेशनं यासु ताः मुखावतारा! तथा मुखेन उत्तारो-जलमध्याहहिनिर्गमनं यासु ताः मुखोसातारास्ततः पूर्वपदेन विशेषणसमासः, 'नानामणितित्थमुबहाउ' इति नानामणिभिा-नानाप्रकारैर्मणिभिस्तीर्थानि मुबद्धानि यासां ना नानामणितीर्थसुबद्धाः, अत्र बहुव्रीहावपि तान्तस्य परनिपातः मुखादिदर्शनाद् प्राकृत शैलीवशावा |'चउकोणाउ' इति चत्वारः कोणा यासां ताश्चतुम्कोणा, एतच्च विशेषणं वापी: कूपांच प्रति द्रष्टव्यं, तेषामेव चतु कोणत्वसंभवात् न शेषाणां, तथा आनुपूर्पण-क्रमेण नीचैस्तराभावरूपेण सुष्टु-अतिशयेन यो जातवमा केदारो जल- स्थानं तत्र गम्भीर-अलब्धस्ता शीतल जलं यामु वा आनुपूर्व्यमुनातयमगम्भीरशीतलजला, 'संछन्नपत्तभिसमुणा SANEmirathindi सूर्याभविमानस्य वर्णनं ~ 158~ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) (१३) ---------- मूलं [३१-३२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: मु०३० प्रत सूत्रांक [३१-३२ श्रीराजप्रश्नी र्याभविलाउ' इति संछन्नानि-जलेनान्तरितानि पत्रविसमृणालानि यासु ताः संयनपत्रविसमृणालाः, इह बिसमृणालसाहचर्यात् FT मलयगिरी या वृत्तिः पत्राणि पमिनीपत्राणि द्रष्टव्यानि, विसानि-कन्दाः मृणालानि-पानाला, तथा बहुभिरुत्पलकुमुदनलिनसुभगसौगन्धिक पुण्डरीकशतपत्रसहस्रपत्रैः केसरैः-केसरमधानः फुल्ली-विकसितैरुपचिता बहूत्पलकुमुदनलिनसुभगसौगन्धिकपुण्डरीकशतप॥ ७८॥ सहस्रपत्रकेसरफुल्लोपचिताः, तथा षट्पदैः भ्रमरैः परिभुज्यमानकमला:, तथा अच्छेन-स्वरूपतः स्फटिकवत् शुद्धन विमलेन-आगन्तुकमलरहितेन सलिलेन पूर्णा अच्छविमलसलिलपूर्णाः, तथा पडिहत्या-अतिरेकिता अतिप्रभूता इत्यर्थः 'पडिहत्यमुद्धमाय अतिरिययं जाणमाउण्ण' मिति वचनात् , उदाहरणं चात्र-'घणपडिहत्यं गयणं सराइ नवसलिलउडुमायाई । अइरेइयं मह उण चिंताए मण तहं विरहे ॥१॥ इति, भ्रमन्तो मत्स्यकच्छपा यत्र ताः परिहत्यभ्रमनमत्स्यकच्छपाः, IA तथा अनेकैः शकुनिमिथुनकैः प्रविचरिता-इतस्ततो गमनेन सर्वतो व्याप्ताः अनेकशकुनिमिथुनकाविचरितास्ततः पूर्वपदेन विशेषणसमासः, एता पाप्यादयः सरस्सरम्पक्तिपर्यन्ताः 'प्रत्येकं प्रत्येक प्रति प्रत्येकमत्राभिमुख्य प्रतिशब्दस्ततो वीप्सा| विवक्षायां पश्चात्मत्येकशब्दस्य द्विवचनमिति, पद्मवरवेदिकया परिक्षिताः, प्रत्येकं प्रत्येक वनखण्डपरिक्षिप्ता, 'अप्पेगइयाउ' HI इत्यादि, अपिढिार्थ वाढमेकका:-काश्चन वाप्यादय आसवमिव-चन्द्रहासादिपरमासवमिव उदकं यासां ता आसवोदकार, | अप्येकका बारुणस्य-वारुणसमुद्रस्येव उदकं यासांता वारुणोदकाः, अप्येकका क्षीरमिव उदक यासा ताः क्षीरोदकाः, अप्येकका घृतमिव उदकं यासां ता घृतोदकाः, अप्येककाः क्षोद इव-इक्षुरस इत्र उदकं यासां वाः क्षोदोदकार, अप्येकका स्वाभाविकेन उदकरसेन भवताः, 'पासाइया' इत्यादि विशेषणचतुष्टयं प्राग्वछ । 'तासि ण' मित्यादि, तासां क्षुल्लिकानां वापीनां यावद्वि ॥७ ॥ दीप अनुक्रम [३१-३२] मूल-संपादने अत्र शिर्षक-स्थाने सूत्र-क्रमांकने एका स्खलना दृश्यते यत् सू० ३१-३२ स्थाने सू० ३० मुद्रितं सूर्याभविमानस्य वर्णनं ~159~ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ---------- मूलं [३१-३२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३१-३२ दीप अनुक्रम [३१-३२] लपङ्क्तोनामिति यावत्शब्दात् पुष्करिण्यादिपरिग्रहा, प्रत्येकं चतुदीश चखारि एकैकस्यां दिशि एकैकस्य भावात् त्रिसोपानप्रतिरूपकाणि-पतिविशिष्टरूपाणि त्रिसोपानानि, त्रयाणां सोपानानां समाहार खिसोपानं, तानि मनप्तानि, तेषां च त्रिसोपा नप्रतिरूपकाणामय-वक्ष्यमाणः एतद्रुपः-अनन्तरं वक्ष्यमाणस्वरूपो वर्णकनिवेशः प्रज्ञप्तस्तद्यथा बज्ररत्नमया वंगा इत्यादि प्रामत् । TI'तेसि गं तेषां त्रिसोपानपतिरूपकाणां प्रत्येकं तोरणानि प्रज्ञप्तानि, तोरणवर्णकस्तु निरवशेषो यानविमानवद्भावनीयो यार र बहवः सहस्रपत्रहस्तका इति, 'तासि ण 'मित्यादि, तासां क्षुल्लिकाक्षुल्लिकानां यावद् विलपतीनां, अत्रापि यावच्छब्दात् पुष्करिण्यादिपरिग्रहः, तत्र तत्र देशे तस्यैव देशस्य तत्र तत्र एकदेशे बहब उत्पातपर्यंता यत्रागत्य बहवः सूर्याभविमानवासिनो वैमानिका देवा देव्यच विचित्रक्रीडानिमित्तं वैक्रियशरीरमारचयति, नियइपचया' इति नियत्या-नयत्येन व्यवस्थिताः पर्वता नियतिपर्वताः, कचित 'निययपञ्चया' इति पाठः, तत्र नियता:-सदा भोग्यत्वेनावस्थिताः पर्वता नियतपर्वताः, यत्र सूर्याभविमानवासिनो वैमानिका देवा देव्यथ भवधारणीयेनैव वैक्रियशरीरेण सदा रममाणा अवतिष्ठन्ते इति भावः, 'जगईपचया' इति जगतीपर्वतकाः पर्वतविशेषाः, दारुपर्वतका-दारुनिर्मापिता इव पर्वतकाः, 'दगमंडवा' इति दकमण्डपा:-स्फाटिका: मंडपाः, उक्त च जीवाभिगममूलर्टीकायां-"दगमण्डपा:-स्फाठिका मण्डपा" इति, एवं दकमञ्चकाः दकमालका दकपासादाः, एते च दकमण्डपादयः केचित् 'उसड्डा' इति उत्सृता उच्चा इत्यर्थः, केचित् 'खुड्डा खुड्ड'त्ति क्षुल्लुकाः क्षुल्लका इति, तथा अन्दोलकाः पक्ष्यन्दोलकाच, इह यत्रागत्य मनुष्या आत्मानमन्दोलयति तेऽन्दोलका इति लोके प्रसिद्धाः, यत्र तु पक्षिण आगत्यात्मानभन्दोलयति ते पक्ष्यन्दोलकाः, तत्र अन्दोलकाः पक्ष्यन्दोलकाश्च तेषु वनखण्टेषु तत्र २ प्रदेशे देव SantarathinindTHI ITIJmAorary.orm सूर्याभविमानस्य वर्णनं ~160~ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ---------- मूलं [३१-३२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति सूर्यामविमानवर्णन या वृत्तिः प्रत सूत्रांक [३१-३२ ॥७९॥ क्रीडायोग्या बहवः सन्ति, एते च उत्पातपर्वतादयः कथंभूता ? इत्याह-'सर्वरत्नमयाः सर्वात्मना रत्नमयाः, अच्छा सहा | इत्यादि विशेषणकदम्बकं प्राग्वत् । तेसुण मित्यादि, तेषु उत्पातपर्वतेषु यावत्पक्ष्यन्दोलकेषु, यावत्करणान्नियतिपर्वतकादिपरिप्रहः, बहूनि इंसासनादीनि आसनानि, तत्र येषामासनानामधो भागे ईसा व्यवस्थिता यथा सिंहासने सिंहाः तानि इंसासनानि, एवं क्रोश्चासनानि गरुडासनानि च भावनीयानि, उन्नवासनानि-चासनानि प्रगतासनानि-निम्नासनानि दीर्घा-|| सनानि-शय्यारूपाणि भद्रासनानि येषामधो भागे पीठिकावन्धः पक्ष्यासनानि येषामधी भागे नानास्वरूपाः पक्षिणः, एवं मक- || रासनानि सिंहासनानि च भावनीयानि, पद्मासनानि-पद्माकाराणि आसनानि, 'दिसासोवत्थियासणाणि' येषामधो भागे दिक्-1 सौवस्तिका आलिखिताः सन्ति, अत्र यथाक्रमपासनानां संग्रहणिगाथा-'इसे कोंचे गरुडे उण्णय रपए य दीह भदेय । पक्से | मयरे पउमे सीह दिसासोस्यि वारसमे ॥१॥ इति,तानि सर्वाग्यपि कथंभूतानीत्यत आह-'सबरवणामयाई त्यादि पाग्वत् । Til'तेसि ण 'मित्यादि, तेषु वनखण्डेषु मध्ये तत्र २ प्रदेशे तस्यैव देशत्य तत्र तत्र एकदेशे बद्दनि 'आलिगृहकाणि' आलि:-वनC स्पतिविशेषः तन्मयानि गृहकाणि आलिगृहकाणि, मालिरपि वनस्पतिविशेषः तन्मयानि गृहकाणि मालिगृहकाणि, कदली-1 II गृहकाणि लतागृहकाणि च प्रतीतानि, 'अच्छणघरकाणि' इति अवस्थानगृहकाणि येषु यदा तदा वा आगत्य सुखा सिकया अवतिष्ठन्ति, मेक्षणकगृहकाणि यत्रागत्य प्रेक्षणकानि विदधति निरीक्षन्ते च, मजनकगृहकाणि यत्रागत्य स्वेच्छया II मजनक कुर्वन्ति, 'प्रसाधनगृहकाणि' यत्रागत्य स्वं परं च मण्डयन्ति 'गर्भगृहकाणि' गर्भगृहाकाराणि 'मोहणघरा-IAL साइन्ति मोहन-मैथुनसेवा 'रमियं मोहणरयाई' इति नाममालावचनात् तत्पधानानि गृहकाणि मोहनगृहकाणि, वासभव दीप अनुक्रम [३१-३२] ॥७९॥ Jumstaram.org मूल-संपादने अत्र शिर्षक-स्थाने सूत्र-क्रमांकने एका स्खलना दृश्यते यत् सू० ३१-३२ स्थाने सू० ३० मुद्रितं सूर्याभविमानस्य वर्णनं ~ 161~ Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ---------- मूलं [३१-३२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३१-३२ दीप अनुक्रम [३१-३२] * नानीति भावः, शालागृहकाणि-पट्टशालामधानानि, जालगृहकाणि-गवाक्षयुक्तानि गृहकाणि, कुमुमगृहकाणि-कुसुपर करो पचितानि गृहकाणि, चित्रगृहकाणि-चित्रप्रधानानि गृहकाणि गन्धर्वगृहकाणि-गीतनृत्ययोग्यानि गृहकाणि आदर्शगृहकाणि-आदर्शमयानीव गृहकाणि, एतानि च कथंभूतानीत्यत आह-सवरयणामया' इत्यादि विशेषणकदम्बकं पाग्वत् । 'तेसि ण' मित्यादि, तेषु आलिगृह केषु याबदादर्शगृहकेषु, अत्र यावत्शब्दात् मालिगृहकादिपरिग्रहा, 'बहूनि हंसासनानि' इत्यादि माग्वत् । 'तेसि ण 'मित्यादि, तेषु वनखण्डेषु तत्र तत्र देशे तस्यैव देशस्य तत्र तत्र एकदेशे बहवो जातिमण्डपका यूथिकामण्डपका मल्लिकामण्डपका नवमालिकामण्डपका वासंतीमण्डपका दधिवासुकामण्डपकाः, दधिवासुका-वनस्पतिविशेपस्तन्मया मण्डपका दधिवासुकामण्डपकाः, सूरुल्लिरपि बनस्पतिविशेषः तन्मया मण्डपका-२, ताम्बूली-नागवल्ली तन्मया मण्डपकास्तांबूलीमण्डपकाः, नागो-मविशेषः, स एव लता नागलता, इह यस्य तिर्यक् तथाविधा शाखा प्रशाखा चा न प्रम तासालतेत्यभिधीयते नागलतामया मण्डपका नागलवामण्डपकाः, अतिमुक्तमण्डपकार, अप्फोया' इति वनस्पतिविशेषस्तन्मया 2 मण्डपका अफोयामण्डपकाः, मालुका-एकास्थिकफला वृक्षविशेषास्तद्युक्ता मण्डपका मालुकामण्डपकाः, एते च कथंभूता इत्या- ह-'सबरयणामया' इत्यादि प्राग्वत्। 'तेसि ण 'मित्यादि, तेषु जातिमण्डपकेषु यावन्मालुकापण्डपकेषु जावशब्दात् यूथिकामण्डपकादिपरिग्रहः, बहवः शिलापट्टकाः प्रज्ञप्तास्तद्यथा-अप्येकका हंसासनवत् संस्थिता इंसासनसंस्थिता यावद-18 प्येकका दिक्सौवस्तिकासनसंस्थिताः, यावत्करणात् 'अप्पेगड्या हंसासणसंठिया अप्पेगइया गरुडासणसंठिया अप्पेगइया उणयासणसंठिया अप्पेगइया पणयासणसं दिया अप्पेगइया दीहासणसंठिया अपेगइया भद्दासणसैठिया अप्पेगइया REnications murary.orm सूर्याभविमानस्य वर्णनं ~ 162~ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ---------- मूलं [३१-३२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: सूर्याभूति प्रत सूत्रांक [३१-३२ दीप अनुक्रम [३१-३२] श्रीराजमणी || परखा अप्प आयसासणसठिया अप्पेगइया उसभासगसठिया अपेगइया सिहासणसठिया अप्पेगइया पउमासणसंठिया' मायगिरी- । इति परिग्रहः, अन्ये च बहवः शिलापट्टका यानि विशिष्टचिन्हानि विशिष्टनामानि च बराणि-प्रधानानि शयनानि या दृत्तिः । आसनानि च तद्वत् संस्थिता वरशयनासनविशिष्टसंस्थानसंस्थिताः, कचित् मांसलमुघट्टबिसिहसंठाणसंठिया' इति ॥८ ॥ पाठा, तवान्ये च बहवः शिलापट्टकाः मांसलाः अकठिना इत्यर्थः सृष्टा अतिशयेन महणा इतिभावः विशिष्टसंस्थानसंस्थि ताश्चेति, 'आईणगरूयबूरनवणीपतृलफासमउया सबरयणामया अच्छा जाव पडिरूबा' इति. प्राग्वत् , तत्र | तेषु उत्पादपर्वतादिगतईसासनादिषु यावन्नानारूपसंस्थानसंस्थितपृथ्वीशिलापट्टकेषु णमिति पूर्ववत् बहवः सूर्याभपिमान- 14 बासिनो देवा देव्यश्च यथासुखमासते शेरते-दीर्घकायप्रसारणेन वर्तन्ते न तु निद्रां कुर्वति, तेषां देवयोनिकत्वेन निद्राया अभावात् , तिष्ठन्ति-ऊर्ध्वस्थानेन वर्तन्ते निषीदन्ति-उपविशति तुयटुंति-वरवर्तनं कुर्वन्ति, वामपार्बत: परात्य दक्षिणपानावतिष्ठन्ति दक्षिणपार्वतो वा परात्य वामपानेति भावः, रमन्ते-रतिमावघ्नन्ति ललन्ति-मनईप्सितं यथा भवति तथा वर्तन इति भावः, क्रोडन्ति-यथासुखमितस्ततो गमनविनोदेन गीतनृत्यादिविनोदेन वा तिष्ठन्ति मोहन्ति-पैथुनसेवा कुर्वन्ति इत्येवं 'पुरापोराणाण' मित्यादि पुरा-पूर्व प्राग्भवे इति भावः कृतानां कर्मणामिति योगः, अत एव पौराणानां मुचीर्णाना-मुचरितानां, इह सुचरितजनितं कर्मापि कार्य कारणोपचारात् मुचरितं, ततोऽयं भावार्थ:-विशिष्टतथाविधधर्मानुष्ठानविषयाप्रमादकरणक्षान्त्यादिसुचरितजनितानामिति, तथा सुपराकान्तानां, अत्रापि कार्य कारणोपचारात् सुपराक्रान्तिजनितानि सुपराक्रान्तानि इत्युक्तं, किमुक्तं भवति -सकलसवमैत्रीसत्यभाषणपरद्रव्यानपहारसुशीलादिरूपसुप ॥८ ॥ MJuniorary.org मूल-संपादने अत्र शिर्षक-स्थाने सूत्र-क्रमांकने एका स्खलना दृश्यते यत् सू० ३१-३२ स्थाने सू० ३० मुद्रितं सूर्याभविमानस्य वर्णनं ~ 163~ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) प्रत सूत्रांक [३१-३२] दीप अनुक्रम [३१-३२] “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र - १ (मूलं + वृत्तिः ) मूलं [३१-३२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित... आगमसूत्र [१३], उपांग सूत्र [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि प्रणीत वृत्तिः Education in 038-44) 88068469)-8803409 **०%-409-2800 सूर्याभविमानस्य वर्णनं राक्रमजनितानामिति, अत एव शुभानां शुभफलानां, इद किञ्चिदशुभफलमपि इंद्रियमतिविपर्यासात् शुभफलं प्रतिभासते ततस्तात्विक शुभत्वप्रतिपत्यर्थमस्यैव पर्यायशब्दमाह- कल्याणानां तच्चच्या तथाविधविशिष्टफलदायिनां अथवा कल्याणानां अनपकारिणां कल्याणरूपं फलविपार्क ' पचणुग्भवमाणा' प्रत्येकमनुभवन्तो विहरन्ति आसते ॥ ( सू० ३२ ) ॥ तेसि णं वणसंडाणं बहुमज्झदेसभाए पत्तेयं२ पासायवर्डसगा पण्णत्ता, ते णं पासायवडेंसगा पंचजोयणसयाई उई उच्चतेणं अढाइलाई जोयणसयाई विक्खंभेणं अब्भुग्गयमूसियपहसिया इव तब बहुसमरमणिज्जभूमिभागो उल्लोओ सीहासणं सपरिवारं, तत्थ णं चत्तारि देवा महिडिया जाब पलिओमद्वितीया परिवसंति, तंजहा-असोए सत्तपणे चंपए चूए। सूरिया भरसणं देवविमाणस्स तो बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते, संजहा-वणसंडविणे जाव बहवे बेमाणिया देवा देवीओ य आसयति जाव विहरंति, तस्स णं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसे एत्थ णं महेंगे उबगारियालयणे पण्णत्ते, एगं जोयणसघसहस्सं आयामविक्खंभेणं तिष्णि जोयपाससहरसाई सोलस सहस्साई दोणि य सत्तावीसं जोयणसए तिनि य कोसे अट्ठावीसं च धणुसयं तेरस य अंगुलाई अर्द्धगुलं च किचिविसेसूणं परिक्खेवेणं, जोयणचाहल्लेणं, सधजंबूणयामए अच्छे जाव पडिये ॥ ( सू० ३३) ॥ 'सि ण' मित्यादि, वेषां वनखण्डानां बहुमध्यदेशभागे प्रत्येकं प्रत्येकं प्रासादावतंसका इति, अवतंसक इव-शे For Parts Only ~164~ org Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) प्रत सूत्रांक [३३] दीप अनुक्रम [33] “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र - १ (मूलं + वृत्तिः ) मूलं [३३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१३], उपांग सूत्र [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः श्रीराजमश्री मलयगिरीया वृत्तिः ॥ ८१ ॥ are saraian: मासादानामवतंसक इव प्रासादावतंसकः प्रासादविशेष इति भावः ते च प्रासादावतंसकाः पञ्च योजनान्मुच्चैस्त्वेन अर्द्धतृतीयानि योजनशतानि विष्कम्भतः तेषां च ' अब्भुग्गयमूसियपइसियात्रिव इत्यादिविशेषणजातं माग्वत्, भूमिवर्णनं उल्लोकवर्णनं सपरिवारं च मारयत्, ' तत्थ ण' मित्यादि, तत्र तेषु वनखण्डेषु प्रत्येकमे केकदिग्भावेन चत्वारो देवा महर्द्धिका यावत्करणात् ' महज्जइया महावला महासुक्खा महाणुभावा' इति परिग्रहः, पल्योपस्थितिकाः परिवसन्ति, तयथा-' असोए' इत्यादि, अशोकवने अशोकः सप्तपर्णवने सप्तपर्णः चंपकने चंपक वने चूत: ' ' ते ण' मित्यादि, ते अशोकादयो देवाः स्वकीयस्य बनखण्डस्य स्वकीयस्य प्रासादावतंसकस्य, सूत्रे बहुवचनं माकृतत्वात् प्राकृते हि वचनव्यत्ययोऽपि भवतीति स्वस्वकीयानां सामानिकदेवानां स्वासां स्वात्सामग्रमहिषीणां सपरिवाराणां स्वासां स्वासां परिषदां स्वेषां स्वेषामनीकानां रथेषां स्वेषामनीकाधिपतीनां स्वेषां स्वेपामात्मरक्षाणां 'आहेबचं पोरेवचं' इत्यादि प्राग्वत्, 'सूरियाभस्स ण' मित्यादि, सूर्याभस्य विमानस्यान्तः मध्यभागे बहुसमरमणीयो भूमिभागः प्रज्ञप्तः, तस्य ' से जहानामए आलिंगपुक्खरेइ वा इत्यादि यानविमान इव वर्णनं तावद्वाच्यं यावन्मणीनां स्पर्शः, तस्य बहुसमरमणीयस्य भूमिभागस्य बहुमध्यदेशभागे अः सुमहत् एकं उपकारिकालयनं प्रज्ञप्तं विमानाधिपतिसत्कप्रासादावतंसकादीन् उपकरोति-उपष्टभ्रात्युपकारिका, विमानाधिपतिसत्कप्रासादावतंसकादीनां पीठिका, अन्यत्र वियपकापकारिकेति प्रसिद्धा, उक्तं च " गृहस्थानं स्मृतं राज्ञामुपकार्योंपकारिके”ति, उपकारिकालयनमिव उपकारिकालयनं, तत् एकं योजनशतसहस्रमायामविष्कम्भाभ्यां श्रोणि योजनशतसहस्राणि षोडश सहस्राणि द्वे योजनशते सप्तविंशत्यधिके अष्टा For Park Use Only ~ 165~ प्रासादावतं सकव उपरि कालय नव ७० ३३ ॐ ॥ ८१ ॥ nary org Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ---------- मूलं [३३] (१३) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३३] दीप अनुक्रम विशं धनुःश्रतं त्रयोदश अङ्गलान्याङ्गल परिक्षेपतः, इदं च परिक्षेपप्रमाणं जबूद्वीपपरिक्षेपपमाणबत् क्षेत्रसमासटीकाता। परिभावनीयम् ॥ से णं एगाए पउमवरवेझ्याए एगेण य वणसंडेण य सबतो समंता संपरिखिते, साणं पउमवरवे. इया अडजोयणं उई उच्चत्तेणं पंचधणुसयाई विक्खंभेणं उधकारियलेणसमा परिक्खेवेणं, तीसे णं पउमवरवेइयाए इमेयारूवे वण्णावासे पपणत्ते, तंजहा-वयरामया णिम्मा रिहामया पतिढाणा बेरुलियामया खंभा सुवण्णरुप्पमया फलगा लोहियक्खमइओ मईओ नाणामणिमया कडेवरा णाणामणिमया कडेवरसंघाडगा णाणामणिमया रूवा णाणामणिमया रूवसंघाडमा अंकामया पक्खवाहाओ जोइरसामया बंसा बंसकवेलुगा रइयामइओ पहियाओ जातरूवमई ओहाडणी वइरामया उवरिपुच्छणी सारयणामई अच्छायणे, साणं पउमवरवेझ्या एगमेगेणं हेमजालेणं गवक्खजालेणं विखिणीजालेणं धंदाजालेण मुत्ताजालेणं मणिजालेणं कणगजालेणं रयणजालेणं पउमजालेणं सवतो समंता संपरिक्खित्ता, ते णं दामा तवणि जलंबूसगा जाव चिट्ठति । तीसे णं पउमवरवेझ्याए तत्थर देसे २ तहिं २ पहवे हयसंघाडा जाव उसभसंघाडा सबरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा पासादीया ४ जाव वीहीतो पतीतो मिहणाणि लयाओ। सेकेणद्वेणं भते! एवं बुपति-पउमवरवेड्या २१, गोयमा ! परमवरवेझ्या ण तत्थ २ देसे २ तहिं २ वेइयासु बेइयाबाहामु य वेइयफलतेसु य [३३] ~166~ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) प्रत सूत्रांक [३४] दीप अनुक्रम [३४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित. श्रीराजमनी मलयगिरी या वृत्तिः ॥ ८२ ॥ “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र - १ (मूलं + वृत्तिः ) 佘辛柴众辛 मूलं [३४] आगमसूत्र [१३], उपांग सूत्र [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः ategory खंभे खंभवाहासु खंभसीसेसु खंभपुदंतरेसु सुयीमु सुयीमुखे सु सूईफल एसुमईपुरंत पक्वे पक्खवाहासु पक्खपेरैतेसु पक्खपुडेंतरेसु बहुयाई उप्पलाई पउमाई कुमुपाई णलिणातिं सुभगाई सोगंधियाई पुंडरीयाई महापुंडरीयाणि सयवत्ताई सहस्सवत्ताई सहरयणामयाई अच्छाई पडिवाई महया वासिकयछत्तसमाणाई पण्णत्ताई समणाउसो !, से एएवं अद्वेणं गोयमा ! एवं बुवइ - पउमव रवेड्या २ । परमवरवेइया णं भंते! किं सासया० १, गोयमा ! सिय सासया लिय असासया, से केणट्टेणं भंते! एवं बुबइ - सिय सासया सिय असासया १, गोयमा ! agery सासया बन्नपजवेहिं गंधपजवेहिं रसपजवेहिं फासपज्ञवेहिं असासया, से तेणणं गो यमा ! एवं बुवति सिय सासया सिय असासया । पउमवर वेश्या णं भंते! कालओ केवचिरं होइ ?, गोयमा ! ण कयाचि णासि ण कयावि णत्थि न कयावि न भविस्सइ, भुवि च हवइ य भविस्सइ य, धुवाणिया सासवा अक्खया अहया अवट्टिया णिचा पउमवरवेइया । से णं वणसंडे देणाई दो जोयणाई चक्कालवित्र खंभेणं उवयारियालेणसमे परिक्खेवेणं, वणसंडवण्णतो भाणितो. जाव विहरति । तस्स णं उवयारियालेणस्स चउदिसिं चत्तारि तिसोवाणपडिरूवगा पण्णत्ता वण्णओ, तोरणा शया छत्ताइच्छन्ता तस्स णं उवयारियालयणस्स उवरिं बहुसमरमणिले भूमिभागे पण्णत्ते जाव मणीण फासो ॥ ( सू० ३४ ) For Parts Only ~167~ 4040409) *000*46 पनवरवेदिकाय. सू० ३४ ॥ ८२ ॥ jonary Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) प्रत सूत्रांक [३४] दीप अनुक्रम [३४] “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र - १ (मूलं + वृत्तिः ) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. Eticatur मूलं [३४] आगमसूत्र [१३], उपांग सूत्र [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः तच एकया पद्मवश्वेदिकया एकेन वनखण्डेन सर्वतः सर्वासु दिक्षु समन्ततः- सामस्त्येन सम्यग् परिक्षिप्तं ' साणं पमवरवेइया' इत्यादि, सा पद्मवश्वेदिका अर्द्ध योजन मूर्ध्वमुञ्चैस्त्वेन पश्च धनुःशतानि विष्कम्भतः परिक्षेपेण 'उपकारिकालयनसमाना उपकारिकालयनपरिक्षेपपरिमाणा प्रज्ञप्ता, 'तीसे 'मित्यादि, तस्याः पद्मवरयेदिकाया अयमेतनूपो 'वर्णावासो' वर्णः श्लाघा यथावस्थितस्वरूपकीर्त्तनं तस्यावासी - नित्रासो ग्रन्थपद्धतिरूपो वर्णावासो, वर्णक निवेश इत्यर्थः, प्रज्ञप्तो मया शेषतीर्थकर, तद्यथेत्यादिना तमेव दर्शयति, इह सूत्र पुस्तकेष्वन्यथाऽतिदेशबहुल: पाठो दृश्यते ततो मा भून्मतिसंमोह इति विनेयजमानुग्रहाय पाठ उपदर्श्यते-' वयरामया निम्मा रिट्ठामया पट्ठाणा पेरुलियामया खंभा सुवन्नरूप्पमया फलया लोहियक्खमईओ सूईओ वइरामया संधी नानामणिमया कडेवरा जाणामणिमया कलेवरसंघाडा नानामणिमया रूवा नानामणिमया संघाडा अंकामया पक्खा अंकामया पक्खवाहाओ जोईरसामया वंसा वंसकवेल्लया रईयामइओ पट्टियाओ जायख्वमई ओहाडणी वयरामह उवरिपुंडणी सहरयणामए अच्छायणे एतत् सबै द्वारवत् भावनीयं, नवरं कलेवराणिमनुष्यशरीराणि कलेवर संघाटा - मनुष्यशरीरयुग्मानि रूपाणि-रूपकाणि रूपसंघाटा-रूपकयुग्मानि, 'सा णं पउपवरयेड्या तत्थर से एगमेगेणं हेमजालेणं एगमेगेणं गवक्वजालेणं एगमेगेणं घंटाजालेणं एगमेगेणं खिखिणीजालेणं एगमेगेणं मुत्ताजागणं कणगाणं एगमेगेणं मणिजालेणं एगमेगेणं रययजालेणं एगमेगेणं सहरयणजा लेणं एगमेगेणं पउमजालेणं सहतो समता संपरिखित्ता, ते णं जाला तवणिज्जलंबूसमा सुचन्नपयरमंडिया नानामणिरयण विविहारद्धहार उनसोभियसमुद्धरुवा इनिमपत्ता पुढावरदाहिणुत्तरागरहिं वाहिं मंदार्थ मंदायमेइज्जपाणा पइजमाणा पलयमाणार पझुंझमा For Penal Use Only ~168~ 40 40 5000 4000 200 narr Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) (१३) --------- मूलं [३४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः पन्नवरदि काव प्रत सूत्रांक मू०१४ [३४] दीप अनुक्रम [३४] श्रीराजमनीणा पत्रमाणा ओरालेणं मणुनेण मणहरेण कण्णमणणिबुडकरेणं सद्देणं ते पदेसे सवतो समंता आपूरेमाणा सिरीए उबसोमेमलयगिरी माणा चिट्ठति, तीसे पउमवरवेइयाए तत्थर देसे वहिर हयसंघाडा नरसंघाडा किंनरसंघाडा किंपुरिससंघाडा महोरगसंघाद्या या वृत्तिः गंधवसंघाडा उसभसंघादा सवरयणामया अच्छा जाव पडिरूबा, एवं पंतीओवि बीहीमोवि भिहुणाई, तीसे णं पउमवरवेइयाए ॥३॥ सातत्थर देसे तरि बहुयाओ पउमलयामो णागलयाओ असोगल याओ चंपगलयाओ वणळयाओ वासंतियलयाओ अइमुत्त गलयामओ कुंदलयाओ सामलयाभो निच्च कुसुमियाओ निच मालियाओ निचं लबइयाओ निच्चे थवइयाओ णिचं गुलइयाओ निच गोच्छियाओ णिच्चं जमलियाओ निचं जुलियाओ निश्च विणमियाओ निच्च पणमियामो निच सुविभत्तपडिमंजरिवडंसगधरीओ निचं कुसुमियमउलियलबइयथवइयगुलइयगोच्छियजमलियजुयलियविणमियपणमियमुविभत्तपडिमंजरिवडिंसगधरीओ सत्वरयणामईओ अच्छा जाच पडिरूवाओ' इति, अस्य व्याख्या-'सा' एवं स्वरूपा 'ण' मिति वाक्यालझरे पावरवेदिका तत्रर प्रदेशे एकैकेन हेमजालेन-सर्वात्मना हेममयेन लम्बमानेन दामसमूहेन एकैकैन गवाक्षजालेन-गवाक्षाकृतिरत्नविशेषदामसमूहेन एकैकेन किङ्किणीजालेन, किङ्किण्या-क्षुद्रघण्टिकाः, एकैकेन घण्टाजालेन-किङ्किण्यपेक्षया किंचिन्मइल्यो घण्टा घण्टाः, तथा एकैकेन मुक्ताजालेन-मुक्ताफलमयेन दामसमूहेन एकैकन पणिजालेन-मणिमयेन दामसमूहेन एकै| केन कनकजालेन-कनका-पोतरूपः मुवर्णविशेषः तन्मयेन दामसमृहेन एवमेकैकेन रत्नजालेन एकैकेन पद्मजालेन सर्वरत्नमयपद्यात्मकेन दामसमूहेन सर्वतः सर्वासु दिक्षु समन्तत:-सर्वासु विदिक्षु परिक्षिप्ता-च्याप्ता, एतानि च दामसमूहरूपाणि हेमजालादीनि जालानि लम्बमानानि येदितव्यानि, तथा चाहते णं जाला' इत्यादि, तानि सूत्रे पुंस्त्वनिईशः पाकृत 12 ॥८३॥ HRPAPER ~169~ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) (१३) --------- मूलं [३४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३४] दीप अनुक्रम [३४] स्वात्, प्राकृते हि लिङ्गमनियत, णमिति वाक्यालङ्कारे, हेमजालादीनि जालानि, कचित् दामा इति पाठः, तत्र ताबन हेमजालादिरूपा दामान इति, 'तवणिज्जलंबूसगा' इत्यादि हयसंघाटादिसूत्रं लनासूत्रं च प्राग्वत् । सम्मति पद्मवरथेदिकाशब्दप्रवृत्तिनिमित्त जिज्ञासुः पृच्छति-से केणद्वेणं भंते !' इत्यादि, सेशब्दोऽयशब्दार्थ, केनार्थन-देन कारणेन भदन्त ! एवमुच्यते-पद्मवरवेदिका पयवरवेदिकेति, किमुक्तं भवति ?-पद्यचरवेदिकेत्येवंरूपस्य शब्दस्य तत्र प्रवृत्ती किं निमित्तमिति, एवमुक्ते भगवानाह-गौतम ! पद्मवरयेदिकायां तत्र तत्र एकदेशे तस्यैव देशस्य तत्र तत्र एकदेशे वेदिकासु-उपवेशनयोग्यमच्चारणरूपासु वेदिकाबाहामु-धेदिकापार्येषु 'वेइयपुडंतरेसु' इति द्वे वेदिके वेदिकापुटं तेषामन्तराणि-अपान्तरालानि तानि वेदिकापु| टान्तराणि वेषु, तथा स्तम्भेषु सामान्यतः स्तम्भवाहासु-स्तम्भपार्श्वषु 'खंभसीसेसु' इति स्तम्भशीषु 'स्तम्भपुरंत- AM रेसु' इति द्वौ स्तम्भौ स्तम्भपुटं वेषामन्तराणि स्तम्भपुटान्तराणि तेषु, सूचीषु-फलकसंबन्धविघटनाभावहेतुपादुकास्थानीयासु तासामुपरीतितात्पर्यार्थः, 'सूईमुहेसु' इति यत्र प्रदेशे शूची फलकं भिवा मध्ये प्रविशति तत्पत्यासन्नो देश: मूचीमुख तेषु, तथा सूचीफलकेषु सूचीभिः संबन्धिनो ये फलकप्रदेशास्तेऽप्युपचारात् सूचिफलकानि तेषु सूचीनामधउपरिवर्चमानेषु, तथा 'मुईपुटतरेसु' इति द्वे सूयौ सूचीपुटं तदन्तरेषु, पक्षाः पक्षवाहा वेदिकैकदेशविशेषास्तेप, बहूनि उत्पलानिगर्दभकानि पद्यानि-सूर्यविकासीनि कुमुदानि-चन्द्रविकासीनि नलिनानि-पद्रक्तानि पानि मुभगानि-पद्मविशेषरूपाणि सौगन्धिकानि-फल्हाराणि पुण्डरीकाणि-सिताम्बुजानि तान्येव महान्ति महापुण्डरीकाणि शतपत्राणि-पत्रशतकलितानि सहस्रपत्राणि-पत्रसहस्रोपेतानि, शतपत्रसहस्रपत्रे च पद्मविशेषौ पत्रसंख्याविशेषाच, पृथगुपाने, एतानि सर्वरत्नमयानि mitaram.org ~170~ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ---------- मूलं [३४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सत्राक [३४] श्रीराजमश्नी 'अच्छा' इत्यादि विशेषणजात माग्वत्, 'महया वासिकछत्तसमाणाई' इति महान्ति-महाप्रमाणानि वापिकाणि-वर्षा- वरवाद मलयगिरी कायकाले पानीयरक्षार्थ यानि कृतानि वार्षिकाणि तानि च तानि छत्राणि च तत्समानानि प्राप्तानि हे श्रमण ! हे आयुष्मन् !, या दृत्तिः Al'से एएणमटेण' मित्यादि, तदेतेन अर्धेन-अन्वर्थेन गौवम! एवमुच्यते-पद्मवरवेदिकेति, तेषु तेषु यथोक्तरूपेषु प्रदेशेषु ययो॥८४॥ तरूपाणि पनानि पावरवेदिकाशब्दस्य प्रवृत्तिनिमित्तमिति भावः, व्युत्पत्तिश्चैवं-पद्मवरा-पद्मप्रधाना वेदिका पद्मवरवेदिकेति । ०३४ 'पउमवरवेइया णं भंते ! किं सासया' इत्यादि, पद्मवरवेदिका 'ण' मिति पूर्ववत् किं शाश्वती उताशाश्वती, आवन्ततया सूत्रे निर्देशः प्राकृतत्वात् किं नित्या उतानित्येतिभावः, भगवानाह-गौतम! स्यात् शाश्वती स्वादशाश्वती, कथंचिन्नित्या कAII यश्चिदनित्या इत्यर्थः, स्यारछन्दो निपातः कथंचिदित्येतदर्थवाची, 'से केणष्टेण' मित्यादि प्रश्नमूत्रं गुगर्म, भगवानाह-गौतम! | और द्रव्यार्थतया-द्रव्यास्तिकनयमतेन शाश्वती, द्रव्यास्तिकनयो हि द्रव्यमेव ताचिकमभिमन्यते न पर्यायान, द्रव्यं चान्वयि परिHAI णामित्वात् अन्वयित्वाच सकलकालभातीति भवति द्रव्यार्थतया शाश्वती, वर्णपर्यायैस्तत्चदन्यसमुत्पद्यमानवर्णविशेषरूपैः, एवं al गन्धपर्यायः रसपर्यायैः स्पर्शपर्यायः उपलक्षण मेतत् तत्तदन्यपुर्लविचटनीचटनैश्च अशाश्वती, किमुक्तं भवति-प- ययारितकनयमतेन पर्यायप्राधान्यविचक्षायामशाश्वनी, पर्यायाणां प्रतिक्षणभावितया कियत्कालभावितया विनाशित्वान्, से एएणद्वेण ' मित्याधुपसंहारवाक्यं सुगमै, इह द्रव्यास्तिकनयवादी स्वमतप्रतिष्ठापनार्थमेवमाह-नात्यन्नासत उत्पादो All नापि सतो नाश नासतो विद्यते भावो, नाभावो विद्यते सतः' इति वचनात् , यौ तु दृश्येते पतिवस्तु उत्पादविनाशी मतदाविर्भावतिरोभावमात्र, यथा सर्पस्य उत्फणत्वविफणत्वे, तस्मासर्व वस्तु नित्यमिति, एवं च तन्माचिन्तायां संशयः | ।। ८४॥ दीप अनुक्रम [३४] ~ 171~ Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) --------- मूलं [३४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३४] दीप अनुक्रम [३४] किं घटादिवत् द्रव्यार्थतया शाश्वती उत सकलकालमेकरूपेति, ततः संशयापनोदाथ भगवन्तं भूयः पृच्छति-पउ-|| मवरवेइया ण' मित्यादि, पद्मवरवेदिका प्रावन भदन्त ! कालतः कियचिरं-कियन्तं कालं यावद्भवति १, एवरूपा हि कियन्त कालमवतिष्ठति इति !, भगवानाह-गौतम ! न कदाचिन्नासीत् सर्वदैवासीदिति भावः अनादित्वात् , तथा न कदाचिन्न | भवति, सर्वदैव वर्तमानकालचिन्तायां भवतीति भावः सदैव भावात् , तथा न कदाचिन्न भविष्यति, किंतु भविष्यचिन्तायां । सर्वदेव भविष्यतीति पतिपत्तव्य, अपर्यवसितत्वात , तदेवं कालत्रयचिन्तायां नास्तिस्वप्रतिषेध विधाय सम्पत्यस्तित्वं प्रति-|| पादयति-'भुवि च' इत्यादि, अभूश्च भवति च भविष्यति चेति, एवं त्रिकालावस्थायित्वात् धुवा मेर्वादिवत् ध्रुवत्वादेव सदैव स्वस्वरूपनियता नियतत्वादेव च शाश्वती-शश्वद्रवनस्वभावा शाश्वतत्वादेव च सततं गङ्गासिन्धुपवाहप्रवृत्तावपि पौण्डीक हद इवानेकपुद्गल विचटनेऽपि तावन्मात्रान्यपुद्गलोचटनसंभवादक्षया, न विद्यते क्षयो-यथोक्तस्वरूपाकारपरिभ्रंशो यस्याः सा | अक्षया, अक्षयत्वादेव अव्यया-अध्ययशब्दवाच्या मनागपि स्वरूपचलनस्य जानुचिदप्यभावात् , अव्ययत्वादेव सदैव स्वस्त्रप्रमाणेऽवस्थिता, मानुषोत्तराबहिः समुद्रवत् , एवं स्वप्रमाणे सदावस्थानेन चिन्त्यमाना नित्या धर्मास्तिकायादिवत् , 'से ण मित्यादि, सा 'ण' मिति वाक्यालङ्कारे पावरवेदिका एकेन वनखण्डेन सर्वतः समन्तात् परिक्षिप्ता, स च Bा बनखण्डो देशोने द्वे योजने चक्रवाल विष्कम्भतः उपकारिकालयनपरिक्षेपपरिमाणो, बनखण्डवर्णकः 'किण्हे किण्होभासे इत्यादिरूपः समस्तोऽपि प्राग्वत् यावद्विहरन्ति, 'तस्स ण' मित्यादि, तस्य-उपकारिकालयनस्य 'चउदिसं'ति चतुर्दिशिचतसृषु दिक्षु एकैकस्यां दिशि एकैकभावेन चत्वारि त्रिसोपानमतिरूपकाणि-प्रतिविशिष्टरूपकाणि त्रिसोपानानि प्रससानि, ~172~ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) प्रत सूत्रांक [३४] दीप अनुक्रम [३४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित. श्रीराजमश्री मलयगिरी या चि ॥ ८५ ॥ “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र - १ (मूलं + वृत्तिः ) 4304201340)-0001949) मूलं [३४] आगमसूत्र [१३] उपांग सूत्र [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः त्रिसोपानवर्णको यानविमानव वक्तव्यः तेषां च त्रिसोपानमतिरूपकाणां पुरतः प्रत्येकमेकैकं तोरणं, तोरणवर्णकोऽपि तथैव, पासादावर्त " तस्स पण ' मित्यादि, तस्य उपकारिकालयनस्य 'बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे' इत्यादिना भूमिभागवर्णनकं यानविमानव-सवर्णनम् कवचावद्वाच्यं यावन्मणीनां स्पर्शः ॥ ( सूत्र ३४ ) तरसणं बहुसमरमजिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महेंगे पासाथवडेंसए परण ते से णं पासायवसिते पंच जोयणसयाई उई उच्चतेणं अडाइजाई जोषणसयाई विक्रमेणं अच्भु गवसिय वण्णतो भूमिभागो उल्लोओ सीहासणं सपरिवारं भाणियां, अट्ठट्ठमंगलगा झया छत्ताइच्छत्ता से णं मूलपासाथवडेंसगे अण्णेहिं चउहि पासायवडेंस एहि तयडुबत्तप्पमाण मे तेहिं सबतो समता संपरिखित्ता, ते णं पासायवडेंसगा अट्टाइज्जाई जोयणसयाई उर्दू उच्चणं पणवीसं जोयणसयं विक्वं भेणं जाव वण्णओ, ते णं पासायवहिंसया अण्णेहिं चउहिं पासा यवडिसएहिं तद्युचतमाणमेते हि सदओ समता संपरिखित्ता, ते णं पासायवडेंसया पणवीसं जोयणसयं उड्ड उच्च तेणं बावहिं जोयणाई अजोयणं च विक्खंभेणं अच्भुग्गयमूसिय वण्णओ भूमिभागे उल्लोओ सोहासणं सपरिवारं भाणिय, अट्टमंगलगा झया छत्तातिच्छत्ता, ते णं पासायवडेंसगा अग्नेहिं चउहिं पासवर्डसएहिं तदचत्तपमाणमेत्तेहि सहतो समता संपरिखित्ता, ते णं पासायवडेंसगा बावट्ठ जोयणाई अजोयणं च उई उच्चत्तेणं एकतीसं जोयणाई कोसं च विक्खंभेणं वण्णओ उल्लोओ For Parts Only ~ 173~ 合辛:众辛?众语态辛 सू० ३५ ।। ८५ ।। Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ---------- मूलं [३५] (१३) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३५] दीप अनुक्रम [३५] सीहासणं सपरिवार पासायउवरिं अट्ठमंगलगा झया छत्तातिछत्ता ।। (मू० ३५)॥ तस्य च बहुसमरमणीयस्य भूमिभागस्य बहुमध्यदेशभागे अत्र महानेको मूलपासादावतंसकः प्रज्ञप्तः, स च पञ्च | योजनशतान्यू_मुच्चैस्त्वेन अर्द्धतृतीयानि योजनशतानि विष्कम्भतः 'अभुग्गयमूसियपहसियाविवेत्यादि तस्य वर्णनं मध्येभूमिभागवर्णन मुल्लोकवर्णन द्वारबहिःस्थितमासादवद्भावनीयं, तस्य च मूलपासादावतंसकस्य पहमध्ये देशभागेऽत्र महती एका मणिपोठिका मज्ञप्ता, अष्टौ योजनान्यायामविष्कम्भाभ्यां चखारि योजनानि बाहल्यतः सर्वात्यना मणिमयी अच्छा इत्यादि विशेषणकदम्बकं प्राग्वत् । 'तीसे ण 'मित्यादि, तस्याच मणिपीठिकाया उपरि महदेके सिंहासनं प्रज्ञप्त, । तस्य सिंहासनस्य वर्णनं, परिवारभूतानि शेषाणि भद्रासनानि माग्वद्वक्तव्यानि, 'से ण' मित्यादि, स मूलपासादायत| सकोऽन्यैश्चतुर्भिः पासादावतंसकैस्तदोच्चलप्रमाणे सर्वतः समन्ततः परिक्षिप्तः, तदडोंचत्वममाणमेव दर्शयति-अद्वैततीयानि योजनशतान्यूर्ध्वमुच्चै स्त्वेन, पश्चविंशं योजनशतं विष्कम्भेन, तेषामपि 'अभुग्गयमूसियपदसियाविषे' त्यादि स्वरूपवर्णनं मध्यभूमिभागवर्णन मुल्लोकवर्णनं च माम्बत्, तेषां च प्रासादावतंसकानां बहुमध्यदेशभागे प्रत्येक २ सिंहासन प्रजाता। | वेषां च सिंहासनानां वर्णनं पाम्वत्, नवरमत्र शेषाणि परिवारभूतानि भद्रासनानि वक्तव्यानि, 'ते णं पासायवडेंसया इत्यादि, ते प्रासादावतंसका अन्यैश्चतुर्भिः प्रासादावतंसकैः 'तयद्धच्चत्तपमाणमेत्तेहिं तेषां मूलपासादावतंसकपरिवारभूतानां प्रासादावतंसकानां यदई तदुच्चत्वपमाणमात्रै-मूलपासादावतंसकापेक्षया चतुर्भागमात्रप्रमाणः सर्वतः समन्तात्संपरिसिताः, तदर्बोच्चत्वपमाणमेव दर्शयति-ते ण' मित्यादि, ते प्रासादावतंसकाः पंचविंश योजनशतमूर्ध्वमुच्चैस्त्वेन द्वापष्टियो G aramera ~ 174~ Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ---------- मूलं [३५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: पासादातं सकवर्णनम् श्रीराजप्रश्नी मलयगिरी या वृत्तिः ॥८६॥ प्रत सूत्राक [३५] जनानि अयोजनं च विष्कम्भतः, तेषामपि ' अम्भुग्गयमूसियपहसियाविवे 'त्यादि स्वरूपवर्णनं मध्यभागे | भूमिवर्णनमुल्लोकवर्णन सिंहासनवर्णनं च सर्व प्राग्वत् , केवलमत्रापि सिंहासन सपरिवारं वक्तव्यं, 'ते ण' मित्यादि, ते | च प्रासादावतंसका अन्यैश्चतुर्भिः प्रासादावतंसकैस्तदोच्चत्वममाण:-अनन्तरोक्तप्रासादावतंसकार्बोच्चत्वप्रमाणैर्मूलमासादावतंसकापेक्षया(अष्ट)भागममाणैः सर्वतः समन्तात् संपरिक्षिप्ताः, तदोच्चत्वप्रमाणमेव दर्शयति-'ते ण' मित्यादि, ते च प्रासादावतंसका द्वापष्टियोजनानि अर्धयोजनं च ऊर्ध्वमुच्चस्त्वेन एकत्रिंशतं योजनानि कोर्श च विष्कम्भतः, एपामपि 'अन्नग्गयमूसिए 'त्यादि स्वरूपवर्णनं मध्यभागे भूमिवर्णनं जल्लोकवर्णनं सिंहासनवर्णनं च परिवाररहितं प्राम्बत् , 'ते ण' मित्यादि, तेऽपि प्रासादावतंसका अन्यैश्चतुर्भिः प्रासादावतंसकैस्तदोच्चसप्रमाणैः-अनन्तरोक्तमासादावर्तसका - चत्वप्रमाणैर्मूलपासादावतंसकापेक्षया पोटशभागप्रमाणैः सर्वतः समंतात् संपरिक्षिप्ताः, तदर्थोच्चत्वममाणमेव दर्शयति-एकत्रिंशयोजनानि क्रोनं च ऊर्ध्वमुच्चैस्त्वेन पञ्चदश योजनानि अर्द्धतृतीयांश्चैव क्रोशान् विष्कम्भता, एतेषामपि स्वरूपादिवर्णनमनन्तरोक्तं, 'ते ण' मित्यादि, तेऽपि च प्रासादावतंसका अन्यैश्चतुर्भिः प्रासादावतंसकैस्तदर्दोच्चखप्रमाणैः-अनन्तरोक्तपासादावतंसकार्बोच्चत्वप्रमाणः सर्वतः समन्तात् संपरिक्षिताः, तदोच्चत्वप्रमाणमेव दर्शयति-पंचदश योजनानि अद्धत्तीयांश्च क्रोशान् ऊर्ध्वमुच्चैस्त्वेन देशोनान्पष्टौ योजनानि विष्कम्भेन, एषामेव स्वरूपच्यावर्णनं भूमिभागवर्णनं उल्लोकवर्णन सिंहासनवर्णनं च परिवारवर्जितं माम्बत् ।। (सू०३५) तस्स णं मूल पासायवसयरस उत्तरपुरच्छिमेणं एत्थ ण सभा सुहम्मा पण्णता, एग जायणसर्य दीप अनुक्रम [३५] ॥८६॥ ~ 175~ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) प्रत सूत्रांक [३६] दीप अनुक्रम [३६] “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र - १ (मूलं + वृत्तिः ) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. Jan Eucation t मूलं [ ३६ ] आगमसूत्र [१३], उपांग सूत्र [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः आयामेण पण्णासं जोयणाई विवखंभेण बावन्तरि जोयणाई उर्दू उच्च शेणं अपेगखं भसय संनिविद्वा अन्य सुकव रवेड्या तोरणवरर इय सालिभंजिया जाव अच्छरगणसंघविप्पकिण्णा पासादीया ४, सभाए णं सुहम्माए तिदिसि तओ द्वारा पण्णत्ता, तंजहा-पुरस्थिमेणं दाहिणेणं उत्तरेणं, ते नं द्वारा सोलस जोयणाई उई उच्चतेणं अट्ठ जोयणाई विश्खंभेणं तावतियं चैव पवेसेणं सेया वरकगधूभियागा जाव वणमालाओ, तेसि णं दाराणं उवरि अट्ट मंगलगा झया छताछत्ता, तेसि दाराणं पुरओ पत्तेयं २ मुहमंडवा पण्णत्ता, ते णं मुहमंडबा एवं जोयणसयं आयामेणं पण्णासंजोयणाई विक्वं भेणं साइरेगाई सोलस जोयणाई उई उच्चत्तेणं वण्णओ सभाए सरिसो, तेसि मुहमंडवाणं तिदिसि ततो दारा पण्णत्ता, तंजहा- पुरत्थिमेणं दाहिषेणं उत्तरेणं, ते णं दारा सोलस जोयणाई उर्दू उच्चतेणं अट्ठ जोषणाई विक्खंभेणं तावइयं चेव पवेसेणं सेया वरकणमधूभियागा जाब वर्णमालाओ । तेसि णं मुहमंडवाणं भूमिभागा उल्लोया, तेसि णं मुहमंडवाणं उचरिं अट्टमंगलगा झया छताछता । तेसि णं मुहमंडवाणं पुरतो पत्तेयं २ पेच्छाघरमंडवे पण्णत्ते, मुहमंडवतदया जाय दारा भूमिभागा उल्लोया । तेसिणं बहुसमरमणिजाणं भूमिभागाणं बहुमज्झदेसभाए पते २ वइराम अखाडए पष्णते, तेसि णं वयरामयाणं अक्वाडगाणं बहुमज्झ देस भागे पत्तेयं२ मणिपेढिया पष्णसा, ताओ णं मणिपेढियातो अट्ठ जोयणाई आयामविक्स्वं भेणं चत्तारि जो For Paren ~ 176~ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) --------- मूलं [३६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति श्रीराममनी मलयगिरी या वृत्तिः | मण्डपस्तुप पतिमा य खेन्द्रध्वज जिनसवयी प्रत ॥८७॥ सत्राक [३६] यणाई चाहल्लेणं सबमणिमईओ अच्छाओ जाच पडिरूवाओ, तासि णं मणिपेटियाण उपरि पत्तेयं २ सीहासणे पपणते, सीहासणवण्णओ सपरिवारो, तेसि णं पेच्छाघरमंडवाणं उवरिं अट्ठामंगलगा झया छत्तातिछता, तेसिणं पेच्छाघरमंडवाणं पुरओ पत्तेय २ मणिपेढियाओ पणत्ताओ, ताओ गं मणिपेडियातो सोलस जोयणाई आयामविक्खंभेणं अट्ठ जोयणाई वाहरूलेण सामणिमइओ अच्छाओ पडिरूवाओ, तेसिणं उवरि पत्तयं २ धूमे पणत्ते, ते णं धृभा सोलस जोयणाई आयामविखंभेणं साइरेगाई सोलस जोपणाई उडे उच्चत्तेणं, सेया संखंककुंददगरयअमयमहियफेणपुजसंनिगासा सवरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा, तेसिज धूभाणं उवरिं अहमंगलगा झया छत्तातिछत्ता, तेसिणं थूभाणं चउदिसि पत्तेयं २ मणिपेदियाती पण्णत्ताओ, ताओणं मणिपेढियातो अहजोषणाई आयामविक्वंभेणं चत्तारि जोयणाई बाहल्लेणं सबमणिमईओ अच्छाओ जाव पडिरूचातो, तेसि णं मणिपेढियाणं उरिं चत्तारि जिणपडिमातो जिगुस्सेहपमाणमेत्ताओ संपलियंकनिसनाओ धूभाभिमुहीओ सनिखित्ताओ चिट्ठति, तंजहा-उसभा १ बजमाणा २ चंदाणणा ३ वारिसेणा४, तेसि ण धूभाणं पुरतो पत्तेयं २ मणिपेरियातो पण्णत्ताओ, ताओ ण मणिपेढियातो सोलस जोषणाई आयामविक्खंभेणं अट्ठ जोयणाई बाहल्लेग सामणिमईओ जाव पडिरूवातो, तासिणं मणिपेढियाण उवरि पत्तेयं २ चेइयरुक्खे पपणत्ते, ते ण चेइयरुक्खा जोयणाई उई दीप अनुक्रम [३६] ॥८७॥ JI Janaurat1 ~ 177~ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) (१३) --------- मूलं [३६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३६] दीप उच्चत्तेणं अट्ठ जोयणाई उज्वेहणं दो जोयणाई खंधा अद्धजोयण विक्खभेगं छजोयणाई विडिमा बहुमादेसभाए अढ जोयणाई आयामविक्खंभेणं साइरेगाई अढ जोयणाई सवग्गेणं पण्णता, तेसिणं चेइयरुक्खाणं इमेयारूवे वण्णावासे पणत्ते, तेजहो-वयरामया मूला रययसुपरहिया सुविडिमा रि. हामयविउला कंदा वेरुलिया रुइला खंधा सुजायवरजायरूवपढमगा विसालसाला नाणामणिमयरयणविविहसाहप्पसाह कलियपनतवणिज्जपत्तबिंटा जंबणयरत्तमउयसुकमालपवालसोभिया वरकुरग्गसिहरा विचित्तमणिरयणसुरभिकुसुमफलभरेणनमियसाला अहिय मणनयणणिवुइकरा अमयरससमरसफला सच्छाया सप्पभा सस्सिरीया सज्जोया पासाईया ४, तेसि ण चेइयरुक्खाणं उरि अट्टमंगलगा झया छत्ताइछत्ता, तेसि ण चेहयरुक्खाणं पुरतो पत्तेयं २ मणिपेढियाओ पग्णताओ, ताओ णं मणिपेडियाओ अट्ट जोयणाई आयामविक्वंभेणं चत्तारि जोयणाई बाहल्लेण सबमणिमईओ अच्छाओ जाव पडिरूवाओ, तासि णं मणिपेढियाणं उवरि पत्तेयं २ महिंदज्झया पण्णता, ते णं महिंदज्झया सहि जीयणाई उर्दू उच्चत्तेणं जोयण उवहेण जोयणं विक्वंभेण वइरामया वदलहसुसिलिट्रपरिघट्टमसुपतिहिया विसिट्टा अणेगवरपेचवण्णकुडभिसहस्सपरिमंडियाभिरामा वाउछुयविजयवेजपतीपडागा छत्ताइकछत्तकलिथा तुंगा गयणललमभिलंघमाणसिहरा पासादीया ४, अट्टमंगलगा झया छत्तातिछत्ता, तेसि णं अनुक्रम [३६] anditaram.org ~178~ Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ---------- मूलं [३६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: श्रीराजप्रश्ना मलयगिरीया वृत्तिः मण्डपस्पत मतिमाचैत्य ॥८८॥ प्रत सूत्रांक [३६] महिंदज्याण पुरतो पत्तेयं २ नंदा पुक्खरिणीओ पण्णताओ, ताओ णं पुक्खरिणीओ एग जोयपासयं आयामेणं पक्षणासं जोयणाई विक्खंभेण दस जोयणाई उचे हेणं अच्छाओ जाव वण्णओ एगइयाओ उदगरसेणं पण्णताओ, पत्तेयं २ पउमवरवेझ्यापरिखित्ताओ पत्तेयं २ वणसंडपरिखित्ताओ, तासि णं गंदाणं पुक्खरिणीणं तिदिसिं तिसोवाणपडिस्वगा पण्णता, तिसोवाणपडिरूवगाणं वणओ, तोरणा झया छत्तातिछत्ता। सभाए गं मुहम्माए अध्यालीसं मणीगुलियासाहस्सीओ पण्णताओ, संजहा-पुरछिमेणं सोलससाहस्सीओ पचच्छिमेण सोलससाहस्सीओ दाहिणेणं अट्ठसाहस्सीओ उत्तरेणं अहसाहस्सीओ, तासु णं मणोगुलियासु बहवे सुवष्णरूप्पमया फलगा पण्णता, तेसु ण सुवन्नरुपमएसु फलगेसु बहवे वइरामया णागर्दता पण्णता, तेसु णं वइरामएसु णागर्दतएम किण्ह सुत्नवस्वग्धारियमल्लदामकलावा चिट्ठति, सभाए णं सुहम्माए अडयालीसं गोमाणसियासाहस्सीओ पन्नताओ, जह मणोगुलिया जाव णागदंतगा, तेसु णं णागदतएम बहवे रथयामया सिकगा पष्णता, तेसु ण रययामएमु सिकगेम बहवे वेरुलियामइओ धूवघडियाओ पपणत्ताओ, ताओ णं धूवघडियाओ कालागुरुपवरजावचिट्ठति, सभाए ण मुहम्माए अंता बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते जाव मणीहि उवसोभिए मणिफासो य उस्लोयओ थ, तस्सणं बहुसमरमणिजस्स भूमिभागस्त बहुमजलदेसभाए.एत्थ णं महेगा मणिपेढिया पक्ष्णता सोलस जीयणाई आयामवि दीप अनुक्रम [३६] Saintaintina amurary.au ~179~ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) (१३) ---------- मूलं [३६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३६] क्खंभेणं अङ्क जोषणाई बाहल्लेणं सघमणिमयी जाव पडिरूवा, तीसे ण मणिपेढियाए उरि एत्य ण माणथए चेयखंभे पपणत्ते, सहिजोयणाई उड़ उच्चत्तेणं जोयण उबेहेणं जोयणं विखंभेण अडयालीसं असिए अड्यालीसं सइकोडीए अडयालीसं सइविग्गहिए सेसं जहा महिंदमयस्स, माणवगस्स ण चेइयखभस्स उवरि वारस जोयणाई ओगाहेता हेहावि पोरस जोयणाई बज्जेचा मज्झे बत्तीसाए जोयणेसु एत्थ णं बहवे सुबष्णरुप्पमया फलगा पण्णता, तेसु णं सुवण्णरुप्पामएसु फलएसु वहये वइरामया णागदंता पणत्ता, तेसु णं वइरामएसु नागर्दतेसु बहवे रयथामया सिकगा पणत्ता, तेसु णं रथयामएस सिक्कएसु बहवे बहरामया गोलवरसमुग्गया पण्णता, तेसु णं वयरामएस गोलवासमुग्गएसु बहवे जिणसकहाती संनिखिचाओ चिट्ठति । तातो णं सूरियाभस्स देवस्स अन्नेसिं च बहणं देवाण य देवीण य अञ्चणिजाओ जाय पज्जुवासणिजातो माणवगस्स चेइयखंभस्स उवरि अढ मंगलगा झवा छत्ताइच्छता ॥ (सू०३६) तस्स ण' मित्यादि, तस्य मूलपासादावतंसकस्य 'उत्तरपुरच्छिमेण 'ति उत्तरपूर्वस्यामीशानकोणे इत्यर्थः, अत्र सभा सुधर्मा प्रज्ञप्ता, सुधर्मा नाम विशिष्टरछन्द कोपेता, सा एक योजनशतमायामतः पश्चाशत् योजनानि विष्कम्भवः द्वासप्ततियोजनानि ऊर्ध्व मुस्त्येन, कथंभूता सा ? इत्याह-'अणेगे 'त्यादि, अनेकस्तम्भवतसन्निविष्टा 'अन्भुग्गयसुकयवयरवेइ यातोरणवररइयसालिभंजियासुसिलिट्टविसिहलसंठियपसत्यवेरुलियविमलखंभा' इति, अभ्यु- । दीप #本字书本字节全本享受亭發亭 अनुक्रम [३६] w marary au ~180~ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ---------- मूलं [३६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: मण्डपस्तूप पतिमात्य क्षेन्द्रध्वज जिनसवयी प्रत सूत्रांक [३६] दीप देना-अतिरमणीयतया द्रष्टुणां प्रत्यभिमुखं उत्-पायल्येन स्थिता मुकतेच सुकृता निपुणशिल्पिरचितेतिभावा, अभ्युद्गता चासौ श्रीराजमश्नी मलयगिरी- सुकृता च अभ्युद्गतमुकता बनवेदिका-द्वारमुण्डिकोपरि वज्ररत्नमया वेदिका तोरणं च अभ्युद्गनमुकृतं यत्र सा तथा, वराभि:या वृत्तिः | प्रधानाभिः रचिताभिः रविदाभिर्वा शालिभधिकाभिः मुश्लिष्टा:-संबद्धा विशिष्ट-प्रधान लह-मनोज्ञ संस्थित-संस्थानं येषां विशिष्टलासंस्थिताः प्रशस्ता:-प्रशंसास्पदीभूता वैयस्तम्भा-वैडूर्यरत्नमयाः स्तम्मा यस्यां सा सथा, वररचितशालभनिका॥८९ ॥ सुश्लिष्टविशिष्टलष्टसंस्थितपशस्तवैडूर्यस्तम्भास्ततः पूर्वपदेन कर्मधारयः समासः, तथा नानामणिकनकरत्नानि खचितानि यत्र स नानापणिकनकरत्नखचितः, क्तान्तस्य परनिपातः सुखादिदर्शनात , नानामणिकनकरत्नखचित उज्ज्वलो-निर्मलो बहु समः-अत्यन्तसमः मुविभक्तो निचितो-निविदो रमणीयश्च भूमिभागो यस्यां सा नानामणिकनकखचितरत्नोज्ज्वलबहसमसुका विभक्त (निचित) भूमिभागा, 'इहामियउसभनुरगनरमगरविहगवालगकिन्नररुरुसरभचमरकुंजरवण लयपउमलयभत्तिचिचा |* खंभुन्गयवरवेइयाभिरामा विज्ञाहरजमलजुगलजंतजुत्ताविच अचीसहस्सयालिणीया रूवगसहस्सकलिया भिसिमीणा भिभि| समीणा चक्खुल्लोयणलेसा मुहफासा सरिसरीयरूवा कंचणमणिरयणधुभियागा नानाविहपंचवण्णघंटापटागपरिमैडियम्गसिहरा धवला मरीइकवर्ष विणिम्मुयंती लाउल्लोइयमहिया गोसीससरससुरभिरत्तचंदणदहरदिन्नपंचगुलितला उपचियचंदणकलसबंदणघटसुकयतोरणपडिदुवारदेसभागा आसत्तोसत्तविउल वावग्यारियमच्छदामकलावा पंचवण्णसरससुरभिमुक्कपुप्फर्पुनीवयारकलिया कालागुरुपवरकुंदुरुकतुरुकधूवडज्झतमघमतगंधुद्धयाभिरामा सुगंधवरगंधिया गंधवहिभूया अच्छरगणसंघसंविकिण्णा दिवतुडियसहसंपणादिया सवरयणामया अच्छा जाव पटिख्या इति प्राग्वत । 'सभाए ण' मित्यादि, सभायाश्च सुधर्मायाखिदिशि अनुक्रम [३६] ॥८९॥ marary.orm ~ 181~ Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) (१३) --------- मूलं [३६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३६] दीप तिमधु दिक्षु एकैकस्यां दिशि एकैकद्वारभावेन त्रीणि द्वाराणि प्रजातानि, तद्यथा-एक पूर्वस्या के दक्षिणस्यामेकमुत्तरस्या, तानि च द्वाराणि प्रत्येकं पोटश २ योजनान्यूर्ध्वमुच्चैस्त्वेन अष्टौ योजनानि विष्कम्भत: 'तावइयं चेवेति तावन्त्येवाष्टौ योगनानीतिभावः प्रवेशेन, 'सेया वरकणगथूभिया' इत्यादि प्रागुक्तद्वारवर्णनं तदेव तावद्वक्तव्यं यावदनमाला इति, तेषां च द्वाराणां पुरतः प्रत्येकं २ मुखमण्डपः प्रज्ञप्तः, ते च मुखमण्डपा एक योजनशतमायामतः पश्चाशत् योजनानि विष्कम्भतः सातिरेकाणि पोडश योजनानि ऊर्ध्वमुच्चैस्त्वेन, एतेषामपि 'अणेगखंभसयसंनिविट्ठा' इत्यादि वर्णनं सुधर्मसभाया इव निरवशेष द्रष्टव्यं, वेषां च मुखमण्डपानां पुरतः प्रत्येकं २ प्रेक्षागृहमण्डपः प्रज्ञप्तः, ते च प्रेक्षागृहमण्डपा आयामविष्कम्भोच्चैस्त्वैः प्राग्वत् तावद्वाच्यं यावन्मणीनां स्पर्शा, तेषां च बहुरमणीयानां भूमिभागानां बहुमध्यदेशभागे प्रत्येक २ बजमयोऽक्षपाटकः प्रज्ञप्तः, तेषां च बञमयानामक्षपाटकानां बहुमध्यदेशभागे प्रत्येकं २ मणिपीठिका अष्ट योजनान्यायामविष्कम्भाभ्यां चत्वारि योजनानि चाइल्येन-पिण्डभावेन सर्वात्मना मणिमया: 'अच्छाओ' इत्यादि विशेषणजातं प्रागिव । तासां च मणिपीठिकानामुपरि प्रत्येक सिंहासनं पक्षप्त, तेषां च सिंहासनानां वर्णनं परिवारश्च प्राम्बद्वक्तव्यः, तेषां च प्रेक्षागृहमाडपानामुपरि अष्टावष्टौ मङ्गलकानि बहवः कृष्णचामरध्वजा इत्यादि प्राग्वत, तेषां प्रेक्षागृहमण्डपानां पुरतः प्रत्येकं २ मणिपीठिका ममता, ताश्च मणिपीठिका प्रत्येक पोडश योजनान्यायामविष्कम्भाभ्यामष्टौ योजनानि वाहल्येन सर्वात्मना मणिमयाः 'अच्छा' इत्यादि विशेषणकदम्बकं प्राग्वत , तासां च मणिपीठिकानामुपरि प्रत्येकं २ चैत्यस्तूपः प्रज्ञप्तः, ते च चैत्यस्तूपाः षोडश योजनान्यायामविष्कम्भाभ्यां सातिरेकाणि पोटश योजनान्यूर्ध्वमुच्चस्त्वेन संखके 'त्यादि तवर्णनं मुग, तेषां च चैत्यस्तूपानामुपर्यष्टावष्टौ स्वस्तिकादीनि अनुक्रम [३६] 6940 ~ 182~ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) (१३) ---------- मूलं [३६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: Su H मलयनिरा प्रत जाति, एतच्च समस्तं जिनसपी सूत्रांक [३६] दीप अनुक्रम [३६] श्रीराजमा मालकानि 'जाय सहस्सपचहत्थया' इति- यावत्करणात 'तेसिं चेइयधूभाणं उप्पि बहवे किण्हचामरज्नया जार मुकिालचा- IALA | मण्डपस्तुप मरज्झया अच्छा सण्हा रुपपट्टवाइरदंडा जमलजामलगंधी सुरूवा पासाइया जाव पडिरूवा, वेसिं चेइयधूभाणं उणि पाये | प्रतिमाचैत्य या वृत्तिः क्षेन्द्रध्वज छत्ताइच्छत्ता पटाया घंटाजुगला उप्पलहत्थगा जाव सयसहस्सपत्तहत्थगा सबरयणामया जाव पडिख्वा' इति, एतच्च समस्तं *पाम्वत् । 'तेसि ण' मित्यादि, तेषां चैत्यस्नुपानां प्रत्येक २'चउदिसि ति चतुर्दिशि-चतसृषु दिक्षु एकैकस्यांनि 1 दिशि एकैकमणिपीठिकाभावेन चतस्रो मणिपीठिकाः प्रज्ञप्ताः अष्टौ योजनान्यायामविष्कम्भाभ्यां चत्वारि योजनानि |*०३६ वाहल्येन सर्वात्मना मणिमया अच्छा इत्यादि पावत, तासां च मणिपीठिकानामुपरि एकैकमतिमाभावेन चतस्रो ||| जिनमतिमा जिनोत्सेधप्रमाणमात्रा:, जिनोत्सेध उत्कर्पतः पश्च धनुशतानि जघन्यतः सप्त हस्ताः, इह तु पश्च धनुःशसानि संभाव्यन्ते, 'पलियंकसंनिसन्नाउ'इति पर्यङ्कासनसन्निषण्णाः, स्तूपाभिमुख्यः संनिक्षिप्ताः, तथा जगत्स्थितिस्वाभा- 17 व्येन सभ्यग्निवेशितास्तिष्ठन्ति, तद्यथा-ऋषभा बर्द्धमाना चन्द्रानना वारिषेणा इति, 'तेसि ण' मित्यादि, तेषां चैत्यस्तूपानां + पुरतः प्रत्येकं २ मणिपीठिकाः प्रजाता, वाश्च मणिपीठिकाः षोडश योजनान्यायामविष्कम्भाभ्यामष्टौ योजनानि बाइल्यतः। है'सबमणिमइओ' इत्यादि माग्वत, सासां च मणिपीठिकानामुपरि प्रत्येकं २ चैत्यक्षा अष्टौ योजनान्यूर्ध्वमुच्चस्त्वेनाईयो जनमुद्देधेन-उहत्वेन वे योजने उचैरत्वेन स्कन्धः स एवार्ध योजनं विष्कम्भतया बहुमध्यदेशभागे विडिमा-ऊर्ध्वं विनिर्गता शाखा सा ऊर्ध्वमुचस्त्वेन षड् योजनानि अटो योजनानि विष्कम्भेन सर्वाग्रेण सातिरेकेणाष्टौ योजनानि प्रशप्तास्तेषां च चैत्यक्षाणामयमेतद्रूपो वर्णावासः प्रज्ञप्तस्तद्यया-बहरामयमूला स्ययसुषइट्ठियविडिया' वाणि-वज्रमयानि मूलानि येषां | सा॥१०॥ ~ 183~ Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) (१३) --------- मूलं [३६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३६] 本字幕本字整本字 दीप ते वज्रमयमूला रजते सुप्रतिष्ठिता विडिमा-बहुमध्यदेशभागे ऊर्य विनिर्गता शाखा येषां ते रजतमुमतिष्ठित विडिमास्वतः | पूर्वपदेन कर्मधारयः समासा, 'रिद्वापयकंदे वेरुलियालखंधे' रिष्ठमयो-रिष्ठरत्नमयः कन्दो येषां ते रिष्ठमयकन्दाः , तथा | वैडूर्यरत्नमयो रुचिरः स्कन्धो येषां ते तथा, ततः पूर्वपदेन कर्मधारयः, 'सुजायवरजायरूबपढमगविसालसाला' सुजात-मूलद्रव्यशुद्धं वर-प्रधान यत् जातरूपं तदास्मकाः प्रथमका-मूलभूता विशालाः शाखा येषां ते सुजातवरजातरूपप्रथमकविशालशाला: 'नानामणिरयणविविहसाहप्पसाहबेरुलियपत्ततवणिजपत्तविंटा' इति नानामणिरत्नात्मिका विविधाः शाखाः प्रशाखा येषां ते तथा बैर्याणि-बडूयमयानि पत्राणि येषां ते तथा तपनीयमयानि परवन्नानि येषां ते तथा, ततः पूर्ववत् पदद्वयरमीलनेन 10 कर्मधारयः, 'जंपूणयरत्तमज्यसुकुमालपवालपल्लववरंकुरधरा' जाम्बूनदा-जाम्बूनदसुवर्णविशेषमया रक्ता-रक्तवर्णा मुदवः मनोज्ञाः सुकुमारा:-सुकुमारस्पः पवाला-ईषदुन्मीलितपत्रभावाः पल्लवा:-संजातपरिपूर्णप्रथमपत्रभावरूपा वराङ्करा-प्रथममु| द्भिद्यमाना अङ्कारास्तान धरन्तीति जाम्बूनदरक्तमदुसुकुमारप्रवालपल्लुबाङ्करपरा विचित्तमणिरयणसुरभिकुसुमफलभरे णनमियसाला' इति विचित्रमणिरत्नमयानि यानि सुरभीनि कुसुमानि फलानि च तेषां भरेण नमिताः शाला:-शाखा येषां ते तथा, तथा सती-शोभना छाया येषां ते सच्छायाः, सती-शोभना प्रभा-कान्तियेषां ते सत्मभा, अत एव सश्रीकाः, तथा सह उद्योतेन वर्तन्ते मणिरत्नानामुद्योतभावात् सोद्योता, अधिक नयनमनोनितिकरा अमृतरससमरसानि फलानि येषां ते तथा, 'पासाईया' इत्यादिविशेषणचतुष्टयं प्राग्वम् । एते च चैत्यक्षा अन्यैर्वहुभिस्तिलकलवकच्छत्रौपगशिरीषसप्तपर्णदधिपर्णलुधकधवलचन्दननीपकुटजपनसतालतमालप्रियालमियङ्गपारापतराजानन्दि सर्वतः समन्तात् संपरिलिप्ताः, ते च तिलका अनुक्रम [३६] Santarainindian ~ 184~ Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) (१३) ---------- मूलं [३६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः वीराजमनी मळयगिरीया वृत्तिः प्रत सूत्रांक [३६] दीप यावनन्दिरक्षा मूलमन्तः कन्दमन्त इत्यादि सर्वमशोकपादपवर्णनायामिव तावद्वक्तव्यं यावत् परिपूर्ण लतावर्णनं, 'तसि - मण्डपस्तूप मित्यादि, तेषां पैत्यक्षाणामुपरि अष्टावष्टौ मङ्गलकानि बहवः कृष्णचामरध्वजा इत्यादि चैत्यस्तूप इव तावद्वक्तव्यं यावद्वाहवा मतिमाचत्य सहस्रपत्रहस्तकाः सर्वरत्नमया यावत् प्रतिरूपका इति, 'तेसि ण' मित्यादि, तेषां च चैत्यक्षाणां पुरतः प्रत्येक मणिपीठिका प्रशताः, ताथ मणिपीठिका अष्टौ योजनान्यायामविष्कम्माभ्यां चत्वारि योजनानि चाहख्यतः 'सबरयणामईओ' इत्यादि | जिनसक्यो प्राग्वत्, तासां च मणिपीठिकानामुपरि प्रत्येक महेन्द्रध्वजाः मज्ञप्ता, तेच महेन्द्रध्वजाः पष्टियोजनान्य॒र्ध्वमुच्चैस्त्येन अर्द्धकोश-अ सू०३६ ईगव्यूतमद्वेषेन-अण्डत्येन अर्द्धक्रोश विष्कम्भतः 'बहरामयवलसंठियमुसिलिट्ठपरिघट्टमहसुपइडिया' इति वज्रमया-चत्ररत्नमया तथा री-वर्तुल लम्र-मनोई संस्थित-संस्थानं येषां ते वृत्तसहसंस्थितास्तथा मुश्लिष्ठा यया भवन्ति एवं TM परिघृष्टा इव खरशाणया पाषाणप्रतिमेव सुश्लिष्परिपृष्टाः मृष्टाः मुकुमारशाणया पाषाणमतिमावत् सुप्रतिष्ठिता मनागपि चलनासंभवात् , ततो विशेषणसमासः, 'अणेगवरपंचवन्नकुडभीसहस्सपरिमंडियाभिरामा वाउध्धूयविजयवेजयंतीपडागा छत्ताइच्छत्तकलिया तुंगा गगनतलमभिलंघमाणसिहरा पासाईया जावपडिरूवा' इति प्राग्वत् , 'तेसि ण' मित्यादि, तेषां महेन्द्रवजानामुपरि अष्टावष्टौ मालकानि बहवः कृष्णचामरध्वजा इत्यादि तोरणवत् सर्वं वक्तव्य, तेषां च महेन्द्रध्वजानां पुरतः प्रत्येक नन्दाभिधाना पुष्करिणी प्राप्ता, एक योजनशतमायामतः पश्चाशत् योजनानि विष्कम्भत द्वासप्ततियोजनान्यदेधेन-उपदोन, तासां च नन्दापुष्करिणीनां अछाओ सहाओ श्ययामयकूलाओ' इत्यादि वर्णनं माम्बत् , ताश्च नन्दापुष्करिण्यः प्रत्येकं २ पद्मयरवेदिकया प्रत्येकं २ बनखण्डेन परिक्षिप्ताः, तासां च नन्दा अनुक्रम [३६] SAREnatanixM 1Purasurare.org ~185~ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) --------- मूलं [३६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३६] पुष्करिणीनां प्रत्येकं त्रिदिशि त्रिसोपानप्रतिरूपकतोरणवर्णनं मागिव । 'सभाए णं सुहम्माए' इत्यादि, सभायां सुध. म्क्यामष्टचत्वारिंशन्मनोगुलिकासहस्राणि-पीठिकासहस्राणि मज्ञप्तानि, तद्यथा-पूर्वस्यां दिशि षोडश मनोगुलिकासहस्राणि, पोडश सहस्राणि पूर्वतः पोडश सहस्राणि पश्चिमायामष्टौ सहस्राणि दक्षिणतोऽष्टौ सहस्राणि उत्तरतः, तेष्वपि फलकनागदन्तकमाल्यदामवर्णनं प्राग्वत्, सिक्कगवर्णन धूपघटिकावर्णन द्वारवत् । 'सभाए णं सुहम्माए' इत्यादि, सभायां सुधर्मायाँ अष्टाचवारिंशत् गोमानसिका:-शय्यारूपस्यानविशेषास्तेषां सहस्राणि प्रजातानि, तद्यथा-घोडश सहस्राणि पूर्वत: षोडश सहस्राणि पधिमायामष्टौ सहस्राणि दक्षिणतोऽष्टौ सहस्राणि उत्तरतः, सास्वपि फलकवर्णन नागदन्तवर्णनं सिकगवर्णनं धूपVil घटिकावर्णनं च द्वारवत , 'सभाए णं सुहम्माए' इत्यादिना भूमिभागवर्णनं 'सभाए णं सुहम्माए ' इत्यादिना | all उल्लोकवर्णनं च पाम्बत् , 'तस्स ण' मित्यादि, तस्य बहुसमरमणीयस्य भूमिभागस्य बहुमध्यदेशभागेऽत्र महती एका मणिपीठिका | प्रज्ञप्ता, पोडश योजनान्यायामविष्कम्भाभ्यां अष्टौ योजनानि बाहल्यतः सर्वरत्नमयी इत्यादि पावत् , नस्याश्च मणिपीठिकाया | Cउपरि महानेको माणवकनामा चैत्यस्तम्भः प्रज्ञप्तः, पष्टियोजनान्यूर्ध्वमुचैरत्वेन योजनमुद्देन योजनं विष्कम्भेण अष्टाचत्वारिं शदस्रिक अडयालीसइकोडीए अडयालीसइविग्गहिए' इत्यादि सम्प्रदायगम्य, 'वहरामयवलठ्ठसंठिए' इत्यादि महेन्द्रध्वजवत् वर्णनं निरवशेष तायद्वक्तव्यं यावत् 'सहस्सपत्तहत्यगा सबरयणामया जाव पडिरूवा' इति, तस्य च माणवकस्य चैत्यस्तम्भस्य उपरि द्वादश योजनानि अवगाह्य, उपरितनभागात् बादश योजनानि वर्जयित्वेति भावः, अधस्तादपि बादश योजनानि वर्जयित्वा मध्ये पदिशति योजनेषु 'वहये सुवणरुप्पामया फलका' इत्यादि फलकवर्णनं नागदन्तवर्णनं सिककवर्णनं च OMG-24NE दीप अनुक्रम [३६] ~186~ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) प्रत सूत्रांक [३६] दीप अनुक्रम [३६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित. श्रीराजमश्री मलयगिरीया वृत्तिः ॥ ९२ ॥ Jin Eucator “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र - १ (मूलं + वृत्तिः ) 4688 मूलं [ ३६ ] आगमसूत्र [१३], उपांग सूत्र [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः प्राग्वत्, तेषु च रजतमयेषु सिक्केषु बहवो वज्रमया गोलवृत्ताः समुद्रकाः प्रज्ञप्ताः, तेषु च वज्रमयेषु समुद्रकेषु बहूनि जिनसक्नितिन ठति, यानि सूर्याभस्य देवस्य अन्येषां च बहूनां वैमानिकानां देवानां देवीनां च अर्चनीयानि चन्दनैः बन्दनीयानि स्तुत्यादिना पूजनीयानि पुष्पादिना माननीयानि बहुमानतः सत्करणीयानि वखादिना कल्याणं मङ्गलं दैवतं चैत्यमितिबुद्धचा पर्युपासनीयानि, 'तस्स णं चेइयखंभस्स उबरि बहवे अट्टट्ठमंगलगा' इत्यादि प्राग्वत् ॥ ( सू० ३६ ) तस्स माणवगस्त चेइयखंभस्स पुरच्छिमेणं एत्थ णं महेगा मणिपेढिया पण्णत्ता, अट्ट जोयणाई आयाम विक्खंभेण चत्तारि जोअणाहं बाहल्लेणं सद्दमणिमई अच्छा जाव पडिरुवा, तीसे णं मणिपेडियाए उवरिं एत्थ णं महेगे सीहासण० वण्णतो सपरिवारो, तस्स णं माणवगस्स चेहयखंभस्स पचत्वमेणं एत्थ णं महेगा मणिपेढिया पण्णत्ता अट्ट जोयणाई आयाम विक्खंभेणं चत्तारि जोयणाई बाहल्ले सङ्घमणिमई अच्छा जाव पडिवा, तीसे णं मणिपेढियाए उवरिं एत्थ णं महेंगे देवसयणिज्जे पण्णत्ते, तस्स णं देवसयणिज्जरस इमेघावे वण्णावासे पण्णत्ते, तंजहा--गाणामणिमया पडिपाया सोवन्निया पाया णाणामणिमयाई पायसीसगाई जंबूणयामयाई गतगाई णाणामणिमए विच्चे रपयामया तूली तवणिज्जमया गंडोवहाणया लोहियक्खमया बिब्बोयणा, से णं सयणिज्जे उभओ बिच्चोणं दुहतो उष्णते मज्झे णयगंभीरे सालिंगणवहिए गंगापुलिनवालुयाउद्दालसालिसए सुविरहयरयता उवचियखोमदुगुल्लपपडिच्छायणे रतंसुयसंवुए सुरम्मे आईणगरूयवरण For Penal Use On ~ 187 ~ माणवकस्तंभदेवशयनी यवर्णनम् | ॥ ९२ ॥ Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ---------- मूलं [३७] (१३) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सत्राक [३७] दीप अनुक्रम [३७] वणोयतूल फासे मउते ॥ (सू०३७)॥ 'तस्स ण' मित्यादि, तस्य माणवकस्य चैत्यस्तम्भस्य पूर्वस्यां दिशि अत्र महत्येका मणिपीटिका पझप्ता, सा च अष्टौ योजनान्पायामविष्कम्भाभ्यां चत्वाति योजनानि बाहल्येन 'सहमणिमया' इत्यादि प्राग्वत् । तस्याश्च मणिपीठिकाया * उपरि अब महदेकं देवशयनीय प्रज्ञ, तस्य च देवशयनीयस्य अयमेतद्पो वर्णावासो-वर्णकनिवेश: प्रज्ञप्तः, तद्यथा-नानामणि मया प्रतिपादा-मूलपादानां प्रति विशिष्टोपट्टम्भकरणाय पादा प्रतिपादाः, सौवर्णिकाः सुवर्णमयाः पादाः-मूलपादा, नानामणिमयानि पादशीर्षकाणि जाम्बूनदमयानि गात्राणि-ईपादीनि वज्रमया-बजरत्नापूरिताः सन्धयः 'नानामणिमये विच्चे' इति नानामणिमयं न्यून-विशिष्टवानं रजतमयी तूली लोहिताक्षमयानि 'बिब्बोयणा' इति उपधानकानि, आह च जीवाभिगममूलटीकाकारा-'पियोयणा-उपधानकान्युच्यनो इति, तपनीयमय्यो गण्डोपधानिकाः, 'से णं देवसयणिज्जे' इत्यादि, । तद्देवशयनीयं सालिङ्गनवनिक-सह आलिङ्गनवा -शरीरप्रमाणेनोपधानेन यत् तत्तथा, 'उभओ बिब्बोयणे' इति उभयत:उभौ-शिरोऽन्नपादान्तावाश्रित्य विब्बोयणे-उपधानं यत्र तत् उभयतो बिब्बोयणं 'दुहतो उन्नते' इति उभयत उन्नत 'मज्झेणयगंभीरे' मध्ये नतं च तत् निम्नत्वात् गम्भीरं च-महचानतगम्भीर गङ्गापुलिनवालुकाया अबदालो-विदलनं पादादि न्यासे अधोगमनमिति भावः तेन 'सालिसए' इति सदृशकं गङ्गापुलिनवालुकावदानसदृशक, दृश्यते चायं प्रकारो इसतूल्याCI दिविति, तथा 'उयविय' इति विशि परिकर्मितं शोम-कासिकं दुकूल-वस्त्रं तदेव पट्टा उयवियक्षौमदकूलपट्टः स प्रतिच्छदन-आच्छादनं यस्य तत्तथा ' आईणगरूयबूरनवणीयतूलफासे' इति प्राग्वत् , 'रत्तंमुयसंवुए' इति रक्तांके HARERucatunal ~ 188~ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ---------- मूलं [३८] (१३) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: श्रीराजमश्नी मलयगिरीया वृत्तिः लकमहेन्द अलवर्णनम प्रत सत्राक ॥९३ ॥ [३८ न संहतं रक्तांकसंवृतं अत एव सुरम्यं 'पासाइय' इत्यादिपदचतुष्टयं माग्वत् ॥ (मू०३७)॥ तस्स ण देवसयणिज्जस्स उत्तरपुरच्छिमेणं महेगा मणिपेढिया पण्णत्ता, अट्ठ जोयणाई आयाम- विजचोप्पा विक्खंभेणं चत्तारि जोअणाई बाहल्लेणं सबमणिमयी जाव पडिरूवा, तीसे ण मणिपेढियाए उवरि पत्थ ण महेगे खुट्टए महिंदज्झए पपणत्ते, सर्दि जोयणाई उर्दू उच्चत्तेणं जोयणं विक्खंभेणं यारामया ०३८ बहलढसंठिपसुसिलिट्ठजावपडिरूवा, उवरि अदृहमंगलगा झया छत्तातिच्छत्सा, तस्स खुदागमहिदमयस्स पश्चस्थिमेणं एत्थ णं सूरियाभस्स देवस्स चाप्पाले नाम पहरणकोसे पन्नत्ते सदवारामए अच्छे जाव पडिरूवे, तस्थ णं सरियाभस्स देवस्स फलिहरयणखग्गगयाधणुप्पमुहा बहवे पहरणरयणा संनिखित्ता चिट्ठति, उज्जला निसिया सुतिक्खधारा पासादीया ४। सभाए णं सुहम्माए उवरिं अट्ठमंगलगा झया छत्तातिच्छत्ता ।। (सू०३८) 'तस्स ण मित्यादि, तस्य देवशयनीयस्य उत्तरपूर्वस्यां दिशि अत्र महस्येका मणिपीठिका प्रज्ञप्ता, सा चाष्टी योजनान्यायामविष्कम्भाभ्यां चत्वारि योजनानि बाहल्यतः 'सबमणिमयी' इत्यादि पाम्बत् , तस्याच मणिपीठिकाया उपरि भ्रष्टको महेन्द्रध्वजः ममः, तस्य प्रमाणे वर्णकश्च महेन्द्रध्वजयद्वक्तव्यं, 'तस्स ण' मित्यादि तस्य क्षुल्लकमहेन्द्रध्वजस्य पश्चिमायापत्र सूर्याभस्य देवस्य महानेका चोप्पालो नाम पहरणकोश:-पहरणस्थानं प्रज्ञप्तं, किविशिष्ट ? इत्याह-"सदबहरामए अच्छे जावपडिरुवे' इति माग्वत्, 'तत्थ ण' मित्यादि, तत्र चोप्पालकाभिधाने प्रहरणकोशे बहूनि परिवरत्नखागदा दीप अनुक्रम [३८] ~ 189~ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) प्रत सूत्रांक [३८] दीप अनुक्रम [३८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. Jan Education T “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र - १ (मूलं + वृत्तिः ) 69 मूलं [३८] आगमसूत्र [१३], उपांग सूत्र [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः धनुःप्रमुखादीनि प्रहरणरत्नानि सन्निक्षिप्तानि तिष्ठन्ति कथंभूतानीत्यत आह-उज्ज्वलानि-निर्मलानि निशितानि --अतितेजितानि अत एव तीक्ष्णधाराणि प्रासादीयानीत्यादि प्राग्वत्, तस्याश्च सभायाः सुधर्माया उपरि बहून्यष्टावष्टौ मङ्गलकानीत्यादि सर्व प्राग्वक्तव्यम् ।। (सू० ३८ ) सभाए णं सुम्माए उत्तरपुरच्छिमेणं एत्थ णं महेंगे सिद्धायतणे पण्णत्ते, एगं जोयणसयं आया. मेण पन्नासंजोयणाई विक्खंभेण घावन्तरिं जोयणाई उर्दू उच्चतेणं सभागमेणं जाव गोमाणसियाओ भूमिभागा उल्लोया तहेव, तस्स णं सिद्धायतणस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महेगा मणिपेडिया पण्णत्ता, सोलस जोयणाई आयामविक्खंभेणं अट्ठ जोयणाई बाहल्लेणं, तीसे णं मणिपेडियाए उचरिं एत्थ णं महेंगे देवछंदर पण्णत्ते, सोलस जोयणाई आयाम विक्खंभेणं साइरेगाई सोलस जोयणाई उडे उच्चतेणं सव्वरयणामए जाब पडिवे, एत्थ णं असयं जिणपरिमाणं जिणुस्सेहप्पमाणमिताणं संनिखित्तं संचिति, तासि णं जिणपडिमाणं इमेयाख्वे वण्णावासे पण्णत्ते, तंजहातवणिमया हत्थतलपायतला अंकामयाई नक्खाई अंतोलोहियक्पडिसेगाई कणगामईओ जंघाओ कणगामया जाणू कणगामया ऊरु कणगामईओ गायलडीओ तवणिज़मयाओ नाभीओ रिहामहओ रोमराइओ तवणिज्जमया चुच्या तवणिज्जमया सिरिवच्छा सिलप्पबालमया ओट्टा फालियामया देता तवणिज्जमईओ जीहाओ तवणिज्जमया तालुया कणगामईओ नासिगाओ अंतो सिध्धायतन [ जिनालय) एवं शाश्वत-जिन प्रतिमायाः वर्णनं For Penal Use Only ~ 190 ~ andiarany org Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) (१३) --------- मूलं [३९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: श्रीराजपनी के मलयगिरी या वृत्तिः वर्णनम् 1 प्रत ॥१६॥ सूत्रांक [३९] दीप अनुक्रम [३९] लोहियक्खपडिसेगाओ अंकामयाणि अच्छीणि अंतोलोहियपखपडिसेगाणि रिद्वामईओ ताराओ A सिद्धायतन रिहामयाणि अच्छिपत्ताणि रिटामईओ भमुहाओ कगगामया कथोला कणगामया सवणा कणगा जिनप्रतिमा मईओ णिहालपहियाता बहरामईओ सीसघडीओ तवणिजमईओ केसंतकेसभूमीओ रिद्वामया सू०३९ उपरि मुखया, तासि मे जिणपडिमाणं पिट्टतो पत्तेयं २ छत्तधारगपडिमाओ पण्णताओ, ताओ णं छत्तधारगपडिमाओ हिमर ययकुंदेंदुष्पगासाई सकोरेंटमल्लदामाई धथलाई आयवत्ताई सलील धारेमाणीओ २ चिट्ठति, तासि णं जिणपडिमाणं उभओ पासे पत्तेयं २ चामरधारपडिमाओ पण्णताओ, ताभो णं चामरधारपडिमातो नानामणिकणगरयणविमलमहरिह जाच सलील धारेमाणीओ २ चिट्ठति, तासिणं जिणपडिमाणं पुरतो दो दो नागपडिमातो भूयपडिमातो जक्खपडिमाओ कुंडधारपडिमाओ सवरयणामईओ अच्छाओ जाव चिटुंति, तासि णं जिणपडिमाण पुरतो अट्ठसय घंटाणं अहसय कलसाणं अट्ठसयं भिंगाराणं एवं आयसाणं थालाणं पाईणं सुपइद्वाणं मणीगुलियाणं वायकरगाणं चित्तगरार्ण रयणकरंडगार्ण हयकठाणं जाय उसमकंठाणं पुष्फर्चगेरीण जाव लोमहत्थचंगेरीणं पुप्फपडलगाणं तेल्लसमुग्गाणं जाव अंजणसमुग्गाणं अहसयं धूवकदुच्छुयाणं संनिखि चिट्ठति, सिहायतणस्सणं उवरिंअट्टमंगलगा झया छत्तातिच्छत्ता॥ (म.३९॥ 'सभाए ण' मित्यादि, सभायाः सुधर्मायाः 'उत्तरपुरच्छिमेण ' मिति उत्तरपूर्वस्यां दिशि महदेकं सिद्धायतनं । 1 ॥९४॥ सिध्धायतन [जिनालय) एवं शाश्वत-जिन प्रतिमाया: वर्णनं ~191~ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ---------- मूलं [३९] (१३) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सुत्रांक [३९] दीप अनुक्रम [३९] मज्ञप्तम, एक योजनशतमायामतः पञ्चाशत् विष्कम्भतो द्वासप्ततिर्योजनान्यूर्ध्वमुच्चैस्त्वेनेत्यादि सर्व सुधर्मावत् वक्तव्यं यावत् गोमा-11 | नसीवक्तव्यता, तथा चाह- सभागमएण जाव गोमाणसियाओ' इति, किमतं भवति !-यथा सुधर्माया सभायाः पूर्वदक्षिणोत्तरवर्तीनि त्रीणि द्वाराणि तेषां च द्वाराणां पुरतो मुखमण्डपाः तेषां च मुखमण्डपानां पुरतः प्रेक्षागृहमण्डपाः तेषां | च प्रेक्षागृहमण्डपानां पुरतश्चैत्यस्तूपाः सप्रतिमाः तेषां च चैत्यस्तूपानां पुरतः चैत्यक्षाः तेषां च चैत्यक्षाणां पुरतो महेन्द्रध्वजाः तेषामपि पुरतो नन्दापुष्करिण्यस्तदनन्तरं गुलिका गोमानस्यश्वोक्ता तयाऽत्रापि सर्वमनेनैव क्रमेण निरवशेष वक्तव्यं, उल्लोकवर्णनं भूमिभागवर्णनं च माग्वत् , ' तस्स ण' मित्यादि, तस्य सिद्धायत नस्यान्तबहुमध्यदेशभागेऽत्र महत्येका मणिपीठिका | प्रज्ञता, सा षोडश योजनाम्यायामविष्कम्भाभ्यामष्टौ योजनानि वाइल्यतः 'सबमणिमयी' स्यादि मात । 'तीसे ण'-- मित्यादि, तस्याच मणिपीटिकाया उपरि अत्र महानेको देवच्छन्दकः प्रज्ञप्तः, स च पोदश योजनान्यायामविष्कम्भाभ्यां सातिरेकाणि पोडश योजनान्यूर्ध्वमुच्चस्त्वेन 'सबरयणामए' इत्यादि प्राग्वत् , तत्र च देवच्छन्दके 'अष्टशतं' अष्टाधिक शतं जिनप्रतिमानां जिनोत्सेधप्रमाणमात्राणां, पश्चधनुःशतप्रमाणानामिति भावः, सनिक्षिप्तं तिष्ठति । 'तासि णं जिणपडिमाण'मित्यादि, तासां जिनप्रतिमानामयमेतद्वपो 'वर्णावासो' वर्णकनिधेशः प्रज्ञमः, सपनीयमयानि हस्ततलपादतलानि भयरत्नमया अन्त:-मध्ये लोहिताक्षरत्नपतिसेका नखाः कनकमया जवाः कनकमयानि जानूनि कनकमया उरवः कनकमय्यो गात्रयष्टयः A| तपनीयमया नाभयो रिष्ठमण्यो रोमराजयः तपनीयमया: चुचुका:-स्तनाग्रभागाः तपनीयमयाः श्रीवृक्षाः शिलाप्रवालमया विद्रुममया ओष्ठाः स्फटिकमया दन्ताः तपनीयमया जिह्वा तपनीयमयानि तालुकानि कनकमय्यो नासिकाः अन्तलोंहिताक्षण सिध्धायतन (जिनालय] एवं शाश्वत-जिन प्रतिमाया: वर्णनं ~192~ Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) प्रत सूत्रांक [३९] दीप अनुक्रम [३९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. श्रीराजमनी मलयगिरीया वृचिः ॥ ९५ ॥ Education Inta K<>4450-430%-450-18043444549-6 “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र - १ (मूलं + वृत्तिः ) * मूलं [ ३९ ] आगमसूत्र [१३] उपांग सूत्र [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः तिसेकाः अङ्कमयान्यक्षीणि अन्तर्लोहिताक्षप्रतिसेकानि रिष्ठरत्नमयानि अक्षिपत्राणि रिष्ठरत्नमय्यो ध्रुवः कनकमयाः कपोलाः कनकमयाः श्रवणाः कनकमय्यो ललाटपट्टिकाः वज्रमय्यः शीर्षघ टिकाः तपनीयमय्यः केशान्त केशभूमयः, केशान्तभूमयः केशभूमयश्चेति भावः, रिष्ठमया उपरि मूर्द्धजाः केशाः, तासां जिनमतिमानां पृष्ठत एकैका छत्रधारमतिमा हिमरजत कुन्देन्दुप्रकाशं सकोरेण्टमाल्या दिधवलमातपत्रं गृहीत्वा सलीलं धरन्ती तिष्ठति तथा तासां जिनप्रतिमानां प्रत्येकमुभयोः पार्श्वयोद्वे द्वे चा मरधारप्रतिमे मते, वे च 'चंदप्पभवय रवेरुलियनानामणिरयणस्खचियचित्तदंडाओ' इति चन्द्रमभः- चन्द्रकान्तो वज्रं वैड्यै च प्रतीतं चन्द्रमभवजवैर्याणि शेषाणि च नानामणिरत्नानि खचितानि येषु दण्डेषु ते तथा एवंरूपा चित्रा नानाप्रकारा दण्डा येषां तानि तथा सूत्रे स्त्रीत्वं प्राकृतत्वात्, 'सुहमरययदीहवालाउ' इति सूक्ष्मा रजतमया दीर्घा वाला येषां तानि तथा 'संखंककुंदद्गरयअभयमहियफेणपुंज सन्निकासाओ धवलाओ' इति प्रतीतं, चामराणि गृहीत्वा सलील बीजयन्यस्तिष्ठन्ति, ताथ 'सहरयणामईओ अच्छाओ' इत्यादि भाग्वत्, 'तासि ण' मित्यादि, तासां जिनप्रतिमानां पुरतो द्वे द्वे नागमति द्वे द्वे यक्षपतिमे द्वे द्वे भूतप्रति द्वे द्वे कुण्डधारप्रतिमे सन्निक्षिप्ते तिष्ठतः तस्मिँश्च देवच्छन्दके तासां जिनमतिमानां पुरतः अष्टशतं घण्टानामष्टशतं चन्दनकलशानामष्टशतं मङ्गलकलशानामष्टशतं भृङ्गाराणामट्टशतमादर्शनामष्टशतं स्थालानामष्टशतं पात्रीणामष्टशतं सुप्रतिष्ठानामष्टशतं मनोगुलिकानां पीठिका विशेषाणामष्टशतं वातकरकाणामष्टशतं चित्राणां रत्नकरण्डकाणामष्टशतं हयकण्ठानामष्टशतं गजकण्ठानां अष्टशतं नरकण्डानामष्टशतं किन्नरकण्डानामष्टशतं किंपुरुषकण्ठानामष्टशतं महोरगकण्ठानामष्टशतं नृपभकण्ठानामष्टशतं पुष्पचङ्गेरीणामष्टशतं माल्यचङ्गेरीणां, मुकुलानि पुष्पाणि ग्रथितानि माल्यानि, सिध्धायतन [ जिनालय) एवं शाश्वत- जिन प्रतिमायाः वर्णनं For Parka Use Only ~ 193~ सिद्धायवन जिनमतिमा वर्णनम. * सू० १९ ॥ ९५ ॥ andrary.org Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) प्रत सूत्रांक [३९] दीप अनुक्रम [३९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. Jan Education T “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र - १ (मूलं + वृत्तिः ) 14014-4014-10-2013-10-04 मूलं [ ३९ ] आगमसूत्र [१३], उपांग सूत्र [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः अष्टशतं चूर्णचद्वेरीणामष्टशतं गन्धचङ्गेरीणामष्टशतं वखचङ्गेरीणामष्टशतमाभरणचङ्गेरीणामष्टशतं सिद्धार्थचरीणामष्टशतं लोमहस्तचङ्गेरीणां, अष्टशतं लोमहस्तकानां लोमहस्तकं च मयूरपुच्छपुञ्जनिका, अष्टशतं पुष्पपटलकानामेवं माल्यचूर्णगन्धवस्त्राभरणसि द्धार्थकलो महस्तकपटलकानामपि प्रत्येकं २ अट्टशतं वक्तव्यं, अष्टशतं सिंहासनानामष्टशतं छत्राणामष्टशतं चामराणामष्टशतं तैलसमुद्रका नामष्टशतै कोष्ठसमुद्र कानामष्टशतं पत्रसमुद्ग कानामष्टशतं चोयकसमुद्गकानामष्टशतं तगरसमुद्गकानामष्टशतमेलासमुद्गकानामशतं हरितालसमुद्गकानामष्टशतं हिङ्गुलकसमुद्गकानामष्टशतं मनःशिलासमुद्गकानामष्टशतमञ्जनसमुद्गानां सयपि अनि तैलादीनि परमसुरभिगन्धोपेतानि, अष्ठशतं ध्वजानाम्, अत्र सङ्ग्रहणिगाथा - " चंदण कलसा भिंगारगा य आसया य थाला य । पातीई सुपरट्ठा मणगुलिका वायकरगा य ॥ १ ॥ चित्ता रयणकरंडा हयगयनरकंठगा य चंगेरी । पढलगसीहासणछत्त चामरा समुगक शया य || २ || अष्टशवं धूपकटुच्छुकानां संनिक्षिप्तं विद्वति, तस्य च सिद्धायतनस्य उपरि अष्टाष्टौ मङ्गलकानि ध्वजच्छत्रातिच्छत्रादीनि तु प्राम्यत् ॥ (० ३९ ) ॥ तरसणं सिद्धायतणस्स उत्तरपुरच्छिमे णं एत्थ णं महेगा उववायसभा पण्णत्ता, जहा सभाएं सुह म्माए तहेब जाब मणिपेडिया अट्ठ जोयणाई देवसयणिजं तहेव सवणिजवण्णओ अट्टमंगलगा शया छत्तातिच्छन्ता । तीसे णं उबवायसभाए उत्तरपुरच्छिमेणं एत्थ णं महेंगे हरए पण्णत्ते एवं जोयणसयं आयामेण पण्णासं जोयणाई विक्खंभेणं दस जोयणाई उदेद्देणं तहेच, तस्स णं हरयस्स उत्तरपुरच्छिमे एत्थ णं महेगा अभिसेगसभा पण्णत्ता, सुहम्मागमएणं जाव गोमाणसियाओ मणिपेढिया सिध्धायतन [ जिनालय) एवं शाश्वत- जिन प्रतिमायाः वर्णनं For Parts Only ~ 194~ 癸 安安本辛 org Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) प्रत सूत्रांक [४०] दीप अनुक्रम [४०] “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र - १ (मूलं + वृत्तिः ) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित. श्रीरामश्री मलयगिरीया वृत्तिः ॥ ९४ ॥ मूलं [४०] आगमसूत्र [१३], उपांग सूत्र [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः सोहासणं सपरिवारं जाव दामा चिठ्ठति, तत्थ णं सूरियाभस्स देवस्स बहुअभिसेयभंदे संनिखित्ते चिह्न, अट्टमंगलगा तहेब, तीसे णं अभिसेगसभाए उत्तरपुरच्छिमेणं एत्थ णं अलंकारियसभा पण्णत्ता, जहा सभा सुधम्मा मणिपेढिया अट्ठ जोयणाई सीहासणं सपरिवारं तत्थ णं सूरियाभरत देवस्स सुबहु अलंकारियभंडे संनिखित्ते चिट्ठति, सेसं तहेब, तीसे णं अलंकारियसभाए उत्तरपुरच्छिमे णं एत्थ णं महेगा ववसायसभा पण्णत्ता, जहा उबवायसभा जाय सीहासणं सपरिवार मणिपेडिया अट्टमंगलगा०, तत्थ णं सूरिया भत्स देवस्स एत्थ णं महंगे पोत्थयरयणे सन्निखिने चिह्न, तरसणं पोत्ययरयणस्स इमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते, तंजहारयणामचाइ पत्तगाई रिहाइयो कंविआओ तवणिजमए दोरे नाणामणिमए गंठी वेरुलियमए लिप्पासणे रिट्ठामए छेदणे तवणिजमई संकला रिट्ठामई मसी वइरामई लेहणी रिामयाई अक्खराई धम्मिए सत्थे, ववसायसभाए णं बरिं अट्टमंगलगा, तीसे णं ववसायसभाए उत्तरपुरच्छिमेणं एत्थ णं नंदापुक्खरिणी पण्णत्ता हरसरिसा, तोसे णं णंदाए पुक्खरणीए उत्तरपुरछिमेणं महेंगे बलिपीढे पण्णत्ते सहरयणामए अच्छेजाव पडिरूये | ( सृ० ४० ) ॥ तस्य च सिद्धायतनस्य उत्तरपूर्वस्यामत्र महत्येका उपपातसभा प्रज्ञप्ता, तस्याश्च सुधर्मागमेन स्वरूपवर्णनपूर्वादिद्वारवर्णनमुखमण्डप प्रेक्षागृह मण्डपादिवर्णनादिमकाररूपेण तावद्वक्तव्यं यावदुल्लोकवर्णनं, तस्याथ बहुसमरमणीय भूमिभागस्य For Parts Only ~195~ उपपातादि ॐ सभावर्णनम् मृ० ४० ॥ ९६ ॥ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) प्रत सूत्रांक [४०] दीप अनुक्रम [४०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. Etication in “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र - १ (मूलं + वृत्तिः ) 808449) ००१७ 4000 46801095 मूलं [४०] आगमसूत्र [१३], उपांग सूत्र [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः मध्यदेश भागे महत्येा मणिपीठिका प्रज्ञप्ता, सा चाष्टौ योजनान्यायापविष्कम्भाभ्यां चखारि योजनानि बाहल्येन 'स मणी' इत्यादि प्राग्वत्, तस्याथ मणिपीठिकाया उपरि अत्र महदेकं देवशयनीवं ज्ञतं, तस्य स्वरूपं यथा सुधर्मायाँ सभायां देवशयनीयस्य तस्या अप्युपपातसभायाः उपरि अष्टाष्टमङ्गलकादीनि प्राग्वत् । 'तासे ण' मित्यादि, तस्या उपपातसभाया उतरपूर्वस्यां दिशि महानेको हदः प्रज्ञतः स चैकं योजनशतमायापतः पञ्चाशत् योजनानि विष्कम्भतो दश योजनान्युद्वेधेन 'अच्छे रपयामयकूले' इत्यादि नन्दापुष्करिण्या इव वर्णनं निरवशेष वक्तव्यं, 'से णमित्यादि, स हद एकया पद्मवश्वेदिकया एकेन च वनखण्डेन सर्वतः समन्तात् संपरिक्षिप्तः पद्मवरवेदिकावर्णनं वनखण्डवर्णनं च प्राग्वत्वस्य हृदस्य त्रिदिशि निसृषु दिधु त्रिसोपानपतिरूपकाणि मज्ञप्तानि तेषां च त्रिसोपानप्रतिरूपकाणां तोरणानां च वर्णनं प्राग्वत्, तस्य च इहस्य उत्तरपूर्वस्यां दिशि अत्र महत्येका अभिषेकसभा प्रज्ञप्ता, सा च सुधर्मसभावत् प्रमाणस्वरूपद्वारत्रयमुखमण्डपादिप्रकारेण तावद्वक्तव्या यावद् गोमानसीवक्तव्यता, तदनन्तरं तथैव उल्लोकवर्णनं भूमिभागवर्णनं च तावत् यावन्मणीनां स्पर्शः, तस्या अभिषेकसभाया बहुसमरमणीयस्य भूमिभागस्य बहुमध्यदेशभागे महत्येका मणिपीठिका | प्रज्ञप्ता, साऽप्यष्टौ योजनान्यायामविष्कम्भाभ्यां चत्वारि योजनानि वादल्पतः 'सहरयणामयी' इत्यादि प्राग्वत्, वस्या मणिपीठिकाया उपरि अत्र महदे सिंहासन, सिंहासनवर्णकः प्राग्वत्, नवरमत्र परिवारभूतानि भद्रासनानि च वक्तव्यानि, तस्मिँश्च सिंहासने सूर्याभस्य देवस्य सुबहु अभिषेकभाण्डम्-अभिषेकयोग्य उपस्कारः सन्निक्षिप्तः तिष्ठति, 'तीसे णं अभिसेयसभाए अट्टमंगलका ' इत्यादि प्राग्वत्, तस्याच अभिषेकसभाया उत्तरपूर्वस्यां दिशि अत्र महत्येका अलङ्कार For Parts Only ~ 196 ~ nary.org Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ---------- मूलं [४०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: | जिनस ध्यादीना प्रत सुत्रांक [४०] सकतव्यता. सू०४१ श्रीराजपनी सभा प्रज्ञाप्ता, सा चाभिषेकसभावत् प्रमाणस्वरूपद्वारत्रयमुखमण्डपप्रेक्षागृहमण्डपादिवर्णनप्रकारेण तावद्वक्तव्या यावद् परिवारमलयगिरी सिंहासनं, तत्र सूर्याभस्य देवस्य अलङ्कारिक-अलङ्कारयोग्य भाष्डं संनिक्षिप्तमस्ति, शेष भाग्वत् । तस्याश्च अलङ्कारसमाया या वृत्तिः । उत्तरपूर्वस्यां दिशि अत्र महत्येका व्यवसायसभा प्रज्ञप्ता, सा च अभिषेकसभावत् प्रमाणस्वरूपदारत्रयमुखमण्डपादिवर्णनम॥२७॥ कारेण तोवद्वक्तव्या यावत् सिंहासन सपरिवार, सत्र महदेकं पुस्तकरत्नं सन्निक्षिप्तमस्ति, तस्य च पुस्तकरत्नस्य अयमेत द्रपो 'वर्णावासो' वर्णकनिवेशः प्राप्तः, रिष्ठमय्यौ-रिष्ठरत्नमय्यौ कम्बिके पृष्ठके इति भावः, रत्नमयो दवरको यत्र पत्राणि प्रोतानि सन्ति, नानामणिमयो ग्रन्थिः दवरकस्यादौ येन पत्राणि न निर्गच्छन्ति, अङ्करत्नमयानि पत्राणि, नानामणिमयं लिव्यासनं, मपीभाजनमित्यर्थः, सपनीयमयी शृङ्खला मषोभाजनसत्का, रिष्ठरत्नमयं उपरितनं वस्य छादन, सारिष्टमयी-रिष्ठरत्नमयी मयी, वज्रमयी लेखनी, रिष्ठमयान्यक्षराणि, धार्मिक लेख्य, कचित्-'धम्मिए सत्थे' इति पाठः, तत्र धार्मिक शास्त्रमिति व्याख्येय, तस्याच उपपावसभाया उत्तरपूर्वस्यां दिनि महदेकं वलिपीठं प्रज्ञत, तचाष्टौ योजनानि आया| मविष्कम्भतः चत्वारि योजनानि बाहल्यतः सर्वरत्नमयं 'अच्छ' मित्यादि माग्वत् । तस्य च बलिपीठस्य उत्तरपूर्वस्यां दिशि अत्र महत्येका नन्दापुष्करिणी प्रज्ञप्ता, सा च हृदप्रमाणा, हृदस्येव च तस्या अपि त्रिसोपानवर्णनं तोरणवर्णनं च प्राग्वत् (मू. ४०)॥ तदेवं यत्र याहरारूपं च सूर्याभस्य देवस्य विमानं तत्र ताहन चोपवणित, सम्पति सूर्याभो देव उत्पन्न: सन् यदकरोत् यथा च तस्याऽभिषेकोऽभवत् तदुपदर्शपति तेणं कालेणं तेणं समएणं सूरियाभे देवे अहुणोववष्णमित्तए चेव समाणे पंचविहाए पजत्तीए 本部本多姿令影本等4人全本 दीप अनुक्रम [४०] ॥ ९७ REaratinintillated ~197~ Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ---------- मूलं [४१-४२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४१-४२] दीप अनुक्रम [४१-४२]] पजतीभावं गच्छा, तंजहा-आहारपजत्तीए सरीरपजत्तीए इंदियपज्जतीए आणपाणपजत्तीए भासामणपज्जत्तीए, तए णं तस्स सूरियाभस्स देवरस पंचविहाए पज्जत्तीए पजत्तीभावं गपस्स समाणस्स इमेयारूवे अभत्थिए चितिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुपज्जित्था-किं मे पुर्विकरणि? कि मे पच्छा करणिज? किं मे पुरि सेय? कि मे पच्छा सेयं ? किं मे पुविपि पच्छावि हियाए सुहाए खमाए णिस्सेसाए आणुगामियत्ताए भविस्सइ,तए णं तस्स सूरियाभस्स देवस्स सामाणियपरिसोववनगा देवा सूरियाभस्स देवस्स इमेयारूवमन्भत्थियं जाव समुप्पन्नं समभिजाणित्ता जेणेव सूरियाभे देवे तेणेव उवागच्छंति, सूरियाभं देवं करयलपरिग्गहियं सिरसावत् मत्थए अंजलिं कहु जएणं विजएणं वजाविन्ति वढावित्ता एवं वयासी-एवं खलु देवाणुपियाण मूरियाभे विमाणे सिद्धायत सि जिणपडिमाणं जिणुस्सेहपमाणमित्ताणं अट्ठसयं संनिखितं चिट्ठति, सभाए ण सुहम्माए माणवए चेहए खंभे बहरामएसु गोलबहसमुग्गएस बहओ जिणसकहाओ संनिखित्ताओ चिट्ठति, ताओ णं देवाणुप्पियाणं अण्णेसिं च बहुणं वेमाणियाणं देवाण य देवीण य अञ्चणि जाओ जाव पज्जुवासणिज्जाओ, तं एयं णं देवाणुप्पियाणं पुर्वि करणिजं, ते एयं ण देवाणुप्पियाणं पच्छा करणिज्जतं एयण देवाणुप्पियाणं पुरि सेयं त एयण देवाणुप्पियाणं पच्छा सेयं ते एयं णं देवाणुप्पियाणं पुििप पछावि हियाए सुहाए खमाए निस्सेसाए आणुगामिपत्ताए भविस्सति ॥ (सू०४१)। 本乎本本部本部本部本字交字本 INTHIamurary.om ~ 198~ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ---------- मूलं [४१-४२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: श्रीराजपनी मलयगिरीया वृत्तिः ॐ भूर्याभस्याभिषेक ४२ प्रत सूत्रांक [४१-४२] ॥९८॥ 乎本本語本字部品本宫本空》 दीप अनुक्रम [४१-४२]] तए णं से सरियाभे देवे तेसिं सामाणियपरिसोववन्नगाणं देवाणं अतिए एयमहूँ सोचा निसम्म हतुट्ठ जाव हयहियए सयणिजाओ अन्भुट्टेति सयणिजाओ अब्भुढेत्ता उववायसभाओ पुरच्छिमिल्लेणं दारेणं निग्गच्छा, जेणेव हरए तेणेव उबागच्छति, उवागच्छित्ता हरय अणुपयाहिणीकरेमाणे० करेमाणे पुरच्छिमिल्लेणं तोरणेणं अणुपविसइ अणुपविसित्ता पुरच्छिभिल्लेणं तिसोवाणपडिरूवएणं पचोरुहइ पचोरुहिता जलाधगाहं जलमज्जणं करेइ २ जलकिहुं करेइ २ जलाभिसेयं करेइरआयते चोक्खे परमसुईभूए हरयाओ पच्चोत्तरह २ जेणेव अभिसेयसभा तेणेव उवागच्छति तेणेव उवागच्छिता अभिसेयसभं अणुपयाहिणीकरमाकरेमाणे पुररिछमिल्लेणं दारेणं अणुपचिसइ २ जेणेव सीहासणे तेणेव उवागच्छइ २ सीहासणवरगए पुरत्याभिमुहे सन्निसन्ने । तए णं सूरियाभस्स देवस्स सामाणियपरिसोववत्रागा देवा आभिओगिए देवे सद्दाति सदायित्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो ! देवाणुप्पिया! सूरियाभस्स देवस्स महत्थं महग्छ महरिह चिउलं इंदाभिसेयं उखट्ठवेह, तए णं ते आभिओगिआ देवा सामाणियपरिसोववन्नेहिं देवेहिं एवं बुत्ता समाणा हट्ठा जाब हियया करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कह एवं देवी ! तहत्ति आणाए विणएणं वयणं पडिसुणंति,पडिमुणित्ता उत्तरपुरच्छिमंदिसीभार्ग अवकमंति,उत्तरपुरच्छिमं दिसीभार्ग अवकमित्ता बेउवियसमुग्धारण समोहणंति समोहणिता संखेजाई जोयणाई जाव दोश्चपि बेउवियसमुग्धारण ॥९८॥ HERanaurary.orm सूर्याभदेवस्य अभिषेकस्य वर्णनं ~199~ Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) प्रत सूत्रांक [ ४१-४२] दीप अनुक्रम [ ४१-४२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित. *Q91% 1990409) ७०*०-० anantation “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र - १ (मूलं + वृत्तिः ) सूर्याभदेवस्य अभिषेकस्य वर्णनं मूलं [४१-४२] आगमसूत्र [१३], उपांग सूत्र [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः समोहणिता अट्टसहस्सं सोनियाण कलसाणं १ अट्ठसहस्सं रुप्पमयाणं कलसाणं २ अट्ठसहस्सं म णिम याणं कलसाणं ३ अगसहस्सं सुवण्णरुप्पमयार्ण कलसाणं ४ अट्टसहस्सं सुवन्नमणिमयाणं कलसा ५ असहस्सं रुप्पमणिमयाणं कलसाणं ६ अट्टसहस्सं सुवण्णरुप्पमणिमयाणं कलसाणं७ अहसहस्स भोमिना कल साणं ८, एवं भिंगाराणं आसाणं थालीणं पाईणं सुपतिद्वाणं रयणकरंडगाणं पुष्पचंगेरीणं जाव लोमहत्वचंगेरीगं पुप्फपडलगागं जाव लोमहत्धवडलगाण छत्ताणं चामराणं तेल्लसमुग्गाणं जाव अंजणसमुग्गाणं अट्ठसहस्सं धूवकडुच्छ्रयाणं विति विउवित्ता ते साभाविए य वेउचिए य कलसे य जाव कटुच्छुए य गिंति गिण्हित्ता सूरियाभाओ विमाणाओ पडिनिक्खमंति पडिनिक्खमिता ताए उकिट्ठाए चबलाए जाव तिरियमसंखेजाणं जाव वीतिवयमाणे वीतिवयमाणे जेणेव खीरोदयसमुद्दे तेणेव उवागच्छेति उवागच्छित्ता खीरोयगं गिव्हंति जाई तत्थुप्पलाई ताई पति जावस सहस्स पत्ताई गिण्हति २ जेणेव पुक्खरोदए समुद्दे तेथेच उवागच्छति उवागच्छित्ता पुक्खरोदयं पति गिहिता जाई तत्धुप्पलाई सयसहस्सपताई ताई जाब गिण्हंति गिव्हिसा जेणेव समयखेते जेणेव भरहेरवयाई वासाई जेणेव मागहवरदामवभासाईं तित्थाई तेणेव उवागच्छंति तेणेव उवागच्छित्ता तित्थादगं गे० गेहेत्ता तित्थमहियं गेहति २ जेणेव गंगा सिंधुरतार चवईओ महानईओ तेणेव उवागच्छति २ सलिलोदगं गेण्हति सलिलोदगं गेव्हित्ता उभओकूलमहिये गेण्छति For Pale Only ~200~ 4546484000-44480 ror Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ---------- मूलं [४१-४२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: श्रीराजप्रश्नी * मलयगिरीया वृत्तिः भिषेक सू०४२ ॥ ९९ ॥ प्रत सूत्रांक [४१-४२ दीप अनुक्रम [४१-४२]] महियं गेण्हित्ता जेणेव चुल्लहिमवंतसिहरीवासहरपचया तेणेब उवाागच्छंति तेणेव उवागच्छित्ता दगं गेण्हति सदतुयरे सदपुप्फे सदगंधे सघमल्ले सदोसहिसिस्थए गिव्ह ति गिरिहत्ता जेणेव पउमपुंडरीयदहे तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता दहोदगं गेहंति गेण्हिता जाई तस्थ उप्पलाई जाव सयसहस्सपत्ताई ताई गेयहं ति गरिहत्ता जेणेव हेमवयएरवयाई बासाई जेणेव रोहियरोहियंसासुवण्णकूलरूपपकूलाओ महाणईओ तेगेव उबागच्छंति, सलिलोदगं गेहंति २ उमओकूलमहियं गिण्हंति२ जेणेव सहायतिवियडावतिपरियागा बहवेयपध्या तेणेव उवागच्छन्ति उबागरिछत्ता सपतुपरे तहेव जेणेव महाहिमवंतरुप्पिवासहरपचया तेणेव उवागच्छति तहेब जेणेव महापउममहापुंडरीयदहा तेणेष उवागच्छंति उवागच्छिचा दहोदगं गिव्हंति तहेव जेणेव हरियासरम्मगवासाइं जेणेव हरिकंतनारिकताओ महाणईओ तेणेव उवागच्छति तहेव जेणेव गंधावइभाल. वंतपरियाया वड्वेय पद्यया तेगेव तद्देव जेणेव णिसढणीलवंतवासधरपाया तहेव जेणेब तिगिच्छिकेसरिद्दहाओ तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता तहेव जेणेव महाविदेहे वासे जेणेव सीतासीतादाओ महाणदीओ तेणेव तहेव जेणेव सवयशवदिविजया जेणेय सदमागहवरदामपभासाई तित्थाई तेणेव उवागच्छंति ते गेव उवागच्छित्ता तित्वोदगं गेपहंति णिहत्ता सांतरणईओ जेणेव सावक्खारपाया ते गेव उवागच्छति सन्तुयरे तहेव जेगेव मंदरे पदते जेगेच भद्दसालवगे 於4字春游本字變了我父之中(中英字 ॥ ९९॥ JmEdustan MERayium सूर्याभदेवस्य अभिषेकस्य वर्णनं ~ 201~ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ---------- मूलं [४१-४२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४१-४२] दीप अनुक्रम [४१-४२]] तेणेव उवागच्छति सातुयरे सयपुप्फे सदमल्ले सबोसहिसिद्धत्थए य गेण्हति गेण्हित्ता जेणेव णंदणवणे तेणेव उवागच्छति उवागन्छित्ता सक्तयरे जाव समोसहिसिडथए य सरसगोसीसचंदणं गिपहंति गिपिहत्ता जेणेव सोमणसवणे तेणेव उवागच्छंति सन्तुयरे जाव सबोसहि सिद्धत्थए य सरसगोसीसचंदणं च दिवं च सुमणदाम दद्दरमलयसुगंधिए य गंधे गिण्हंति गिणिहत्ता एगतो मिलायति २ता ताए उक्किट्ठाए जाव जेणेव सोहम्मे कप्पे जे गेव सूरियाभे विमाणे जेणेय अभिसेयसभा जे गेव सूरियाभे देवे तेगेव उवागच्छति उचागरिछना भूरिया देवं करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कह जएणं विजएणं वडाविति वढावित्ता तं महत्थं महग्धं महरिहं विउलं इंदाभिसेय उवट्ठति । तरण तं सूरियाभं देवं चत्तारि सामाणियसाहस्सीओ अग्गमहिसीओ सपरिवारातो तिन्नि परिसाओ सत्त अणियाहिवइणो जाव अन्नेवि यहवे सरियाभविमाणवासिणो देवा च देवीओ य तेहिं साभाविएहि य वेविएहि य वरकमलपट्टाणेहि य सुरभिचरवारिपडिपुन्नेहिं चंदणकयचचिएहि आविड कंठेगुणेहि पउमुप्पलपिहाणेहिं सुकुमालकोमलकरयलपरिग्गहिएहिं अट्ठसहस्सेणं सोवनियाणं कलसाणं जाव अहसहस्सेणं भोमिजाणं कलसाणं सब्बोद. एहिं सबमहिपाहिं सब्बतूपरेहिं जाव सब्बोसहिसिद्धत्थपहिय सविड्ढीए जावं वाइएणं महया २ इंदाभिप्तेएणं अभिसिंचंति, तए णं तस्स सूरियाभस्स देवस्स महयार इंदाभिसेए वद्दमाणे अप्पे SARERainintamatuania सूर्याभदेवस्य अभिषेकस्य वर्णनं ~ 202~ Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ---------- मूलं [४१-४२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: सूर्याभस्या श्रीराजप्रश्नी मलयगिरीया वृत्तिः "भिषेक मू०४२ ॥१०॥ प्रत सूत्रांक [४१-४२] गतिया देवा मरिया विमाणं नच्चोयगं नातिमट्टियं पविरलफुसियरयरेणुविणासणे दिव्यं सुरभि. गंधोदगं वासं वासंति,अप्पेगतिया देवाहयरयं नहरयं भट्टरयं उवसंतरयं पसंतरयं करेंति,अप्पेगतिया देवा मूरिया विमाणं आसियसंमजिओवलितं सुइसमहरत्यंतरावणवीहियं करेंति, अप्पेगतिया देवा मुरिया विमाणं मंचाइमंचकलियं करेंति, अप्पेगइयो देवा सूरियाभं विमाणं णाणाविहरागोसियं झयपडागाइपडागमंडियं करेंति अप्पेगतिया देवा मूरियाभं विमाणं लाउल्लीइयमहियं गोसीससरसरत्तचंदणदरदिष्णपंचंगुलितलं करेंति अप्पेगतिया देवा मूरियाभ विमाण उवचियचंदणकलसं चंदणघडसुकयतोरणपडिदुवारदेसभागं करेंति, अप्पेगतिया देवा सरियाम विमाणं आसत्तोसत्तविउलय वग्धारियमल्लदामकलावं करेंति अप्पेगतिया देवा सूरियाभ विमाण पंचवणसुरभिमुकपुष्फपुंजोवयारकलियं करेंति, अप्पेगतिया देवा सरियाभ कालागुरुपवरकंदरूकतुरुकधूवमघमघेतगंधुधूयाभिरामं करेंति, अप्पेमइया देवा मूरियाभ विमाणे सुगंधगंधियं गंधवधिभूतं करेंति अप्पेगतिया देवा हिरपणवासं वासंति सुवल्पावासं वासंति रययवासं वासंति वइरवासं० पुष्फवासं०फलवासं०मल्लवासंगंधवासं चुण्णवासं०आभणवासं वासंति अपंगतिया देवा हिरणविहिं भाएंति,एवं सुवन्नविहि भाएंति रयण विहिं पुप्फविहि फल विहिं मल्लविहिं चुपणविहि वत्थविहिंगंधविहिं०,तत्थ अप्पेगतिया देवा आभरणविहिभाएंति,अध्यंगतिया चाउविहं वाइतं वाइंति-ततं दीप अनुक्रम [४१-४२]] Indurary.orm सूर्याभदेवस्य अभिषेकस्य वर्णनं ~203~ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) प्रत सूत्रांक [ ४१-४२] दीप अनुक्रम [ ४१-४२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. Jan Education “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र - १ (मूलं + वृत्तिः ) सूर्याभदेवस्य अभिषेकस्य वर्णनं मूलं [४१-४२] आगमसूत्र [१३], उपांग सूत्र [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः विततं घर्ण झुसरं, अप्पेगझ्या देवा चडव्विहं गेयं गायंति, तं०- उक्वित्तायं पायत्तायं मंदार्य रोहतावसाणं,अप्पेगतिया देवा दुयं नदृविहिं उबसिंति अप्पेगतिया विलंबियणहविहिं उवदंति अप्पेगतिया देवा दुतविलंबियं विहि उवदसेंति, एवं अप्पेगतिया अंचियं नविर्हि उबदति अप्पेगतिया देवा आरभर्ड भसोलं आरभडभसोलं उप्पयनिचयपमत्तं सकुचियपसारियं रियारियं भंत संभंतणामं दिवं विहिं उवदंसंति अप्पेगतिया देवा चउद्दिहं अभिणयं अभिणयंति, तंजहा- दितियं पाडंतियं सामंतोवणिवाइयं लोग अंतोमज्झावसाणियं, अप्पेगतिया देवा बुक्कारैति अप्पेगतिया देवापीर्णेति अप्पेगतियs वासेंति अप्पेगतिया हक्कारेति अप्पेगतिया विर्णति तडवेंति अप्पेगइया वग्र्गति अप्फोहॅति अप्पेगतिया अप्फोर्डेति वग्गति अप्पे०तिवई छिदंति अप्पेगतिया हयहेसियं करेंति, अप्पेगतिया हत्थगुलगुलाइय करेंति, अपेगतिया रहघणघणाइयं करेंति,अप्पेगतिया हयहेसिय हत्थिगुलगुलाइरहघणघणाइयं करें ति अप्पेगतिया उच्छति अप्पेगतिया पच्छोलेति अप्पेगतिया उक्तिट्ठियं करेंतिअ० उच्छोलेति पच्छोलेतिउ० अप्पेगतिया तिन्निवि, अप्पेगतिया उवायंति अप्पेगतिया उववायेति अप्पेगतिया परिवयंति अप्पेगइया तिन्निवि, अप्पेगइया सीहनायंति अप्पेगतिया दहरयं करेंति अप्पेगतिया भूमिचवेड दलयंति अप्पे० तिन्निवेि अप्पेगतिया गज्जति अप्पेगतिया बिज्जुयायंति अगा वास वासंति अप्पेगतिया तिन्निवि करेंति अप्पेगतिया जलंति अप्पेगतिया तवंति For Parts Only ~204~ D) 400 409) nirary org Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ---------- मूलं [४१-४२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: मूर्याभस्या श्रीराजपनी मलयगिरीया वृत्तिः भिषेका सू०४२ प्रत सूत्रांक [४१-४२ १०१ ॥ अप्पेगतिया पतति अप्पेगतिया तिन्निवि, अप्पेगतिया हफारेंति अप्पेगतिया धुकारेंति अप्पेगतिया धकारेंति, अप्पेगतिया साई २ नामाई साहति अपेगतिया चत्तारिवि, अप्पेगइया देवा देवससिवायं करेंति, अपेगतिया देवुज्जोयं करेंति, अप्पेगइया देवुकलियं करेंति, अप्पेगड्या देवा कहकहगं करेंति, अप्पेगतिया देवा दुहहगं करति, अप्पेगतिया चेलुकखेवं करेंति, अप्पेगइया देवसन्निवायं देषु जोय देवुकलियं देवकहकहग देवदुहदुहर्ग चेल्लुक्खेवं करेंति, अपेगतिया उष्पलहत्यगया जाव सयसहस्सपत्तहत्वगया अप्पेगतिया कलसहत्धगया जाव धूवकडुच्छयहत्वगया हट्ट तुट्ठ जाव हियया सातो समंता आहावंति परिधावति । तए णतं सूरियाभ देवं चत्तारि सामाणियसाहस्सीओ जाव सोलस आयरक्खदेवसाहस्सीओ अण्णे य बहवे सरियाभरायहाणिवस्थवा देवा य देवीओ य महया महया इंदाभिसेगेणं अभिसिंचति अभिसिचित्ता पत्तेयं २ करयलपरिग्गहियं सिरसावतं मत्थए अंजलिं कह एवं वयासी-जय २ नंदा जय २ भदा जय जय नंदा भई ते अजिय जिणाहि जियं च पालेहि जियमज्झे चसाहि इंदो इव देवाणं चंदी इव ताराणं चमरो इव असुराणं धरणो इव नागाणं भरहो इव मणुयाणं बहई पलिओवमाई बहई सागरोवमाई पदई पविओवमसागरोवमाई चउपहं सामाणियसाहस्सीणं जाव आयरक्खदेवसाहस्सीर्ण सूरियाभस्स बिमाणस्स अन्नेसिं च बहूर्ण सूरियाभविमाणवासीणं देवाण य देवीण य आहेब जाव महया २ कारे दीप अनुक्रम [४१-४२]] Santantina सूर्याभदेवस्य अभिषेकस्य वर्णनं ~205~ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ---------- मूलं [४१-४२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४१-४२] दीप अनुक्रम [४१-४२]] माणे पालेमाणे विहराहित्तिकहु जयसई पर्यजति । तए णं से सूरियाभे देवे महया २ इंदाभिसेगेणं अभिसित्ते समाणे अभिसेयसभाओ पुरच्छिमिल्लेणं दारेणं निग्गछति निग्गच्छित्ता जेणेव अलंकारियसभा तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता अलंकारियसभ अणुप्पयाहिणीकरमाणे २ अलंकारियसभ पुरच्छिमिल्लेणं दारेणं अणुपचिसति २ जेणेव सीहासणे तेणेव उवागच्छति सीहासणवरगते पुरत्याभिमुहे सन्निसन्ने | तए णं तस्स मृरियाभस्स देवस्स सामाणियपरिसीववन्नगा अलंकारियम उववति, तए णं से सूरियाभे देवे तप्पटमयाए पम्हलममालाए सुरभीए गंधकासाइए गायाई चूहेति लूहित्ता सरसेणं गोसीसचंदणं गायाई अणुलिपति अणुलिपित्ता नासा. नीसासवायबोझ चक्खुहरं वन्नफरिसजुत्तं हयलालापेलवातिरेगं धवलं कणगखचियन्तकमै आगासफालियसमप्प दिवं देवदूसजुयल नियंसेति नियसेत्ता हार पिणद्धेतिर अबहार पिणडे हर एगावलि पिणडे तिरमुत्तावलिं पिणडेतिरत्ता रयणावलि पिण इरसाएवं अंगयाई केयराई कडगाई तुडियाई कडिसुत्तगं दसमुदाणतर्ग विकच्छसुत्तमं मुरविं पालवं कुंडलाई २चूडामणिं मउ पिणइ २ गैथिमवेढिमपूरिमसंघाइमेणं चउविहेणं मल्लेणं कप्परुक्खगंपिव अप्पाणं अल कियविभूसियं करेइ २ ददरमलयसुगंधगंधिराहिं गायाई भुखंजेइ दिव्वं च सुमणदाम पिणडेइ ।। (सू० ४२)॥ 'तेणे कालेणं तेणं समएण' मित्यादि, बस्मिन् काले तस्मिन् समये सूर्याभो देवः सूर्याभे चिमाने उपपातसभायां | Saintairatinidix amaram.orm सूर्याभदेवस्य अभिषेकस्य वर्णनं ~206~ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ---------- मूलं [४१-४२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४१-४२] श्रीराजमश्नी देवशयनीये देवदृष्यान्तरे प्रथमतोऽगुलासंख्येयभागमात्रयाऽवगाहनया समुत्पन्नः 'तए ण ' मित्यादि सुगम, नयर इह * सूर्याभस्यामलयगिरी| भाषामनःपर्याप्त्योः समाप्तिकालान्तरस्य प्रायः शेषपर्याप्तिसमाप्तिकालानरापेक्षया स्तोकत्वादेकत्येन विवक्षणमिति 'पंचविहाए भिषेक या वृत्तिः " पज्जतीए पजत्तीभावं गच्छइ' इत्युकं 'तए ' मित्यादि, ततस्तस्य मूर्याभस्य देवस्य पञ्चविधया पर्याप्त्या पर्याप्तभाव-|| ॥१०२॥ | मुपगतस्य सतोऽयमेतदूपः संकल्पः समुदपद्यत-'अम्भत्थिए' इत्यादि पदव्याख्यानं पूर्ववत् , कि 'मे' मम पूर्व करणीयं किं मे पश्चात्करणीय? किंमे पूर्व का श्रेयः किं मे पश्चात् कर्नु श्रेयः १,तथा कि मे पूर्वमपि च पश्चादपि च हिताय भावपधानोऽयं निर्देशो हितत्वाय-परिणामसुन्दरतायै सुखाय-शर्मणे क्षमाय-अयमपि भावप्रधानो निर्देश संगतत्वाय निश्रेयसायनिश्रितकल्पाणाय .नुगामिकतायै-परम्परशुभानुबन्धसुखाय भविष्यतीति, इह प्राक्तनो ग्रन्यः प्रायोऽपूर्वो भूयानपि च पुस्तकेषु वाचनाभेदस्ततो माऽभूत् शिष्याणां सम्मोह इति कापि सुगमोऽपि यथावस्थितवाचनाक्रममदर्शनार्थं लिखितः, इत | ऊ तु प्रायः सुगमः मागण्याख्यातस्वरूपश्च न च याचनाभेदोऽप्यतिवादर इति स्वयं परिभावनीपो, विषमपदव्याख्या तु विधास्यते इति । 'तए णं तस्स सूरियाभस्स देवस्स सामाणियपरिसोववन्नगा देवा इममेयारूव' मित्यादि 'आ* यंते' इति नवानामपि श्रोतसां शुद्धोदकमक्षालनेन आचान्तो-गृहीताचमनचोक्षः स्वल्पस्यापि शकितमलस्यापनयनात् अत एव परमभुचिभूतो, 'महत्थं महग्धं महरिहं विउलं इंदाभिलेय मिति, महान् अर्थो-मणिकनकरत्नादिक उपयुज्यमानो यस्मिन् स महार्थः ते, तथा महान् अर्घः-पूजा यत्र स महाघः तं, महम्-उत्सवमदतीति पहाईस्त, विपुलं-विस्तीर्ण |शक्राभिषेकवत् इन्द्राभिषेकमुपस्थापयत 'अट्ठसहस्सं सावणियाण कलसाणं विउवंती' त्यादि, अत्र भूयान् वाचना दीप अनुक्रम [४१-४२]] सूर्याभदेवस्य अभिषेकस्य वर्णनं ~ 207~ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) प्रत सूत्रांक [ ४१-४२] दीप अनुक्रम [ ४१-४२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित. 6-40100409710) 690010 Eaton International “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र - १ (मूलं + वृत्तिः ) सूर्याभदेवस्य अभिषेकस्य वर्णनं मूलं [४१-४२] आगमसूत्र [१३], उपांग सूत्र [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः भेद इति यथावस्तिवाचनाप्रदर्शनाय लिख्यते, अष्टसहस्रं - अष्ट्टाधिकं सहस्रं सौवर्णिकानां कलशानां १ अष्टसहस्रं रूप्यमयानां २ सहस्रं मणिमयानां ३ अट्टसहस्रं सुवर्णमणिमयानां ४ अष्टसहस्रं सुवर्णरूप्यमयानां ५ अष्टसहस्रं रूप्यमणिमयानां ६ अष्टसहस्रं सुवर्णमणिमयानां ७ अष्टसहस्रं भौमेयानां कलशानां ८ अष्टसहस्र भृङ्गाराणामेवमादर्शस्थालपात्रीसुप्रतिष्ठितवात करक चित्ररत्नकरण्डक पुष्पचङ्गेरी यावल्लोमहर त कपटलकसिंहासनच्छत्रचामरसमुद्रकध्वजधूपक हुन्छुकानां प्रत्येक २ मसहस्रं २ विकुर्वति विकुवित्वा 'ताए उट्टाए' इत्यादि व्याख्यातार्थे, 'सहतुवरा' इत्यादि, सर्वान् तूवरा-कपायान् सर्वाणि पुष्पाणि सर्वान् गन्धान् गन्धवासादीन सर्वाणि माल्यानि ग्रन्यितादिभेदभिन्नानि सर्वोषधीन सिद्धार्थकान् सर्वपकान गृहन्ति, इवं क्रमःपूर्व क्षीरसमुद्रे उपागच्छन्ति तत्रोदकमुत्पलादीनि च गृह्णन्ति ततः पुष्करोदे समुद्रे तत्रापि तथैव ततो मनुष्यक्षेत्रे भरतैरावतवर्षेषु मागधादिषु तीर्थेषु तीर्थोदकं तीर्थमृत्तिकां च गृह्णन्ति, ततो गङ्गासिन्धुरक्तारक्तवतीषु नदीषु सलिलोदक - नद्युदकमुभयतमृतिकां च गृह्णन्ति ततः क्षुल्लहिमवत् शिख रिषु सर्वतूवर सर्वपुष्प सर्वमान्य सर्वोष घिसिद्धार्थकान्, aarata पद्मदपौण्डरीकइदेषु इदोदवमुत्पलादीनि च तानि ततो हेमवतरण्यवतवर्षेषु रोहिता राहितांशासुवर्णकूलारूप्यकूलासु महानदीषु सलिलोदकमुभयतरमृत्तिकां, तदनन्तरं शब्दापातिविकटापा तिवृत्तचैतादयेषु सर्वतूवरादीन, ततो महाहिमव पिवर पर्वतेषु सर्वत्वरादीन, सतो महापद्मपुण्डर कहदेषु प्रदोदकादीनि, तदनन्तरं हरिवर्षरभ्यवर्षेषु इरिसलिलाहरिकान्तानरकान्तानारीकान्तासु महानदीषु सलिलोदकमुभयतमृत्तिकां च ततो गन्धापातिमाल्यवत्पर्यायवृत्तवैताढयेषु वरादीन्, ततो निषधनी लवद्वर्षधर पर्वतेषु सर्वतूवरादीन, तदनन्तरं तद्गतेषु विगिच्छिवे सरिमहादेषु इदोदका For Parta Use Only ~208~ waryru Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ---------- मूलं [४१-४२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: श्रीराजप्रश्नी मकयगिरीया वृत्तिः प्रत सूत्रांक [४१-४२] दीनि, ततः पूर्व विदेहापरविदेहेषु सीतासीतोदानदीषु सलिलोदकमुभयतटमृत्तिकां च, ततः सर्वेषु चक्रवर्तिविजेतव्येषु सूर्याभस्यामागधादिषु तीयेषु तीर्थोदकं तीर्थमृत्तिको च, तदनन्तरं दक्षरकारपर्वतेषु सर्वतूबरादीन, ततः सर्वामु अन्तरनदीषु || भिषेक ०४२ सलिलोदक मुभयतटमृत्तिका च, तदनन्तरं मन्दरपर्वते भद्रकालरने तूवरादीन् , तो नन्दनयने तूबरादीन् सरसं च गौशीर्षचन्दन, तदनन्तरं सौमनसयने सईदूबरादीन सरसं च गोशोपचन्दनं दिव्यं च सुमनोदाम गृह्णन्ति, सतः पा करने तूबरपुष्पगन्धमाल्यसरसगोशीपचन्दनदिव्य मनोदामानि, 'दहरमलए सुगंधिए य गंधे गिहति' इति दईर:-चीवरावनई कुष्टिकादिभाजनमुखं तेन गालितं तत्र एकवा यह मल योजवतका प्रसिद्धत्वात् पलपण-श्रीखण्ड रेषु सान सुगन्धिकान्-18 परमगन्धोपेतान् गन्धान गृहनि, 'आसियसंमजिओचलितं सुइसम्मट्टरत्यंतरावणवीहियं करेह' इति आसि-1 तम्-उदकरछटकेन सन्मानित-संभाव्यमानकचबरशोधनेन उपलिशमिव गोगयादिना उपलिन तथा सिक्कानि जलेनात एवं 118 शुचीनि-पवित्राणि मष्टानि कचरापनयनेन रथ्यान्तराणि आपणवीधय इच-हमार्गा इवापणवीथयो-रथ्याविशेषा यस्मिन् तत्तथा कुर्वन्ति, 'अप्पेगइया देश हिरपणविहिं भाएंति' अप्येकका:-केचन देवा दिरप्यविधि-हिरण्यरूपं मङ्गलभूतं | प्रकार भाजयन्ति-रिश्रापयन्ति, शेषदेवेभ्यो ददतीति भावः, एवं सुवर्णरत्नपुष्पफलमाल्पगन्धयूर्गाभरणविधिभाजनमपि | भावनीयम् । 'उप्पायनियये त्यादि, उत्पातपूर्वो निपातो यस्मिन् स उत्पात निपातर, एवं निपातोल्पातं संकुचितपसारितं रियारिय' मिति गमनागमनै भ्रान्तसंभ्रान्तनाम आरभटभसोलं दिव्यं नाट्यविधिमुपदर्शयति, अप्पेकका देवा 'वुकारेति' IRCT१०३ घुकाशब्द कुर्वन्ति, 'पीणति' पीनयन्ति--पीनमात्मानं कुर्वन्ति स्थूला भवतीत्यर्थः, 'लासंति लासयन्ति लास्यरूपं नृत्य दीप अनुक्रम [४१-४२]] EELocinnamora सूर्याभदेवस्य अभिषेकस्य वर्णनं ~ 209~ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) प्रत सूत्रांक [ ४१-४२] दीप अनुक्रम [ ४१-४२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित. Jan Education in 46900 469 460884Q9) 8049469-800 “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र - १ (मूलं + वृत्तिः ) सूर्याभदेवस्य अभिषेकस्य वर्णनं मूलं [४१-४२ ] आगमसूत्र [१३], उपांग सूत्र [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः कुर्वन्ति, 'ति' ति ताण्डवयन्ति ताण्डवरूपं नृत्यं कुर्वन्ति, 'बुद्धारैति' दुकारं कुर्वन्ति 'अल्फोर्डति' आस्फोटयन्ति, भूम्यादिकमिति गम्यते, 'उच्छलंति' चि उच्छलयन्ति 'पोच्छति' मोच्छलयन्ति 'उवयंति' त्ति अवपतन्ति 'उप्पयंति' उत्पतन्ति 'परिवति 'चि परिपतन्ति तिर्यक् निपतन्तीत्यर्थः 'जलंति'त्ति ज्वालामालाकुला भवन्ति 'तविवि' चि तप्ता भवन्ति प्रतप्ता भवन्ति 'शुक्कारेंति'त्ति महता शब्देन धूत्कुर्वन्ति 'देवोकलियं करेति त्ति देवानां वातस्यैवोत्कलिका देवीकलिका तां कुर्वन्ति, 'देवक हकहं करेति त्ति प्राकृतानां देवानां प्रमोदभरवशतः स्वेच्छावचनैर्वोलकोलाहलो देवकह कह कस्तं कुर्वन्ति 'दुदुहकं करेंति' दुदुहकमित्यनुकरणमेतत् । 'तप्पढमयाए पम्हलाए सुकुमालाए सुरभीए गंधकासाइयाए गाया हइ' इति तत्प्रथमतया तस्यामलङ्कारभार्या प्रथमतया पक्ष्मला च सा सुकुमारा च पक्ष्मलकुमारा तथा सुरभ्या गन्धकापायिक्या सुरभिगन्धकपायद्रव्यपरिकर्मितया लघुशाटिकया गात्राणि रुक्षयंति, 'नासानीसासवायवोज्झ' मिति नासि-, कानिश्वासवात वाह्यमनेन तदलक्षणतामाह, 'चक्खुहर' मिति चक्षुर्हरति-आत्मवशं नयति विशिष्टरूपातिशयकलितखात् इति चक्षुर्दरं 'वण्णफरिसजुत्त' मिति वर्णेन स्पर्शेन चातिशयेनेति गव्यते युक्तं वर्णस्पर्शयुक्तं, 'हयलालापेलवाइरेग' मिति हलाला अवलाला तस्या अपि पेलवमतिरेकेण हयालापेलयातिरेकं 'नाम नाम्नेकार्य समासी बहुल 'मिति समासः, अतिविशिष्ट मृदुत्व लघुगुणोपेतमिति भावः, धवलं श्वतं तथा कनकेन खचितानि विच्छुरितानि अन्तकर्माणि-अञ्चलयोवनिलक्षणानि यस्य तत् कनकखचितान्तकर्म आकाशस्फटिकं नामातिस्वच्छः स्फटिकविशेषस्तत्सममभं दिव्यं देवदूष्ययुगलं'नियंसे ' परिधते परिधाय हारादीन्याभरणानि पिनह्यनि, तत्र हार:- अष्टादशस रिकः अर्द्धहारो-नवसरिकः एकावली-विचित्रमणिका For Parts Only ~ 210~ Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ---------- मूलं [४१-४२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: श्रीराजप्रश्नी मलय गिरीया दृचिः प्रत सूत्रांक [४१-४२] पस्तक रल वाचन मू०४३ जिनप्रतिमा पूजादि ॥१०४॥ ०४४ दीप अनुक्रम [४१-४२]] मुक्तावली-मुक्ताफलमयी रत्नावली-रत्नमयमणिकात्मिका पालम्बा-तपनीयमयो विचित्रमणिरत्नभक्तिचित्र आत्मनः प्रमाणेन सुप्रमाण आभरणविशेषः,कटकानि--कलाचिकाभरणानि त्रुटितानि-बाहुरक्षिकाःअगदानि-बासाभरणविशेषाम्दशमुद्रिकानन्तक हस्ताङ्गलिसंबन्धि मुद्रिकादशकं कुण्ड ले--कर्णाभरणे 'चूडामणि'मिति चूडामणि म सकलपार्थिवरत्नसर्वसारो देवेन्द्रमनुष्ये- न्द्रमूर्द्धकृतनिवासी निःशेषामङ्गलाशान्तिरोगप्रमुखदोषापहारकारी प्रवरलक्षणोपेतः परमयङ्गलभूत आभरणविशेषः 'चित्तरयण- संकडं मउडमिति चित्राणि-नानाप्रकाराणि यानि रत्नानि तैः संकटचित्ररत्नसङ्कटः प्रभूतरत्ननिचयोपेत इति भावः, तं "दिवं सुमणदाम ति पुष्पमाला, 'गंथिमे त्यादि, ग्रन्थिम-ग्रन्थनं ग्रन्थस्तेन निर्वृत्तं ग्रन्थिमं 'भावादियः प्रत्ययः' यत्सूत्रादिना ग्रन्ध्यते तदन्धिममिति भावः, पूरिमं यत् अयितं सत् वेष्टयने, तथा पुष्पलम्बूसको गण्डक इत्यर्थः, पूरिमं येन वंशशलाकामयं पारादि पूर्यते, संघातिमं यत् परस्परतो नालसंधातेन संघात्यते ॥ (मू०४१॥ ४२ ॥) तए णं से सूरियाभे देवे केसालंकारेणं मल्लालंकारेण आभरणालंकारेण वस्थालंकारेणं चउबिहेण अलंकारेण अलंकियविभूसिए समाणे पडिपुण्णालंकारे सीहासणाओ अम्भुट्टेति २ अलंकारियसभाओ पुरच्छिभिल्लेणं दारेणं पडिणिक्खमहरत्ता जेणेव ववसायसभा तेणेव उवागच्छति यवसायसमें अणुपयाहिणीकरेमाणे २ पुरच्छिमिल्लेणं दारेणं अणुपविसति, जेणेव सीहासणवरए जाय सन्निसन्ने । तए णं तस्स सूरियाभरस देवस्स सामाणियपरिसोववन्नगा देवा पोत्थयरयणं उवगति, तते णं से सूरियाभे देवे पोत्ययरयणं गिण्हति २ पोत्थयरयणं मुयइ २ पोत्थयरयणं विहाहेइ२ REmiratanimal ~211~ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ---------- मूलं [४३-४४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४३-४४] दीप अनुक्रम [४३-४४] पोत्थयरचणं वाएति पोत्थयरयणं वाएत्ता धम्मियं ववसायं गिण्हति गिणिहत्ता पोत्थयरयणं पडिनिक्खिवह सीहासणातो अन्भुढेति अन्भुटेता ववसायसभातो पुरच्छिमिल्लेणं दारेणं पडिनिकुखमइरता जे व नंदा पुक्खरणी तेोव उवागच्छति उवागच्छित्ता गंदापुक्खराण पुरच्छिमिल्लेणं तोरणे,णं पुरच्छिमिल्लणं तिसोवाणपडिरूवएणं पच्चोरुहइ पचोरुहित्ता हत्थपादं पक्खालेति पक्खालित्ता आयंते चोक्से परमसुइभए एगं महं सेयं श्ययामयं विमलं सलिलपुण्णं मत्तगयमुहागितिकुंभसमाणं भिंगारे पगेण्हति २ जाई तत्थ उप्पलाई जाव सतसहस्सपत्ताईताई गेण्हति २ गंदातो पुक्खरिणीतो पचोरुहति पचोरुहित्ता जेनेव सिहायतणे तेव पहारेथ गमणाए ॥ (सू०४३)॥ तए णं तं मुरियाभं देवं चत्तारि य सामाणियसाहस्सीओ जाव सोलस आयरक्खदेवसाहस्सीओ अन्ने थ यहवे सूरियाभ जाव देवीओ य अप्पेगतिया देवा उप्पलहत्थगया जावसयसहस्सपत्तहत्थगया सरियाभ देव पिट्टतो २ समणुगच्छति । तए णं तं सूरियाभ देवं बहवे आभिओगिया देवा य देवीओ य अप्पेगतिया कलसहयगया जाव अप्पेगतिया धूवकडुन्छयहत्थगता हट्ट-. तुजाय सूरिया देवं पितो समणुगच्छति । तए णं से सूरियाभे देवे चडाह सामाणियसाहस्सीहिंजाव अमेहि य बहूहि य सूरियाभ जाव देवेहि य देवीहि य सविं संपरिखुरे सचिट्टीए जाव णातियरवेणं जेणेव सिहायतणे तेणेव उवागच्छति २ सिहायतणं पुरथिमिल्लेणं दारेणं ~ 212~ Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ---------- मूलं [४३-४४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: श्रीराजमश्नी वाचन मलयगिरी मू०४३ निनपतिमा पूजादि या वृत्ति ॥१०५॥ प्रत सूत्रांक [४३-४४] सू०४४ अणुपविसति अणुपविसित्ता जेणेव देवच्छेदए जेपेव जिणपडिमाओ तेणेव उवागमति२ जिगपडिमाणं आलोए पणामं करेति २ लोमहत्वगं गिम्हति २ जिणपडिमाणं लोमहस्थरणं पमजह पमजित्ता जिणपडिमाओ सुरभिणागंधोदएणं पहाइ हा णित्ता सरसेणं गोसीसचदणेणं गायाई अणुलिंपइ अणुलिंपइत्ता सुरभिगंधकासाइएणं गायाईलहेति हित्ताजिणपडिमाणे अहयाई देव. दूसजूयलाई नियसेइ नियंसित्ता पुष्फारुहणं मल्लाहहणं गंधारुहणं चुण्णारुहर्ण वतारहणं वत्थारुहर्ण आभरणारहण करेइ करिता आसत्तोसत्तविउलयहवग्यारियमल्लदामकलावं करेइ मल्लदामकलावं करेता कयरगहगहियकरयलपन्भविष्पमुकेग दसवनेणं कुसुमेण मुकपुष्फपुंजोबयारकलियं करेति करिता जिणपडिमाण पुरतो अच्छेहिं सरहेहिं रययामएहिं अच्छरसातदुलेहिं अट्ठव मंगले आलिहइ, तंजहा-सोस्थिय जाव दप्पणं, तयाणंतरं च ण चंदप्पभरयणवहरवेरुलियविमलदंड कंचणमगिरयणभत्तिचित्तं कालागुरुपवरकुंदुरुकतुरुकाधूवमघमघंतगंधुत्तमाणुविद्धं च धूवहि विणिम्मुयंत वेरुलियमय कटुच्छुयं पग्गहिय पयत्तेणं धूवं दाऊण जि गवराणं अट्ठसयविसुझगन्धजुत्तेहिं अत्यगुत्तेहि अपुणरुत्तेहिं महावित्तेहि संधुणइ २ सत्तह पयाई पचीसकइ २ चा वाम जाणु अंबेइ २ त्ता दाहिणं जाणुं धरणितलंसि निहटु तिक्खुत्तो मुडाणं धरणितलंसि निवाडेइ २ ता ईसिं पञ्चुण्णमइ २ करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि क एवं वयासी-नमोत्थुणं अरहताणं जाव दीप अनुक्रम [४३-४४] 10१०५॥ N amurary on | शाश्वत जिन-प्रतिमाया: पूजनं ~213~ Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. Jan Educator 19) 800) 2008-04-14) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र - १ (मूलं + वृत्तिः ) शाश्वत जिन - प्रतिमायाः पूजनं मूलं [४३-४४] आगमसूत्र [१३], उपांग सूत्र [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः संपत्ता, बदइ नमसह २ ता जेणेव देवच्छंदए० जेणेव सिद्धायतणस्स बहुमज्झदेस भाए तेणेव उवागच्छ २त्ता लोमहत्थगं परामुसइ २ सिद्धायतणस्स बहुमज्झदेस भागं लोमहत्येगं पमज्जति, दिवाए दुगधाराए अक्खेड़, सरसेणं गोसीसचंदणेणं पंचगुलितलं मंडलगं आलिहइ २ कयग्गाहगहियं जावपुंजीवयारकलिये करेइ करेता धूवं दलयइ, जेणेव सिद्धायतणस्स दाहिणिल्ले दारे तेव उवागच्छतिलोमहत्थगं परामुखइ २ त्ता दारचेडीओ य सालभंजियाओ य वालरूवए य लोमहत्यए गं पम नइ २ ता दिखाए दुगधाराए अन्भुक्खेइ २ सरसेनं गोसीसचंदणेणं चच्चए दलयह दलहत्ता पुष्कारहणं म ला जाब आभरणारुहणं करेइ करेता आसत्तोसत्त जाव घूषं दलयह २ त्ता जेणेव दाहिणिल्ले दारे मुहमंडवे जेणेव दाहिणिल्लस्स मुहमंडवस्स बहुमज्झदेसभाए तेणेव उवागच्छ २त्ता लोमहत्थगं परामुस २ सा बहुमज्झदेस भागं लोभहत्येणं पमजइ २ ता दिवाए दगधारा अमुक २ सरसे गोसीसचंदणं पंचगुलितलं मंडलगं आलिहइ २ कयग्गाहगहिय जाब घूवं दलयत्ता जेणेव दाहिणिल्लरस मुहमंडस्स पचत्थिमिले दारे तेथेव उवागच्छ ता लोमहत्व पर मुसह २ सा दारचेडीओ य सालिभंजियाओ व बालरूपए य लोमहत्येणं' पमज़ाइ २ ता दिवाए दगधाराए० सरसेगं गोसीसचंद चचए दलह २ पुप्फारुहणं जाव, आभरणारुहणं करेह २ आसतोसत्त० कपगाहग्गाहियं० धूवं दलयइ २ ता जेणेव दाहि गिल्लमुहमंडवस्स उत्तरिल्ला For Pasta Lise Only ~ 214~ nary.org Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ---------- मूलं [४३-४४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: श्रीराजमश्नी मलयागरीया दृति प्रत सूत्रांक [४३-४४] पुस्तक स्ल का वाचन IAN सू०४३ जिनप्रतिमा पूजादि ०४४ ॥१६॥ दीप अनुक्रम [४३-४४] खंभपती तेणेव वागच्छह २त्ता लोमहत्थ परामुसह २ता थंभे य सालिभंजियाओं य वालरूवए य लोमहत्थएणं पम० जहा चेव पञ्चस्थिमिस्स दारस्स जाव धूर्व दलपह २ त्ता जेणेव दाहिणिहस्स मुहमंडवस्स पुरथिमिल्ले दारे तेणेव उवागच्छद २त्ता लोमहत्थर्ग परामुसति दारचेडीओ तं चेव सर्व जेणेव दाहिणिल्लस्स मुहमंडवस्स दाहिणिले दारे तेणेव उवागमछ। २त्ता दारचेडीओ यतं चेव स जेणे,व दाहिणिल्ले पेच्छाघरमंडवे जेणेव दाहिणिलस्स पेच्छाधरमडवस्स बहुमज्झदेसभागे जेणेव वइरामए अक्खाडए जेणेव मणिपेदिया जेणेव सीहासणे तेव . उवागच्छइ २त्ता लोमहत्वगं परामुसइ २त्ता अक्खाडगं च मणिपेडियं च सीहासणं च लोमहस्थएणं पमज्जइ २त्ता दिव्वाए दगधाराए सरसेणं गोसीसचंदणं चचए दलया, पुप्फाहणं आसत्तोसत्तजाव धूव दलेइत्ता जेणेव दाहिणिल्लस्स पेच्छाघरमंडवस्स पचस्थिमिळे दारे उत्तरिले दारे ते व जे चेय पुरथिमिल्ले दारे तं चेव, दाहिणे दारे तं चेच, जेणेव दाहिणिले चेइयथूभे तेणेव उवा- . गच्छइ २त्ता थूभं च मणिपेढिय च० दिवाए दगधाराए अनु० सरसेण गोसीस बचए दलेइ २ पुप्फारु०आसतो० जावधूवं दलेइ,जेणेव पचस्थिमिला मणिपे दिया जेणे,वपचस्थिमिला जिणपडिमा तं चेव, जेणेव उत्तरिया जिणपडिमा तंचेव सच, जेणेव पुरथिमिला मणिपेढिया जेणेव पुरत्थिमिल्ला जिणपडिमा तेणेव उवागरछह २ तं चेच, दाहिणिला मणिपेदिया दाहिणिला जिणपडिमा तं ॥१०६॥ Saintairatinid mitaram.org शाश्वत जिन-प्रतिमाया: पूजनं ~215~ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ---------- मूलं [४३-४४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४३-४४] दीप अनुक्रम [४३-४४] चेव, जेणेव दाहिणिल्ल चेयरुकखे तेणेव उवागच्ह २तं चेव, जेणेव महिंदज्मए जेणेव दाहिणिल्ला खरण तेणेव उवगच्छति लोमहत्थगं परामुसति तोरणे व तिसोवाणपडिरूवए सालिभंजियाओ य चालरूवए य लोमहत्थएण पमजइ दिवाए दगधाराए सरसेणं गोसीसचदणेणं. पुष्फारुहणं आसत्तोसत्त धूवं दलयति, सिद्धाययण अणुपयाहिणीकरेमाणे जेणेव उत्तरिल्ला अंदापुकखरणी तेणेव उवागच्छति २तं चेव, जेणेब उत्तरिल्ले चेइयरुखे तेणेच उवागच्छति,जेणेव उत्तरिले चेहयथूभे तहेच, जेणेव पच्चथिमिल्ला पेदिया जेणेव पच्चस्थिमिठा जिणपडिमा त चेव,उत्तरिले पेरुछाघरमंडवे तेणेव उवागच्छति २ ता जा चेव दाहिणिलबत्तव्यया सा चेव सव्वा पुरथिमिले दारे,दाहिणिल्ला खंभपंती तं चेव सर्व, जेणेव उत्तरिल्ले मुहमंडवे जेणेव उत्तरिछस्स मुहमंडवस्स बहुमण्झदेसभाए त चेव सवं, पञ्चथिमिल्ले दारे तेणेव० उत्तरिल्ले दारे दाहिणिला खंभपंती सेसंत चेव सव्य,जेणेव सिहायतणस्स उत्तरिल्ले दारे त चेव, जेणेव सिहायतणस्स पुरथिमिल्ले दारे तेणेव उवागच्छह रत्ता तं चेव, जेणेव पुरथिमिले मुहमंडवे जेणेव पुरस्थिमिस्स मुहमडवस्स बहुमज्झदेसभाए तेणेव उवागच्छइ २ ता तं चेव, पुरथिमिल्लस्म मुहमंडवस्स दाहिणिल्ले दारे पञ्चस्थिमिष्ठा खंभपंती उत्तरिल्ले दारे ते चेव, पुरथिमिल्ले दारे तं चेव, जेणेव पुरथिमिल्ले पेच्छाघरमंडवे,एव थूभे जिणपडिमाओ चेत्यस्वखा महिंदज्या गंदा पुषखरिणी त चेव जाव धृवं दलहरता जेणेव SAREauratoninा C hunaranora | शाश्वत जिन-प्रतिमाया: पूजनं ~ 216~ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ---------- मूलं [४३-४४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: श्रीराजमश्नी मलयगिरीया दृत्तिः पुस्तक रत्न बाचन | मू०४३ जिनप्रतिमा | पूजादि मु०४४ प्रत सूत्रांक [४३-४४] ॥१७॥ सभा मुहम्मा तेणेव उवागच्छति २ तासभं सुहम्म पुरथिमिल्लेणं दारेणं अणुपविसइ २त्ता जे. येय माणवए चेझ्यखंभे जेणेव वइरामए गोलवसमुग्गे तेणेव उवागच्छद उवागच्छइत्ता लोमहत्थर्ग परामुसहर बहरामए गोलवद्दसमुग्गए लोमहत्थेणं पम जइ २ वहरामए गोलबद्दसमुग्गए बिहाडेइ २ जिणसगहाओ लोमहत्थेणं पमज्जइरत्ता सुरभिणा गंधोदएणं पक्खालेइ पक्खालित्ता अग्गेहिं वरेहिं गधेहि य मल्लेहि य अच्चेइ ध्रुव दलयइ २त्ता जिणसकहाआ वइरामएसु गोलबहसमुग्गएसु पतिनिक्खिबह माणवगं चेइयखंभं लोमहत्थएणं पमज्जइ दिहाए दगधाराए सरसेणं गोसीसचंदणेणं चचए दलयइ, पुष्कारहणं जाव धूवं दलयइ, जेणेव सीहासणे तं चेव, जेणेय देवसयणिज्जे तं चेव, जेणेव खुट्टागमहिंदज्झए तं चेव, जेगेव पहरणकोसे चोप्पालपतेणेव उवागच्छर चा लोमहत्थर्ग परामुसइ २ सा पहरणकोसं चोप्पालं लोमहत्थएणं पमज्जा२त्ता दिवाए दगधाराए सरसेणं गोसीसचंदणेणं चचा दलेइ पुष्फारुहणं आसत्तोसत्त जाव धूवं दलयइ, जेगेव सभाए सुहम्माए बहुमज्झदेसभाए जेणेव मणिपेढिया जेणेव देवसयणिज्जे तेणेव उवागच्छद २ ता लोमहत्थगं परामुसह देवसयणिज्जं च मणिपेढिय च लोमहत्थएणं पमज्जइजाव धूवं दलयइत्ता जेणेव उववायसभाए दाहिणिल्ले दारे तहेव अभिसेयसभासरिसं जाव पुरथिमिल्ला गंदा पुक्खरिणी जेणेव हरए तेणेव उवागच्छह २त्ता तोरणे य तिसोवाणे य सालिभंजियाओं य वालरूवए य तहेव, जेणेच दीप अनुक्रम [४३-४४] १०७॥ P arasurary.om | शाश्वत जिन-प्रतिमाया: पूजनं ~217~ Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ---------- मूलं [४३-४४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४३-४४] दीप अनुक्रम [४३-४४] अभिसेयसभा तेव उबागच्छइ २ सा तहेव सोहासणं च मणिपेढियं च सेसं तहेव आययणसरिसं जाव पुरथिमिल्ला गंदा पुक्खरिणी जेणेव अलंकारियसभा तेणेव उवागच्छइ २त्ता जहा अभिसेयसमा तहेव सर्व, जेणेच ववसायसभातेगेव उवागच्छह २ शा तहेव लोमहस्थय परामुसति पोत्ययरयणं लोमहत्थएणं पमज्जइ पमज्जित्ता दिखाए दगधाराए अग्गेहि वरेहि य गंधेहि मल्लेहि य अवेति २ सा मणिपेटियं सीहासणं च सेसं तं चेब, पुरस्थिमिला नंदा पुक्रवरिणी जेणेव हरए तेगेव उवागच्छद २ ता तोरणे य तिसोवाणे य सालिभंजियाओ य बालरूवए य तहेव । जेणेव बलिपीढं तेणेव उवागच्छता पलिविसज्जणं करेइ, आभिओगिए देवे सहावेइ सदायित्ता एवं वयासीखिपामेव भो देवाणुप्पिया ! सूरियाभे विमाणे सिंघाडएसु तिएमु चउक्सु चचरेसु चउमुहेसु महा. पहेसु पागारेसु अहालएसु चरियासु दारेसु गोपुरेसु तोरणेमु आरामेसु उज्जाणेसु वणेसु वणराईसु काणणेसु वणसंदेसु अचणियं करेह अधणियं करेता एबमाणत्तियं खिप्पामेव पच्चप्पिणहतए ण ते आभिओगिया देवा सरिभामेणं देवेणं एवं बुत्ता समाणा जाव पडिसुडिणिता सूरियाभे विमाणे सिंघाडएसुतिएसुचउक्कएसुचचरेसु चउम्मुहेसु महापहेसु पागारेसु अट्टालएसु चरियासु दारेसु गोपुरेसु तोरणेसु आरामेसु उज्जासु वणेसु वणरातीसुकाणणेसु वणसंडेसु अच्चणियं करेइ २ ता जेणेव सूरिया देवे जाच परचप्पिणंति, तते णं से सूरियाभे देवे जेणेव नंदा पुक्खरिणी तेणेव उवागच्छा. शाश्वत जिन-प्रतिमाया: पूजनं ~ 218~ Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ---------- मूलं [४३-४४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: वाचन सू० प्रत सूत्रांक [४३-४४] श्रीराजमनी मलयगिरी-IN २ता नंदापुक्खरिणि पुरथिमिल्लेण तिसोमाणपडिरूवएणं पच्चोहति २त्ता हत्थपाए पक्खालेइ या हित्तः २त्ता गंदाओ पुक्खरिणीओ परचुत्तरह जेणेव सभा सुधम्मा तेणेव पहारित्व गमणाए। लए णं से सूरियामे देवे चाहिं सामाणियसाहस्सीहिं जाव सोलसहि आयरकृखदेवसाहस्सीहिं अन्नेहि य ॥१०८॥ जिनप्रतिमा बहहिं सूरियाभषिमाणवासीहि बेमाणिएहि देवीहिं देवीहि य सहि संपरिबुने सबिड्डीए जाव ना पूजादि इयरवेणं जेणेव सभा सुहम्मा तेणेव उवागच्छह सभं सुधम्म पुरथिमिल्लेणं दारेणं अणुपविसति P०४४ २ अणुपविसित्ता जेजे,व सीहासणे तेथे,व उवागच्छइ २ चा सीहासणवरगए पुरत्याभिमुहे सण्णिसण्णे। (सू०४४)॥ 'जेव ववसायसभा' इति व्यवसायसभा नाम व्यवसायनिबन्धनभूता सभा,क्षेत्रादेरपि कौंदयादिनिमित्तत्वात्, उक्तं च-"उदयवसयाक्खोवसमोवसमा जं च कम्मुणो भणिया ।दई खेत कालं भावं च भव च संपप्पे ॥१॥"ति, पोत्थयरयणं मुयइ 'इति उत्सङ्गे स्थान विशेपे वा उत्तमे इनि द्रष्टव्यं, 'विहादेई' इति उद्घाटयति, धम्मियं ववसायं ववसई इति धार्मिक-धर्मानुगतं व्यवसाय व्यवस्यति, कर्नुमभिलपनीति भावः । 'अच्छरसातंदुलेहिं ' अच्छो रसो येषु ते अ स्छरसाः, प्रत्यासन्नवस्तुमतिबिम्बाधारभूता इवाति निर्मश इत्यर्थः, अच्छरसाच ते सन्दुलाच तः, दिव्यतन्दुलरिति भावः, PAIपुष्फपुंजोवयारकलियं करित्ता''चंदप्पभवइरवेरुलियविमलदंड मिति पदभवज्रवैडूर्यमयो विमलो दण्डो | | यस्य स तथा त, काश्चममणिरत्नभक्तिचित्रं कालागुरुपवरकुंदुरुकतुरुकसत्केन धूपेन उत्तमगन्धिनाऽनुविद्धा कालागुरुपपरकुंदुरु १०॥ दीप अनुक्रम [४३-४४] mitaram.org | शाश्वत जिन-प्रतिमाया: पूजनं ~219~ Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ---------- मूलं [४३-४४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४३-४४] दीप अनुक्रम [४३-४४] कतुरुकधूपगन्धोत्तमानुविधा प्राकृनत्वात् पदव्यत्ययः धूपत्ति विनिर्मुश्चन्तं वैडूयमय धूपकडुच्छुयं प्रगृह्य प्रयत्नतो धूपं दवा निनवरेभ्यः, सूत्रे पष्ठी प्राकृतत्वात्, सप्ताष्टानि पदानि पश्चादपमृत्य दशाङ्गुलिमजलि मस्तके रचयित्वा प्रयत्नतो 'अट्ठ सयविसुडगंधजुत्तेहिन्ति विशुद्धो-निर्मलो लक्षणदोपरहित इति भावः यो ग्रन्थः-शब्दसंदर्भस्तेन युक्तानि, अष्टशतं च VI तानि विशुद्धग्रन्ययुक्तानि च तैः अर्थयुक्त:-अर्थसारैरपुनरुक्तमहावृत्तः, तथाविधदेवल ब्धिमभाव एषः, संस्तौति संस्तुल्य वाम जानु अञ्चति इत्यादिना विधिना मणाम कुर्वन मणिपातदण्डकं पठति, तद्यथा-'नमोऽत्थु णमरिहताण' मित्यादि, नमोऽस्तु 'ण' मिति वाक्यालङ्कारे देवादिभ्योऽतिशयपूजामहन्तील्पईन्तस्तेभ्यः, सूत्रे षष्ठी 'छट्ठीविभचीए भन्नइ चउत्यो' इति पाकृतलक्षणवशात् , ते चाईन्तो नामादिरूपा अपि सन्ति ततो भावाईल्पतिपत्यर्थमाह-'भगवद्भया' भगः-समग्रैश्वर्यादिलक्षणः स एषामस्तीति भगवन्तस्तेभ्यः, आदि:-धर्मस्य प्रथमा प्रतिस्तस्करणशीला: आदिकरास्तेभ्यः, तीर्यते संसारसमुद्रोऽनेनेति तीर्थ-प्रवचनं तत्करणशीलास्तीर्थकरा तेभ्यः, स्वयम्-अपरोपदेशेन सम्यग् वरबोधिमाप्त्या बुद्धा-मिथ्यात्वनिद्रापगमसंबोधेन स्वयंसंयुद्धास्तेभ्या, तथा पुरुषाणामुचमाः पुरुषोत्तमाः, भगवन्तो हि संसारमप्यावसन्तः सदा परार्थच्यसनिन उपसर्जनीकृतस्वार्या उचितक्रियावन्तोऽदीनभावाः कृतज्ञतापतयोऽनुपहतचित्ता देवगुरुवहुमानिन इति भवन्ति पुरुषोत्तमस्तेिभ्यः, तथा पुरुषाः सिंहा इव कर्मगजान प्रति पुरुषसिंहास्तेभ्यः, तथा पुरुषवरपुण्डरीकाणीव संसारजलासकादिना कर्ममलाभाबतो वा पुरुषेषु वरपुण्डरीकाणि तेभ्या, तथा पुरुषवरगन्धहस्तिन इव परचक्रदुर्भिक्षमारिप्रभृतिक्षुद्रगनिराकरणेनेति पुरुषवरगन्धहस्तिनस्तेम्या, सपा कोको-भव्यसत्त्वपरीकः तस्य सकलकल्याणैकनिषन्धनतया भव्यत्वभाषेनोत्तमा लोकोचमा | शाश्वत जिन-प्रतिमाया: पूजनं ~220~ Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ---------- मूलं [४३-४४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: स्तक रत्न वाचन सू०४३ जिनप्रतिमा प्रत सूत्रांक [४३-४४] पूजादि सु०४४ दीप अनुक्रम [४३-४४] श्रीरामपभी स्वेभ्यः, तया लोकस्य नाथा-योगक्षेमतो लोकनाथास्तेभ्या, तत्र योगो चीभाधानीद्भदपोषणकरण क्षेमं च तत्तदुपद्रवाय- मायगिरी भावापादन, तथा लोकस्य-पाणिलोकस्य पश्चास्तिकायात्मकस्य वा दिता-हितोपदेशेन सम्यमरूपणया वा लोकहितास्वेया दृत्तिः भ्यः, तथा लोकस्य-देशनायोग्यस्य प्रदीपा देशनांशुभिर्ययावस्थितवस्तुभकाशका लोकादीपास्तेभ्यः, तथा लोकस्य-उत्कृष्ट॥१०९॥ मते व्यसञ्चलोकस्य प्रयोतन भयोतकत्वविशिष्ट ज्ञानशक्तिस्तस्करणशीला लोकप्रद्योतकराः, तथा च भवन्ति भगवत्प्रसादा चत्क्षणमेव भगवन्ती गणभृतो विशिष्टज्ञानसंपत्समन्विता यशाद् द्वादशाङ्गमारचयन्तीति, तेभ्यः, तथा अभयं-विशिष्टमात्मनः स्वास्थ्य, निःश्रेयसधर्मभूमिकानिबन्धनभूता परमा धृतिरिनि भावः, ततः अभयं ददतीत्यभयदास्ते यः, सूत्रे च का प्रत्ययः स्वार्थिक पाकृतलक्षणवशाय एवमन्यत्रापि, तथा चक्षुरिव चक्षुः-विशिष्ट आत्मधर्म: तत्वावबोधनिबन्धनः श्रद्धास्वभावः, श्रद्धाविहीनस्याचक्षुप्मत इव रूपं तत्वदर्शनायोगात, तद् ददतीति चक्षुस्तेिभ्यः, तथा मार्गो-विशिष्टगुणस्थानावाप्तिमगुणः मा स्वरसवाही क्षयोपशमविशेषरतं ददतीति मार्गदा, तथा शरण-संसारकान्तारंगतानामतिपयल रागादिपीडितानां समाश्या सनस्थानकल्प तत्त्वचिन्तारूपमध्यवसानं तहदतीति शरणदास्तेभ्यः, तथा बोधिः-जिनप्रणीत प्राप्तिस्तत्त्वार्थश्रदानलक्षणसम्यग्दर्शनरूपा तां ददतीति बोधिदारतेभ्यः, तथा धर्म-चारियरूपं ददतीति धर्मदास्तेभ्या, कथं धर्मदा ? इत्याह-धर्म दिशन्तीति धर्मदेशकास्तेभ्यः, तथा धर्मस्य नायका:-स्वामिनस्तदशीकरणभावात् तत्फलपरिभोगाच धर्मनायकाः तेभ्यः, धर्मस्य सास्थय इव सम्यक् प्रवर्तन योगेन धमसारथ यस्तेभ्या, तथा धर्म एव वर-मधानं चतुरन्त हेतुत्वाव चतुरन्त चक्रमित चतुरन्तचकं तेन पचितुं शीलं येषां ते तथा तेभ्यः, तथा अप्रतिहते-अप्रतिरखलिते क्षायिकत्वात् घरे-पधाने ज्ञानदर्शने धरन्तीति । १०९ ॥ SAMEnirahindi | शाश्वत जिन-प्रतिमाया: पूजन ~221~ Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) प्रत सूत्रांक [४३-४४] दीप अनुक्रम [४३-४४] “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र - १ (मूलं + वृत्तिः ) मूलं [४३-४४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित. आगमसूत्र [१३], उपांग सूत्र [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः Jain Eucator -4500-400003409) 88089440) 48043-409) अतितवरज्ञानदर्शनधरास्तेभ्यः, तथा छादयन्तीति छ यातिकचतुष्टयं व्यात्तम् अपगतं छद्य येभ्यस्ते व्याच्छान स्तेभ्यः, तथा रागद्वेषकपायेन्द्रियपरीषहोपसर्गघातिकर्मशत्रून् स्वयं जितवन्तोऽन्यथ जापयन्तीति जिनाः जापकास्तेभ्यो जिनेभ्यो जापकेभ्यः, तथा भवार्णवं स्वयं तीर्णवन्तोऽन्यांश्च तारयन्तीति तीर्णास्वारकास्तेभ्यः, तथा केवलवेदसा अवगततत्त्वा बुद्धा अन्यथ बोधयन्तीति वोधकास्तेभ्यः, मुक्ताः कृतकृत्या निष्ठितार्था इति भावस्तेभ्योऽन्यांश्च मोचयन्तीति मोचकास्तेभ्यः सर्वज्ञेभ्यः सर्वदर्शिभ्यः शिवं सर्वोपद्रवरहितत्वात् अचलं स्वाभाविकप्रायोगिकच लनक्रियाऽपोहात् अरुजं शरीरमनसोरभावेनाधिव्याध्यसम्भवात् अनन्तं केवलात्मनाऽनन्तत्वाद अक्षयं विनाशकारणाभावात् अव्याबाधं केनापि वाधयितुमशक्यममूर्त्तत्वात् न पुनरावृत्तिर्यस्मात् तदपुनरावृत्ति सिध्यन्ति-निष्ठितार्थं भवन्त्यस्यामिति सिद्धि: - लोकान्तक्षेत्र लक्षणा सेव गम्यमानत्वाद्गतिः सिद्धिगतिरेव नामधेयं यस्य तत् सिद्धिगतिनामधेयं तिष्ठत्यस्मिन् इति स्थानं-व्यवहारतः सिद्धिक्षेत्रं निश्चयतो यथावस्थितं स्वस्वरूपं स्थानस्थानिनोरभेदोपचारात् तत् सिद्धिगतिनामधेयं स्थानं तत्संमाप्तेभ्यः, एवं प्रणिपातदण्डकं पठित्वा ततो 'बंदर नमसद्' इवि वन्दते ताः प्रतिमाञ्चैत्यवन्दनविधिना प्रसिद्धेन, नमस्करोति पश्चात्मणिघाना दियोगेनेत्येके, अन्ये त्वभिदधति - विरतिमतामेव प्रसिद्धश्चैत्यवन्दनविधिरन्येषां तथाऽभ्युपगमपुरस्सरकायन्युत्सर्गासिद्धेरिति वन्दते सामान्येन नमस्करोति आशय वृद्धेरभ्युत्थाननमस्कारेणेति, तध्वमत्र भगवन्तः परमर्षयः केवलिनो विदन्ति, अत ऊर्ध्वं सूत्रं सुगमं केवलं भूयान् विधिविषयो वाचनाभेद इति यथावस्थितवाचनामदर्शनार्थं विधिमात्रमुपदर्श्यते तदनन्तरं लोमहस्वकेन देवच्छन्दकं प्रमार्जयति पानीयधारया अभ्युक्षति, अभिमुखं सिञ्चतीत्यर्थः, तदनन्तरं गोशीर्षचन्दनेन पञ्चाङ्गुलितलं ददाति ततः पुष्पारो शाश्वत जिन - प्रतिमायाः पूजनं For Pale Only ~ 222~ anary or Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ---------- मूलं [४३-४४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: श्रीराजमनी मळयगिरीया दृचि पुस्तक रत्न वाचन ०४३ प्रत सूत्रांक [४३-४४] पूनादि ॥११॥ सू०४४ दीप अनुक्रम [४३-४४] दणादि धूपदहनं च करोति, तदनन्तरं सिद्धायतनबहुमध्यदेशभागे उदकथाराभ्युक्षणचन्दनपश्चालितलप्रदानपुष्पपुोपचा- रधूपदानादि करोति, सता सिदायतनदक्षिणद्वारे समागत्य लोमहस्तकं गृहीता तेन द्वारशाखे चालिभत्रिकाव्यालरूपाणि च प्रमार्जयति,तत उदफषारयाऽभ्युक्षणं गीशीर्षचन्दनचर्चापुष्पाचारोहणं धूपदान करोति । ततो दक्षिणद्वारेण निर्गत्य दाक्षिणात्पस्य मुखमण्डपस्य बहुमध्यदेशभागे लोमहस्तकेन मार्योदकधाराभ्युक्षणं चन्दनपञ्चांगुलितलमदानपुष्पपुशोपचारधूपदानादि करोति, कृत्वा पश्चिमबारे समागस्य पूर्ववत् द्वाराचंनिकां करोति कृत्वा च तस्यैव दाक्षिणात्यस्य मुखमण्डपस्योत्तरस्यां स्तम्भपङ्को समागत्य पूर्ववत्तदनिकां विधत्ते, इह यस्यां दिशि सिद्धायतनादिद्वारं तत्रेतरस्य मुखमण्डपस्य स्तम्भपतिः, ततस्तस्यैव दाक्षिणात्यस्य मुखमण्डपस्य पूर्वद्वारे समागस्प तत्पूनां करोति, कृत्वा तस्य दाक्षिणात्यस्य मुखमण्डपस्य दक्षिणद्वारे समागत्य पूर्ववत्पूजा | विधाय तेन द्वारेण विनिर्गत्य प्रेक्षागृहमण्डपस्य बहुमध्यदेशभागे समागत्याक्षपाटकं मणिपीठिका सिंहासनं च लोमहस्तकेन प्रमा| योदकधारयाऽभ्युक्ष्य चन्दनचर्चापुष्पपूजाधूपदानानि कृत्वा तस्यव प्रेक्षामण्डपस्य क्रमेण पश्चिमोत्तरपूर्वदक्षिणद्वाराणामर्च निकां कृत्वा दक्षिणद्वारेण विनिर्गत्य चैत्यस्तूपं मणिपीटिकां च लोमहस्तकेन प्रमार्योदकधारयाऽभ्युक्ष्य सरसेन गोशीर्षचन्दनकेन पञ्चांगुलितलं दवा पुष्पाधारोहणं च विधाय धूपं ददाति, ततो यत्र पावाल्या मणिपीटिका तत्रागच्छति, तत्रागत्यालोके प्रणामं करोति; कृत्वा लोमहस्तकेन प्रमार्जनं सुरभिगन्धोदकेन स्नानं सरसेन गोशीर्षचन्दनेन गात्रानुलेपनं देवदूष्ययुगलपरिधानं पुष्पाचारोहणं पुरतः पुष्पपुञोपचारं धूपदानं पुरतो दिव्यतन्दुलैरष्ट| मङ्गलकालेखनमष्टोतरशतः स्तुति प्रणिपातदण्डकपाटं च कृत्वा वन्दते नमस्पति, तत एवमेव क्रमेण उत्तरपूर्वदक्षिणप्रतिमा- ११०॥ aurary.om शाश्वत जिन-प्रतिमाया: पूजनं ~223~ Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) प्रत सूत्रांक [४३-४४] दीप अनुक्रम [४३-४४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. Education International “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र - १ (मूलं + वृत्तिः ) शाश्वत जिन - प्रतिमायाः पूजनं मूलं [४३-४४] आगमसूत्र [१३], उपांग सूत्र [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः नामप्यचैनिकां कृत्वा दक्षिणद्वारेण विनिर्गत्य दक्षिणस्यां दिशि यत्र चैत्यवृक्षः सत्र समागत्य चैत्यवृक्षस्य द्वारवदर्चनिकां करोति, ततो महेन्द्रध्वजस्य ततो यत्र दाक्षिणात्या नन्दा पुष्करिणी तत्र समागच्छति, समागत्य तोरण त्रिसोपानप्रतिरूपकगवशालभञ्जिकाव्यालकरूपाणां लोमहस्तकेन प्रमार्जनं जलधारयाऽभ्युक्षणं चन्दनचच पुष्पाद्यारोहणं धूपदानं च कृत्वा सिद्धायतनममुपदक्षिणीकृत्योत्तरस्यां नन्दापुष्करिण्यां समागत्य पूर्ववत्तस्या अवनिकां करोति, तत उत्तराहे महेन्द्रध्वजे तदनन्तरमुत्तराहे चैत्यवृक्षे तत उत्तराहे चैत्यस्तूपे ततः पश्चिमोत्तरपूर्वदक्षिणजिनप्रतिमानां पूर्ववत् पूजां विधायोत्तराहे प्रेक्षागृह मण्डपे समागच्छति, तत्र दाक्षिणात्यमेक्षागृहमण्डपवत् सर्वा वक्तव्यता वक्तव्या, ततो दक्षिणस्तम्भपंक्त्या विनिर्गत्योत्तराहे मुखमण्डपे समागच्छति, तत्रापि दाक्षिणात्यमुखमंडपवत् सर्वं पश्चिमोत्तरपूर्वद्वारक्रमेण कृत्वा दक्षिणस्तम्भवतया विनिर्गत्य सिद्धायतनस्योचरद्वारे समागत्य पूर्ववदर्द्धनिकां कृत्वा पूर्वेद्वारेण समागच्छति, तत्रार्चनिकां पूर्ववत् कृत्वा पूर्वस्य मुखमण्डपस्य दक्षिणद्वारे पश्चिमस्तम्भपंतयोत्तरपूर्वद्वारेषु क्रमेणोक्तरूपां पूजां विधाय पूर्वद्वारेण विनिर्गत्य पूर्वमेक्षागृहमण्डपे समागत्य पूर्ववत् द्वारमध्यभागदक्षिणद्वारपश्चिमस्तम्भपंक्तयो तरपूर्वेद्वारेषु पूर्ववदचैनिकां करोति, ततः पूर्वप्रकारेणैव क्रमेण चैत्यस्तूपजिनमतिमाचैत्यवृक्ष महेन्द्रध्वजनंदा पुष्करिणीनां ततः सभायां सुधर्मायां पूर्वद्वारेण प्रविशति, प्रविश्य यत्रैव मणिपीठिका तत्राऽऽगच्छति, आलोके च जिनमतिमानां प्रणामं करोति, कृत्वा यत्र माणकचैत्यस्तम्भो यत्र वज्रमया गोलवृत्ताः समुद्रकाः तत्रागत्य समुकान् गृह्णाति, गृहीत्वा विघाटयति विघाटय च लोमहस्तकं परामृश्य तेन प्रमाज्योंदकधारया अभ्युक्ष्य गोशीर्षचन्दनेनानु किम्पति, ततः प्रधानैधमाल्यैरचयति धूपं दहति, तदनन्तरं भूयोऽपि वज्रमयेषु गोलवृत्तसमुद्वेषु प्रतिनिक्षिपति, प्रतिनिक्षिप्य For Para Use Only ~ 224~ waryrp Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ---------- मूलं [४३-४४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४३-४४] तान् बजमयान गोलवृत्तसमुद्कान् स्वस्थाने प्रतिनिक्षिपति, तेषु पुष्पगन्धमाल्यवस्वाभरणानि चारोपयत्ति, ततो लोमहस्तकेन || श्रीराजपनी पुस्तक रत्न मलयगिरी माणकचैत्यस्तम्भं प्रमार्योदकधारयाऽभ्युक्षणचन्दनचर्चापुष्पाचारोपणं धूपदानं च करोति, कृत्वा च सिंहासनप्रदेशे समागत्या वाचन या वृत्तिः समणिपीठिकाया: सिंहासनस्य च लोमहस्तकेन प्रमार्जनादिरूपां पूर्ववदर्च निकां करोति, कृत्वा यत्र मणिपीठिका यत्र च देव- ०४३ शयनीयं तत्रोपागत्य मणिपीठिकाया देवशयनीयस्य च द्वारवदर्च निकां करोति, तन उक्तमकारेणैव क्षुल्लकेन्द्रध्वजे पूनां करोति, जिनमतिमा ततो यत्र चोप्पालको नाम प्रहरणकोशस्तत्र. समागत्य ले.महस्तकेन :परिवरत्नप्रमुखाणि पहरणरत्नानि प्रमार्जयति, पूजादि प्रमार्योदकधारयाऽभ्युक्षणं चंदनचर्चा पुष्पाधारोपणं धूपदानं च करोति, तत सभायाः मुधर्माया बहुमध्यदेशभागेऽचनिकांव | पूर्ववत् करोति, कृत्वा सुधर्मायाः सभाया दक्षिणद्वारे समागत्य तस्य अनिका पूर्ववत् कुरुते, ततो ददिगद्वारेण | विनिर्गच्छति, इत उर्च यथैव सिद्धायतनानिष्कामतो दक्षिणद्वारादिका दक्षिणनन्दापुष्करिणीपर्यवसाना पुनरपि प्रवि शतः उत्तरनन्दापुष्करिण्यादिका उत्तरद्वारान्ता ततो द्वितीयद्वारा निष्कामतः पूर्वद्वारादिका पूर्वनन्दापुष्करिणीपर्यवसाना CI अनिका वक्तव्यता सैव सुधर्मायां सभायामप्यन्यूनातिरिक्ता वक्तव्या, ततः पूर्वनन्दापुष्करिण्या अनिकां कृत्वा उपपातसभा पूर्वद्वारेण प्रविशति, प्रविश्य च मणिपीठिकाया देवशयनीयस्य तदनन्तरं बहुमध्यदेशभागे प्रावदनिकां विदधाति, ततो दक्षिणद्वारे समागस्य तस्यार्च निकां कुरुते, अत ऊर्वमत्रापि सिद्धायतनवत् दक्षिणद्वारादिका पूर्वनन्दापुष्करिणीपर्यवसानाs| चैनिका वक्तव्या, ततः पूर्वमन्दापुष्करिणीतोऽपक्रम्य इदे समागत्य पूर्ववत् तोरणार्च निकां करोति, कृत्वा पूर्वद्वारेणाभिषेकजासभा प्रविशति; मविश्य पणिपीठिकायाः सिंहासनस्याभिषेकमाण्डस्य बहुमध्यदेशभागस्य च क्रमेण पूर्ववदनिकां करोति, 51 १११॥ दीप अनुक्रम [४३-४४] Siminataram.org | शाश्वत जिन-प्रतिमाया: पूजनं ~ 225~ Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) प्रत सूत्रांक [४३-४४] दीप अनुक्रम [४३-४४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित. Education Internationa “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र - १ (मूलं + वृत्तिः ) शाश्वत जिन - प्रतिमायाः पूजनं मूलं [४३-४४] आगमसूत्र [१३], उपांग सूत्र [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः ततोऽत्रापि सिद्धायतनवत् दक्षिणद्वारादिका पूर्वनन्दापुष्करिणीपर्यवसानाऽर्थनिका वक्तव्या, ततः पूर्वनन्दापुष्करिणीत: पूर्वद्वारेणालङ्कारिकसभां प्रविशति, प्रविश्य मणिपीठिकायाः सिंहासनस्य बहुमध्यदेशभागस्य च क्रमेण पूर्वत्रद चैनिकां करोति, तत्रापि क्रमेण सिद्धायतनवत् दक्षिणद्वाराऽऽदिका पूर्वनन्दापुष्करिणीपर्यवसानाऽचैनिका वक्तव्या, ततः पूर्वनन्दापुष्करिणीतः पूर्वद्वारेण व्यवसायसभां प्रविशति, मविश्य पुस्तकरत्नं लोमहस्तक्रेन प्रमृज्योदकधारया अभ्युक्ष्य चन्दनेन चर्चयित्वा वरम्धमाल्यैरर्चयित्वा पुष्पायारोपणं धूपदानं च करोति, तदनन्तरं मणिपीठिकायाः सिंहासनस्य बहुमध्यदेश भागस्य च क्रमेण पूर्ववदनिकां करोति, तदनन्तरमत्रापि सिद्धायतनवत् दक्षिणद्वारा दिका पूर्वनन्दापुष्करिणीपर्यवसाना अर्चनिका वक्तव्या, ततः पूर्वनन्दापुष्करिणीतो बलिपीठे समागत्य तस्य बहुमध्यदेश भागवत् अर्चनिकां करोति, कृत्वा चाभियोगिकदेवान् शब्दापयति, शब्दापयित्वा एवमवादीत्- 'खिप्पामेवे' त्यादि सुगमं यावत् 'तमाणत्तियं पञ्चप्पिनंति' नवरं शृङ्गाटक-शृङ्गाटकाऽऽकृतिपथयुक्तं त्रिकोणं स्थानं त्रिकं यत्र रध्यात्रयं मिलति, चतुष्कं चतुष्पचयुक्तं, चत्वरं बहुरथ्यापातस्थानं, चतुर्मुखं यस्माश्ञ्चतनुष्वपि दिपन्यानो निस्सरन्ति, महापथः- राजपथः शेषः सामान्यः पन्थाः पंथाः प्राकारमतीतः, अट्टालका:- माकारस्योपरि मृत्याश्रयविशेपाः, चरिका अट्टहस्वप्रमाणो नगरप्राकारान्तरालमार्गः द्वाराणि प्रासादादीनां गोपुराणि माकारद्वाराणि तोरणानि द्वारादिसम्ब न्धानि आरमन्ते यत्र माधवीलतागृहादिषु दम्पत्या वित्यसावारामः पुष्पादिमयनुक्षसंकुलमुत्सवादी बहुजनोपभोग्यमुयानं, सामावृक्षवृन्दनगरास काननं, नगरविप्रकृष्टं वनम, एका नेकजातीयोत्तमवृक्षसमूहों वनखण्डः, एकजातीयोत्तमवृक्षसमूहो वनराजी, तए ण' मित्यादि, ततः सूर्याभदेवो बलिपीठे बलिविसर्जनं करोति, कृत्वा चोत्तरपूर्वानन्दापुष्करिणीमनुप्रदक्षिणीकुर्वन् For Peralata Use Only ~226~ 本サ 40 waryru Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) प्रत सूत्रांक [४३-४४] दीप अनुक्रम [४३-४४] “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र - १ (मूलं + वृत्तिः ) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित. श्रीराजमनी मयागरी - या वृत्तिः ॥ ११२ ॥ मूलं [ ४३-४४ ] आगमसूत्र [१३], उपांग सूत्र [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः पूर्वतोरणेनानुप्रविशति, अनुप्रविश्य च हस्तौ पादौ प्रक्षालयति प्रक्षाल्य नन्दापुष्करिण्याः प्रत्यवतीर्य सामानिकादिपरिवारसहितः सर्व यावद् दुन्दुभिनिर्घोषनादितरवेण सूर्यामविमाने मध्येमध्येन समागच्छन् यत्र सुधर्मा सभा सत्रागत्य तां पूर्वदारेण प्रविशति प्रविश्य मणिपीठिकाया उपरि सिंहासने पूर्वाभिमुखो निषीदति ॥ ( सू० ४४ ) ॥ तए णं तस्स सूरिया भस्स देवस्स अवरुत्तरेणं उत्तरपुरच्छिमेणं दिसि भाएणं चत्तारिय सामाणियसाहस्सीओ उसु भद्दासणसाहस्सीसु निसीयंति, तए णं तस्स सूरियाभस्स देवस्स पुरथिमिल्लेणं चत्तारि अग्गमहिसीओ उसु भद्दाससु निसीयंति, तए णं तस्स सूरिया भस्स देवरस दाहिणपुरत्थिमेणं अभितरियपरिसाए अट्ठ देवसाहस्सीओ अट्ठसु भद्दास णसाहस्सीसु निसीयंति, तर णं तस्स सूरियाभस्त देवस्स दाहिणेणं मज्झिमाए परिसाए दस देवसाहस्सीओ दससु भद्दा सणसाहस्सीसु निसीयंति, तए तरस सूरियाभस्स देवस्स दाहिणपञ्चत्थिमेणं वा हिरियाए परिसाए बारस देवसाहस्सी तो बारससु भद्दा सणसाहस्सीसु निसीयंति, तए णं तरस सूरियाभस्स देवस्स पञ्चत्थिमेणं सत्तअणियाहिवणो सन्तहिं भद्दासहि णिसीयंति, तए णं तस्स सुरियाभस्स देवस्स चउद्दिसिं सोलस आयरक्खदेव साहसीओ सोलसहिं महासणसाहस्सीह णिसीयंति, तंजहा-पुरथिमिल्लेणं चत्तारि साहसीओ दाहिणं चत्तारि साहस्सीओ पथत्थिमेणं चत्तारि साहस्सीओ उत्तरेणं चत्तारि साहस्सीओ, ते णं आयरक्खा सन्नवम्मियकवया उप्पीलियस रासणपहिया पिणडगेविजा बडआवि For Parts Only ~ 227 ~ सूर्याभस्य ससामा निकादि कस्य समोपदेशनं सू० ४५ ॥ ११२ ॥ Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) (१३) --------- मूलं [४५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सुत्राक [४५] दीप अनुक्रम [४५] रविमलवरचिंधपहागहियाउहपहरणा तिणयाणि तिसंघियाई वयरामयाई कोडीणि धणूई पगिजा पडियाइयकंडकलावा णीलपाणिणो पीतपाणिणो रत्तपाणिणो चावपाणिणो चारूपाणिणो धम्मपाणिणो दंडपाणिणो खग्गपाणिणो पासपाणिणो नीलपीयरत्तचायचारुचम्मदंडखग्गपासधरा आयरक्खा रक्खोवगया गुत्ता गुत्तपालिया जुत्ता जुत्तपालिया पत्तेयं २ समयओ विणपओ किंकरभूया चिट्ठति ॥ (सू०४५)॥ ततः मागुपदर्शितसिंहासनक्रमेण सामानिकादय उपविशन्ति, 'ते ण आयखा' इत्यादि, ते आत्मरक्षाः सन्नदबद्धवर्मितकवचा उत्पीडितशरासनपट्टिकाः पिनद्धौवेया-अवेयकाभरणाः आषिद्धविमलवरचितपट्टा गृहीताऽऽयुधपहरणाखिनतानि आदिमध्यावसानेषु नमनभावात् त्रिसन्धीनि आदिमध्यावसानेषु संधिभावात् यत्रमयकोटीनि धपि अभिगृह्य 'परियाइयकंडकलावा' इति पत्तिकाण्डकलापा विचित्रकाण्डकलापयोगात्, केऽपि 'नीलपाणिणो' इति नील: काण्डकलाप इति गम्यते पाणी येषां ते नीलपाणयः, एवं पीतपाणयो रक्तपाणयः चापं पाणी येषां ते चापपाणयः चारु:प्रहरणविशेष: पाणी येषां ते चारुपाणयः चर्म अंगुष्ठांगुल्योराच्छादनरूपं येषां ते चर्मपाणया, एवं दण्डपाणयः खङ्गपाणयः पाशपाणयः, एतदेव व्याचष्टे-यथायोगं नीलपीतरक्तचापचारुचर्मदडखापाशधरा आत्मरक्षा रक्षामुपगच्छति सदेकचित्ततया तत्परायणा वर्तन्ते इति रक्षोपगा: गुप्ता न स्वामिभेदकारिणः,तथा गुप्ता-पराभवेश्या पाकि:-सेतुर्येषां ते गुप्तपालिका,तथा युक्ताः-सेवकगुणोपेततया उचितास्तथा युक्ता:-परस्परसंबद्धा नतु बृहदन्तरा पालियेषां वे युक्तपालिकाः, समयत:-आचारतः ~ 228~ Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय"- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ---------- मूलं [४५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: श्रीराजप्रश्नी मलयगिरीया वृत्तिः प्रत सूत्राक ॥१३॥ [४५] आचारेणेत्यर्थः चिन यतश्च किंकरभूता इव तिष्ठति, न खलु वे किंकराः, किन्तु तेऽपि मान्या, तेषामपि पृथगासननिपातनात केवल ते तदानीं निजाचारपरिपालनतो विनीतत्वेन च तयाभूता इव तिष्ठंति, तत उक्तं किंकरभूता इवेति, 'तेहिं चाहिं कसूर्याभ सूर्याभस्य स्थितिः सामाणियसाहस्सीहि, इत्यादि मुगर्म, यावत् 'दिच्चाई भोगभोमाई मुंजमाणे विहरवि' इति ॥ (सू०४५) सूरियाभस्स णं भंते! देवस्स केवइयं कालं ठिती पण्णत्ता ?, गोयमा ! चत्तारि पलिओ पूर्वभवप्रमः कैकयी वमाई ठिती पण्णता, सूरियाभस्स णं भंते ! देवस्स सामाणियपरिसोववण्णगाणं देवाणं केवइयं l सुगवन कालं ठिती पण्णचा ?, गोयमा ! चत्तारि पलिओवमाई ठिती पण्णता, महिद्दीए महजुत्तीएम पदेशिव० महब्बले महायसे महासोक्खे महाणुभागे सूरियाभे देवे, अहो णं भंते ! सूरियाभे देवे महिड्ढीए . ४६-८ जाव महाणुभागे ।। (सू०४६)॥ सूरियाभेणं भंते ! देवे णं सा दिवा देविहदी सा दिवा देवजुई से दिवे देवाणुभागे किपणा लद्धे किण्णा पत्ते किण्णा अभिसमन्नागए? पुरभवे के आसी किनामए वा'को वा गुत्तण कयरंसि चा गामंसि वाजाव सन्निवेसंसि वा? किंवा दया किंवा भोचा किंवा किचा किंवा समायरित्ता कस्स वा तहारूवस्स समणस्स वा माहणस्स वा अंतिए एगमवि आरियं धम्मिय सुषपणं सुधानिसम्मोजण्णं सूरियामेणं देवेणं सा दिवा देविढी जाव देवाणुभागे लडे पने अभिसमन्नागए ॥(सू०४७)॥ गोयमाई ! समणे भगवं महावीरे भगवं गोयमं आमंतेचा एवं वयासी-एवं खलु गोयमा ! तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव जंबुद्दीवे दोये भारहे वासे केयइअहे ११३॥ दीप अनुक्रम [४५] SAREmiratining ~229~ Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) "राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ---------- मूलं [४६-४८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४६-४८] दीप अनुक्रम [४६-४८] नामे जणवए होत्था, रिद्धस्थिमियसमिहे, तत्थ णं केइयअहे जणवए सेपविया णाम नगरी होत्था, रिडस्थिमियसमिहा जाव पडिरूवा। तीसे ण सेयवियाए नगरीए बहिया उत्तरपुरथिमे दिसीभागे पत्थ ण मिगवणे णाम उजाणे होत्या, रम्मे नंदणवणपगासे सपोउयफलसमिन्डे सुभसुरभिसीयलाए छायाए सवओ व समणुचढे पासादीए जाव पडिरूवे, तत्थ ण सेयवियाए णगरोए पएसी णामं राया होत्था, महयाहिमवंत जाव विहरह अधम्मिए अधम्मिट्टे अधम्मक्खाई अधम्माणुए अधम्मपलोई अधम्मपजणणे अधम्मसीलसमुयारे अधम्मेण चेव वित्ति कप्पेमाणे हणछिंदर्भिदापवत्तए चने रुदे खुद्दे लोहियपाणी साहस्तीए उकंचणवंचणमायानियडिकूडकवडसायिसंपओगबहले निस्सीले निषए निग्गुणे निम्मेरे निप्पचक्खाणपोसहोववासे बहणं दुपयचउप्पयमियपसुपक्षीसिरिसवाण घायए वहाए उच्छेणयाए अधम्मकेऊ समुट्ठिए, गुरूणं णो अन्भुटेति णो विणयं पजइ, समण सयस्सवि य णं जणवयस्स णो सम्मं करभरवित्ति पवने ॥ (स०४८)। 'सूरियाभस्स भंते ! देवस्स केवइयं काल' मित्यादि सुगम ॥ (मू०४६)॥'गामसि येति असते बुद्धयादीन् गुणान् यदिवा गम्यः शाखपसिद्धानामहादशानां कराणामिति ग्रामस्तस्मिन् 'नगरसि वे' ति न विद्यते करो यस्मिन् तन्नगरं तस्मिन् निगमः-प्रभूततरवणिग्वर्गावासः राजाधिष्ठान नगरं राजधानी पांभूपाकारनिवर्ट खेटं चालकप्राकारष्टितं की अर्धगव्यूततृतीयान्तीमान्तररहितं मैडपं, 'पणसि वे' ति पट्टन-जलस्थलनिर्गममवेशः, उक्तं - Hrwasaramorg ~230~ Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ---------- मूलं [४६-४८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: श्रीराजप्रश्नो मलयगिरीया हित्तः ॥११४॥ कैकयी प्रत सूत्रांक [४६-४८] | " पहन शकटैगम्य, घोटकेनौं भिरेव च । नौभिरेव तु यद् गम्य, पत्तनं तत्पचक्षते ॥१॥" द्रोणमुख-जलनिर्गमप्रवेश, मायाभक्ष्य पत्तनमित्यर्थः, आकरो-हिरण्याकरादि आश्रम:-तापसावसथोपलक्षित आश्रयविशेषः संवाधो-यात्रासमागतमभूतजननि- ICLESH वेशः सन्निशा-तथाविधमाकृतलोकनिवासः' किंवा दचे' त्यादि, दचा अशनादि भुक्त्वा अन्तमान्तादि कत्ला तपशुभ- DX पूर्वभवमनः ध्यानादि समाचर्य प्रत्युपेक्षाप्रमार्जनादि (॥ सू०४७॥) केइयअडे जणथए होत्था' केकयीनामार्दै-अर्थमात्रमा मृगवन यत्वेनेति गम्यते, स हि परिपूर्णो जनपदः, केवलमर्द्धमार्यमई चानार्थमार्यण चेह प्रयोजनमित्युर्द्धमित्युक्तं, जनपद आसीत् पदेशिव. 'सहोउयफलसमिद्धे रम्मे नंदनवनप्पकासे' इत्यादि, सर्व कैः-सर्वर्तुभाविभिः पुष्पैः फलैश्च समृद्धिमत्, एवं म.४६-४ रम्यं-रमणीय नन्दनवनप्रतिम शुभमुरभिशीतलया छायया सर्वतः समनुबद्धं 'पासाईए' इत्यादि पदचतुष्टयं पूर्ववत् । 'महया हिमवते ' त्यादि राजवर्णनं माम्बत् , 'धम्मिए' इति धर्मण चरति धार्मिको न धार्मिक: अधार्मिका, तत्र सामान्यतोऽप्यधार्मिक स्यादत आह-अधर्मिष्ट:-अतिशयेनाधर्मवान् अत एवाधर्मेण ख्यातिर्यस्यासावधर्मख्याति: "अधम्माणुए' इति अधर्ममनुगच्छति अधर्मानुगतः तथा अधर्ममेव प्रलोकते-परिभावयतीत्येवंशीलोऽधर्ममलोकी 'अधम्मप्पजणणे' इति अधर्म प्रकर्षण जनयति-उत्पादयति लोकानामपीत्यधर्मप्रजननः अधर्मशीलसमुदाचारोन धर्मात् किमपि भवति तस्यैवाभावादित्येवमधर्मणवोस-सर्वजन्तूनां यापनां कल्पयन् “हणछिदर्भिदापवत्तए' अहि छिद्धि भिद्धि' इत्येवं प्रवर्तकोऽत एवं लोहितपाणिः-मारयित्वा हस्तयोरप्यपक्षालनात् अत एव पापः पाप| कर्मकारित्वात् चण्डा तीवकोपावेशात रौद्रो निस्तंशकर्मकारित्वात् साहसिका परलोकमयाभावात् 'उकंचणवंचण दीप अनुक्रम [४६-४८] SaiREnatanim FaPranaamaan unsony Ballurmurary.com अत्र सूर्याभदेवस्य प्रकरणं परिसमाप्त: अथ प्रदेशीराज्ञस्य प्रकरणं आरभ्यते ~231~ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) "राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ---------- मूलं [४६-४८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४६-४८] दीप अनुक्रम [४६-४८] मायानियडिकृडकवडसाइसंपओगबहुले' इति ऊर्च कंचनामुत्कंचन-हीनगुणस्य गुणोत्कर्षपतिपादन वैचा-पतारण | माया-परवंचनबुद्धिः निकृति-बकवृत्या गलकर्चकानामिवावस्थानं कूटम्-अनेकेषां मृगादीनां ग्रहणाय नानाविधप्रयोगकरणं कपट-नेपध्यभाषाविपर्ययकरणं एभिरुत्कञ्चनादिभिः सहातिश्चयेन या संपयोगो-योगस्तेन बहुला, अथवा सातिसंप्रयोगो नाम या सातिशयेन द्रव्येण कस्तूरिकादिना अपरस्य संप्रयोगा, उक्तं च सूत्रकृताङ्गचूर्णिकृता-“सो होइ साइजोगो दई ज छुहिय अन्नदवे । दोसगुणा चयणेमु य अत्यविसंवायणं कुणइ ॥१॥” इति, तत्संपयोगे बहुला, अपरे व्याख्यानयन्ति-उत्कंचन नाम उत्कोचा, निकृतिः-वञ्चनपच्छादनकर्म साति:-विश्रम्भः, एतत्संपयोगबहुल:, शेषं तथैव, निशीलो-ब्रह्मचर्यपरिणामाभावात् निर्वतो-हिंसादिविरत्यभावात् निर्गुणा-क्षान्त्यादिगुणाभावात् निर्मर्यादा-परस्त्रीपरिहारादिमर्यादाविलोपित्वात् निष्पत्याख्यानपोषधोपवास:-पत्याख्यानपरिणामपर्वदिवसोपवासपरिणामाभावात्, पहना विपदचतुष्पद- 11 मृगपशुपक्षिसरिसृपानांधाताय-विनाशाय बघाय-ताहनाय उच्छादनाय-निर्मूलाभावीकरणाय अधर्मरूपः केतुरिव-ग्रहविशेष इव समुत्थितः, न च गुरूणां-पित्रादीनामागच्छतानामभ्युत्तिष्ठति-अभिमुखमृर्ष तिष्ठति, न च विनयं प्रयुक्ते, नापि श्रमणघालणभिक्षुकाणामभ्युत्तिष्ठति, न च विनयं प्रयुक्ते, नापि स्वकस्यापि-आत्मीयस्यापि जनपदस्यापि सम्पकरभरहरि प्रययति ॥ (सू०४८)॥ तस्स णं पएसिस्स रनो सूरियकता नाम देवी होत्था,सुकुमालपणिपाणिपापा धारिणीवपणओ, पएसिणा रना साह अणुरत्ता अविरत्ता इढे सद्दे रूवे जाव विहर (सू० ४९)॥ तस्स णं Purwasaram.org ~232~ Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) "राजप्रश्निय"- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ---------- मूलं [४९-५०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: श्रीराजमश्नी मलयगिरीया वृत्तिः प्रत सूत्रांक [४९-५०] ५०-4. दीप अनुक्रम [४९-५०] पएसिस्स रपणो जेट्टे पुत्ते सूरियकताए देवीए अत्तए सूरियकते नाम कुमारे होत्था, सुकुमालपाणिपाए जाव पडिसवे । से णं सूरियकते कुमारे जुवरायावि होत्था, पएसिस्स रन्नी रज च रहूं च राजीव सुर्यकान्त पलं च वाहणं च कोसं च कोडागारं च अंतेउरं च जणवयं च सयमेव पहचुवेक्खमाणे २ विहरद कुमारव० ॥(सू०५०)॥ 9 चित्रसा'तस्स पएसिस्स रनो सूरीकता नाम देवी होत्था,सकुमालपाणिपाया इत्यादि देवीवर्णनं प्राग्वत् । प्रदेशिना रथिव० राज्ञा सार्द्धमनुरक्ता अविरक्ता- कश्चिद्विप्रिय करणेऽपि विरागाभावात् । कुमारवर्णनं 'सुकुमालपाणिपाए' इत्यादि जाव 18मु०४९ 'सुन्दरे' इति, अत्र यावत्करणात 'अहीणपंचिंदियसरीरे लवखणवंजणगुणोववेए माणुम्माणपमाणपरिपुरणमुजायसवंगसुन्दरंगे ससिसोमाकारे केते पियद रिसणे सुरूवे' इति द्रष्टव्यं, एतच्च देवीवर्णकवत् स्वयं परिभाबनीय, स च सूर्यकान्तो नाम कुमारो युवगजा अभूत, प्रदेशिनो राशो राज्य-राष्ट्रादिसमुदायात्मकं राष्ट्र च-जनपदं च बलं च-हस्त्यादिमैन्य वाहनं च-वेगसरादिक कोशे च-भाण्डागार कोष्ठागारं च-धान्यगृई पुरं च-नगरमन्तःपुरं च-अवरोधं चात्मनैव-स्वयमेव समुत्प्रेक्षमाणो-ग्यापारयन् ॥ (सू० ४९-५०)। तस्स णं पएसिस्स रन्नो जेट्टे भाउयवयंसए चित्ते णाम सारही होत्था अढे जाव बहुजणस्स अपरिभूए सामदंडभेय उवप्पयाणअस्थसत्थईहामइविसारए उत्पत्तियाए घेणतियाए कम्मयाए ॥१५॥ पारिणामियाए चाउनिहाए चुडीए उववेए, पएसिस्स रणो बहुम कम्नेसु य कारणेसु य कुबेसु Amlamurary.om ~233~ Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय"- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ---------- मूलं [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सुत्रांक दीप अनुक्रम [५१] य मंतेसु य गुज्झेसु य रहस्सेसु य ववहारेसु य निच्छएसु य आपुच्छणिज्जे मेढी पमाणं आहारे ___ आलवर्ण चक्खू मेदिभूए पमाणभूए आहारभूए आलंबणभूए सहवागसबभूमियामु लहपश्चए विदिण्णविचारे रजधुरार्चितए आवि होत्था ॥ (सू०५१ ॥ 'चित्ते नाम सारही होत्या अदे दित्त' इति आदया-समुखी दोत:-कान्तिपान क्वि:-प्रतीतो यावतकरणात |'विउलभवणसयणासणजाणवाहणाइण्णे बहुदासीदासगोमहिसगवेलगप्पभूते बांधणबहुजायरूपस्यए विपछवियपउर भत्तपाणे' इति परिग्रह, अस्य व्याख्या राजवर्णकवत् परिभावनीया, 'बहुजणस्स अपरिभूए' राजमान्यत्वात् स्वय च जात्यक्षत्रियत्वात, 'साममेयदंड उपप्पयाणअत्थसत्थईहामइविसारए' इति, सामभेददण्डोषप्रदानलक्षणानां नीतीना-IY ॐ पर्थशास्त्रस्य अर्थोपायव्युत्पादनग्रन्थस्य ईहा-विमर्शस्तत्प्रधाना मतिरीहामतिस्तया विशारदो-विचक्षणः सामभेददण्डोपपदानार्थ शास्त्रेहामतिविशारदः उत्पत्तिक्या-अदृष्टाश्रुताननुभूतविषयाकस्माद्भवनशीलया बैनयिक्या-विनयलभ्यशास्त्रार्थसंस्कारजन्यया कर्मजया-कृषिवाणिज्यादिकर्मभ्यः सप्रभावया पारिणामिक्या-प्रायोपयो विपाकजन्यया एवंरूपया चतुर्विधया बुद्धया उपपेन। प्रदेशिनो राझो बहुषु कार्येषु कर्तव्येषु कारणेषु-कर्तव्योपायेषु कुटुम्घेषु स्वकीयपरकीयेषु विषयभूतेषु मन्त्रेषु-राज्यादिचिन्तारूपेषु गुहोषु-बहिर्जनाप्रकाशनीयेषु रहस्येषु-तेष्येवापडक्षीणेषु निश्चयेषु' निश्चीयते इति निश्चया:-अवश्यकरणीयाः कर्तव्यविशेषास्तेषु व्यवहारेषु-आवाहन विसर्जनादिरूपेषु आपृच्छनीय:-सकृत् पृच्छनीया प्रतिपच्छनीया-असकृत् पृच्छनीयः,किपिति!, यत्तोऽसौ 'मेदी' इति मेदी-खलकमध्यवर्तिस्थूणा यस्यां नियमिता गोपंक्तिर्धान्य ग्राहयति तद्वद् यमालम्ब्य सकल मन्त्रिमण्डलं ~234~ Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) प्रत सूत्रांक [५१] दीप अनुक्रम [५१] “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र - १ (मूलं + वृत्तिः) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. श्रीराजमश्री मयगिरी या वृत्तिः ।। ११६ ।। । मूलं [५१] आगमसूत्र [१३] उपांग सूत्र [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः मन्त्रणीयान् अर्थान् धान्यपिव विवेचयति स मेडिः, तथा प्रमाण- प्रत्यक्षादि तद्वत् यस्तदृष्टानामर्थानामन्यभिचारित्वेन तत्रैव मन्त्रिणां तिनिवृत्तिभावात् स प्रमाणः, आधार आधेयस्येव सर्वकार्येषु लोकानामुपकारित्वात्, तथा 'आलम्बनं' रज्ज्वादि तद्वत् आपद्गर्त्तादिनिस्तारकत्वात् आलम्बनं, तथा चक्षुः-लोचनं तल्लोकस्य यो विविधकार्येषु प्रवृत्तिनिवृत्तिविषयदर्शकः स चक्षुः, एतदेव प्रपञ्चयति मेदिभूए' इत्यादि, अत्र भूतशब्द औपम्यार्थः, मेदिसदृश इत्यर्थः, 'सव्वाणसव्वभूमियासु लडपथ' इति, सर्वेषु स्थानेषु कार्येषु संधिविग्रहादिषु सर्वासु भूमिकासु-मन्त्र्यमात्यादिस्थानरूपातु लब्धा उपलब्धः प्रत्ययः प्रतीतिः अविसंवादवचनता यस्य स तथा, 'विष्णविचारो' इति वितीर्णोराज्ञाऽनुज्ञातो विचार:- अवकाशो यस्य विश्वसनीयत्वात् सवितीर्णविचारः सर्वकार्यादिष्विति प्रकृतं, किंबहुना ! - राज्यधुराचिन्तकथापि राज्यनिर्वाहकश्वाप्यभवत् ॥ (०५१) ॥ ते काले ते समएणं कुणाला नाम जणवए होत्था, रिडत्थिमियसमिद्धे, तत्थ णं कुणालाए जणवए सावत्थी नाम नयरी होत्था रिडत्थिमियसमिद्धा जाव पडिरूवा । तीसे णं साबत्थीए नगरीए बहिया उत्तरपुरत्थिमे दिसीभाए कोइए नाम चेहए होत्था, पोराणे जाव पासादीप ४, तत्थ णं सावत्थीए नयरीए पएसिस्स रन्नो अंतेवासी जियसत्तू नामं राया होत्था, महयाहिमवंत जाब विहर। तए णं से पएसी राया अन्नया कयाइ महत्थं महग्धं महरिहं विउलं रायारिहं पाहुडे सज्जावे, सज्जावित्ता चित्तं सारहि सहावे सदावित्ता एवं व्यासी-गच्छ णं चित्ता ! तुमं सावत्थिं नगरिं जिवसत्तुस्स रण्णो इमं महत्थं जाव पाहृढं उबणेहि, जाईं तत्थ रायक For Pasta Use Only ~ 235~ चित्रस्व जितशडपार्श्वे गमने सू० ५२ ॥ ११६॥ andrary.org Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) प्रत सूत्रांक [५२] दीप अनुक्रम [५२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. Education in outh 43 ext “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र - १ (मूलं + वृत्तिः) 太章故事 मूलं [ ५२ ] आगमसूत्र [१३], उपांग सूत्र [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः खाणि य रायकिञ्चाणि य रायनीतीओ य रायववहारा य ताई जियसत्तुणा सि सयमेव पच्चुवेक्खमाणे विहराहित्तिकट्टु विसज्जिए । तए णं से चित्ते सारही परसिणा रण्णा एवं बुत्ते समाणे हट्ट जाव पडिसुणेत्ता तं महत्थं जाव पाहुडे गेण्हर, एसिस्स रण्णो जाव पडिणिक्खमइ २ ता सेयवियं नगरिं मज्झमज्झेणं जेगेव सए गिहे तेणेव उवागच्छति उवागच्छिता तं महत्थं जाव पाहुडे ठवेइ, कोटुंबियपुरिसे स दावे २ता एवं बयासी खिप्पामेव भो ! देवाणुप्पिया ! सच्छन्तं जाब चाउरघंटं आसरहं जुत्तामेव उagवेह जाव पचष्पिणह। तए णं ते कोडुंबियपुरिसा तहेब पडिणित्ता खिप्पामेव सच्छत्तं जावजुद चाउघंटं आसरहं जुत्तामेव उववेन्ति, तमाणत्तियं पचप्पिणंति, तर णं से चित्ते सारही कोडुंबियपुरिसाण अंतिए एयमट्ठे जाव हियए पहाए कयबलिकम्मे कयकोउयमंगलपायच्छिते सन्नद्धवम्मियकवए उप्पो लिपसरासणपट्टिए पिणिडगेविज्जे बद्धआविद्धविमलवरचिंधगहियापहरणे तं महत्थं जाय पाहुडं गेव्हह २ जेणेव चाउग्घंटे आसरहे तेणेव उवागच्छइ २ चाउघंटं आसरहं दुरुहेति, बहुहिं पुरिसेहि सन्नद्ध जाव गहियाउहपहरणेहिं सद्धिं संपरिवुदे सकोरिंटमल्लदामेण छते घरेजमाणेण२ महया भडचडगररहपहकरविंदपरिक्खिते साओ गिहाओ णिras सेवियं नगरि मज्झमशेणं णिग्गच्छ २ ता मुहेहिं वासेहि पायरासेहिं नाइविकिट्ठेहिं For Palata Use Only ~236~ 众安学本营中本中 arry Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ---------- मूलं [] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः श्रीराजप्रश्नी मलयगिरीया वृत्तिः | चित्रस्य जितशघुपाश्च गमन सू०५२ प्रत सुत्रांक [५२] ॥११७ ॥ दीप अनुक्रम [५२]] अंतरा वासेहिं वसमाणे २ केइयअहस्स जणवपस्स मज्झमज्झणं जेणेव कुणालाजणवए जेणेव सावत्थी नयरी तेणेव उवागच्छद रत्ता सावत्थीए नयरीए मज्झमझेणं अणुपविसह, जेणेव जियस तस्स रपणो गिहे जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला तेणेव उवागच्छइ २त्ता तुरए निगिण्हहर ता रहं ठवेति २त्ता रहाओ पचोरुहइ, तं महत्थं जाव पाहुडं गिण्हइ २त्ता जे गेव अम्भितरिया जवट्ठाणसाला जेणेव जियसत्तू राया तेणेव उवागच्छद २त्ता जियसतुं रायं करयलपरिग्गहिये । जाव कहु जएणं विजएणं वडाबेइ २त्ता तं महत्थं जाव पाडं उबगेइतए ण से जिथसत्तू राया चित्तस्स सारहिस्स तं महत्वं जाव पाहुडं पडिच्छह २ चित्तं सारहिं सकारेइ २ सम्माणेतिर पडिविसज्जेह रायमग्गमोगाढं च से आवासं दलयइ। तएण से चिसे सारही विसजितेसमाणे जियसत्तस्स रनो अंतियाओ पडिमिक्खमहत्ता जेधेव पाहिरिया उवट्ठाणसाला जेणेव चाउग्घंटे आसरहे तेव उवागच्छइ २ सा चाउरघंटं आसरहं दुरूहइ, सावधि नगरिं मझमज्झेणं जेणेव रायमग्गमोगाढे आवासे तेजेव उवागच्छद २त्ता तुरए निगिण्हह २त्ता रहं ठवेइर रहाओ पचोरहर,पहाए कयषलिकम्मे कयकोउयमंगलपायच्छिचे सुद्धप्पावेसाई मंगलाई वत्थाई पवर परिहिते अप्पमहग्याभरणालंकियसरोरे जिमियनुत्नुत्तरागएऽवि चणं समागे पुटावरहकालसमयंसि गंधवे हि य णाडगेहि य उवनचिजमाणे २ उवगाइजमाणे २ उवलालिज्जमाणे २ इठे सद्दफरिसरसरूवगंधे पंचविहे माणु ॥११७॥ REaratanA ~ 237~ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “राजप्रश्निय"- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) --------- मूलं [५] (१३) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सुत्रांक [५२] दीप अनुक्रम [५२]] स्सए कामभोए पच्चणुभवमाणे विहरइ ॥ (सू० ५२ ) ॥ 'पएसिस्स रण्णो अंतेवासी ति अन्ते-समीपे बसतीत्येवंशीलोऽन्तेवासी-शिष्यः, अंतेवाप्सीय सम्यगाशाविधायी इति भावः । 'सन्नहबद्धवम्मियकवए' इति कवच-तनुत्राणं वर्म-लोहमयकत्तलकादिरूपं संजातमस्येति बर्मितं, सन्नई शरीरारोपणात् बद्धं गाढन्तरबन्धनेन बन्धनात् वम्मितं कवचं येन स सन्नद्धबद्धवम्मितकवचा, 'उप्पीलियसरासणपट्टिए' इनि उत्पीडिता-गाढीकृना शरा अस्यन्ते-क्षिप्यन्ते अस्मिन्निति शासन-इपुधिस्तस्य पट्टिका पिणद्धा येन स उत्पीडिनश| रासनपट्टिका 'पिणडगेवेजविमलवरचिंधपट्टे' इति पिनर्द्ध वैयक-ग्रीवाऽऽभरण विमलवरचिह्नपट्टा येन स पिन- । धेयकविमलयरचिन्हपट्टः 'गहियाउहपहरणे' इति आयुध्यतेऽनेनेत्यायुध-खेटकादि पहरणम्-असिकुन्तादि गृहीतान्वायुधानि प्रहरणानि च येन स गृहीतायुधमहरणः ।। (सू०५२)॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं पासावचिज्जे केसी नाम कुमारसमणे जातिसंपण्ये कुल संपण्णे बलसंपण्णे रूवसंपणे विणयसंपण्णे नाणसंपण्णे दसणसंपन्ने चरिनसंपपणे लज्जासंपण्ण लाघवसंपण्णे लज्जालाघवसंपन्ने ओयंसी तेयंसी वर्चसी जसंसी जियकोहे जियमाणे जियमाए जियलोहे जियणि जितिदिए जियपरीसहे जीवियासमरणभयविष्पमुके वयप्पहाणे गुणप्पहाणे करणप्पहाणे चरणप्पहाणे निग्गहप्पहाणे अजवष्पहाणे महवप्पहाणे लाघवप्पहाणे खंतिप्पहाणे मुसिप्पहाणे विजष्पहाणे मंतप्पहाणे बंभपहाणे नयप्पहाणे नियमप्पहाणे सच्चप्पहाणे सोयप्पहाणे नाणप्पहाणे 华本字部本部本愛辛发亭 पार्श्वनाथस्य शिष्य-श्री केशिकुमार-श्रमणस्य परिचयं ~238~ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) (१३) ---------- मूलं [१३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: औराजमो मलयगिरीया वृत्तिः ॥१२८॥ प्रत सुत्रांक [५३] दीप अनुक्रम [५३] दसणप्पहाणे चरित्तप्पहाणे चउदसपुदी चउणाणोवगए पंचहि अणगारसएहि सहिं संपरिखुडे वर्णन पुवाणुपुति चरमाणे गामाणुगाम दाजमाणे सुइंसहेणं विहरमाणे जेणेव सावत्थी नयरी जेणेव सामू०५३ कोहए चेइए तेणेव उवागच्छद २ ता सावत्थीए नयरीए बहिया कोट्टए चेइए अहापडिरूवं उग्गहं उग्गिाहह उग्गिमिहत्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ ॥ (सू०५३)॥ 'केसीनाम कुमारसमणे माइसंपन्ने' इत्यादि, जातिसंपन्नः-उत्तममातृपक्षयुक्त इति प्रतिपत्तव्यम, अन्यथा मातृपितृपक्षसंपन्नत्वं पुरुषमात्रस्यापीति नास्योत्कर्षः कश्चिदुक्तो भवति, उत्कर्षाभिधानार्थ चास्य विशेषणकलापोपादानं चिकीर्पितमिति, एवं कुलसंपन्नोऽपि नवरं कुलं-पितृपक्षः बल-सहनन विशेषसमुत्यः प्राणः रूपम्-अनुपम शरीरसौन्दर्य विनयादीनि प्रतीतानि, नवरं लाघव-द्रव्यतोऽल्पोपधित्वं भावतो गौरवत्रयत्यागः 'लज्जा' मनोवाकायसंयमः 'ओयंसी'ति ओजो-मानसोऽवष्टम्भस्तदान ओजस्वी तेज:-शरीरमभा तबान तेजस्वी 'वो' वचनं सौभाग्यायुपेतं यस्यास्ति स वचस्वी अथवा बर्च:-तेजः प्रभाव इत्यर्थरतद्वान् वर्चस्वी यशस्वी-ख्यातिमान् , इह च विशेषणचतुष्टयेऽप्यनुस्वारः प्राकृतलात्, जितक्रोध इत्यादि तु | विशेषणसप्तकं प्रतीत,नवरं क्रोधादिजय उदयमाप्तक्रोधादिविफलीकरणतोऽवसेयः,तथा जीवितस्य-आणधारणस्य आशा-वाञ्छा मरणाद्य ताभ्यां विषमुक्तो जीविताशामरणभयविप्रमुक्ता, तदुभयोपेक्षक इत्यर्थः, तथा तपसा प्रधानः-उत्तमः शेषमुनिजनापेक्षया तपो वा प्रधानं यस्य स सपःप्रधान, एवं गुणप्रधान नवरं गुणाः-संयमगुणाः, एतेन च विशेषणद्वयेन तपःसंयमौ पूर्व- ॥११८ बद्धाभिनवयोः कर्मणोनिजंगानुपादानहेतू मोक्षसाधने मुमुक्षूणामुपादेयो प्रदर्शिती,गुणप्राधान्यप्रपञ्चनार्थमेवाह-'करणप्पहाणे' RELIEatini IYAuranorm पार्श्वनाथस्य शिष्य-श्री केशिकुमार-श्रमणस्य परिचयं ~239~ Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) प्रत सूत्रांक [43] दीप अनुक्रम [43] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. Education 1 “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र - १ (मूलं + वृत्तिः) 4-46 मूलं [ ५३ ] आगमसूत्र [१३], उपांग सूत्र [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः इति यावत् 'चरितप्पहाणे' इति, करणं-पिण्डविशुद्धयादि, उक्तञ्च "पिंड विसोही समिई भाषण पडिमा य इंदियनिरोहो । पडिलेहण गुत्तीओ अभिग्गहा चैव करणं तु ॥१॥" चरण- महाव्रतादि, उक्तश्च- 'वय समणधम्म संजम वेयावच्चं च वंभगुत्तीओ। णाणाइतियं तब को निगाहाई चरणमेयं ॥ १ ॥ निग्रहः - अनाचारप्रवृत्तेर्निषेधनं । निषयः सस्यानां निर्णयः विहितानुष्ठानेववश्यमभ्युपगमो वा आर्जवं मायानिग्रहो लाघवं क्रियासु दक्षत्वं शान्तिः क्रोधनिग्रहः गुप्तिः मनोगुप्स्यादिका मुक्ति:निर्लोभता विद्या- प्रज्ञप्त्यादिदेवताऽधिष्ठिता वर्णानुपूर्व्यः मन्त्रा- हरिणेगमेष्यादिदेवताधिष्ठिताः अथवा ससाधना विद्या साधनरहिता मन्त्रा, ब्रह्मचर्य - वस्तिनिरोधः सर्वमेव वा कुशलानुष्ठानं वेद:- आगमो लौकिकलोको तरिककुमावच निकभेदभिन्नः नया - नैगमादयः सप्त प्रत्येकं शतविधा; नियमा-विचित्रा अभिग्रहविशेषाः सत्यं भूतहितं वचः शौचं द्रव्यतो निर्लेपता भावतोऽनवद्यसमाचारता ज्ञानं - पत्यादि दर्शन- सम्पत्वं चारित्रं वा सदनुष्ठानं यच्चेह चरणकरणग्रहणेऽपि आर्जवादिग्रहणं वत् आर्जवादीनां प्राधान्यख्यापनार्थे, ननु जितक्रोधत्वादोनामाजवादोनां च कः प्रतिविशेषः १, उच्यते; जितक्रोधादिविशेषणेषु तदुदय विफलीकरण मार्दवप्रधानादिषु उदयनिरोधः, अथवा यत एव जितक्रोधादिः अत एव क्षमादिमधान इत्येवं हेतुहेतुमद्भावाद् विशेष:, तथा ज्ञानसम्पन्न इत्यादी ज्ञानादिमश्वमात्रमुक्तं ज्ञानप्रधान इत्यादौ तद्वतां मध्ये तस्य प्राधान्यमित्येवमन्यत्राप्यपौनरुक्त्यं भावनीयं तथा ' ओराले ' इति उदार:- स्फाराकारः 'घोरे घोरगुणे घोरतवस्सी घोरवंभचेरवासी ओच्छूढसरीरे संखितबलतेउलेसे चउद्दसपुढी चउनाणोवगए' इति पूर्ववत्, 'पंचहि अणगारसएहिं ' इत्यादिकं वाच्यं ॥ ( सू० ५३) ॥ पार्श्वनाथस्य शिष्य श्री केशिकुमार श्रमणस्य परिचयं For Pal Pal Use Only ~ 240 ~ 40*40* * 40 44 400 Mandibrary org Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय"- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ---------- मूलं [१४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: श्रीराजप्रश्नी । मलयगिरी चित्रस्य धर्ममाप्ति या वृचिः प्रत सुत्रांक [५४] तए णं सावत्थीए नयरीए सिंघाडगतियचउक्कचचरचउमुहमहापहपहेसु महया जणसदेइ वा जणबूहेइ वा जणकलकलेइ वा जणवोलेइ वा जणउम्मीइ वा जणउक्कलियाइ वा जणसन्निवाएइ वा जाव परिसा पज्जुवासइ । तए णं तस्स सारहिस्स तं महाजणसईच जणकलकलं च सुणेत्ता य पासेत्ता य इमेयावे अज्झथिए जाव समुप्पजिस्था,किपणं अज्ज जाव सावत्थीए णयरीए इंदमहेइ वा खंदमहेइ वा कदमहेइ चा मदमहेइवानागमहेइ वा भूयमहेइ वा जक्खमहेइ वा धूभमहेइ वा चेइयमहेइ वा रुक्खमहेइ वा गिरिमहेइ वा दरिमहेह वा अगडमहेइ वा नईमहेइ वा सरमहेइ वा सागरमहेइ वा जे णं इमे बहवे उग्गा भोगा राइना इक्खागा खत्तिया णाया कोरवा जाव इन्भा इन्भपुत्ता पहाया कयपलिकम्मा जहोववाइए जाव अप्पेगतिया हयगया जाव अप्पेगतिया गयगया पायचारविहारेणं महयार चंदावंदरहिं निग्गकछति,एवं संपेहेइर कंचूहजपुरिस सद्दावेद सहावित्ता एवं वयासीकिण्णं देवाणुप्पिया! अज सावत्थीए नगरीए इंदमहेइ वा जावसागरमहेइ वा जेणं इमे बहवे उग्गा भोगाणिगच्छति ,तए णं से कंचुईपुरिसे केसिस्स कुमारसमणस्स आगमणगहियविणिच्छए चित्तं सारहिं करयलपरिन्गहियं जाव वढावेत्ता एवं वयासी-णो खलु देवाणुप्पिया ! अज सावत्थीए जयरीए इंदमहेइ वा जाव सागरमहेइ वाजेणं इमे वहवे जाव विंदार्षिदएहि निग्गच्छति,एवं खलु भी देवाणुप्पिया! पासावचिज्जे केसीनाम कुमारसमणे जाइसम्पन्ने जाव दूइज्जमाणे इहमागए दीप अनुक्रम [५४] ॥२१॥ (NCEBrary.orm | चित्र-सारथिः, तस्य धर्म-प्राप्ति: ~ 241~ Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय"- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ---------- मूलं [१४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सुत्रांक [५४] दीप अनुक्रम [५४] जाव विहरइ, तेण अज्ज सावत्थीए नयरीए बहवे उग्गा जाव इन्भा इन्भपुत्ता अप्पेगतिया वंदणवत्तियाए जाव महया वंदावंदगाह णिगच्छइ,तए ण से चित्ते सारही कंचुइपुरिसस्स अतिए एयम सोचा निसम्म हतु जाय हियए कौटुंबियपुरिसे सदावेद सदावित्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! चाउग्घंटे आसरहं जुत्तामेव उवट्टवेह जाव सच्छत्तं उवट्ठति, तएणं से चित्ते सारही हाए कयवलिकम्मे कयकोउयमंगलपायच्छित्ते शुहप्पावेसाई मंगलाई वत्थाई पवर परिहिते अप्पमहग्याभरणालंकियसरीरे जेणेच चाउग्घंटे आसरहे तेणेव उवागच्छह उवागच्छिचा चाउग्घंटे आसरहं दुरुहइश्त्ता सकोरिंटमल्लदामेणं छत्तेणं धरिज्जमाणेणं महया भडचडगरेण विंदपरिखित्ते सावत्थीनगरीए मज्झमज्झेणं निग्गच्छइ २त्ता जेणेव कोहए चेइए जेणेव केसीकुमारसमणे तेणेव उवागच्छइ २त्ता केसिकुमारसमणस्स अदूरसामंते तुरए णिगिण्हह रहं ठवेइ य, ठवित्ता पच्चोकहति २ चा जेणेव केसीकुमारसमणे तेव उवागच्छद २त्ता केसिकुमारसमणं तिकखुत्तो आयाहिणं पयाहिण करेइ करिता वंदह नमसइ २त्ता णच्चासण्णे णातिदरे सुस्ससमाणे णमंसमाणे अभिमुहे पंजलिउडे विणएणं पाजुवासइ । तए णं से केसीकुमारसमणे चित्तस्स सारहिस्स तीसे महतिमहालियाए महच्चपरिसाए चाउज्जामं धम्म परिकहेइ,तं०-सबाओ पाणाइवायाओ वेरमणं सबाओ मुसावायाओ बेरमणं सघाओ अदिष्णादाणाओ वेरमणं सचाओ बहिडादाणाओ वेरमणं। Santaratinididi | चित्र-सारथिः, तस्य धर्म-प्राप्ति: ~ 242~ Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय"- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ---------- मूलं [१४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: श्रीराजप्रश्नी मलयगिरी या दृतिः चित्रस्व धर्ममाप्तिः मू०५४ प्रत सुत्रांक ॥ १२०॥ [५४] दीप अनुक्रम [५४] तए णं सा महतिमहाल या महचपरिसा केसिस्स कुमारसमणस्स अंतिए धम्मै सोचा निसम्म जामेव दिसि पाउभूया तामेव दिसिं पडिगया, तए ण से चित्ते सारही केसीस्स कुमारसमणस्स अंतिए धर्म सोचा निसम्म हट्ट जावहियए उहाए उदेह २त्ता केसि कुमारसमणं तिकखुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ २बंदह नमसइरत्ता एवं वयासी-सद्दहामिण भंते ! नि गर्थ पावयणं पत्तियामि गंभंते ! निग्गंध पावयणं रोएमिण भंते ! निगं पावयणं अन्धुढेमि णं भंते !निर्गथं पावयणं एवमेय निर्गथे पावयणं तहमेय भैते! अवितहमेय भंते!०,असंदिद्धमेयं सच्चेणं एस अढे जपणं तुम्भे वदहत्तिका वदह नमसहर त्ता एवं वयासी-जहा णं देवाणुप्पियाण अंतिए यहवे उन्गा भोगा जाव इन्भाइन्भपुत्ता चिचा हिरण्णं चिचा सुवणं एवं धणं धन बलं वाहणं कोसं कोडागारं पुर अंतेउर चिया विउलंधणकणगरयणमणिमोत्तियसंखसिलप्पवालसंतसारसावएज्जं विच्छता विगोवदत्ता दाणं दाइयाणं परिभाइत्ता मुझे भवित्ता आगाराओ अणगारियं पश्यति,णो खलु अहंता संचाएमि चिचा हिरणं तं चेव जाव पवइत्तए, अहण्णं देवाणुप्पियाणं अंतिए पंचाणवाय सत्तसिक्खावश्यं दुवालसविहं गिहिधर्म पडिवज्जित्तए,अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंधं करेहि,तए णं से चित्ते सारही केसीकुमारसमणस्स अतिए पंचाणुवतियं जाव गिहिधर्म उवसंपज्जित्ताणं विहरति, तए णं से चित्ते सारही केसिकुमारसमणं वेदइ नमसइ २त्ता जेणेव चाउग्धंटे आसरहे तेणेव पहारेत्थ गमणाए ॥१२॥ | चित्र-सारथिः, तस्य धर्म-प्राप्ति: ~ 243~ Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय"- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ---------- मूलं [१४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सुत्रांक [५४] दीप अनुक्रम [५४] चाउग्घटं आसरहं दुरुहइ २ जामेव दिसि पाउन्भूए तामेव दिसि पडिगए ॥ (सू०५४)॥ __ 'महया जणसहेड वा' इति महान् जनशब्दः परस्परालापादिरूपः इकारो वाक्यालङ्कारार्थः वाशब्द' पदान्तरापेक्षया समुच्चयार्थी,जनव्यूहो-जनसमुदाया, जनबोलेइ वा' इति बोल:-अव्यक्तवर्णो ध्वनिः, 'जनकलकलेइ वा कलकला स एवोपलभ्यमानवचनविभागः 'जणउम्मीइ वा उम्मिा-संचाधा जणउकलियाइ वा' लघुतरसमुदायः 'जणसन्निवाए या' सनिपात:-अपरापरस्थानेभ्यो जनानामेकत्र मीलनं, 'जाव परिसा पज्जुवासइ' इति, यावत्करणात् 'बहुमणो अन्नमन्नस्स एवमाइक्खइ एवं भासद एवं पन्नवेइ एवं खलु देवाणुप्पिया ! पासावचिजे केसीना कुमारसमगे जाइसंपण्णे जाव गामाणुगा दूइज्जमाणे इहमागए इह संपचे इह समोसढे इहेब सावत्थीए नयरीए कोट्ठए चेइए अहापडिरूवं उग्गहं उम्मिहितास| जमेण तवसा अपाणं भावेमाणे विहरइ, तं महाफलं खलु देवा तहाख्वाण समणाणं नामगोयस्सवि सवणयाए' इत्यादि मायक्तसमस्तपरिग्रहः, 'इंदमहेइ वा' इत्यादि, इन्द्रमहः-इन्द्रोत्सवः इन्द्रः-शक्रः स्कन्दः कार्तिकेयः रुदः प्रतीतः मन्दो-बलदेवः शिवो-देवताविशेषः वैश्रमणो-यक्षराट् नागो-भवनपतिविशेष: यक्षो भूतश्च व्यन्तरविशेषौ स्तूप:--चैत्यस्तूपंचत्य प्रतिमा वृक्षदरिगिरीभवटनदीसम्सागरा: प्रतीता, 'वहवे उग्गा उग्गपुत्ता भोगा जावलेच्छइपुत्ता' इति,उग्राः आदिदेवावस्थापिता इक्षुवंशजाता: उग्रपुत्राः त एव कुमाराद्यवस्था, एवं भोगा:-आदिदेवेनैवावस्थापितगुरुवंशजाता राजन्या:-भगवदयस्यवंशजाः यावत्करणात् 'खत्तिया माहणा भटा जोहामल्लई मल्लइपुत्ता लेच्छई २ पुत्ता' इति परिग्रहः तत्र क्षत्रिया:-सामान्यराजकुलीना भटा:-शौर्यवन्तः योधा:-तेभ्यो विशिष्टतराः, मल्लकिनी लेच्छकिनश्च राजविशेषाः, यथा चेटकराजस्य श्रूयन्ते अष्टादश गण | चित्र-सारथिः, तस्य धर्म-प्राप्ति: ~244~ Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय"- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ---------- मूलं [१४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः प्रत सुत्रांक [५४] श्रीराममनी का | राजा नव मल्लकिनो नव लेच्छकिनः, 'अन्ने य बहवे राईसरे' त्यादि, राजानो-मण्डलिका ईश्वरा-युवराजानस्तलवरा:-17 मकवगिरी चौमाक्षिक परितुष्टनरपतिप्रदत्तपट्टवन्धविभूषिता राजस्थानीयाः माडम्बिका:-चित्रमण्डपाधिपाः कुटुम्बिका:-कतिषयकुटुम्बस्वामिनोऽवया वृत्तिः S०५४ लगकाः इभ्या-महाधनिनः श्रेष्ठिन:--श्रीदेवताध्यासितसौवर्णपट्टविभूषितोत्तमागाः सेनापतयो-नृपतिनिरुपिताश्चतुरङ्ग सैन्य॥१२१॥ नायकाः सार्थवाहा-सार्थनायका प्रभृतिगृहणा मन्त्रिमहामन्त्रिगणकदौवारिकपोठमर्दादिपरिग्रहः, तत्र मन्त्रिणा प्रतीताः महामन्त्रिणो-मन्त्रिमण्डलभधानाः इस्तिसाधनोपरिका इतिद्धाः गणका--गणितज्ञा भाण्डागारिका इति वृद्धार ज्योतिषिका इत्यपरे दौवारिका:-पतीहारा राजद्वारिका वा पीटमर्दा:-आस्थाने आसन्नमत्यासन्नसेषका बयस्या इति | भावः 'जाव अवरतलमिव फोडेमाणा' इति यावत्करणात् 'अप्पेगतिया' बंदणवत्तियं अपेगइया पूअणवत्तिय एवं | सकारवचियं सम्माणवत्तियं कोउहलवत्तियं अमुयाई मुणिस्सामो सुयाई निस्संकियाई करिस्सामा मुंडे भवित्ता आगाराओ अणगारियं पवइस्सामो पंचाणुवयाई सत्त सिक्खावयाई दुवालसविद गिहिधम्म पडिवज्जिस्सामो, अप्पेगइया जिणभतिरा-41 णेणं अप्पेगइया जीयमेयंतिकटु पहाया कयबलिकम्मा कयकोउयमंगलपायच्छित्ता सिरसाकंठेमालाकडा आविंद्धमणिमुवष्णा All कप्पियहारदहारनिसरयपालबपलबमाणकडिसुत्तयसोभाभरणा वत्थ पवर परिहिया चंदणोलितगायसरीरा अपेगश्या हयगया | 1 अप्पेगइया गयगया अप्पेगइया रहगया अप्पेगइया सिविकागया अप्पेग० संक्माणियागया अप्पेगइया पायर्यावहारचारिणी | परिसबम्गराय परिक्खिता मइया उक्विडिसीहनाइया बोलकलकलरषेण समुद्दस्क्भूयं पित्र करमाणा अंबरतलंपिच फोडेमाणा' | इति परिग्रहः, एतच्च प्रायः सुगम, नवरं गुणव्रतानामपि निरन्तरमभ्यस्यमानतया शिक्षात्रतत्वेन विचक्षणात् ' सत्त सिक्खा- १२॥ बायकायदा-कर-% दीप अनुक्रम [५४] | चित्र-सारथिः, तस्य धर्म-प्राप्ति: ~245~ Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय"- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ---------- मूलं [१४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सुत्रांक [५४] दीप अनुक्रम [५४] वयाई युक्तं, स्नाता:-कृतस्नाना अनन्तरं कृतं बलिकर्म-स्वगृहदेवताभ्यो यैस्ते कृतबलिकर्माणः, तथा कृतानि कौतुकपा लान्येव प्रायश्चिचामि दुःस्वप्नादि विघातार्थ यैस्ते कृतकौतुकमङ्गलप्रायश्चित्ताः, तत्र: कौतुकानि-पथीतिलकादीमि मङ्गलानिका सिद्धार्थकदध्यक्षतादीनि, तथा शिरसि कण्ठे च कृता याला यैस्ते, आकृतस्यास्पदन्यत्ययो विभक्तिभ्यतत्पथेति 'शिस्साहै कण्ठेपालकता, तथा भाविद्धानि-परिहितानि मणिमुवर्णानि येस्ते तया, कस्सितो-विन्यस्तो हार:-अष्टादशसरिकोउर्द्ध- ||* हारो-नवसरिकत्रिसरिकं प्रतोतमेव यैस्ते तया, तथा प्रलम्बो-धन के लम्बमानो येषां वे तथा, करिसूबेग अन्यान्यपि मुकृतनोभान्याभरणानि येषां ते कटिसूत्रसुकृतशोभाभरणाः, ततः पदत्रयस्यापि पदद्वयमीलनेम कर्मधारया, चन्दनाबलिप्तानि गात्राणि यत्र तत्तथाविधं शरीरं येषां ते चन्दनापलितगात्रशरीराः, पुरिसवग्गुरापरिखित्ता' इति, पुरुषाणां चागुरेव वागुरा-परिकरस्तया परिक्षिप्ताः-व्याप्ताः, 'मया' इति महता उत्कृष्टिश्च-आनन्दमहाध्वनिः सिंहनादश्च-सिंहस्पेव नादः बोलच-वर्णव्यक्तिवर्जितो ध्वनिः, कलकलश्च व्यक्तवचनः स एव एतल्लक्षणो यो खस्तेन समुद्रवभूतमिव समुद्रमहाघोषपातमिष श्रावस्तों नगरीमिति गम्यते, कुर्वाणा: अम्बरतलमिव-आकाशतलमिव स्फोटयन्तः, 'एग दिसाए' इति, एकया दिशा पूर्वोत्तर| लक्षणया एकाभिमुखा-एक भगवन्तं पति अभिमुखाः, चाउग्घंट' ति चवसा घरा अवसम्बमाना यस्मिन् स तथा, अश्वप्रधानो रथोऽश्वरथः तं, युक्तमेव अश्वादिभिरिति गम्यते, शेष पार व्याख्यानार्थ, 'जह जीषा बज्झम्ती' स्यादिरूपा धर्मकथा औपपातिकग्रन्थादवसेया, लेशतस्तु भागेव दर्शिता, 'सदहामी' त्यादि, श्रदधे-अस्तीत्येवं प्रतिपये नग्रन्थ | प्रवचन-जैनशासनम् , एवं 'पत्तियामि' इति प्रत्ययं करोम्योतिभावः, रोचयामि-करणरुचिविषयीकरोमि चिकीर्षा jaarcitaram.org | चित्र-सारथिः, तस्य धर्म-प्राप्ति: ~ 246~ Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय"- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ---------- मूलं [१४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: श्रीराजप्रश्नी प्रत सुत्रांक मझयगिरीया वृतिः ॥१२॥ [५४] दीप अनुक्रम [५४] चित्रश्रममीति तात्पर्याथः, किमुक्तं भवति ?-अभ्युनिष्टामि, अभ्युपगच्छामीत्यर्थः, एवमेतत् यद्भवद्भिः प्रतिपादित तत् तथैव भदन्त ! भाणोपास तथैवैतद् भदन्त ! याथात्म्यवृत्या वस्तु अस्तिथमेतत् भदन्त !, सत्यमित्यर्थः, असंदिग्धमेतत् भदन्त !, सम्यक् तथ्यमेतदिति | वर्णनम् | भावः, 'इच्छियपरिच्छियमेय भैते !' इति, इष्टम्-अभिलषितं प्रतीष्टम्-आभिमुख्येन सम्यक् मविपन्नमेतत् यथा यूर्य पदय, 'चिचा हिरण्ण' मित्यादि, हिरण्यम्-अघटितं सुवर्ण धनं-रूप्यादि धान्यबलवाहनकोशकोष्ठागारपुरान्तःपुराणि | व्याख्यातानि प्रतीतानि च, 'चिचा विउल धणे' त्यादि, धन-रूप्यादि कनकरत्नमणिमौक्तिकशङ्वाः प्रवीताः शिला बाल-विद्रुम सत्-विद्यमान सार-प्रधान यत् स्वापतेय--द्रव्य 'विच्छर्दयित्वा' भावतः परित्यज्य 'विगोवइत्ता' प्रकटीकृत्य, तदनन्तरं दान-दीनानाधादिभ्यः परिभाब्य पुत्रादिषु विभज्य ॥ (मू०५५)॥ तए णं से चित्ते सारही समणोवासए जाए अहिगयजीवाजीवे उचलहपुण्णपावे आसवसंवरनिज्जरकिरियाहिगरणवंधमोक्खकुसले असहिज्जे देवासुरणागसुवण्णजक्खरक्खसकिन्नर किंपुरिसगरुलगंधदमहोरगाईहिं देवगणेहिं निग्गंथाओ पावयणाओ अणहकमणिज्जे, निग्गये पावणे णिस्सकिए णिकंखिए णिवितिगिच्छे लडढे गहियडे पुच्छियडे विणिच्छियडे अभिगयढे अडिमिंजपेम्माणुरागरते, अयमाउसो! निनाये पावयणे अढे अयं परमटे सेसे अणडे, ऊसियफलिहे अवंगुगनुवारे चियत्तंतेउरघरप्पवेसे चाउद्दसमुद्दिपुण्णमासिणीसु पडिपुण्णं पोसह सम्म अणुपालेमागे समणे णिगंथे फामुएसणिज्जेणं असणपाणखाइमसाइमेणं पीढफलगसेज्जासंधारेणं वत्वपडिग्ग ॥१२२॥ SARERatininemarana | चित्र-सारथिः, तस्य श्रावक्त्वं ~ 247~ Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय"- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) --------- मूलं [५५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सुत्रांक [५५] दीप अनुक्रम [५५]] हकंवलपायपुंछपणं ओसहभैसज्जेणं पडिलाभेमाणे २ घहहिं सीलव्वयगुणवेरमणपच्चक्खाणपोसहोववासेहि य अप्पाणं भावेमाणे जाई तत्थ रायकज्जाणि य जाच रायववहाराणि य ताई जि. यसत्तणा रपणा सहि सयमेव पच्चुवे वखमाणे २ विहरह।। (सू०५५)॥ 'अभिगयजीवाजीवे' इति, अभिगौ-सम्यग विज्ञासी जीवाजीवी येन स तथा, उपलब्धे-यथावस्थितस्वस्वरूपेण विज्ञाते पुण्यपापे येन स उपलब्धपुण्यपापः, आश्रवाणां-प्राणातिपातादीनां संवरस्य-प्राणातिपातादिप्रत्याख्यानरूपस्य निर्ज। राया:-कर्मणां देशतो निर्जरणस्य क्रियाणा-यारि बयादीनामधिकरणानां-खगादीनां बन्धस्य-कर्मपुद्गलजीवपदेशान्योऽन्यानुग मरूपस्य मोक्षस्य-सत्मिना कर्मापगमरूपस्य कुशल:-सम्यक् परिज्ञाता माधवसंवरनिर्जराक्रियाधिकरणबन्धमोक्षकुशल: 'असहेको ति अविद्यमानसाहाय्यः, कुतीथिकोरिता सम्यक्त्वाविचलनं प्रति न परसाहाय्यमपेक्षते इति भावः, तथा | चाह-'देवासुरमागजक्स्वरक्खसकिन्नर किंपुरिसगरुलगंधवमहोरगाइएाह देवगणेहिं निग्गंथाओ पावयणाओ अणइक्कमणिज्जे' सुगम, नवरं गरुडा:-सुवर्णकुमाराः, एवं चैतत् यतो निग्रन्धे प्रावचने 'निस्संकिये 'निःसंशयः 'निकंखिये' दर्शनान्तराकाङ्कारहितः 'निदितिगिच्छे फल प्रति निःशः 'लडटे' अर्थश्रवणत: 'गहिअट्टे' अवधारणत: 'पुच्छिय?' संशये सति । अहिगयढे 'सम्यगुत्तरश्रवणतो विमलबोधात् , 'विणिच्छियढे' पदार्थोपलम्भात् 'अहिमिजपेम्माणुरागरते' अस्यीनि प्रसिद्धानि तानि च मिमा च-तन्मध्यवर्ती मज्जा अस्थिमिझानः ते प्रेमाणुरागेण-सर्वज्ञप्रवचनप्रीतिलक्षणकुसुम्मादिरागेण रक्ता इव रक्ता यस्य स तथा, केनोल्लेखेनेत्यत आह-'अयमाउसो ! निग्गथे पावयणे अट्ठे परमहे -NOR | चित्र-सारथिः, तस्य श्रावक्त्व ~248~ Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय"- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ---------- मूलं [५५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत या चिः सूत्रांक [५५] ॥१२३॥ दीप अनुक्रम [५५] सेसे अणहे । इति 'आउसो' इति आयुष्मन् !,एतच्च सामर्थ्यात्पुत्रादेशमन्त्रणं, शेषमिति-धनधान्यपुत्रदारराज्यकुमवचनादि, ‘फसियफलिहे ' इति उच्छ्रितं स्फाटिकमिव स्फाटिकम्-अन्तःकरणं यस्य स तथा, मौनीन्द्रभवचनावाप्या परितुष्टमना चित्रश्रम जोपासक इत्यर्थः, एपा वृद्धव्याख्या, अपरे स्वाहुः--उरिठून:--अर्गलास्थानादपनीय ऊर्बोकृतो न तिरश्चीना, कपाटपचाभागादपनीव वर्णन इत्यर्थः, उत्सतो वा अपगतः परिघा-अर्गला गृहबारे यस्यासौ उच्छ्रितपरिघ उत्सूनपरियो वा, औदार्याविरेकतोऽति| यदानदायित्येन भिक्षुकप्रवेशार्थमनर्गलितगृहद्वार इत्यर्थः, 'अवंगुयद्वारे' अप्राकृतद्वार: भिक्षुकमवेशार्थ कपाटानामपि पश्चा| स्करणात, श्रद्धानां तु भावनावाक्यमेव--सम्पगूदर्शनलामे सति न कस्माञ्चित् पाखन्डिकादिति शोभनमार्गपरिग्रहेण उद्या- 1G | टिसशिरास्तिनोति भावः, 'चियत्तंतेउरघरपवेसे "घियत्ते 'ति नापीतिकर अन्तापुरगृहे प्रवेशा-शिष्टजनप्रवेशनं यस्य स तथा, अनेनानीर्ष्यालुत्यमस्योक्तम, अथवा चियत्ता-प्रीतिकरो लोकानामन्तःपुरे गृहे वा प्रवेशो यस्यातिधार्मिकतया सर्व| त्रानाशनीयत्वात् स तथा, 'चाउदसमुदिपुण्णमासिणीसु पडिपुन्नं पोसह सम्म अणुपालेमाणे ' इति, चतुर्दश्यामष्टभ्यामुष्टिमित्यवमावास्यां पोर्णमास्यां च मतिपूर्णम्-अहोरात्रं यावत् पोषधम्--आहारादिपोष, सम्यक् अनुपालयन, पोटफलगे'ति पीढम-आसनं फलकम्--अवष्टम्भा 'सिजा' वसतिः शयनं वा यत्र प्रसारितपादैः सुप्यते संस्तारको लघुतरः 'वत्थपडिग्गहकंबलपायपुंछणेणं'ति वखं प्रतीत पतत् भक्तं पानं वा गृह्णातीति पत्तद्ग्रहः लिहादिस्वाद चनत्यय:-पात्रं पादपो छनक--रजीहरण औषधं प्रतीतं भेषज--पध्यं 'अहापरिग्गहेहिं तवोकम्मोह अप्पाण भावेमाणे विहरइ सुगर्म, कचित्पाठ:--' बहूदि सीलचयगुणवेरमणपोसहोववासेहिं अपाणं भावेमाणे विहरइ' इति, तत्र शीलवतानि-स्थूलमाणाति al॥१२॥ | चित्र-सारथिः, तस्य श्रावक्त्वं ~249~ Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय"- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) --------- मूलं [५५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [५५]] दीप अनुक्रम [५५] पातविरमणादीनि गुणवतानि-दिग्वतादीनि पौषधोपवासा:-चतुर्दश्यादिपर्वतिथ्युपवासादिस्तैरात्मानं भावयन् विहरतिआस्ते ।। (मू०५५)॥ तए णं से जियसराया अण्णया कयाइ महत्थं जाव पाहुई सज्जेइ २ चा चित्त सारहिं सदावेइ सदायित्ता एवं वयासी-गछाहि णं तुमं चिचा ! सेयवियं नगरि पएसिस्स रन्मो इमं महत्थं जाव पाहडं उवणेहि, मम पाउम्गं च णं जहाभणिय अवितहमसंदिई वयणं विनवेहितिक विसज्जिए । तए णं से चित्ते सारही जियसत्तुणा रना विसज्जिए समाणे तं महत्थं जाव गिण्हा जाव जियसत्तुस्स रणी अंतियाआ पडिनिक्खमइ २त्ता सावत्थोनगरीरमझमज्झेणं निग्गरछह २ जेणेव रायमगमोगाढे आवासे तेणेव उवागच्छति २ नातं महत्थं जाव ठवइ, पहाए जाव सरीरे सकोरंट० महया. पायचारविहारेण महया पुरिसवग्गुरापरिक्खिते, रायमगमोगाढाओ आवासाओ निगच्छद २त्ता सावत्थीनगरीए मझमज्झेणं निम्गच्छति २त्ता जेणेव कोटर चेहए जेणेव केसीकुमारसमणे तेणेव उवागच्छति २ केसिकुमारसमणस्स अन्तिए धम्मं सोचा जाव हट्ट उहाए जाव एवं चयासी-एवं खलु अहं भंते ! जियसतुणा रना पएसिस्स रन्नो इमै महत्थं जाव उवणेहित्तिकहु विसजिए, तं गच्छामि णं अहं भंते ! सेयवियं नगरिं, पासादीया णं भंते ! सेयविया णगरी, एवं दरिसणिज्जा णं भंते ! सेयविया णगरी,अभिरूवा ण भंते ! सेयविया नगरी, ~250~ Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम "राजप्रश्निय"- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ---------- मूलं [५६-६१] (१३) श्रीराजमनी मलयगिरीया वृत्तिः वाम्यागमनाय विज्ञप्तिः ॥१२४॥ प्रत सूत्रांक [५६-६१] पडिरूवा गं भंते ! सेतविया नगरी, समोसरह भंते ! तुम्भे सेयविय नगरिं, तए णं से केसीकुमारसमणे चित्तेणं सारहिणा एवं चुने समाणे चित्तस्स सारहिस्स एयमट्ठ णी आढाइ णो परिजाणाइ तुसिणीए संचिट्टइ, तए णं से चित्ते सारही केसीकुमारसमणं दोच्चपि तचंपि एवं वयासी. एवं खलु अहं भंते ! जियसत्तणा रना पएसिस्स रण्णो इमं महत्थं जाव विसजिए तं चेव जाव समोसरह णं भंते ! तुम्भे सेयवियं नगरिं, तए णं केसीकुमारसमणे चिनेण सारहिणा दापि तकचंपि एवं बुत्ते समाणे चित्तं सारहिं एवं वयासी-चित्ता! से जहानामए घणसं सिया किण्हे किण्होभासे जाव पडि सवे, से तृणं चित्ता! से वणसंदे बहण दुपयचप्पयमियपमुपक्खीसिरीसिवाणं अभिगमणिज्जे १, हंता अभिगमणिज्जे, तंसि च णं चित्ता वणसंडसि बहवे भिलंगा नाम पावसउणा परिवति, जेणं तेसि बहूणं दुपयचउप्पयमियपसुपक्षीसिरीसिवाण ठियाणं चेव मंससोणिय आहा रति,से गुणं चित्ता! से वणसंडे तेसिणं बहणं दुपय जाब सिरिसिवाणं अभिगमणिज्जे, णो ति०,कम्हा णं ?, भंते ! सोवसग्गे,एवामेव चित्ता ! तुभंपि सेवियाए पयरीए एसीनाम राया परिवसइ अहम्मिए जाव णो सम्म करभरवित्ति पवत्तहतं कह णं अहं चित्ता! सेयवियाए नगरीए समोसरिस्सामि ?,तए णं से चित्ते सारही केसि कुमारसमणं एवं वयासी-किणं भंते ! तुम्भ पएसिणा रहा कायई !, अस्थि णं भंते ! सेयवियाए नगरीए अन्ने दीप अनुक्रम [५६-६१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: ~ 251~ Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) प्रत सूत्रांक [५६-६१] दीप अनुक्रम [५६-६१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. Jan Educator “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र - १ ( मूलं + वृत्तिः ) *400-4000-40000 मूलं [५६-६१] आगमसूत्र [१३], उपांग सूत्र [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः यहवे ईसर तलवर जाव सत्थवाहपभिइयो जे पणं देवाणुप्पियं वंदिस्संति नम॑सिस्संति जान पज्जुवासिस्संति विडलं असणं पाणं साइमं साइमं पडिलाभिस्संति, पडिहारिएण पीढफलगसेज्जासंधारेण उवनिमंतिस्संति, तए णं से केसीकुमारसमणे चित्तं सारहिं एवं वयासी- अवियाइ चित्ता ! समोस रिस्सामो || (सू० ५६) । तए णं से चित्ते सारही केसिकुमारसमणं बंदर नर्मसह २ केसिस्स कुमारसमणस्स अंतियाओ कोट्टयाओ चेहयाओ पडिणिक्खमइ २ जेणेव सावत्थी णगरी जेणेव रायमम्गमोगा आवासे तेणेव उवागच्छइ २ चा कोडबियपुरिसे सहावेह सद्दावित्ता एवं वयासी- खिप्पामेव भी देवाणुप्पिया! चाउरघंट आसरहं जुत्तामेव उवद्ववेह जहा सेयवियाए नगरीए निगच्छ तहेव जाव वसमाणे २ कुणालाजणवयस्स मजांमज्झेणं जेणेव केइयअसे जेणेव सेयविया नगरी जेणेव मियवणे उज्जाणे तेणेव उवागच्छह २ उज्जाणपालए सदावेइ २ ता एवं क्या". सी-जया णं देवाणुप्पिया ! पासावचिज्जे के सीनाम कुमारसमणे पुदाणुपुर्वि चरमाणे गामाणुगामं दृइज्जमाने इहमागच्छिज्जा तया प तुझे देवाणुप्पिया ! केसिकुमारसमणं वंदिज्जाह नमसिज्जाह वंदित्ता नमंसित्ता अहापडिरुवं उग्गहं अणुजाज्जाह पडिहारिएणं पीढफलग जाव उबनिमंति ज्जाह, एयमाणत्तियं खिप्पामेव पञ्चप्पिज्जाह, तर णं ते उज्जाणपालगा चिचेणं सारहिणा एवं वृत्ता समाणा हट्ट जाव हिय्या करयलपरिग्गहियं जाव एवं वयासी-तहत्ति, आणाए विणएणं For Praise Only ~ 252~ ·西 泰语 泰语 泰语 品 佘 福 Hanurary org Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ---------- मूलं [५६-६१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति श्रीराजपनी मळयगिरी या वृत्तिः प्रत सूत्रांक [५६-६१] ॥ १२५॥ उद्यानपा केभ्यः समूचना के चिकुमारागमन सू०५७ ५८ दीप अनुक्रम [५६-६१] वयणं पडिसुणति ॥ (सू०५७) ॥ तए णं चित्ते सारही जेणेव सेयविया णगरी तेणेव उवागच्छह २त्ता सेयविर्य नगरि मझमझेणं अणुपविसह २त्ता जेणेष पपसिस्स रपणो मिहे जेणेव पाहिरिया उवद्वाणसाला तेणेव उवागच्छइ २ चा तुरए णिगिण्हइ २ रह ठवेइ २ ता रहाओपञ्चोरूहह २ 'त्ता तं महत्थं जाव गेहद २ जेणेव परसी राया तेणेव उवागच्छह २ चा परसिं राय करयल जाव वडावेत्ता तं महत्थं जाव उचणेहतर णं से पएसी राया चित्तस्स सारहिस्सतं महत्व जाच पद्धिच्छह रत्ता चिसं मारहिं सकारह रत्ता सम्माणेइ २ पडिविसज्जेह । तर णं से चित्ते सारही परसिणा रण्णा विसज्जिए समाणे हट्ट जाव हियए पपसिस्स रनो अंतिमाओ पडिनिक्खमइयत्ता जेणेव चाउघंटे आसरहे तेणेव उवागच्छइ२ चाउग्घंटं आसरहं दुरूहात्तिासेयविप नगरि मनमज्झेणं जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छह २त्ता तुरए णिगिण्हह २ रहं ठमेह २ रहामो पचोरुहहर पहाए जाच उप्पि पासावरगए फुहमाणेहिं मुइंगमत्थरहि यत्तीसहयरएहिमाडएहि वरतरुणीसंपउत्तेहि उवणचिजमाणे २ उवगाइज्जमाणे २ उवलालिज्जमाणे २ इंटूठे सहफारिस जाव विहर ॥ (सू०५८)॥ तए ण केसीकुमारसमणे अण्णया कयाइ पाडिहारियं पीढफलगसेज्जासंथारगं पच्चप्पिणइ २ सावत्थीओ मगरीओ कोटगाओ चेइयाओ पडिमिक्लमंद पंचहि भणमारसरहिं जाब बिहरमाणे जेणेव केयाअडे जणवर जेणेव सेयबिया नगरी जेषीय भियवणे उज्जाणे होणेय .॥१२॥ REaratinid ~253~ Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) "राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ---------- मूलं [५६-६१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [५६-६१] दीप अनुक्रम [५६-६१] उवागच्छद २त्ता अहापडिरूवं उन्गहं उन्निहित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावमाणे विहरति । तए णं सेयवियाए नगरीए सघाढग महया जणसद्देइ वा० परिसा णिग्गछह, तए णं ते उज्जाणपालगा इमीसे कहाप लहा समाणा हतुह जावहिपया जेणेव केसीकुमारसमणे तेणेव उवागच्छन्ति २त्ता केसि कुमारसमणं वंदति नमसंति २त्ता अहापडिरूवं उग्गहं अणुजार्णति पाडिहारिएणं जाव संथारएणं उवनिमंतंति णाम गोयं पुच्छति २त्ता ओधारति २त्ता एगतं अवशमति अन्नमन्न एवं वयासी-जस्स णं देवाणुप्पिता! चित्ते सारही दसणं कंखइ देसणं पत्थे। दसणं पीहेड दसणं अभिलसह जस्स णं णामगोयस्सवि सवणयाए हतुह जाव हियए भवति से णं एस केसीकुमारसमणे पुवाणुपुदि चरमाणे गामाणुगाम दूइज्जमाणे इहमागए इह संपने इह समोसढे इहेव सेयचियाए णगरीए बहिया मियवणे उज्जाणे अहापडिरूवं जाव विहरह, तं गच्छामी देवाणप्पिया! चित्तस्स सारहिस्स एयम8 पियं निवेएमा पियं से भवउ, अण्णमण्णस्स अंतिए एयम ठं पडिमुणेति २ जेणेव सेयविया णगरी जे मेव चित्तस्स सारहिस्स गिहे जेणेव चित्तसारही तेणेय उवागमति २त्ता चि सारहि करयल जाव वडाति २ ता एवं वयासी-जस्स णं देवाणुप्पिया! दसणं कखंति जाव अभिलसंति जस्स णं णामगोयस्सवि सवणयाए हहजाच भवह सेणं अयं केसी कुमारसमणे पुवाणुपुर्वि चरमाणे समोसढे जाव विहरइ । तए णं से चिचे सारही तेसि ~254~ Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) "राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ---------- मूलं [५६-६१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: वित्रसार प्रत सूत्रांक [५६-६१] दीप अनुक्रम [५६-६१] श्रीराजपनी मलयगिरी उमाणपालगाणं अतिर एगई सोच्चा णिसम्म हदूत जाव आसणाओ अम्भुहति पायपीढाओ पच्चोरुहदविधर्मयया वृत्तिः २त्ता पाडयाओ ओमुयइ रचा एगसाडियं उत्तरासंग करेइ, अंजलिमउलियनहत्थे केसिकुमारसमणाभिमुहे वर्ण ॥ १२६॥ सत्तनु पयाई अणुगच्छइ २त्ता करयलपरिग्गहियं सिरसाव मत्थर अंजलि कर एवं वयासी-नमोत्थु ण अ- IS०५९: रहंताणं जाब संपत्ताणं, नमोऽत्थु णं केसियस कुमारसमणस्स मम धम्मायरियस्स धम्मोवदेसगस्स बंदामि | A भगवंतं तत्थगयं इहगए पासउ मे सिक बदइ नमसइ, ते उजाणपालए विउलेणं यत्थगंधमलालंकारेणं * सकारेइ सम्माणेद विउलं जीवियारिहं पीइदाण दलयइ २ चा पडिविसज्जेइ २ कोटुंबियपुरिसे सहावेइ ३ एवं | वयासी-खिप्पामेव भो ! देवाणुप्पिया चाउट आसरह जुत्तामेव उवट्ठवेह जाव परचप्पिणह । तए ण ते को वियपुरिसा जाव खिप्पामेव सरछत्तं सज्झय जाब उचढवित्ता तमाणत्तिय पचप्पिणंति, तए णं से चित्ते | सारही कोटुंबियपुरिसाणं अंतिए एयम सारचा निसम्म हतुट्ठ जावहियए पहाए कयवलिकम्भे जाव सरीरे जेणेव चाउग्घंटे जाव दुरुहिचा सकोरंट० महया भडचडगरेणं तं चेव जाव पज्जुवासइ धम्मकहाए जाय ॥ (सू०५९) । तपणं से चित्ते सारही केसिस्त कुमारसमणस्त अंतिए धम्म सोच्या निसम्म हतुढे उहाए तहेव एवं वयासी-एवं खलु भंते ! अम्हं पएसी राया अपम्मिए जाव सयस्सवि थे। जणवयस्स नो सम्मं करभरवितिं पवसेइ, तं जइ ण देवाणुप्पिया! पएसिस्स रण्णो धम्ममाइक्खेज्जा बहुगुणतरं खलु होज्जा परसिस्स रपणो तेसिं च बहणं दुपयचउप्पयमियपमुपक्खोसिरीसवाणं, ॥१२॥ anditurary.com ~255~ Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) "राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ---------- मूलं [५६-६१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [५६-६१] दीप अनुक्रम [५६-६१] तेसिं च बहूर्ण समणमाहणभिक्खुयाणं, तं जइ णं देवाणुप्पिया ! पएसिस्स बहुगुणतरं होजा सयस्सवि य णं जणवयस्स ।। (सू०६०)॥ तए ण केसीकुमारसमणे चित्तं सारहिं एवं वयासीएवं खलु चर्हि ठाणेहिं चित्ता जीवा केवलिपन्नत्तं धम्मं नो लभेजा सवणयाए, तं०-आरामगयं वा उजाणगय वा समणं वा माहणं वा णो अभिगच्छा णो वंदर णो णमंसह णो सकारेह णो सम्माणे णो कालाणं मंगलं देवयं चेइयं पज्जुबासेइ नो अट्ठाई हेऊई पसिगाई कारणाई वागरणाई पुच्छह, एएणं ठाणं चित्ता! जीवा केवलिपन्नत्तं धम्म नो लभंति सवणयाए १ उवस्सयगयं समणं वा तं चेव जाव एतेणवि ठाणं चित्ता! जीवा केवलिपन्नत्तं धम्मं नो लभन्ति सवणयाए २ गोयरन्गगयं समणं वा माहणं वा जाव नो पज्जुवासह, णो विउलेणं असणपाणखाइमसाइमेणं पडि. लाभइ० णो अढाई जाव पुच्छह, एएणं ठाणं चित्ता ! केवलिपन्नत्तं नो लभह सवणथाए जत्थविणं समण वा माहणेण या सहिं अभिसमागच्छद तथवि णं हत्येण वा बत्थेण वा छत्तेण वा अप्पाणं आवरिना चिट्ठइ, नो अट्ठाई जाव पुच्छह, एएणवि ठाणेणं चिचा! जीवे केवलिपन्नतं धम्म णो लभह सवणयाए ४, एएहिं च णं चित्ता! चउहिं ठाणेहिं जीवे गोलभइ केवलिपन्नत्तं धम्म सबणयाए । चउहि ठाणेहिं चित्ता ! जीवे केवलिपन्नत्तं धम्म लभइ सवणयाए, तं०-आरामगयं था उज्जाणगयं वा समणं वा माहर्ण वा वंदइ नमसइ जाव पज्जुवासह अट्ठाई जाव पुच्छर, एएणवि ~256~ Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) प्रत सूत्रांक [५६-६१] दीप अनुक्रम [५६-६१] श्रीराज श्री court या वृत्तिः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. ॥ १२७ ॥ “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र - १ (मूलं + वृत्तिः) 404444 मूलं [ ५६-६१] आगमसूत्र [१३] उपांग सूत्र [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः जाब लभइ सवणयाए, एवं उवस्सयायं गोयरग्गगयं समणं वा जाव पज्जुवासह विजलेणं जाव पडिलाइ अट्ठाई जाव पुच्छ, एएणवि०, जत्थवि य णं समर्पण वा अभिसमागच्छइ तत्थवि य णं णो हत्येण वा जाव आवरेत्ताणं चिह्न, एएणवि ठाणेणं चित्ता ! जीवे केवलिपनन्तं धम्मं लभइ सवयाए, जांच णं चिन्ता ! पएसी राया आरामगयं वा तं चैव सर्व्वं भाणियहं आइलए गणंजाब अप्पा आवरेता च तं क णं चित्ता । पए सिस्स रनो धम्ममा इक्स्विरसामो १, नए णं से चित्ते सारही केसिकुमारसणं एवं वयासी एवं खलु भंते ! अष्णया कथाई कंबोपहि चत्तारि आसा वयं उवणीया ते मए परसस्त रण्णो अन्नया चेव उवणीया, तं एएणं खन्तु भंते! कारण अहं एसिं रायं देवाध्वियाणं अंतिए हदमास्सामो, तं मा णं देवाणुप्पिया! तुभे पएसिस्स रन्नो धम्ममाइक्खमाणा गिलाएजाह, अगिलाए णं भंते! तुम्भे परसिस्स रण्णो धम्ममा इक्वेजा, छंदेणं भंते! तुभे एसिस्स रग्णो धम्मंमाइक्वेलाह, तए णं से केसीकुमारसमणे चित्तं सारहि एवं वयासी - अवियाई चित्ता ! जाणिस्सामी । तए णं से चित्ते सारही केसि कुमारसमणं बंदइ नर्मसह २ जेणेव [चाउघंटे आसरहे तेणेव उवागच्छ २त्ता चार्ट आसर दुरुहइ जामेव दिसिं पाउन्भू तामेव दिसिं पडिगए || (सू० ६१) ॥ 'जेणेव केसीकुमारसमणे तेणेव उवागच्छित्ता केसीकुमारसमणं पंचत्रिणं अभिगमेणं अभिगच्छ, तंजा--सचितानां For Parts Only ~ 257 ~ 040-4500-46-4901949-6000-44000 प्रदेशिबो धाय श्राव रत्यागमन विज्ञप्तिः सू० ६० धर्मस्य ला भालाभका रणानि मू० ६१ ।। १२७ ।। yor Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय"- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ---------- मूलं [५६-६१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [५६-६१] दीप अनुक्रम [५६-६१] द्रव्यानां पुष्पताम्यूलादीनां 'बिउसरणयाए 'इति व्यवसरणेम व्युत्सर्जनेन, अचित्तानां द्रव्याणाम्-अलङ्कारवखा-118 दीनामव्यवसरणेन-अव्युत्सर्गण, कचित् 'विउसरणयाए' इति पाठः, तत्र अचित्तानां द्रव्याणां-छत्रादीनां पुत्सजेनेन परिहारेण, उक्तं च--' अवणेइ पंच कहाणि रायवरचिंधभूयाणि । छत्तं खग्गी वाणह मउई तह चामराओ य ॥२॥' इति, *एका शारिका यस्मिन् तत्तथा तच्च व उत्तरासंगकरण च-उत्तरीयस्य न्यासविशेषरूप तेन, चस्पर्श-दर्शने 'अंजलिपग्ग हेण हस्तमोटनेन, मनस एकत्रीकरणेन-एकत्वविधानेन, 'पाडिहारिषण पीढफलगसेज्जासंथारगेण निमंतेहिति' प्राति हारिकेण--पुनः समर्पणीयेन । 'अवियाई चित्ता ! जाणिस्सामो' इति 'अचियाई' इति अपि च चित्ते परिभाषयामो 'लग्गा' भाइति भावः, कचित्पाठः 'आवियाई चित्ता ! समोसरिस्सामो' इति, नत्र अपि च-एतदपि च पग्भिाव्य समवस रिष्यामो वर्तमानयोगेन, 'फुटमाणेहि मुइंगमथएहि ति स्फुटद्भिरतिरभसास्फालनात मर्दल मुखपुटैः द्वात्रिविधैः द्वात्रिंशत्पात्रनिबद्ध| नाटकैर्वरतरुणयुक्तरुपनृत्यमानः तदभिनयपुरस्सरं नर्तनात् उपगीयमानः तद्गुणानां गानाव। 'दसणं कंखेइ' इत्यादि, का कति प्रार्थयते स्पृ.ते अभिलपति चत्वारोऽप्येकार्थाः। 'चउहि ठागेहि' इति आरामादिगतं श्रमणादिकं नाभिगच्छनीत्यादिक प्रयम कारण, उपाश्रयगतं नाभिगच्छतीत्यादि द्वितीय, प्राविहारिकेण पीठफलकादिना नामन्त्रयतीत्यादि तृतीय, गोचरगतं नाशनादिना प्रतिलाभयवीत्यादि चतुर्थ, पतैरेव चतुर्भिः स्यानैः केवलिपक्षप्तं धर्म लभते श्रवणतया-श्रवणेनेति भावा, 'अत्यवियण 'मित्यादि, यत्रापि श्रमणः-साधुः माहन:-परमगीतार्थः श्रावकोऽभ्यागच्छनि तत्रापि हस्तेन वस्त्राश्चलेन छत्रेण वाऽऽत्मानमावृत्य न तिष्ठति इदं प्रथम कारण, एवं शेषाण्यपि कारणानि प्रत्येकमेवं भावनीयानि, तुझं च णे चित्ता ! SNEaratunmol A amurary.orm ~258~ Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) "राजप्रश्निय"- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ---------- मूलं [५६-६१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: श्रीराजपनी मलयगिरी या वृत्तिः प्रत सूत्रांक [५६-६१] ॥ १२८॥ दीप अनुक्रम [५६-६१] पएसी राया आरामगयं वा तं चैव सर्व भाणियत्वं 'भाइलगमएण 'ति प्रथमगमकेन, तयथा-युष्माकं प्रदेशी राजा हे चित्र ! अश्यतेनं आरामादिगतं न वन्दते, यत्रापि च श्रमणोऽभ्यागच्छति तत्रापि हस्तादिनाऽऽत्मानमावृत्य तिष्ठति, 'तं कहने चित्ता! | * केशिनः मीपेगमनंच इत्यादि सुगम ॥ (सू०५६-५७-५८-५९-६०-६१)॥ ०१२ तए णं से चित्ते सारही कलं पाउप्पभायाए रयणीए फुल्लुप्पलकमलकोमल्लुम्मिलियमि अहापंडुरे पभाए कयनियमावस्सए सहस्सरस्सिमि दिणयरे तेयसा जलंते साओ गिहाओ णिग्गकछह २ ना जेणेव पएसिस्स रनो गिहे जेणेव पएसी राया तेणेव उवागच्छइ २ ता पएर्सि रायं करयल जाव तिकटुजएणं विजएणं वहावेइ,रत्ता एवं क्यासी-एवं खलु देवाणुप्पियाणं कंबोएहिं चत्तारि आसा उवणयं उवणीया तेय मए देवाणुप्पियाणं अण्णया चेव विणइया तं एह णं सामी ! ते भासे चिट्ठ पासह, तर णं से पएसी राया चित्तं सारहि एवं वयासो-गच्छाहि ण तुम चित्ता ! तेहि चेव चाहिं आतेहिं आसरह जुत्तामेव उवट्ठवेहि २त्ता जाव पथप्पिणाहितए णं से चित्ते सारही पएसिणा रन्ना एवं बुत्ते समाणे हतुट्ट जाव हियए उबट्टवेइ २त्ता एयमाणत्तियं पचप्पिणह। तर णं से पएसी रावा चित्तस्स सारहिस्स अंतिए एयमहूँ सोचा णिसम्म हट्ट जाव अप्पमहग्घाभरणालं कियसरीरे साओ गिहाओ निग्गच्छद रत्ता जेणामेव चाउग्घंटे आसरहे तेणेव उवागच्छइ २ चाउग्घट आसरहं दुरुहह, सेयवियाए नगरीए मज्झमझेणं णिग्गच्छद,तए णं से चित्ते PM १२८॥ SAREnatinindia I MLucturanmarg ~ 259~ Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ---------- मूलं [६२-६४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [६२-६४] दीप अनुक्रम [६२-६४] सारहीत रह गाई जोयणाई उच्भामेइ, तए णं से पएसी राया उण्हेण यतहाए य रहवाए] परिकिलंते समाणे चित्तं सारहि एवं वयासी-चित्ता ! परिकिलंते मे सरीरे परावत्तेहि रहे, तए णं से चित्ते सारही रहे परायते, जेणे,व मियवणे उजाले तेणेव उवागछह, परसिं राय एवं वयासी-एस णं सामी! मियवणे उजाणे एत्य णं आसाणं समं किलाम सम्म पवीणेमो, तए णं से पएसी राया चित्तं सारहिं एवं वदासी-एवं होउ चित्ता,तए ण से चित्ते सारही जेणेव मियवणे उजाणे जेणेव केसिस्स कुमारसमणस्स अदरसामंते तेणेव उवागच्छह रतुरए णिगिण्हेइ २ रहे ठवेइ २त्ता रहाओ पञ्चोकहइ २त्ता तुरए मोएतिरत्ता पएसि राय एवं वयासी-एहण सामी! आसाणं संमं किलाम पवीणे,मो, तए णं से पएसी राया रहाओ पञ्चोकहइ, चित्तेण सारहिणा सद्धि आसाणं समं किलाम सम्म पवीणेमाणे पासइ जत्थ केसीकुमारसमणे महइमहालियाए महापरिसाए मझगये महया २ सद्देणं धम्ममाइक्खमाणं, पासइत्ता इमेयासवे अज्झथिए जाव समुप्पजित्था-जड्डा खलु भो जई पज्जुवासंति मुंडा खलु भो मुंडं पज्जुवासंति म्दा खलु भो मृदं पजुवासंति अपंडिया खल्लु भो! अपंडियं पज्जवासंति निविण्णाणा खल भो। निविगाणं पज्जुवासंति, से केस णं एस पुरिसे जड़े मुद्दे मूढे अपंडिए निविणाणे सिरीए हिरीए उवगए उत्तप्पसरीरे, एस णं पुरिसे किमाहारमाहारेइ ? कि परिणामेइ ? किं खाइ किं पिया कि केसिकुमार श्रमणं सार्धं प्रदेशी राजस्य धर्म-चर्चा ~260~ Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) "राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ---------- मूलं [६२-६४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: श्रीराजप्रश्नी भाधोऽवध्यनजीवि प्रश्नः चि मलयगि या पृत्तिः तितोक्तिः ॥१२९॥ प्रत सूत्रांक [६२-६४] दलइ किं पयल्छइ जण एमहालियाए मणुस्सपरिसाए मज्झगए महया २ सद्देणं वुयाए ?, एवं संपेहेइ २ मा चित्तं सारहिं एवं वयासी-चित्ता! जडा खलु भो ! जई पज्जुवासंति जाव बुयाइ, साएवि य णं उजाणभूमीए नो संचाएमि सम्म १कामं पबियरित्तए । तए णं से चिसे सारही पएसीराय एवं वयासी-एस णं सामी ! पासावञ्चिले केसीनाम कुमारसमणे जाहसंपणो जाव चउ.. नाणोवगए आहोहिए अण्णाजीबी तए णं से पएसी राया चित्तं सारहिं एवं बयासी-आहोहिय ण वदासि चित्ता! अण्णजीवियत् णं वदासि चित्ता, हंता ! सामी ! आहोहिअण्णं वयामि०, अभिगमणिजे गं चित्ता! अहं एस पुरिसे १, हंता ! सामी ! अभिगमणिजे, अभिगच्छामो णं चित्ता ! अम्हे एयं पुरिसं?, हंता सामो ! अभिगच्छामो ॥ (सू०६२) ॥ तए णं से पएसी राया चिरेण सारहिणा सहिं जेणेव केसीकुमारसम तेणेव उवागच्छइ २ ता केसीस्स कुमारसमणस्स अदरसामसे ठिचा एवं बयासी-तुम्भेण भंते! आहोहिया अण्णजीविया ?,तएणं केसी कुमारसमणे पएसि रायं एवं वदासी-पएसी से जहाणामए अंकवाणियाइ वा संखवाणियाइ वा दंतवाणियाई वा सुंक भसिकामा णो सम्म पंथ पुच्छइ.एवामेव पएसी तुम्भेवि विणयं भंसेउकामो मो सम्म पुरुछसि, से शृणं तव पएसी ममं पासित्ता अयमेयारुवे अज्झथिए जाय समु. प्पजिस्था-जड्डा खलु भो ! जड़े पज्जुवासंति, जाय पवियरित्तप, से गूणं परसी अढे समत्थे १, दीप अनुक्रम [६२-६४] ॥ १२९॥ SAMEmirahini T amurary.om केसिकुमार श्रमणं साधं प्रदेशी राजस्य धर्म-चर्चा ~261~ Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) प्रत सूत्रांक [६२-६४] दीप अनुक्रम [६२-६४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. Jan Educator “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र - १ ( मूलं + वृत्तिः ) 4610% -43185-481446 मूलं [६२-६४] आगमसूत्र [१३], उपांग सूत्र [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः हंता ! अस्थि । (सू०६३ ) || तए णं से पएसी राया केसि कुमारसमणं एवं बदासो-से केणहे भंते! तुझं नाणे वा दंसणे वा जेणं तुझे मम एयावं अज्झत्थियं जाव संकष्पं समुपणं जाणह पासह, तर णं से केसीकुमारसमणे पएसि रायं एवं क्यासी एवं खलु पएसी अहं समणाणं निरगंधाणं पंचविहे नाणे पण्णत्ते, तंजड़ा - आभिणिवोहियणाणे सुथनाणे ओहिणाणे मणपजवणाणे केवलणाणे, से किं तं आभिणिबोहियनाणे ?, आभिणिवोहियनाणे चउविहे पण्णत्ते, तंजा-उग्गही ईहा अवाए धारणा से किं तं उग्गहे!, उम्महे दुबिहे पण्णत्ते. जहा नंदीए जाव सेतं धारणा, सेतं आभिणिबोहियणाणे । से किं तं सुयनाणे १, सुपनाथे दुबिहे पण्णत्ते, तंजहा अंगपवि च अंगवाहिरं च सर्व्वं भाणियवं जाव दिट्टिवाओ । ओहिणाणं भवपचइयं खभवसमियं जहा णंदीए । मणपज्जवनागे दुविहे पण्णत्ते, तंजहा-उज्जुमई य विलमई य, तहेव केवलनाणं सधैं भाणियवं तत्थ णं जे से आभिणियोहियनाथे से णं ममं अस्थि, तत्थ णं जे से सुयणाणे सेऽविय ममं अस्थि, तत्थ णं जे से ओहिणाणे सेवि य ममं अस्थि, तत्थ णं जे से मणपज्जवनाणे सेsविय ममं अस्थि, तत्थ णं जे से केवलनाणे से णं ममं नत्थि, से णं अरिहंताणं भगवंताणं, बेषणं पएसी अहं तव चउबिहेणं छमत्थेणं जाणं इमेपारूवं अज्झत्थियं जाब समुपण जाणामि पासामि ॥ ( सू० ६४ ) | केसिकुमार श्रमणं सार्धं प्रदेशी राज्ञस्य धर्म-चर्चा For Parts Only ~262~ 4694504469) 43023-45440 Pandorary.org Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ---------- मूलं [६२-६४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: जानानि, चतुझोनका सू०६४ प्रत सूत्रांक [६२-६४] *-16 बीराजपनी 'आसाणं समं किलाम सम्ममवणे,मो' इति, अश्वानां सम-श्रमं खेदं क्लमं-ग्लानि सम्यक् अपनयामः- मलयगिरी- स्फोटयामः 'जडा खलु जड' मित्यादि, जडमूढअपण्डित निर्विज्ञानशब्दा एकाथिका मौख्यंमकर्षप्रतिपादनार्थ चोक्ताः, सिरिए हिरिए उवगए उत्तप्पसरीरे' इति श्रिया-शोभया हिया-लज्जया उपगतो-युक्तः, परमपरिषदादिशोभया गुप्त॥१३०॥ शरीरचेष्टाकतया चोपलम्मान, उत्तप्तशरीरो-देदीप्यमानशरीरः, अत्रैव कारणं विमृशति-एष किमाहारयति-किमाहार * गृहाति १, न खलु कदनभक्षणे एवरूपाया: शरीरकान्तरुपपत्तिः, कण्डत्यादिसद्भावनो विच्छायत्वप्रसक्तः, तया कि परिणा मयति-कीदृशोऽस्य गृहीताहारपरिणामो ?, न खलु शोभनाहाराभ्यवहारेऽपि मन्दाग्नित्वे यथारूपा कान्तिर्भवति, एतदेव सविशेषमाचष्टे-'कि साइ कि पियइ !, तथा कि दण्यति-ददाति, एतदेव व्याचष्टे-किं प्रयच्छति !, येनैतावान् लोका पर्युपास्ते, एतदेवाह-'जन्नं एस एमहालियाए माणुसपरिसाए महयार सद्देण यूया' इति बने, यस्मिंश्चेत्, चेष्टमाने 'साए बियाणमित्यादि स्वकीयायामपि उद्यानभूमौ न संचाएगो-न शक्नुमः सम्यक्-प्रकाशं स्वेच्छया प्रविचरित, एवं संप्रेक्षते-स्ववेतसि परिभावयति, संप्रेक्ष्य चित्रं सारथिमेवमवादी-'चित्ता' इत्यादि, 'अधोवहिए' इति अधोऽवधिका-परमावधेरधोव* पर्यवधियुक्तः, 'अन्नजीविए' इति अनेन जीवितं-प्राणधारणं यस्यासावनजीवितः। 'से जहानामए' इत्यादि, ते यथा नाम इति वाक्यालङ्कारे 'अकवणिजो' भवरत्नवणिः शङ्खच णिजो मणिवणिमो या शुल्क-राजदेयं भाग भ्रंशयितुकामाः शङ्कातो न सम्यग् पन्धानं पृच्छन्ति, 'एवमेव तुम' मित्यादि, दान्तिक योजना सुगमा । 'उग्गहे' त्यादि, तत्राविवक्षिवाशेषविशेषस्य सामान्यरूपस्यानिर्देश्यस्य रूपादेरवग्रहणमवग्रहः तदर्थगतासभूतसद्भूतविशेषालोचनमीहा पक्रान्तार्थविशेषनि दीप अनुक्रम [६२-६४] ॥१३०.4 EMIndurary.org केसिकुमार श्रमणं सार्धं प्रदेशी राजस्य धर्म-चर्चा ~263~ Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) "राजप्रश्निय"- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ---------- मूलं [६२-६४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [६२-६४] अयोऽपायः अवगतार्थविशेषधारण धारणा, 'से कि त उम्गहे' इत्यादि, यया नन्दी शानमरूपणा कृता तथाऽत्रापि परिपूर्णा कर्तव्या, ग्रन्थगौरवभयाञ्च न लिख्यते, केवल सट्टीकैवावलोकनीया, तस्यां समपञ्चमस्माभिरभिधानात् ॥ (सू०६२-६३-६४)॥13 तएणं से पएसीराया केसि कुमारसमणं एवं बयासी-अहणं भंते ! इह उवविसामि १, परसी! एसाए उजाणभूमीए तुमंसि चेव जाणए, तए णं से पएसी राया चित्तेणं सारहिणा सडिकेसिस्स कुमारसमणस्स अदूरसामंते उवविसह, केसिकुमारसमणं एवं वदासी-तुन्भे णं भंते ! समणाणं णिग्गथाणं एसा सपणा एसा पदण्णा एसा दिट्ठी एसा रुई एस हेऊ एस उवएसे एस संकप्पे एसा तुला एस माणे एस पमाणे एस समोसरणे जहा अण्णो जीवो अपण सरीरंणो तं जीवो तसरीरं, तए ण केसी कुमारसमणे पएर्सि राय एवं वयासी-पएसी! अम्हं समणाणं णिगंधाणं एसा सण्णा जाय एस समोसरणे जहा अण्णो जीवो अण्णं सरीरंणो तं जीवो जो तं सरीरं,तए णं से पएसी राया केसि कुमारसमण एवं बयासी-जति णं भंते ! तुम्भं समणाणं णिगंथाणं एसा सण्णा जाव समोसरणे जहा अण्णो जीवो अण्ण सरीरंणोतं जीवोतं सरीरं, एवं खलु मम अजए होत्या, इहेव जंबूदीवे दीवे सेयवियाए णगरीए अधम्मिए जावसगस्सविय गंजणवयस्स नी सम्म करभरवित्तिं पवत्तेति, से.णं तुम्भं वत्तचयाए सुबह पावं कम्म कलिकलुस समन्जिणित्ता कालमासे कालं किचा अण्णयरेसु नरपसु रइयत्ताए उववषये। । तस्स णं अजगस्स णं अहं णत्तुए होत्था इट्टे कंते दीप अनुक्रम [६२-६४] FOLLO Hindurary.orm केसिकुमार श्रमणं साधं प्रदेशी राजस्य धर्म-चर्चा ~264~ Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) प्रत सूत्रांक [६५-६६] दीप अनुक्रम [६५-६६] “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र - १ ( मूलं + वृत्तिः ) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित. श्रीराजमनी मलयगिरीया वृत्तिः ।। १३१ ।। मूलं [६५-६६ ] आगमसूत्र [१३], उपांग सूत्र [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः पिए म जे वेसासिए समए बहुमर अणुमए रयणकरंडगसमाणे जीवि उस्सविए हिययनंदिजगणे उंचरपुष्पवदुल्लभे सवणयाए, किमंग पुण पासणयाए ?, तं जति णं से अज्जए ममं आगंतु एज्जा एवं खलु ननूया! अहं तब अज्जर होत्था, इहेब सेयवियार नयरीए अधम्मिए जाव नो सम्म कर भरविति पवतेमि, तए णं अहं सुबाहुं पावं कम्मं कलिकलुस समज्जिणित्ता नरपसु व तं माणं ना ! तुमपि भवाहि अधम्मिए जाव नो सम्म कर भरवित्तिं पवतेहि, माणं तुमपि एवं चेत्र सुबहु पावकम्मं जाब उववज्जिहिसि, तं जह णं से अज्जर ममं आगंतुं वएज्जा तो णं अहं सदहेज्जा पत्तिएज्जा रोएज्जा जहा अन्नो जीवो अन्नं सरीरं णो तं जीवो तं सरीरं, जम्हाणं से अज्जए भमं आगंतुं नो एवं वयासी तम्हा सुपइडिया मम पन्ना समणाउसो ! जहा तज्जीवो तं सरीरं । तरणं केसी कुमारसमणे परसिं रायं एवं वदासी- अस्थि णं पएसी ! तब सूरियकंता णामं देवी ?, हंता अस्थि, जइ णं तुमं परसी तं सूरियकंतं देवि पहायं कयवलिकम्मं कयको मंगलपायच्छन्तं सद्दालंकार विभूसियं केणइ पुरिसेणं पहाएणं जाव सालंकारभूसिएणं सद्धि इट्टे सद्दफरिसरसरूवगंधे पंचविहे माणुस्सते कामभोगे पञ्चणुग्भवमाणि पासिज्जसि तस्स णं तुम परसी ! पुरिसस्स के डंडं निघतेज्जासि १, अहणणं भंते । तं पुरिसं हत्यच्छिष्णगं वा सूलायगं वा भिन्न वा पायछिन्नगं वा एगाहचं कूडाहच जीवियाओ वयरोवएज्जा, अहणं पएसी से केसिकुमार श्रमणं सार्धं प्रदेशी राज्ञस्य धर्म-चर्चा For Penal Use On ~265~ 00491*%$461046 20469040904 आर्यका नागमप्रश्नः सू० ६५ ।। १३१ ।। Paryo Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) प्रत सूत्रांक [६५-६६] दीप अनुक्रम [६५-६६ ] “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र - १ ( मूलं + वृत्तिः ) मूलं [६५-६६ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित. आगमसूत्र [१३] उपांग सूत्र [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः Janucation T 费 愛爭 贵贵安立愛中受辛安宁 पुरिसे तुमं एवं बज्जा मा ताव मे सामी मुहत्तगं हत्थच्छिण्णगं वा जाव जीवियाओ ववरोवेहि जाय तावाहं मित्तणाइणियगसपणसंबंधिपरिजणं एवं वयामि एवं खलु देवाणुप्पिया ! पाबाई कम्माई समायरेता इमेयारूवे आवई पाविज्जामि, तं मां णं देवाणुप्पिया ! तुम्भेवि केह पावाई कम्माई समायरड, मा णं सेऽवि एवं चेव आवई पाविज्जिहिर जहा णं अहं, तस्स णं तुम परसी ! पुरिसस्स खणमवि एयमहं पडिसुणेज्जासि ?, णो तिणद्वे समट्टे, जम्हा णं भंते! अवराही णं से पुरिसे, एवामेव पएसी ! तववि अज्जर होत्था इहेव सेयवियाए णयरीए अधम्मिए जाव णो सम्म कर भरविति पवते, से णं अम्ह वक्तव्याए सुबहं जाव उबवन्नो, तस्स णं अज्जस तु तु होत्था इट्ठे कंते जाय पासणयाए, से णं इच्छइ माणुसं लोगं हदमागच्छत्तए, णो चेवणं संचारति हदमागच्छित्तए, चउहि ठाणेहिं परसी अहृणोववण्णए नरपसु नेरइए इच्छे माणुस लोग हृदमागच्छत्तए नो चेवणं संचाएइ अनुणोववन्नए नरए नेरइए, से णं तत्थ महम्भूयं वेणं वेदेमाणे इच्छेला माणुस्सं लोगं हर्दव्णो चेवणं संचारह० १, अरुणोववन्नए नरए नेरइए नयरपालेहि भुज्जो २, समहिद्विजमाणे इष्ट माणुसं लोगं हृदमागच्छित्तए नो वेव संचारइ २ अहनए नए नेरइए निरयवेयणिज्जंसि कम्मंसि अक्रवीणंसि अवेयंसि अनिज्जिनंसि इच्छ माणुसं लोगं० नो चेषणं संचाए ३, एवं पेरइए निरयाउयंसि कम्र्म्मसि अक्खीणंसि अवेइयंसि केसिकुमार श्रमणं सार्धं प्रदेशी राज्ञस्य धर्म-चर्चा For Para Lise Only ~266~ 407469)83043-4600* Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) "राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ---------- मूलं [६५-६६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: श्रीरानप्रश्नो का मळयगिरीया वृत्तिः आपिका नागमन प्रत सूत्रांक [६५-६६] अणिज्जिनसि इच्छह माणुस लोग नो चेव णं संचाएर हामागच्छित्तए ४, इएहि चउहि ठापेहि पएसी अहणीववन्ने नरएसु नेरइए इच्छइ माणुस लोग० णो चेव णं संचापइ०, तं सरहाहि णं पएसी ! जहा अन्नो जीवो अन्नं सरीरं नो तं जीवो त सरीरं१॥ (सू०६५)॥तए णं से पएसी राया केसि कुमारसमण एवं वदासी-अस्थि णं भंते! एसा पण्णा उवमा, इमेण पुण कारपेण नो उवागरछह, एवं खलु भंते ! मम अज्जिया होत्था इहेव सेयवियाए नगरीए धम्मिया जाव वित्ति कप्पेमाणी समणोवासिया अभिगयजीवा० सहो वण्णओ जाव अप्पाणं भावेमाणी विहरह, साणं तुज्ने वत्तबयाए सुबहं पुनवचयं समजिणिचा कालमासे कालं किचा अपणयरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववण्णा, तीसे णं अग्जियाए अहं नत्तुए होत्था इढे कंते जाव पासणयाए, तं जइ ण सा अज्जिया मम आगतं एवं वएज्जा-एवं खलु नत्तुया ! अहं तव अज्जिया होत्या, इहेव सेयवियाए नपरीर घम्मिया जाव वित्ति कप्पेमाणी समणीवासिया जाब विहरामि । तए णं अहं सुबहुं पुषणोयचयं समज्जिणित्ता जाव देवलोएम उववण्णा, तं तुमंपि णत्तुया ! भवाहि धम्मिए जाव विहराहि, तए णं तुमंपि एयं चेव सुबह पुण्णोवचयं समजाव उववज्जिहिसितं जहणं अज्जिया मम आगंतुं एवं वएज्जा तो णं अहं सदहेज्जा पत्तिएज्जा रोइजा जहा अपणो जीचो अण्णं सरीरं णो त जीवो तं सरीरं, जम्हा सा अज्जिया ममं आगंतुंणो एवं वदासी, तम्हा दीप अनुक्रम [६५-६६] १३२॥ RERatinAR maration केसिकुमार श्रमणं सार्धं प्रदेशी राजस्य धर्म-चर्चा ~267~ Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) "राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ---------- मूलं [६५-६६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [६५-६६] सुपइडिया मे पइपणा जहा तं जीवो त सरीरं नो अन्नो जीवो अन्ने सरीर । तए ण केसीकुमारसमणे पएसीरायं एवं वयासी-जति ण तुम पपसी! हाय कयवलिकम्म कयकोउयमंगलपायकिछत्तं उल्लपडसाडगं भिंगारकडच्छयहत्थगयं देवकुलमणुपविसमाणं केइ य पुरिसे बच्चधरंसि ठिचा एवं वदेजा-ह(ए हताव सामी! इह मुहत्तगं आसयह वा चिट्ठह वा निसीयह वा तुयह वा, तस्स णं तुम पएसीपुरिसस्स खणमवि एयम पडिसुणिज्जासि, णो ति०, कम्हाणे?, भंते ! असुइ २ सामंतो,एवामेव पएसी! तववि अज्जिया होत्था इहेव सेयवियाए णपरोए धन्मिया जाव विहरति, साणं अम्हं वत्तघयाए सुबहुंजाव उववन्ना, तीसे णं अजियाए तुम णनए होत्था इट्ट० किमंग पुण पासणयाए 1, सा णं इच्छह माणुसं लोग हवमागच्छित्तए, णो चेव णं संचाएइ हवमागच्छित्तए, चाहिं ठाणेहि पएसी अहणोववन्ने देवे देवलोपमु इसजा माणुसं लोगं णो चेवणे संचाएइ. अहुणोववपणे देवे देवलोएसु दिव्वेहिं कामभोगेहिं मुछिए गिडे गढिए अजमोववणे से णं माणसे भोगेनो आढाति नो परिजाणाति, सेणं इच्छिज्ज माणुसं नो चेव णं संचाएति १, अहुणोववण्णए देवे देवलोएम दिवेहिं कामभोगेहिं मुछिए जाव अज्झोववण्णे, तस्स णं माणुस्से पेम्मे वोच्छिनए भवति दिव्वे पिम्मे संकेते भवति, से ण इच्छेज्जा माणुस० णो चेव णं संचाएइ २, अहुणोववपणे देवे दिन्वेहि कामभोगेहि मुच्छिए जाव अज्झोववणे, दीप अनुक्रम [६५-६६] केसिकुमार श्रमणं सार्धं प्रदेशी राजस्य धर्म-चर्चा ~268~ Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) प्रत सूत्रांक [६५-६६] दीप अनुक्रम [६५-६६ ] “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र - १ (मूलं + वृत्तिः) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित. श्रीराजमनी मलयगिरीया वृत्तिः ।। १३३ ।। मूलं [६५-६६ ] आगमसूत्र [१३], उपांग सूत्र [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः तस्स णं एवं भवइ-इयाणि गच्छे मुहतं गच्छं जाव इह अप्पाडया णरा कालधम्मुणा संजुत्ता भवंति से णं इच्छेज्जा माणुस्सं० णो चेव णं संचाएइ ३, अरुणोववगे देवे दिव्वेहि जाय अज्झोवो तस्स माणुस्सर उराले दुग्गंधे पडिकूले पडिलोमे भवइ, उद्धपि य णं चत्तारि पंच जोयणसाई असुभे माणुस्सर गंधे अभिसमागच्छ से णं इच्छेजा माणुसं० णो चैव पं संचाइजा ४, इथेहि ठाणेहि परसी! अट्टणोचवण्णे देवे देवलोएस इच्छेज माणुसं लोगं हृदमागच्छित्तर णो चेव णं संचार मागच्छन्तर, तं सद्दहाहि गं तुमं पएसी ! जहा अनो जीवो अन्नं सरीरं नो तं जीवो तं सरीरं २ ॥ ( सू० ६६ ) ॥ 'तुज्झणं भंते! समणाणं णिगंधाणं एसा सण्णा' इत्यादि, संज्ञानं संज्ञा सम्यग्ज्ञानमित्यर्थः, एषा च प्रतिज्ञानिरूपोऽभ्युपगमः एषा दृष्टिः दर्शनं स्वतश्वमिति भावः, एषा रुचिः परमश्रद्धानुगतोऽभिप्रायः, एष हेतुः समस्ताया अपि दर्शन कव्यतायाः, एतन्मूलं युष्मद्दर्शनमिति भावः एप सदैव भवतां तास्विकोऽध्यवसायः, एषा तुला यथा तुलायां तोलितं सम्यगित्यवधार्यते तथाऽनेनाप्यभ्युपगमेनाङ्गीकृतेन च यद्विचार्यमाणं संगतिमुपैति तत् सम्यमित्यवधार्यते न शेषमिति, तुलेब तुला तया एवमेतन्मानमित्यपि भावनीयं, नवरं मानं प्रस्थादि, 'एसप्पमाणे' इति एतत् प्रमाणं यथा प्रमाणं प्रत्यक्षाद्यविसंवादि एवमेषोऽप्यभ्युपगमोऽविसंवादीति भावः, 'एस समोसरणे' इति एतत् समवसरणं- बहूनामेकत्र मीलनं, सर्वेषामपि तानामस्मिन्नभ्युपगमे संलुलनमिति भावः । 'इट्ठे कंते पिए' इत्यादि, इष्टः इच्छाविषयत्वात् कान्तः कमनीयतमत्वात् केसिकुमार श्रमणं सार्धं प्रदेशी राज्ञस्य धर्म-चर्चा For Park Use Only ~ 269~ देवनारकानागमर्शका व्युदासः सू० ६६ ॥ १३३ ॥ Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) प्रत सूत्रांक [६५-६६] दीप अनुक्रम [६५-६६ ] urat “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र - १ (मूलं + वृत्तिः) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित. -> मूलं [६५-६६ ] आगमसूत्र [१३], उपांग सूत्र [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः for free मनोज्ञो मनसा सम्यगुपादेयतया ज्ञातत्वात् मनसा अम्यते गम्यते इति मनोऽमः स्थैर्यगुणयोगात् स्थैर्यो विश्वासको विश्वासस्थानं संमतः कार्यकरणेन बहुमतो बहुत्वेन अनल्पतया मतो बहुमतः कार्यविघातस्य पश्चादपि मतो बहु (अनु) मनः रत्नकरण्डसमानो, रत्नकरण्डक व देकान्तेनोपादेय इति भावः, 'जीविउस्सविए' इति जीवितस्योत्सव इव जीतोत्सवः स एव जोवितत्सविकः, हृदयनन्दिजननः, उदुम्बरपुष्यं लभ्यं भवति ततस्तेनोपमानं, 'खुलाइयं वा' इत्यादि शूलायामतिशयेन गतं शूलानिनं एतदेव व्याचष्टे शूलायां भिन्नः शूलाभिन्नः स एव शूलाभिज्ञकस्तं, तथा 'एगाहच्च' मिति एक पातं न यानेति भावः, 'कूडाब' मिति कृटायातं, कूटपतितस्य मृगस्य घातेनेति भावः । चउहि ठाणेहि' इत्यादि सुमहद्भूतनरकवेदना वेदनमेकं कारणं द्वितीयं परमाथार्मिकः कदनं तृतीयं नरकवेदनीयकम्पक्षियत उद्विजनं चतुर्थी नरक का उजितं । 'चाह ठाणेहिं अहगोयवयगर देवे इत्यादि सुगमं नवरं 'चचारि पंच वा जोअणसए असुगंधे हब' इति इह यद्यपि नवभ्यो योजनेभ्यः परतो गन्धपुद्गला न घ्राणेन्द्रियग्रहणयोग्या भवन्ति, पुद्गलानां मन्दपरिणाभावात् घ्राणेन्द्रियस्य च तयाविधशतपभावात् तथापि ते अत्युगंधररिणामा इति नव योजनेषु मध्ये अन्यान् पुगलान् उत्कटगन्यपरिणामेन परिणयपति तेऽपि ऊर्ध्वं गच्छन्तः परतोऽन्यान् तेऽप्यन्यानिति चत्वारि पञ्च वा योजनशतानि यावत् गन्धः केवलमूर्ध्वमूर्ध्वं मन्दपरिणामो पेदितव्यः, तत्र यदा मनुष्यलोके बहूनि गोमृतककलेवरादोनि तदा पञ्च योजनशतानि यावत् गन्धः शेषकाले चलारि तत उक्तं चत्वारि पश्चेति ॥ ( सू० ६५-६६ ) ॥ तर से परसी राया केसि कुमारसमणं एवं बयासी अस्थि भंते! एस पण्णाजवमा, इमेणे केसिकुमार श्रमणं सार्धं प्रदेशी राज्ञस्य धर्म-चर्चा For Peas Use Only ~270~ winrary org Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) प्रत सूत्रांक [६७-७४] दीप अनुक्रम [६७-७४] “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र - १ ( मूलं + वृत्तिः ) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित. श्रीराजमश्री मलयगिरी या वृत्तिः ।। १३४ ।। मूलं [६७-७४] आगमसूत्र [१३], उपांग सूत्र [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः पुण मे कारण णो उवागच्छति, एवं खलु भंते! अहं अन्नया कयाई बाहिरियाए उवाणसाला अगगणनायकदंडणायगई सरतलवरमा देवियको टुंबियइन्भसेसेणावइ सत्थवाहमंतिमहामंत्रिगणगदोवारियअमचचेडपी ढमद्दन गरनिगमद्यसंधिवालेहिं सद्धिं संपरिबुडे विहरामि । तए णं मम नगरगुत्तिया ससक्खं सलोहं सगेवेचं अवउण (वाउड) बंधणबडं चोरं उबर्णेति तए णं अहं तं पु. रिसं जीवंतं चैव अडकुंभीर पक्खिवावेमि अउमएणं पिहाणएणं पिहावेमि अएण य तउएण य आयावेमियाह पुरिसेहि रक्खावेमि, तर अहं अण्ण्या कयाई जेणामेव सा अडकुंभी तेनामेव वागच्छामि उवागच्छिता तं अडकुंभीं उग्गलच्छावेमि उग्गलच्छा वित्तातं पुरिसं सयमेव पासामि जो चेवणं ती अकुंभीए केइ छिदेह या विवरेह वा अंतरेइ वा राई वा जओ णं से जोवे अंतोहितो याज भंते तीसे अडकुंभीए होजा केइ छिड्डे वा जावराई या जओ णं से जीवे अंतोहितो पहिया णिग्गए. तो णं अहं सहेज्जा परिएला रोएका जहा अनो जीवो अन्नं सरीरं नो तं जीवो तं सरीरं, जम्हाणं भंते!तीसे अडकुंभीए णत्थि केइ छिड्डे वा जाव निग्गर, तम्हा सुपतिट्टिया पन्ना जहा तं जीवो तं सरीरं नो अन्नो जीवो अन्नं सरीर । तए णं केसीकुमारसमये परसिं रा एवं बयासी परमी ! से जहा नामए कूडागारसाला सिया दुहओलिता गुत्ता गुत्तदुबारा शिवाय - गंभीरा, अहणं केइ पुरिसे भेरिं च दंडं च गहाय कूडागारसालाए अंती २ अणुष्पविसह २ ता केसिकुमार श्रमणं सार्धं प्रदेशी राज्ञस्य धर्म-चर्चा For Park Lise Only ~271~ 40*402-40*404349340-45 ॐ अच्छिद्रेजी बगने शंका तदुत्तरं च सू० ६७ ।।। १३४ ।। ayor Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) प्रत सूत्रांक [६७-७४] दीप अनुक्रम [६७-७४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित. Jan Eratun “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र - १ ( मूलं + वृत्तिः ) 40454546461% 4500-48188- मूलं [६७-७४] आगमसूत्र [१३], उपांग सूत्र [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः तीसे कूडागारसाला सव्वतो समता घणनिचियनिरंतरणिच्छिड्डाई दुवारवयणाई पिहेर, तीसे कूडागारसालाए बहुमज्झदेसभाए ठिचा तं भेरिं दंडणं महया २ सणं तालेजा से पूर्ण पएसी ! सेसणं अंतोहितो पहिया निम्गच्छ, हंता जिग्गच्छड, अत्थि णं पएसी ! तीसे कूडागारसालाए केह छिट्टे वा जावराई वा जओ णं से सहे अंतोहिंतो बहिया णिग्गए ?, नो तिणट्टे समट्टे, एवामेव पएसी ! जीवेवि अप्पडियगई पुढवि भिचा सिलं भेचा पव्वयं भिचा अंतोहितो बहिया गच्छतं सहाहि णं तुमं पएसी! अण्णो जीवो तं चैव। तए णं पएसी राया केसिकुमारसमण एवं वदासी-अत्थि णं भंते! एस पण्णाउयमा इमेण पुण कारणं णो उबागच्छइ, एवं खलु भंते! अहं अनया कयाइ बाहिरियाए उवद्वाणसालाए जाव विहरामि, तए णं ममं णगरगुत्तिया ससक्वं जाव उवति, तए णं अहं (तं) पुरिसं जीवियाओ वबरोवेमि जीवियाओ वबरोवेत्ता अयोकुंभीए पक्खियामि २ ता अउमएणं पिहावेमि जाव पचइएहि पुरिसेहिं रक्खावेमि, तए णं अहं अन्नया कमाई जेणेव सा कुंभी तेणेव उवागच्छ २ तातं अभिगच्छामि २ ता तं अकुंभी fatafat पासामि णो चेव णं तीसे अडकुंभीए केइ छिट्टेइ वा जाबराई वा जताणं ते जीवा पहियाहिंतो अणुपविट्ठा, जति णं तीसे अडकुंभीए होज केइ छिडेइ वा जाव अणुपविश तेणं अहं सहेजा जहा अनो जीवो तं चेव, जम्हा णं तीसे अडकुंभीए नत्थि कोइ छिड्डेह वा जाव केसिकुमार श्रमणं सार्धं प्रदेशी राज्ञस्य धर्म-चर्चा For Park Use Only ~272~ 4613469)-964644934 Harya Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) प्रत सूत्रांक [६७-७४] दीप अनुक्रम [६७-७४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित. श्रीराजमश्री मलयगिरी या वृत्तिः ।। १३५ ।। “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र - १ (मूलं + वृत्तिः) 1-45*3409)-42004846989004459) मूलं [६७-७४] आगमसूत्र [१३], उपांग सूत्र [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः अणुविद्या तहा सुपतिट्टआ मे पण्णा जहा तं जीवो तं सरीरं तं चैव । तए णं केसीकुमारसमणे एसी राय एवं वयासी -अस्थि णं तुमे पएसी ! कयाइ अए धंतपुध्वे वा धमावियपुध्वे वा हंता अस्थि से पूर्ण पएसी ! अए घंते समाणे सव्वे अगणिपरिणए भवति ?, हंता भवति, अस्थि णं एसी ! तस्स अस्स के छिडेइ वा जेणं से जोई बहियाहिंतो अंतो अणुपविट्टे ?, नो इणम सम एवामेव पएसी ! जीवोऽवि अप्पडियगई पुढवि भिचा सिलं भिचा पहियाहितो अणुपविस, तं सहहाहि णं तुमं पएसी ! तब ४ ॥ (सृ०६७) । तए णं पएसी राया केसीकुमारसमणं एवं वयासी अस्थि भंते! एस पण्णा उबमा इमेण पुण मे कारपेणं नो उवागच्छह, अस्थि णं भंते! से जहानामए केई पुरिसे तरुणे जाव सिप्पोबगए पभू पंचकंडगं निसिरितए ?, हंता पभू !, जति णं भंते! सोच्चे पुरिसे वाले जाव मंदविन्नाये पभू होजा पंचकंडगं निसिस्तिए, तो णं अहं सहेजा ३ जहा अन्नो जीवो तं चैव जम्हा णं भंते! स चेव से पुरिसे जाव मंदविशाणे णो पभू पंचकंदयं निसिरित्तए तम्हा सुपइट्टिया मे पष्णा जहा तं जीवो तं चैव । तए णं केसीकुमारसमणे पएसि रायं एवं वासी से जहानामए केइ पुरिसे तरुणे जाव सिप्पोवगए णवपूर्ण धणुणा नवियाए जीवाए नवणं इसुणा पभू पंचकंडगं निसिरित्तए, हंता, पभू. सो चेव णं पुरिसे तरुणे जाव निउणसिप्पोवगते कोरिलिएणं धणुणा कोरिल्लियाए जीवाए कोरिलिएणं उसुणा पनू पंचकंड निसि केसिकुमार श्रमणं सार्धं प्रदेशी राज्ञस्य धर्म-चर्चा For Penal Use Only ~ 273~ 40 400 499930434597089109 तरुणाद्ध योः शक्ति मेदे उपकरण शक्तिः सू० ६८ ।। १३५ ।। Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) प्रत सूत्रांक [६७-७४] दीप अनुक्रम [६७-७४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित. Eraton 1840 1850 1 “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र - १ (मूलं + वृत्तिः) 454 मूलं [६७-७४] आगमसूत्र [१३], उपांग सूत्र [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि प्रणीत वृत्तिः रित ?, णो तिणमट्टे समंह, कन्हा णं, भंते! तस्स पुरिसस्स अपजत्ताई उबगरणाई हवंति, एवामेव पएसी ! सो चेव पुरिसे वाले जाय मंदविन्नाणे अपजत्तोवगरणे, णो पभू पंचकंडयं निसिस्तिए, तं सदहाहि णं तुमं पएसी । जहा अनो जीवो तं चेव ५ ॥ (सू० ६८ ॥ तए णं पएसी राया केसीकुमारसमणं एवं वयासी-अत्थि णं भंते! एस पण्णाउयमा इमेण पुण कारणं मो वागच्छ, भंते! से जहा नामए केइ पुरिसे तरुणे जाव सिप्पोवगते पभू एवं महं अयभार वा तयभारगं वा सीसगभारगं वा परिवहित्तए १, हंता पभू, सो चेव णं भंते! पुरिसे जुने जराजजरियदेहे सिढिलवलितयाविणट्ठगते दंडपरिग्गहियग्गहत्थे पविरलपरिसडियदंतसेडी आउरे किस पिवासिए दुबले किलंते नो पभू एवं महं अयभार वा जाव परिवहित्तए, जति णं भंते! सच्चे पुरिसे जुने जराजजरियदेहे जाव परिकिलते पभू एवं महं अयभारं वा जाव परिहिए तो णं सहजा ३ तहेव, जभ्हा णं भंते! से चेत्र पुरिसे जुन्ने जाव किलते नोपन ए महं अयभारं वा जाव परिवहित्तए तम्हा सुपतिट्टिता में पण्णा तब तए णं केसी कुमारसम एसि राय एवं वयासी से जहाणामए केइ पुरिसे तरुणे जाब सिप्पोवगए णवियाए विहंगियाए यहि सिकहिं वहिं पच्छिमडिएहि पट्ट एवं महं अथभारं जाव परिवहित्तए १ हंता पभू, पएसी से चैव णं पुरिसे तरुणे जाव सिप्पोबगए जुनियाए दुब्बलियाए पुणक्खइयाए बिहंगियाए For Plata Use Only केसिकुमार श्रमणं सार्धं प्रदेशी राज्ञस्य धर्म-चर्चा ~ 274~ Q1240975 19-19-1988 104% 41 Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय"- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ---------- मूलं [६७-७४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: भारवहनेश भीराममनी मलयगिरीया वृत्ति क्तिभेदे उपकरणभेदः ॥१३६ ॥ प्रत सूत्रांक [६७-७४] जुण्णएहि दुग्यलएहिं घुणक्खइएहि सिढिलतयापिणडएहि सिकएहिं जुषणएहिं दुब्बलिए हिं घुणख. इएहि पच्छिपिंडएहिं पभू एग मह अयभार वा जाव परिवहितए, णो तिण, कम्हा णं, भंते! तस्स पुरिसस्स जुनाई उवगरणाई भवति, पएसी! से चेव से पुरिसे जुन्ने जाव किलते जुत्तोबगर) तो पभू एग महं अयभार वा जावपरिवहितए, तं सरहाहि णं तुम पएसी ! जहा अनो जीवो अन्नं सरीरं ६ ॥ (सू०६९)।तए ण से पएसी केसिकुमारसमणं एवं बयासी-अस्थि ण मते ! जाव नो उबागच्छद, एवं खलु भंते ! जाब विहरामि. तए णं मम जगरगुत्तिया चोर उवणंति, तए णं अहं तं पुरिसं जीवंतगं चेव तले मि तलेता छविच्य अकबमाणे जीवियाओ ववरोवेमि २त्ता मयं तुलेमि णो चेव णं तस्स पुरिसस्स जीवंतस्स वा तुलियस्स वा मुयस्स वा तुलियस्स [णस्थि] केइ आणत्ते वा नाणत्ते वा ओमन वा तुच्छत्ते वा गुरुयत्ते वा लायसे वा, जति णं भंते ! तस्स पुरिसस्स जीवंतस्स वा तुलियस्स मुयरस वा तुलियस्स केइ अन्नत्ते वा जाव लहुयत्ते था तो णं अहं सहेजा तं चेव, जम्हाणं भंते! तस्स पुरिसस्स जीयंतस्स वा तुलियस्स मुयस्स वा तु. लियरस नस्थि केइ अन्नत्ते वा लहयत्ते वा तम्हा सुपतिट्ठिया मे पन्ना जहा तं जीवो तं चेव । तए णं केसीकुमारसमणे पएसि राय एवं वयासी-अस्थि णं पएसी ! तुमे कयाइ वत्थी धंतपुत्वे वा धमावियपुब्वे वा!, हंता अस्थि, अस्थि णं पएसी! तस्स वत्थिस्स पुण्णस्स वा तुलियस्स अपुषणस्स दीप अनुक्रम [६७-७४] १३६ ॥ Santantan M unarayog केसिकुमार श्रमणं साधं प्रदेशी राजस्य धर्म-चर्चा ~275~ Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ---------- मूलं [६७-७४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [६७-७४] वा तुलियस्स केइ अणत्ते वा जाव लहुयत्ते वा?, णो तिणढे समझे, एवामेव पएसी! जीवस्स अगुरुलघुपत्तं पडुच जोवंतस्स चा तुलियस्स मुयस्स वा तुलियस्स नस्थि केइ आणते वा जाव लहयत्ते वा, तं सहहाहि णं तुम पएसी!तं चेव ७१(म.७०) तए णं पएसी राया केसि कुमारसमणं एवं वयासी-अस्थि णं भंते ! एसा जाव नो उवागच्छइ. एवं खलु भंते ! अहं अन्नया जाव चोरं उव. फेति, तए णं अहं तं पुरिसं सव्वतो समंता समभिलोएमि, नो चेव णं तत्थ जीवं पासामि, तए णं अहं तं पुरिस दहा फालियं करेमि २त्ता सब्बतो समंता समभिलोएमि, नो चेव णं तत्व जीवं पासामि, एवं तिहा चउहा संखेज फालियं करेमिणो चेव णं तत्थ जीवं पासामि, जहणं भंते! अहंतं पुरिसं दुहा वा तिहा वा चउहा वा संखेजहा वा फालियंमि वा जीव पासंतो तो णं अहं सहेजा नो तं चेव, जम्हा णं भंते ! अहं तंसि दुहा वा तिहा वा चउहा वा संखिजहा वा फालियंमि वा जीवं न पासामि तम्हा सुपतिट्ठिया मे पण्णा- जहा त जीवो त सरीरं तं चेव । तए णं केसिकुमारसमणे पएर्सि रायं एवं क्या से-मूहतराए गं तुमं पएसी ! साओ तुच्छतराओ, केणं भते! तुच्छतराए !, पएसी! से जहाणामए केई पुरिसे वणल्थी वणोवजीवी वणगवेसणयाए जोई च जोइभायणं च गहाय कट्ठाणं अडवि अणुपविता, तए णं ते पुरिसा तीते अगामियाए जाव किंचिदेसं अणुप्पत्ता समाणा एगं पुरिसं एवं वयासी-अम्हे णं देवाणु दीप अनुक्रम [६७-७४] SARELatuninternational केसिकुमार श्रमणं साधं प्रदेशी राजस्य धर्म-चर्चा ~ 276~ Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) "राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ---------- मूलं [६७-७४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: श्रीराजमश्नो मलयगिरीया वृत्तिः जीवन्मृतयो स्तुलावा व स्ति: छेदे प्रत सूत्रांक [६७-७४] निदर्शने च *ज्योतिः ॥१३७॥ म.७०-१ प्पिया! कहाणं अडविं पविसामो, एत्तो णं तुम जोइभायणाओ जोई गहाय अम्हं असणं साहेजासि, अह तं जोइभायणे जोई विज्झवेजा एतो गं तुम कट्ठाओ जोइं गहाय अम्हं असणं साहेज्जासित्तिकट कट्ठाणं अडवि अणुपविहा, तए णं से पुरिसे तओ मुहत्तन्तरस्स तेसि पुरिसाणं असणं साहेमित्तिक जेणेव जोतिभायणे तेणेव उवागच्छा जोइभायणे जोई विज्झायमेव पासति, तए णं से पुरिसे जेणेव से कडे तेणेव उवागच्छद उवागच्छित्ता तं कट्टै सवओ समंता समभिलोएति नो चेवणं तस्य जोई पासति, तए णं से पुरिसे परियरं बंधइ फरमुं गिण्हा तं क दहा फालियं करेइ सब्यतो समंता समभिलोएइ णो चेव णं तस्य जोई पासइ, एवं जाव संखेजफालियं करेइ सवतो समंता समभिलोएइ नो चेव णं तस्य जोई पासह, तए णं से पुरिसे तैसि कहंसि दुहाफालिए वा जाव संखेजफालिए वा जोई अपासमाणे संते तंते परिसंते निश्विपणे समाणे परसुं पगते एबेइ २ परियरं मुयइ २ एवं वयासी-अहो! मए तेसिं पुरिसाणं असणे नो साहिएत्तिक ओहयमणसंकप्पे चितासोगसागरसंपबिट्ढे करयलपालस्थमुहे अज्माणोवगए मूमिगयदिहिए झियाइ, तए ण ते पुरिसा कट्ठाई छिदेति २त्तो जेणेव से पुरिसे तेणेव उषागईतिश्ती से पेरिस ओहयमणसंकप्प जाव झियायमाणं पासति २त्ता एवं बयासी-किम्मै तुम देवाणुपिया! ओहयमणसंकप्पे जाव सिधायसि,प्तए णं से पुरिसे एवं पयासी-तुस्से में दीप अनुक्रम [६७-७४] ॥१३७॥ REBiratinida केसिकुमार श्रमणं साधं प्रदेशी राजस्य धर्म-चर्चा ~ 277~ Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) प्रत सूत्रांक [६७-७४] दीप अनुक्रम [६७-७४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित. Eratory “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र - १ (मूलं + वृत्तिः) 本品昴本雅众辛些雅众安福 मूलं [६७-७४] आगमसूत्र [१३], उपांग सूत्र [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः देवrger का अडवि अणुपविसमाणा ममं एवं वयासी अम्हे णं देवाणुपिया ! कहाणं अ डवि जाव पविट्ठा, तए णं अहं तत्तो मुहत्तंतरस्स तुझं असणं साहेमित्तिकहु जेपेव जोई जाव झियामि, तए णं तेसिं पुरिसाणं एगे पुरिसे छेदे दक्खे पतडे जाव उवएसलडे ते पुरिसे एवं बयासी - गच्छह णं तुज्झे देवाणुप्पिया ! व्हाया कयबलिकम्मा जाव हच्चमागच्छेह जाणं अहं असणं साहेमित्तिक परिवरं बंधइ २ परसुं गिव्ह २त्ता सरं करेइ सरेण अराण महेइ जोई पाने २ जोई संयुक्तेसि पुरिसाणं असणं साहेइ, तए णं ते पुरिसा पहाया कवलिकम्मा जाव पायच्छित्ता जेणेव से पुरिसे तेथेव उवागच्छंति, तए णं से पुरिसे तेसि पुरिसाणं सुहासवरगयाणं तं विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवणे, तए णं ते पुरिसा तं विडलं असणं ४ आसाएमाणा वीसाएमाणा जावविहरति, जिमियत्तुतरा गयाविय णं समाणा आयंता चोक्खा परमसुइया तं पुरिसं एवं वयासी- अहो णं तुमं देवाणुप्पिया ! जट्टे मूढे अपडिए णिविष्णा अणुवएसल जेणं तुमं इच्छसि कांसि हाफालियंसि वा जोति पात्तिए, से एएणणं पएसी ! एवं बुच मूढतराए णं तुमं पएसी ! ताओ तुच्छतराओ ८ ॥ (०७१) ॥ तए णं पएसी राया के सिकुमारसमणं एवं वयासी जुत्तए णं भंते! तुम्भं इयल्लेयाणं दक्खाणं बुडाणं कुसलाणं महाम विणीयाणं विष्णाणपत्ताण उवएसलदाणं अहं इमीसाए महालियाए महचपरिसाए मज्झे केसिकुमार श्रमणं सार्धं प्रदेशी राज्ञस्य धर्म-चर्चा For Park Use Only ~278~ 本辛安安牌 佘太 nary org Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) "राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ---------- मूलं [६७-७४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: यया पपेद् तथा दणुः व्यवहारीच श्रीराजप्रश्नी मलयगिरी या वृत्तिः ७२ प्रत सूत्रांक [६७-७४] उचावरहि आउसेहि आउसित्तए उच्चावयाहि उद्धसणाहिं उहंसित्तए एवं निम्भंछणाहि निकछोडणाहि!, तए णं केसीकुमारसमो परसिं रायं एवं वयासी-जाणासि णं तुम पएसी! कति परिसाओ पणशाओ,भते ' जाणामि चत्तारि परिसाओ पण्णता, तजहा-वयिपरिसा गाहावापरिसा माहणपरिसा इसिपरिसा, जाणासि णं तुम पएसीराया! एयासि चउण्ह परिसाणं कस्स का दडणीई पण्णता, हंता ! जाणामि जेणं खसियपरिसाए अवर झह से ण हत्थच्छिपणए वा पायरिछपगए वासीसच्छिपणए वा मूलाइए वा एगाहचे कूटाचे जीवियाओ ववरोविजड,जे ण गाहावइपरिसाए अवरज्झइ से ण तएण वा वेटेण वा पलालेण वा बेठित्ता अगणिकापणं झाभिजइ, जेणं माहणपरिसाए अवरज्झइ से णं अणिवाहिं अकताहिं जाव अमणामाईि वग्गहि उवालंभित्ता कुंडियालंछणए वा सूणगल छणए वा कीरइ निविसए चा आणविजइ, जे णं इसिपरिसाए अवरजसइ से णं णाइअणिवाहि जाव णाइअमणामाहि बग्गाहिं उधालम्बाइ, एवं च ताव पपसी ! तुम जाणासि तहावि ण तुमं मम वाम थामेणं दड दोणं पडिकलं पडिकलेणं पडिलोमं पडिलोमे गं विवञ्चासं विवञ्चासेणं घट्टसि. तर णं पएसी राया केसि कुमारसमण एवं व यासी-एवं खलु अहं देवाणुप्पिरहिं पढमिल्लुएगं चेव बागरण संलते तर णं मम इमेयासवे अम्भत्थिए जाव संकप्पे समुपजित्था, जहा जहाणं एयस्स परिसस्स वाम थामेणं जाय विवश्वास 本宫》十語本字亭》發空 दीप अनुक्रम [६७-७४] |01१३८॥ A uraurary.orm केसिकुमार श्रमणं साधं प्रदेशी राजस्य धर्म-चर्चा ~ 279~ Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) "राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ---------- मूलं [६७-७४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [६७-७४] दीप अनुक्रम [६७-७४] विवचासेणं वहिस्सामि तहा तहाणं अहं नाणं च नाणीवलभ च करणं च करणोवलंभं च दंसणं च दसणोवलंभं च जीयं च जीवोवलंभं च उपलभिस्सामि, ते एएणं अहं कारणेणं देवाणुप्पियाणं वामं वामेणं जाव विषचासं विवञ्चासेणं वहिए, तए णं केसीकुमारसमणे पएसीराय एवं वयासी-जाणासि गं तुम पएसी! कइ बवहारगा पण्णत्ता ?, हंता जाणामि, चत्तारि ववहारगा पण्णत्ता-देइ नामेगे णो सण्णवेइ सन्नवेइ नामेगे नो देह एगे देइवि सन्नवेइवि एगे णो दे णो सग्णवेइ, जाणासि णं तुमं पपसी! एएसि च उण्हं पुरिसाणं के ववहारी के अपवहारी १, हंता जाणामि, तत्थ णं जे से पुरिसे देइ णो सण्णवेइ सेणं पुरिसे यहारी. तत्थ णं जे से पुरिसे णो देइ सपणवेइ से णं पुरिसे ववहारो, तत्थ णं जे से पुरीसे देइ वि स. वेइवि से पुरिसे ववहारी, तत्थ णं जे से पुरिसे णो देइ णो सन्नइ से णं अववहारी, एखामेव तुमपि ववहारी, णो चेव णं तुम एसी अववहारी (सू०७२) तए णं पएसी राया केमिकुमारसमणं एवं बयासी-तुज्झे णं भंते ! इयछेया दक्खा जाव उवएसलहा समत्था ण भंते! मर्म करयलं सि वा आमलयं जो सरीराओ अभिनिवहिताणं उबदमित्तए, तेणं कालेणं तेणं समएर्ण परसिस्स रवणी अदूरसामंते वाउपाए संयुत्ते, तणवणासइकाए एयह वेयह चलइ फंदा घट्टइ उदीरइ तं तं भावं परिणमइ, तर ण केसीकुमारसमले परसिराय एवं वयासी-पाससि ण तुमं प.सीराया! एयं तणवण Ramitaram.org केसिकुमार श्रमणं साधं प्रदेशी राजस्य धर्म-चर्चा ~280~ Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) "राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ---------- मूलं [६७-७४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: वायुवज्जीवा श्रीरामपश्नी को मलयगिरीया वृत्तिः शैनम् - स्तिकुन्थुस प्रत सूत्रांक [६७-७४] ॥ ११९॥ | सू.७३-४ दीप अनुक्रम [६७-७४] स्सई एयंत जाव तं तं भावं परिणमंतं !, हंता पासामि, जाणासि णं तुम पएसी! एवं तणवणस्सहकार्य किं देवो चालेइ असुरो था चालणागो वा किन्नरो वा चालेड किंपुरिसो वा चालेह महोरगी या चालेइ गंधचो वा चालेइ ?, हंसा जाणामि, णा देवो चालेइ जाव णो गंधयो चालेइ बाउयाए चालेइ, पाससिणं तुम पएसी। एतस्स वाउकायस्स सरूविस्स सकामस्स सरागस्स समोहस्स सवेयस्स सलेसस्स ससरीरस्स रूवं ?,णो तिणद्वे०, जइ गं तुम पएसीराया! एयस्स वाउकायस्स सरूविस्स जाव ससरीरस्स रूवं न पाससि तं कह णं पएसी! तब करयलंसि वा आमलग जीवं उवदंसिस्सामि , एवं खलु पएसी! दसटाणाई छउमस्थे मणुस्से सबभावेणं न जाणइ न पासइ, तंजहा-धम्मत्थिकार्य १ अधम्मस्विकार्य २ आगासस्विकार्य ३ जीव असरोरवदं ४ परमाणपोगगल ५ सई ६ गंध ७ वायं ८ अयं जिणे भविस्सइ वा णो भविस्सइ ९ अयं सबदुक्खाणं अंतं करेस्सा वा नो वा १०, पताणि चेव उप्पन्ननाणदसणधर अरहा जिणे केवली सबभावेणं जाणइ पासइ, तं-धम्मस्टिकार्य जाव नो वा करिस्सइ, सहाहिम तुम परसी! जहा अनो जीवो से चेव ९॥ (सू०७३)॥ तएणं से पएसीराया केसि कुमारसमणं एवं वयासी-से नूर्ण भंते। हथिस्स कुंथुस्स य समे चेव जीवे?, हंता पएसी! हत्थिस्स य कुंथुस्स य समे चेव जीवे, से गूणं भंते ! हस्थीउ कुथु अप्पकम्मतराए चेव अप्पकिरियतराए चेव अप्पासवतराए चेव एवं आहारनीहारउस्सास RELIGunintentrational केसिकुमार श्रमणं साधं प्रदेशी राजस्य धर्म-चर्चा ~ 281~ Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) "राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ---------- मूलं [६७-७४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [६७-७४] दीप अनुक्रम [६७-७४] नीसासइडीए महजुइअप्पतराए चेव, एवं च कुंथुओहत्या महाकम्मतराए चेष महाकिरिय जाय?,हता पएसी! हत्थीओ कुंधू अप्पकम्मतराए चेव कुंथुओ वा हत्थीमहाकमतराए चेव तं चेव, कम्हाणे भंते! हथिस्स य कुथुस्स य समे चेव जीवे ,पएसी! से जहा णामए कूडागारसाला सिया जाव गंभीरा अहण के पुरिसे जोई व दीवं बगहाय तं कूडागारसालं अंतो २ अणुपविसइ तीसे कडागारसालाए सप्तो समंता घणनिचिपनिरंतराणि णि छिड्डाई दुवारवयणाई पिहेतिरतीसे कूडागारसालाए यहमज्झदेसभाए तं पईवं पलीवेजा, तर णं से पईवे तं कूडागारसालं अंतोरओभासह उज्जोवेइ तवति पभासेइ, णो चेव णं बाहि, अहणं से पुरिसे ते पईच इजरएणं पिहेजा, तए से पर्डवे से डरयं अंतो ओभासेइ, णो चेव णं इडरगस्त बाहि णो चेव णं कूरगारसालाए बार एवं किलिजेणं गंडमाणियाए पच्छिडिएणं आढतेणं अहातेणं पत्थएणं अहपथएणं अट्टमाइयाए चाउम्भाड्याए सोलसियाए छत्तीसियाए चउस ट्ठियाए दीवर्चपरणं तए णं से पदीये दीवचंपगस अंतो ओभासति४, नो चेव पं दीवचंपगस्स याहि, नी चेव णं च उसट्टियाए बाहि. णो चेवणं कूडागारसालं णो चेव णं कूडागारसालाए बाहि, एवामेव परसी! जीववि जं जारिसर्य पदकम्मनियई बोंदि णिवत्तेइ तं असंखेजेहिं जीवपदेसेहि सचित्तं करेइ खुड्डियं वा महालियं वा, तं सद्दहाहि णं तुम पएसी! जहा अपणी जीवो तं चेव णं ।। (सू०७४)। केसिकुमार श्रमणं साधं प्रदेशी राजस्य धर्म-चर्चा ~282~ Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) "राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ---------- मूलं [६७-७४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [६७-७४] श्रीराजपनी 'अस्थि ण भैते ! एस पनाउवमा' अस्ति भदन्त ! प्रज्ञानो-बुद्धिविशेषादुपमा, 'अपगगणनायगे 'स्यादि, केशिप्रदेशिमलयगिरीया वृत्तिः गणनायका:-प्रकृतिमहत्तराः दण्डनायका:-नन्त्रपाला राजेश्वरनलबरमाइम्बिक कौटुम्बिकेभ्यश्रेष्ठिसेनापतिसार्थवाहमन्त्रि- वादः महान्धिगणकदौवारिकाः पागुक्तस्वरूपाः अपात्या-राज्याधिष्ठायकाः चेटा:-पादमृलिकाः पीठमाः-पागुका नगर-मगर॥१४॥ वासिप्रकृतयः निगमा:-कारणिकाः दता-अन्येषां गत्वा गनादेशनिवेदकाः संधिपाला-राज्यमन्धिरक्षका: 'नगरगुत्तिया' || इति नगररक्षाकारिणः 'ससक्वं' इनि ममाथि सहोद-सलोद्रं 'सगेवेज' ग्रीवानिबद्धकिंचिलोभ्रमित्यर्थः, ' अवा| उड' अपा-बन्धनबद्धं चौरमिति । 'भेरि दंड चेति मेरी-हका दण्डो बादनदष्टः। 'वाम वामेण' मित्यादि, वाम मायामेन एवं दंर देणेत्यायपि भावनीय । 'देड नामेगे नो सन्नबह इति ददाति-दानं प्रयच्छति न संज्ञापयति-न सम्य- 17 गालापेन मनोषयनि, चतुर्भङ्गो पाठसिद्धा, 'एवामेव पएसि! तुमंपि ववहारी' इति यद्यपि त्वं न सम्पगालापेन मां संतोषयसि तथापि मम विषये भक्किबहूमानं च कुर्वन आयपुरुष इस व्यवहार्यच नाय्यबहारी, एतावता च 'मूढतराए तुम पएसी! तओ कट्टहारयाओ' इत्यनेन बचसा यत् कालुष्यमापादितं तदपनीतं परमं च संतोष प्रापित इति । 'हंता का पएसी हथिस्स कंथस्सय समे चेव जीवे' इति प्रदेशानां तस्यत्वात , केवलं संकोचविकोचधर्मवात कुन्धुशरीरे सं कुचितो भवति, हस्तिशरीरे बिस्तनः उक्तश्श-"आसज्ज कंधुदेह तत्तियमितो गयंमि गयमित्तो । न य संजुज्जइ जोबो संकोय विकोयहोहि ।अत्र न मयुमने जोयः पकोच विकोचदोपराभ्यामिति, नयोस्तस्य म्वभावनयाऽपागपात , तथा चार प्रAI दीवान्तो वक्ष्यते, अथवा 'कम्मतराए चेये' स्यादि, 'कर्म' आपुष्कलक्षणं किया-कायिक्यादि आप:-माणाति १४०॥ दीप अनुक्रम [६७-७४] केसिकुमार श्रमणं सार्धं प्रदेशी राजस्य धर्म-चर्चा ~ 283~ Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) "राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ---------- मूलं [६७-७४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [६७-७४] दीप अनुक्रम [६७-७४] पातादिः आहारनीहारोच्छ्रासनि घासादि द्युतयः प्रयोग, इहरक मह निक, ये सामादि रसायो स्थापो, गोकलि नाम यत्र गोभक्तं पक्षिप्यो, पच्छि कापिटकं च प्रोत, गहा कामागिता २ देशमोगपतिद्धा, आमाबडाहामN स्थककुलवाईकुलवा मगधदेशपसिद्धा धान्यमान विशेषा, चतुगिजामानिमोनिकायका मापदेशालिदास मरसमानविशेषाः, दीपचमको-दीपस्थगनक, 'एवामे'सादि निगम ने कउय, उ तदन्यत्रापि-"जह दोषो महइ घरे Dell पलीविभो त घरं पगासेइ । अपपयारे तं तं ए जोत्रो सहाई॥१॥” इति ।। (मू.६७-६८-६९-७०-७१७२-७३-७४)| तएण पएसी राया केसि कुमारसमग एवं वासी-वं खलु भो! मन अजगत एस समाजाव समोसरणे जहा तजीवो तं सरीरं नो अन्नो जीवो असं सरीरं.तपाणतरं च म पिउणोऽपि पस सपणा तयाणतरं ममवि एसा समाजाव सोसरग,तं नो खलु अहं यहपुरिसरंपरागय कुलनि. स्सियं दिढि छंटेस्लामि, तर ण केसीकुमारस नमे पास राये एवं वासी-प्राणं तुम पएसी! पच्छा. णुताबिए भवे जासि जहा व से पुरिसे अपहार, केणं भंते ! से अपहारर?, परसी! से जहाणामए केई पुरिसा अस्थत्थी अस्थगवेसी अस्थमा अन्य खिमा अत्यपियासिया अस्थगवेसगयाए विउलं पणियभडमायार सुबहुँ भतपाणास्थवगं गहाय गं महे अकामिय छिनावायं दीह मई अडवि अणुपविट्ठा, तर ते पुरिसा तीते अकामियार अडवीर कंचि देसं अगुपता समाणा एगम अया P-4200-4600%2-449-NPORNOOPPO9-पक्का Tamitaram.org केसिकुमार श्रमणं साधं प्रदेशी राजस्य धर्म-चर्चा ~ 284~ Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ---------- मूलं [७५-८०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: - अयोजातं बीराजपना मलयगिरीया वृत्तिः १४१॥ प्रत सूत्रांक [७५-८०] दीप अनुक्रम [७५-८०] गरं पासंति, अएणं सहतो समता आइपणं विच्छिष्ण सच्छड उवच्छडं फुड गाढ अवगाढ पासंति २साहतुट्ठ जावाहियया अन्नमन्नं सदाति २ ता एवं चयासी-एस णं देवाणुप्पिया! अयभने इट्टे कंते जाच मणामे, ते सेयं खलु देवाणुप्पिया! अम्ह अयभारए चंधित्तएत्तिकहु अन्नमन्नस्स एयम? परिसुणेतिर अयभार बंधति र अहाणुपुटीए संपत्थिया, तए णं ते पुरिसा अकामियाए जाव अडवीए किंचि देसं अणुपत्ता समाणा एग महं तउआगरं पासंति, तउएण आइण्णं तंचेव जाच सहायता एवं वयासी-एसणं देवाणुप्पिया! तज्यभंडे जाव मणामे, अप्पेणं चेय तउएणं सुबई अए भति, तं सेयं खलु देवाणुप्पिया! अयभारए छड्डेचा तज्यभारए पंधिएसिक अमरस अंतिए एयमट्ठ पडिमुणेति २चा अयभार छउँति २त्ता तज्यभारं बंधति, तस्थ णं एगे पुारसे जो संचाएइ अयभारं छत्तए तउयभार पंधित्तए, तए णं ते पुरिसा ते पुरिसं एवं व्यासी-एसणं देवाणुप्पिया! तउयभंडे जाव सुबहुं अए लब्भति, तं छडेहि णं देवाणुप्पिया! अयभारगं, उपभारगं बंधाहि, तए णं से पुरिसे एवं वदासी-दूराहटे मे देवाणुप्पिया ! अए चिराहने में देवाणु पिया! अए अइगाढबंधणय मे देवाणुप्पिया! अए असिलिट्ठबंधणबद्ध देवाणुप्पिया! अएपणियबंधणबहे देवाणुप्पिया! अए, णो संचाएमि अग्रभारगण्डेत्ता तउयभारगं बंधितए । लए ण ते पुरिसा तं पुरिसं जाहे जो संचायति यहहिं आघवणाहि य पन्नवणाहि य jaanaaranorm केसिकुमार श्रमणं सार्धं प्रदेशी राजस्य धर्म-चर्चा ~285~ Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) "राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ---------- मूलं [७५-८०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [७५-८०] दीप अनुक्रम [७५-८०] आधविशए वा पणविरुए वा तया अहाणुपुबीए संपत्थिया, एवं तंबागरं रुप्पागर सुवन्नागरं रयणागरं वइरागर, लए णं ते पुरिसा जेणेव सया जणवया जेणेव साई २ नगराई तेणेव उवागच्छन्ति २त्ता वयरविकणयं करति २ा सुबहुदासीदासगोमहिसगवेलगं गिण्हंति २त्ता अद्रुतलमुसियथडसगे कारावति पहाया कययलिकम्मा उप्पि पासायवरगया फुटमाणेहिं मुइंगमस्थएहि बत्तीसइवह एहिं मारपहि वरतरुणीसंपउत्तेहिं उवणचिजमाणा उचलालिज्जमाणा इहे सद्दफरिस जाब विहरति । लए णं से पुरिसे अयभारेण जे.व सए नगरे तेणेव उवागच्छद अयभारेणं गहाय अयविधिणण करेति २ ताससि अप्पमोल्लंसि निहियंसि झीणपरिवए ते पुरिसे छप्पिं पासायवरगए जाव विहरमाणे पासति २त्ता एवं धयासी-अहो णं अहं अधन्नो अपुन्नी अकयस्थो अकयल वरुणो हिरिसिरिवजिए हीणपुषणचाउदसे दुरंतपंतलवखणे, जति णं अहं मिताण या णाईण वा नियगाण वा सुर्णतओ तो अहंपि एवं चेव उप्पि पासायवरगए जाव विहरंतो से तेण?ण पएसी एवं बुखाइ-मा णं तुम पएसी पच्छाणुताबिए भविजासि, जहा व से पुरिसे अयभारिए ११॥ (सू०७५) ।। एस्थ णं से पएसी रागा संयुद्धे केसिकुमारसमणं वंदर जाय एवं बयासी-णो खलुभंते! अहं पच्छागुताबिए भविस्सामि जहा य से पूरिसे अयभारिए, सं इच्छामिणं देवाणुप्पियाणं अंतिए केवलिप धम्म निसामित्तए, अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा केसिकुमार श्रमणं सार्धं प्रदेशी राजस्य धर्म-चर्चा ~286~ Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) "राजप्रश्निय"- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ---------- मूलं [७५-८०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति श्रीराजप्रश्नी मा मलयगिरी या दृचिः धर्मस्वीकाविनयश्व सु.७६-७ ॥१४२ ॥ प्रत सूत्रांक [७५-८०] पडिबध०, धम्मकहा जहा चित्तस्म, तहेव गिहिवम्म पडिवाजह२त्ता जेणेव सेयविया नगरी तेणेच पहारेत्थ गमणाए ॥ (सू०७६)॥तरण केसी कुमारसमणे पएर्सि राय एवं वयासी. जाणासि तुम पएसी! कह आयरिया पत्रता, हैता जाणामि, तओ आयरिआ पण ता, तंजहाकलायरिए सिप्पायरिए धम्मायरिए, जाणासिणं तुम पएसी तेस तिहं आयरियाणं कस्स का विणयपडिवत्ती पजियवा?, हता जाणामि, कलायरियस सिप्पायरियस्स उवलेवर्ण समउजणं वा करेजा पुरओ पुष्पाणि वा आगजा मजावेजा मडावेज्जा भोयाविना वा विउलं जीवितारिहं पीइदाण दलए ला पुत्ताणत्ति वितिं कपेजा, जये। धम्नायरियं पालिजा तत्थव वदेखा णमंतजा सकारजा सम्माना कलाणं मंगलं देववेचे पाजुवासेना फासुएस. णिज्जेणं असणपाणखाइमसाइमेगं पडिलाभेला पाडिहारिरणं पोटकलामिजासंथारएणं उव. निमंतेजा, एवं च ताव तुम पएसी! एवं जाणासि तहावितुम म वाम वामे गंजाव बहित्ता मम एयमई अक्खामित्ता जेणेव सेवविया नगरी तेगेव पहारेत्य गमगाए, तर णं से पएसी राया केसि कुमारसमगं एवं वदासी-एवं खलु भते! मम एयारूपे अग्झस्थिर जाव समुप्पजिजस्थाएवं खलु अहं देवाणुपियाणं वाम वामेगं जाव वहिएत से खजु मे कर पापमापार रयणीए जाव तेवसा जलसे मेरे परिवाल सहि संपरिबुडाप्त देवा गुथिए वंदिता नमेसितए एत दीप अनुक्रम [७५-८०] In१४२॥ Enginrary.om केसिकुमार श्रमणं पार्वे प्रदेशी राजस्य धर्म-स्विकारम् ~ 287~ Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) "राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ---------- मूलं [७५-८०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [७५-८०] भुजो २ सम्म विणएणं स्वामित्तपत्तिकटु जामेव दिसि पाउ भूते तामेव दिसि पडिगर ॥ तए णं से पएसीराया कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए जाव तेयसा जलते हनुर जाव हियए जहेव कृणिए तहेव निग्गच्छद अंतेउरपरियाल सहि संपरिखुढे पंचविहेणं अभिगमेणं वंदह नमसह एयम भुज्जी२ सम्म विणएणं खामेह (सू०७७)तरण केसी कुमारसमणे पएसिस्स रपणो सूरियकंतप्पमुहाणं देवीणं तीसे य महतिमहालियाए महवपरिसाए जाव धम्म परिकहेइ । तए णं से पएसीराया धम्म सोचा निसम्म उद्वाए उति र केसि कुमारसमणं वंदद नमसइ २त्ता जेणेव सेयवियाँ नगरी ते गेव पहारेत्य गमगाए। तरण केसी कुमारसमणे परसिरायं एवं वदासी-मा गं तुम पएसी! पुर्वि रमणिज्जे भवित्ता पच्छा अरमणि जे भविलासि, जहा से वणसंडे इ वा णसाला इ वा इक्खुवाइए इवा खलवाडए इवा, कहणं भंते!, वग संडे पत्तिए पुफिए फलिए हरियगरेरिजमाणे सिरीए अतीव उपसोभेमाणे २ चिट्ठइ तथा गं वगरे रम. णिज्जे भवति,जया ण वणसंडेनो पतिए नो पुफिए नो फलिए नो हरियगरिरेलमायणो सिरोए अईव २ उवसोभेमाणे चिट्टइ तया णं जुन्ने झडे परिसडियपंदुपत्ते सुकरुक्खे इव मिलायमाणे चिट्ठइ तया तयाणं वणे णो रमणिज्जे भवति, जया णं णसालावि गि जइ वाइजइ नचिजह हसिजइ रमिजइ तया णं णसाला रमणिजा भवइ, जया णं नहसाला णो गिजा जाय णो रमिजा दीप अनुक्रम [७५-८०] JMEnirahinic ~288~ Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) "राजप्रश्निय"- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ---------- मूलं [७५-८०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: क्षामणा श्रीराजमश्नी मलयगिरीया वृत्तिः दानोपदेशः सू.७७-७८ ॥१४३॥ प्रत सूत्रांक [७५-८०] दीप अनुक्रम [७५-८०] तया णं णसाला अरमाणिजा भवति, जया णं इवखुवा हे शिकाइ भिइ सिज्जइ पिजइ दिज्जइ तयाणं इपरु कामे रमणिजे भवइ, जया णं इवखुवाहे को छिपजइ जाव तया इकखुवाओ अरमणिजे भवाह, जया णं खलवाने उपभइ उड्डुइज्जइ मल इज इ मुणिज्जइ खज्जइ पिज्जा दिज्जइ तयाण सलवार रमणिजे भवति, जया गंदल वाडेमो उच्छुउभइ जाच अरमणिण्जे भवति, से सेणढण परसीएच बुइमाण तुमं पएसी! पुद्धिरमणिराजे भवित्ता पच्छा अरमणिज्जे भविज्जासि जहा रणसंचा , तए णं पएसी केसि कुमारसमणं एवं वयासी-जो स्वस्तु भंते ! अहं पुचि रमगिरजे मदिरापरछा अरमणिजे भविरसामि, जहावरुनेइ वाजाय हलवाइवा, अहंण सेय. वियान गरीपमुव बाई सत्त गामसहस्साई चत्तारि भागे करिस्सामि, एग भाग बलवाहणस्स दलइस्सामि, एग भागं कुट्ठागारे हुभिरसामि, एग भाग अंतेउररस दलाइरसामि, एगेण भागेण महतिमा हलयं हागारसालं करिरसामि, तथणं यहहि परिसेहिं दिसभइमतवेयजेहिं विलं असणः उयकरूहाताबरण समयमाहणभिवरुयाण पंथियपहियाणं परिभाएमाणे २ यहूहि सीलच्यगुणवयबेरमणपाल पाणपोसहोववासरस जाव बिहरिरसामिारिक जामेव दिसि पाउम्भूए तामेव दिसि पहिगए ।। (स०७८)॥ तए णं से पएसी राया कल्लं जाव तेयसा जलते सेयवियापामोक्खाई सत्त गामसहरसाई पारिभाए कीरइ, एगं भागं बलवाहणरस दलाइ जाव कूडागारसाल करेइ, १४३ ~289~ Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) प्रत सूत्रांक [७५-८० ] दीप अनुक्रम [७५-८०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. *45***40*4*7-1914 4501 *9-48088 199 “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र - १ ( मूलं + वृत्तिः ) Education Internation मूलं [७५-८०] आगमसूत्र [१३], उपांग सूत्र [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः तस्य णं यहूहि पुरिसेहि जाव उवता बहूणं समण जांव परिभाषमाणे विहरह ।। (सू० ७९) ॥ तए णं से परसीराया समणोवासए अभिगयजीवाजीवे० विहरह, ऊप्पभिई च णं परसीराया स मणोवास जाए तप्पभि चणं रच रहे च बलं च वाहणं च कोर्स च कोट्टागारं च पुरं च अंतेउरं च जणवयं च अणाढायमाणे यावि विहरति । तए णं तीसे रियकताए देवीए इमेयाख्ये अज्झथिए जाय समुपज्जित्था जप्यभिई च णं पएसी राया समाणोवासए जाए तप्यभिहं च णं जंच रहे जाव अंतेवरं च ममं जणवयं च अणादायमाणे विहरह, तं सेयं खलु मे पएसि रायं केणfe सत्यपओएण वा अग्गिएओएण वा मतप्पओगेणया विसप्पओगेण वा उद्दवेत्ता सूtrii कुमारं रज्जे वित्ता सयमेव रज्जसिरिं कारेमाणीए पालेमाणीए विहरित्तएत्तिक एवं सपेहेइ पेहिता सूरियतं कुमारं सहावे सद्दावित्ता एवं व्यासी-जप्पभिई च णं पएसी राया समणोवासए जाए तप्पभि च णं रज्जं च जाव अंतेवरं च णं जणवयं च माणुस्सए य कामभोगे अमाणे विहरइ, तं सेयं खलु तव पुत्ता ! पएस रायं केण सत्यप्पयोगेण वा जाब उद्दवित्ता सयमेव रजसिरिं कारेमाणे पालेमाणे विहरितए । तए णं सूरियकंते कुमारे सूरियकंताए देवीए एवं वृत्ते समाणे सूरियकताए देवीए एयम णो आढाइ नो परियाणाइ तुसिणीए संचि, तर तीसे सूरियकताए देवीए इमेयारूये अज्झत्थिए जाव समुप्पजित्था मा णं सूरियकंते कुमारे पए For Penal Use Only ~290~ 464805946) 400 400 400*449-4 Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) "राजप्रश्निय"- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ---------- मूलं [७५-८०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: श्रीराजप्रश्नो मलयगिरी या वृत्तिः ॥१४४॥ दानाय राज्यभागः विवदान -७९-८० प्रत सूत्रांक [७५-८०] सिस्स रन्नो इमं रहस्सभेयं करिस्सइत्तिकपएसिस्स रणो छिदाणि य मम्माणि य रहस्साणि य विवराणि य अंतराणि य पडिजागरमाणी२ विहरह। तए णं सूरियकना देवी अन्नया फाइ पएसिस्स रपणो अंतरं जाण असणं जाव खाइम सबवत्थगंधमल्लाल कारं विसप्पजोगं पजइ, पएसिस्स रपणो ण्हायरस जाव पायच्छित्तस्स सुहासणवरगयस्स तं विससंजुत्तं असणं वत्थं जाव अलंकारं निसिरेइ घातह । तए णं तस्स पएसिस्स रपणो तं विससंजुतं असणं ४ आहारेमाणस्स सरीरगंमि वेयणा पाउन्भया उज्जला विपला पगाढा ककसा कडुया चंडा तिवा दुक्खा दुग्गा दुरहियासा पित्तजरपरिगयसरीरे दाहवति यावि विहरइ ।। (सू०८०) ॥ 'कलं पाउप्पभायाए रयणीए जाव तेयसा जलंते' इति, अत्र याच कारणात् 'फुरलमनपलकोमलुम्मिलिय मि अहापंडुरे पभाए रचासोगकिंमुयमुपमुहपलासपुष्फगुजद्धरागसरिसे कपलागरनलिगिदिबोहर उहियमि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिणयरे' इति परिग्रहः, अस्यायमः -कल्पमिति श्वः प्रादुर-पाका, तसा प्रकाशनभातायां रजन्या फुल्लोत्पल कमलकोमलोन्मीलिते फुल्ल-विकसितं तच्च तत् उत्पल तब कमलब-हरिणविशेष: फुलोत्पलकमली तयोः कोमलम्-अकठोरमुन्मीलितं यथासंख्य दलानां च नयनयोश्च यस्पिन ततया तस्मिन्, अब रजनीविभातान्तरं पाण्डुरे-गुके प्रभाते, 'रत्तासोगे त्यादि, रक्ताशोकस्य प्रकाशः स च किंशु च-पलाशपुष्पं शुकमुखं च गुना-फलविशेषो रककृष्णस्तदधै च बानि तेषां सशे-आरक्तया समाने 'कमलागरनलिणि दीप अनुक्रम [७५-८०] ॥१४॥ ~ 291~ Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) "राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ---------- मूलं [७५-८०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [७५-८०] दीप अनुक्रम [७५-८०] सडबोहए' इति कमलाकरा:-इदास्तेषु नलिनोखण्टास्तेषां बोक्के 'उत्थिते' उदयमाप्ते ' सूरिए' आदित्ये | सहस्ररश्मी 'दिनकरे' दिवसकरणशीले तेजसा ज्वलिते । 'रेरिजमाणे' इति हरिततया देदीप्यमाने 'मा । तुमे पुर्व रमणिज्जे भवित्ता पच्छा अरमणिज्जे भविजासि' इत्यादेन्यत्यायं भावार्थः-पूर्वमन्येषां दात्रा IN भूखा सम्पति जैनधर्मपतिपच्या तेषामदात्रा न भवितव्यमस्माकमतरायस्य जिनधर्मापभ्राननस्य च प्रसक्तः। 'यणा पाउन्भया उज्जला' इत्यादि, उज्ज्वला दुःखरूपतया निर्मला मुखलेशेनाप्यकलङ्कितेति भावः विपुला-विस्तीर्णा सकल भरीरख्यापनात प्रगादा-प्रकर्षण ममप्रदेशिव्यापितया समवगाहा, कर्कश इन कर्कशा, किमुकै भवति ?-यथा कर्कशपाषाणसंघर्षः सारीरस्य खण्डानि बोटयति एवमात्मपदेशान् त्रोटयंतो या वेदनोपजायते सा कर्कशा, सथा कटुका पित्तप्रकोपपरिकलितस्य रोडण्यारिकद्रव्यमियोपभुज्यमानमतिशयेनामीतिजनिकेति भावः, परुषा मनसोऽनोव सक्षवजनिका, निष्ठरा-अप्रपती कारतया दुर्भदाऽत एव चण्डा-रुद्रा तोत्रा-अतिश्चापिनी दुखा-दुःखरूपा दुर्लध्या पितधरपरिगतशरोरे व्युत्कान्त्या चापि-दाहोत्पपया चापि विहरति-तिष्ठति ॥ (मू०७४-७५-७६-७७-७८-७९-८०)॥ त से पएसी राया सूरीयकतार देवीए अत्ताणं संपलडं जाणित्ता सूरियकताए देवीए मगसावि अप्पदस्समाणे जेणेव पोसहसाला तेणेव उवागच्छह २त्ता पोसहसाल पमजा२त्ता उचारपासवगभूमि पडिलेहेड २त्ता दम्भसंथारगे संथरेइ २त्ता दम्भसंधारगं दुरूहह २त्ता पुरत्याभिमुहे संपलियकनिसन्ने करपलपरिग्गहियं सिरसावत्तं अंजलि मत्थएत्तिक एवं वयासी-नमोऽत्यु REaratanimal ~292~ Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ---------- मूलं [८१-८२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति धीराजपनी मलय गिरी आराधना पतिज्ञ जन्म मू०८१-२ या दृचिः प्रत ॥१४५॥ सूत्रांक [८१-८२] में अरहताण जाव संपत्ताण । नमोऽत्थु ण केसिस्स कुमारसमणस्स मम धम्मोवदेसगस्स धम्मायरिपस्स, वदामि गं भगवंतं तत्थ गयं इह गए, पास मे भगवं तत्थ गए इह गयंतिक बंदह ममंसह, पुरिपिणं मए केसिस्स कुमारसमणस्स अंतिए थूलपाणाहवाए पचवाए जाव परिग्गहे, तं इयाणिपि णं तसदेव भावतो अंतिए सतं पाणाइवायं पचक्खामि जाव परिग्गहं सर्व कोहं जाव मिछादसणसालं, अकरणिजं जोय पञ्चकवामि, सौ असणे चउब्विह पि आहारं जाव जीवाए पथक्खामि, जपि य मे सरीरं इ९ जाव फुसंतुत्ति एयपि य णं चरिमेहिं ऊसासनिस्सासेहिं वोसिरामि. तिक आलोइयपडिकते समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा सोहम्मे कप्पे सूरियामे विमाणे उववापसभाए जाव वण्णो । तए णं से सूरियामे देवे अहणोववन्नए चेव समाणे पंचविहाए पज्जत्तीए पजतिभावं गच्छति, सं०-आहारपजत्तीए सरीरपजत्तीए इंदिपपज्जतीए आगपज्जनीए भासमणपजनीए,तं एवं खलु भो! सरियाभेणं देवेणं सा दिला देविड़ी ३व्वा देवजुली दिवे देवाणुभाये लढे पत्ते अभिसमझागए ॥ (सू०८१)॥ मूरियाभस्स गं भंते ! देव. स्स केवतियं काल ठिती पण्णता, गोयमा ! चवारि पलिओवमाई ठिती पणस्ता,से ण सूरि वामे देवे ताओ लोगाओ आउक्वएणं भवक्खएणं ठिडक्वएणं अतर चहना कहिं गमिहिति कहिं उवबचिहिति, गोथमा ! महाविदेहे वासे जाणि इमाणि कुलाणि भवति, तं०-अढाई दिसाई घिउ दीप अनुक्रम [८१-८२] rary.org प्रदेशी राजस्य आगामि भवा: एवं मोक्ष-प्राप्ति: ~ 293~ Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) "राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ---------- मूलं [८१-८२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८१-८२] दीप अनुक्रम [८१-८२] Sonई विचित्रपणविपुकभषणसयमासणजमणवाहणाई बहुधणबहुजातरूवरययाई आओगपओससपउनाई बिमाडियमममसपाणाई बहुदासीदासगोमहिसगवेलगप्पभूयाई बहुजणस्स अपरिभूताई, सस्थ भायरेसु कुलेसु पुत्तत्ताए पश्चाइलाइ । तए णं तंसि दारगंसि गम्भगयंसि नेव समार्णसि अम्मापिऊ धम्मे बता पहण्णा भविस्सइ । लए णं तस्स दारयस्स नवई मासाण पहपडिगाणं अबढमाण राईदियाणे वितिकताणं सुकुमालपाणिपाय अहीणपढिपुषणपंचिदियसरीर लक्खणवंजणगुणोववेयं माणुम्माणपमाणपडिपुनसुजायसवंगसुंदरंग ससिसोमाकार केत पिपदसणं सुरूवं दारयं पयाहिसि । तए णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो पढमे दिवसे ठितिबडिये करहिंति हतियदिवसे चंदसूरदसणिगं करिस्संति छट्टे दिवसे जागरियं जागरिस्संति एकाइसमे दिवसे पीश्यकते संपत्ते पारसाहे दिक्से णिबिसे अमुह जायकम्मकरणे चोक्खे संममिओबलिरी विउलं असणवाणखाइमसाइमं उबक्खडावेस्संति २ मित्तणाइणियमसयणसंबंधि परिजणं आमंतेत्ता तमो पच्छा पहाया करवलिकम्मा जाब अल किया भोयणमंडबंसि सुहासणवरगया ते मिलणा जाब परिज गेण सहि बिउलं असणं ४ आसाएमाणा बिसाएमाणा परिभुजेमाणा परिभाषमाणा एवं थेवणं विहरिस्संति, जिमियभुतुत्तरागयावि य गं समाणा आयता चोक्खा परमसुइभूया तं मित्तणाइ जाव परिजणं विउलेणं वस्यगंधमल्लालंकारेणं सकारेस्संति सम्माणि प्रदेशी राजस्य आगामि भवा: एवं मोक्ष-प्राप्ति: ~294~ Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) "राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ---------- मूलं [८१-८२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति श्रीराजमश्री मलयगिरी वाचित जन्मादि. प्रत सूत्रांक ॥१४६॥ [८१-८२] संति २ ता तस्सेव मित्त जाव परिजणस्स पुरतो एवं वइस्संति-जम्हा ण देवाणुप्पिया! इमंसि दारगंसि गम्भगयंसि चेव समाणसि धम्मे ददा पइण्णा जाया तं होऊ णं अम्हें एयस्स दारयस्स दहपहपणे णामेणं । तए णं तस्स ढपइवणस्स दारगस्स अम्मापिवरो नामधेज करिस्संति-दढपइपणो य २,तए णं तस्स अम्मापियरी अणुपुषेणं ठितिवडियं च चंदसूरियदरिसणं च धम्मजागरियं च नामधिजकरणं च पजेमणगं च पडिवडावणगं च पचंकमणगं च कनवेहणं च संबच्छरपडिलेहणगंचचूलोवणयं च अनाणि य बहणि गम्भाहाणजम्मणाइयाई महया इडीसकारसमुदएणं करिस्संति ॥ (सू०८२)॥ संपलियकसन्निसक्ने' इति पद्मासनसन्निविष्टः 'सर्व कोह 'मित्यादि क्रोधमानमायालोभा प्रतीताः प्रेम-अभिष्यंगमात्र देपा-अमोतिमात्रः अभ्याख्यानम्-असदोषारापर्ण पैशून्य-पिशुनकम्मे परिवादा-विकीर्णापरदोपकया अरतिरती धर्माधम्मति मायामुपा-वेषान्तरकरणतो लोकत्रिमतारगं मिथ्यादर्शन-मिथ्याले तत् शस्पमिा मिथ्यादर्शनशल्यं । 'अडाई' इत्यादि, 'आजोगपओगसंपउत्ताई' इति, आयोगस्य-अर्थलाभस्य प्रयोगा आयाः संप्रयुक्ता-व्यापारिता येस्तानि आयोगप्रपोगसपयुक्तानि 'विच्छड्डियपउरभत्तपाणाई' इति विच्छहिते-त्यक्ते बहुमनबहभोजनदानेनाविशिष्टोछिटसंभवात् संजातविच्छ वा-नानाविधभक्तिके भक्तपाने येषां तानि तथा, बहुदासोदास गोमदिपावेलकाः प्रभूता येषां वानि तया । 'पढमे दिवसे ठिइपडिय करेंति' इति स्थिती-कुलमा दायां पसिना-अन्वा या प्रक्रिया पुत्र दीप अनुक्रम [८१-८२] १४६॥ Pasurareorg प्रदेशी राजस्य आगामि भवा: एवं मोक्ष-प्राप्ति: ~295~ Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) "राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ---------- मूलं [८१-८२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८१-८२] जन्मोत्सवसम्बन्धिनो सा स्थितिपतिता नां, तृतीये दिवसे चन्द्रसूर्यदर्शनोत्सर्व, पष्ठे दिवसे जागरिकां-रात्रिमागरणरूपां 'निपते असुइजम्मकम्मकरणे' इति निर्वते-अतिक्रान्ते अशुचोना-जानिक गां करणे 'आसाएमाणा' हात मा परिभोजयति आस्वादयंती 'वीसाएमाणा' विविधखाद्यादि स्वादयंती 'परिभाएमाणा' इति परिभाजयन्ती-अन्योs-|| न्यमपि यच्छन्तौ मातापितराविति प्रक्रमः, 'जिमिती' भुक्तवन्तौ भुत्तुत्तरे'ति भुक्तात्तरकाल 'आगत 'त्ति आगती। उपवेशनस्थाने इति गम्यते, 'आयन्ता' इति आचान्तौ शुद्धोदकयोगेन चौक्षी लेसियायपनयनेन अन एव परमधिKI भूतौ । 'तए णं तस्स दृढपण्णस्स अम्मापियरो आणुपुल्वेणं ठिइपडिय मित्यायुक्तमनुक्तं च संक्षेपत उपदर्शयति, सुगर्म | FII चेत् , नवरं प्रजेमन-भक्तग्रहण पचक्रमण-पदाभ्यां गमनं पजपणग' मिति जल्लने' कग्णवेहणग' कर्णवेधन परछरपडि लेहणग' संवत्सरपतिलेखनं प्रथमः संवत्सरोऽभूदित्येवं संवत्सरलेखनपूर्व महोत्सवकरगं 'चूलोवगयण' चूडोपनयन मुण्डने अन्नाणि य बहूणि' इत्यादि, अन्यानि च बहूनि गर्भाधानजन्मादोनि 'कौतुकानि' उत्सव विशेषरूपाणि 'महया इड्डी-4 सकारसमुदएणं' ति महत्या ऋद्धचा महता सत्कारेण-पूजया महता समुदयेन जनानामिति ॥ (सू०८१-८२)॥ तए णं दढपतिपणे दारए पंचधाईपशिक्खत्ते खीरधाईए मज्जणधाईए मंडणघाईए अंकधाईए किलावणधाईए, अन्नाहि य यहूहिं चिलाइयाहिं वामणियाहिं वडभियाहिं बधराहिं बहुसियाहि जोहियाहिं पण्णवियाहिं ईसिणियाहि वारुणियाहिं लासियाहिं लाउसियाहि दमिलीहिं सिंहलीहिं आरबीहिं पालदीहिं पकणीहिं पहलीहिं मुरंडीहि पारसोहिं जाणादेसीविदेस दीप अनुक्रम [८१-८२] IAS प्रदेशी राज्ञस्य आगामि भवा: एवं मोक्ष-प्राप्ति: ~296~ Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय"- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) --------- मूलं [८३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः भीराजनी कलाशिक्ष मलयगिरीया वृत्तिः णादि मू०८३ प्रत सूत्रांक ॥१४७ [८३] परिमंडियाहिं सदेसणेवत्थगहियबेसाहिं इंगियाचतिगपत्थियचियाणाहिं निउणकुसलाहिं विगीयाहि चेदिवाचावालतरुणिवंदपरिवाल परिखुढे वरिसघरकंचुइमहयरवंदपरिकिबले ह. स्थाओ हत्यं साहरिज्जमाणे उखन चिजमाणे २ अंगणं अंग परिभुजमाणे उगि जेमामे२ उकलालिज्जमाणे २ अवतासि.२ परिचुबिजमागे २ रम्मेसु मणिकोहिमतलेस परंगमाणे२ गिरिकदरमहोणे विव चंपगबरपायवे णि डाघायंसि सुहंसुहेणं परिवहिस्सइ । ताणं तं दृढपतियण दारगं अम्मापियरी सातिरेगअवासजायगं जाणित्ता सोभणसि तिहिकरणणक्खत्तम सि पहायं फयवलिकम्मं कयकोउअमंगलपायच्छित्तं सदालंकारविभूसिय करेता महया होसकार समुदएणं कलायरियस्ल उवणेहिति । तए णं से कलायरिए तं दढपतिण्णं दार लेहाइयाओ गणि यप्पहाणाओ सउणरुयपजवसाणाओ यावत्तरि कलाओ सुनओ अत्यओ पसिक्खावेहि य सेहावेहि य, तं-लेहं गणिपं रूपं नई गोयं वाइयं सरगयं पुक्खरगयं समतालं जूर्य जणवयं पासर्ग अहावयं पारेका दगमहियं अन्नविहि पाणविहिं वत्थविहिं विलेवणविहिं सयणविहिं अज पहेलियं मागहिय णिहाइयं गाहं गीइयं सिलोगं हिरण्णजुति सुवपणजुन्ति आभरणविहिं तरणीपडिकम्म इस्थिलक्खणं पुरिसलक्खणं हयलक्खणं गयलक्खणं कुक्कुडलक्षणं छत्तलक्षणं चकटकवणं देखलक्षणं असिलक्षणं मणिलक्षणं कागणिलक्षणं वत्थुविज पागरमाणं खंधवार माणवारं दीप अनुक्रम [८३] स॥१४७॥ REaratunmol प्रदेशी राज्ञस्य आगामि भवा: एवं मोक्ष-प्राप्ति: ~297~ Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) प्रत सूत्रांक [३] दीप अनुक्रम [३] aurat “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र - १ ( मूलं + वृत्तिः ) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. 500-10000-1000 मूलं [८३] आगमसूत्र [१३], उपांग सूत्र [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः विचारं हं पडिव्हं चमूहं गरुलमूहं सगडबूहं जुद्धं नियुद्धं जुजुद्धं अट्टिजुद्धं मुट्ठिजुद बाहुजु काजु ईसस्थं छरुपवायं धणुवेयं हिरण्णपागं सुवण्णपागं मणिपागं धाउपागं सुत्तखे बखे पालिखे पतच्छे कडगच्छेजं सजीव निजीवं सउणरुयमिति । तए णं से कलायरिए तं दडपणं erri meisure गणियप्पहाणाओ सउणरुयपजवसाणाओ बावन्तरि कलाओ सुत्तओ य अस्थओ य ओय करणभ य लिक्खावेत्ता सेहावेत्ता अम्मापिऊणं उयणेहिति । तए णं तस्स दडपणस्स दारगस्स अम्मापियरो तं कलायरियं विउलेणं असणपाणखाइमसाइमेणं वत्थगंधमला कारणं सारिस्संति सम्माणिस्संति २ विउलं जीवियारिहं पीतीदाणं दलइस्संति विलं जीवियारिहं० दलइसा पडिविसज्जेहिति ॥ ( सू० ८३ ) ॥ 'वीरधाईए' इत्यादि, श्रीरधात्र्या स्वनदायिन्या मण्डनवाच्या मण्डपिया मज्जनधाश्यास्नापिकया क्रीडनधामा-क्रीडाकारिण्या अङ्कधात्र्या उत्सङ्गधारिण्या ' अन्नाहि य बहूहिं' इत्यादि कुब्जिकाभिः- वक्रयाभिः afeकाम सिकाभिमिलाभिः सिंहलीभिः पुलिंद्रीभिः पकणीभिः बहलीभिः मुरण्डीभिः शरोभिः पारसोभिः एवंभूताभिर्नानादेशैः - नाना देशोभिर्नानाविधानार्यप्रदेशोत्पन्नाभिः 'विदेसपरिमंडियाहिं ' इति विदेशः तदीयदेशापेक्षया मनिज्ञजन्मदेशस्तस्य परिपण्डिकाभिः इङ्गितं नयनादिचेष्टा विशेषः चिनितं परेण स्वहृदि स्थापितं प्रार्थितं च-अभिल पितं च विजानते यास्तास्तथा ताभिः स्वदेशे यद् नेपथ्यं परिधानादिरचना वद् गृहीतो वेषो यकाभिस्तास्तथा ताभिः, नि प्रदेशी राज्ञस्य आगामि भवाः एवं मोक्ष प्राप्तिः For Parts Only ~298~ 48-04-044) ru Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) “राजप्रश्निय"- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) --------- मूलं [८३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८३] पुणानां मध्ये या अतिशयेन कुशलास्ता निपुणकुशलास्ताभिः, अत एव विनीताभिः, 'चेडियाचक्कवाले ति चेटिकाचक्रवाबालयगिरी- II लेनाथ स्वदेवसंभवेन वर्षेधराणां-वदिनकायोगेण नपुंसकीनानामन्तःपुरमहलकानां कचुकिनाम्-अन्नापुरपयोजननिवेदया इतिः | कानां प्रतिहाराणां वा महत्तरकाणां च-अन्तःपुरकार्यचिन्तकानां वृन्देन परिक्षिप्तः, तथा हस्ताद् हस्त-हस्तान्तरं संहियमाणः IN अकादर परिभोज्यमानः परिगीयमानस्तथाविधयालोचितगीतविशेषः उपलाल्यपान: कोडादिलाल नया उवगूहिज्जमाणे H१४८॥ इति आठिङ्ग्यमानः 'अवयासेज्जमाणे ' इति आलिङ्गनविशेषेण 'परिय दिज्जमाणे' इति स्तूयमानः 'परिचं. विजमाणे' इति परिचुम्ब्यमाना 'गिरिकंदरमल्लीगे इव चपगवरपायवे' इति गिरिकन्दरायां लोन इस चम्पक| पादप मुखमुखेन परिवदिष्यते, 'अर्थत' इति व्याख्यानतः करणत:-प्रयोगतः ‘सेहावेहइ ' सेधयिष्यति-निषादयिष्यति शिक्षापयिष्यति-अभ्यास कारयिष्यति ।। (सू०८३)॥ तए णं से दतपतिपणे दारए उम्मुकबालभावे विण्णायपरिणयमिते जोवणगमणुपत्ते यावतरिकलापंडिए अद्वारसविहदेसिप्पगारभासाविसारए णवंगमुत्तपडियोहए गीपरई गधाणहकुसले सिंगारागारचारुवेसे संगयगयहसियभणियचिट्टियबिलाससलावनिउणजुतोषयारकुसले हय जोही गयजोही बाहुजोही बाहुप्पमदी अलं भोगसमत्थे साहसीर विद्यालचारीयाविभविस्सइ । तए णं तं दढपइण्णं दारगं अम्मापियरो उम्मुक्वालमा जाब वियालच रिं च वियाणित्ता विजलेहिं अन्नभोगेहि य पाणभोगहि य लेणभोगेहि य वत्थभोगेहि य सपणभोगेहि य दीप अनुक्रम [८३] १४८॥ jurmurary ou प्रदेशी राज्ञस्य आगामि भवा: एवं मोक्ष-प्राप्ति: ~299~ Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) प्रत सूत्रांक [८४-८५] दीप अनुक्रम [८४-८५] “राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र - १ ( मूलं + वृत्तिः ) मूलं [८४-८५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित. आगमसूत्र [१३], उपांग सूत्र [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः Education --450 459) 400*444*#04# निमंतिर्हिति । तए णं दृढपणे दारए तोह विउलेहि अनभोएहिं जाव सयणभोगेहिं णो सजिहिति णो गिज्झिहिति णो मुच्छिहिति णो अज्झोववज्जिहिति से जहा णामए पउमुप्पलेति वा पउमेर वा जाय सयसहस्पति वा पंके जाते जले संबुड़े गोवलिप्पइ पंकरएणं नोवलिप्पर जलरएणं, एवामेव दृढपण्णेवि दारए कामेहिं जाते भोगेहिं संवड़िए गोवलिप्पिहिति मित्तणाइणियगसयणसंबंधिपरिजणेणं, से णं तथारूवाणं थेराणं अंतिए केवलं बोहि वुजिसहित केवल मुँडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं परइस्सति से णं अणगारे भविस्स रि यासमिए जाव सुययासणो इव तेयसा जलते । तस्स णं भगवतो अणुत्तरेणं णाणं एवं दंसणेणं चरिनेणं आलएणं विहारेणं अज्जवेणं मद्दवेणं लाघवेणं खन्तीए गुसीए मुत्तीए अणुत्तरेणं सबसंजमतवसुचरियफल णिवाणमग्गेण अप्पाणं भावेमाणस्स अनंते अणुत्तरं कसिणे पडिपुor frरावरणे णिवाघाए केवलवरनाणदंसणे समुपजिहिति । तए णं से भगव अरहा जिथे के. वली भविस्सर सदेवमणुयासुरस्त लोगस्स परियागं जाणहिति सं०-आगतिं गति ठिति चवणं वयं तर्क कडं मणोमाणसियं खइयं भुत्तं पडिसेवियं आवीकम्मं रहोकम्मं अरहा अरहरसभागी तं तं मणवयकायजोगे वहमाणाणं सबलोए सव्वजीवाणं सव्वभावे जाणमाणे पासमाने बिहरिस्er | तर र्ण दढपन्ने केवली एयारूवेणं विहारेणं बिहरमाणे बहूई वासाई केवलि प्रदेशी राज्ञस्य आगामि भवाः एवं मोक्ष प्राप्तिः For Penal Use Only ~300~ 2085-48-49* 450*844140-449) *19)-420*40 nary.org Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) "राजप्रश्निय”- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ---------- मूलं [८४-८५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: श्रीराजपनी पलय गिरीया वृत्तिः मूत्रस्य उरसंहार मु.८५ प्रत सूत्रांक [८४-८५] ॥१४९॥ दीप अनुक्रम [८४-८५] परियागं पाउणित्ता अप्पणो आउसेसं आभोएत्ता बढ़ाई भत्ताई पश्चक्रवाइस्सइ २ चा बहाई भचाई अणसणाए इस्सइ २ ना जस्सहाए कीरइ णग्गभावे केसलोचबंभचेरवासे अण्हाणगं अदतवर्ण अणुवहाणगं भूमिसेजाओ फलहसेजाओ परघरपवेसो लडावलडाई माणावमाणाई परेसि हीलणामी दिसणाओ गरहणा उच्चावया विरूवा बावीसं परोसहोवसग्गा गामकंटगा अहियासिज्जते तमहूँ आराहेइ २त्ता चरिमेहिं उस्सासनिस्सासे हिं सिज्झिहिति मुचिहिति परिनि बाहिति स दृवाणमंतं करेहिति ॥ (सू०८४) ॥ सेवं भंते ! सेवे भंते! नि भगवं गोयमे समर्ण भगवं महावीर बदइ नमसइ वंदित्ता नमंसित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावमाणे विहरति । णमो जिणाणं जियभयाणं । णमो सुयदेवयाए भगवतीए । णमो षण्णत्तीए भगवईए। णमो भगवओ अरहओ पासस्स पस्से सुपस्से पस्सवणा णमो ९ । रायप्पसेणीयं सम्मः ॥ (सू. ८५) ॥ ग्रंथाग्रं सूत्र २१००। नवंगसुत्तपतियोहिए' इति दे श्रोत्र हे नयने द्वे नासिके एका जिह्वा एका व एक मन इनि सुप्तानीच पाल्या| दम्यक्तनेतनानि प्रतिबोधिनानि-यौवनेन व्यक्तचेतनानि कृतानि यस्य स तथा, व्यवहारभाएपे ' सोत्ताई नव सुत्ताई' इत्यादि, 'अट्ठारसविहदेसीप्पयारभासाविसारए' अष्टादशविधाया-अधाशभेदाया देशीम काराया-देशीवरूपाया भाषाया विशारदो-विचक्षणः, तथा गीतरवि तथा गन्धर्व गीते नाटधे च कुशला हयेन युध्यते इति हययोधी एवं गजयोधो रथयो V १४९। SAREnatinal A udiarary.org | प्रदेशी राजस्य आगामि भवा: एवं मोक्ष-प्राप्ति: अत्र सूर्याभदेवस्य प्रकरणं परिसमाप्त: ~ 301~ Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१३) "राजप्रश्निय"- उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ---------- मूलं [८४-८५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१३], उपांग सूत्र - [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८४-८५] श्री पाहुयोधी तथा पाहुभ्यां प्रयत्नातीति बाहुनमी साहसिकत्वात् विकाले चरतोति विकालचारी 'सवसंजमतवसुपरियफलनिवाणमग्गेण ' ति सर्वसंयमः सर्वगानां मनोवाकायानां संयम तत्य सुचरितस्य च आसादिदोषरहितस्य असो यत्फल-निर्वाणं तन्मार्गेण, किमुक्तं भवति !-सर्वसंयमेन सुचरितेन च तपसा, निर्माणप्रणमनयोर्निर्माणकलवख्यापभार्थ, 'मणोमाणसियति मनसि भवं मानसिक तञ्च कदाचिद्वचसापि प्रकटितं भवति तत उच्यते-मनसि व्यवस्थितं, खिय'ति क्षपितं भयं नीतमिति भावः, 'पडिसेवियं 'ति प्रतिसेवितं स्यात् स्यादि अषाकर्म-भूमौ निखात रहकर्ममास्थानकृतं 'परेसि हीलणाओ' इति हीलनानि सद्भूतहीनोत्पयाधुघटनानि निन्दनानि-परोक्षे जुगुप्सा आतापनानि खिसनानि 'धिग् मुंड ते' इत्यादि वाक्यानि तर्जनानि अङ्गुल्या निक्षेपपुरस्सरं निर्भर्त्सनानि ताडनानि कशादिपाता ।मु०८४-८५)। इतिमलर गिरिविरचिता राजप्रश्नोयोपानत्तिका समर्थिता ॥ प्रत्यक्षरं गणनतो, ग्रन्थमानं विनिश्चितम् । सप्तत्रिंशच्छतान्यत्र, श्लोकानां सर्वसंख्यया ॥१॥३७०० । दीप अनुक्रम [८४-८५] इति श्रीमन्मलयगिर्याचार्यवर्यविहितवृत्तियुतं श्रीराजप्रश्नीयाख्यं द्वितीयमुपाङ्ग समाप्तम् For wereluctaram.org मुनिश्री दीपरत्नसागरेण पुन: संपादित: (आगमसूत्र १३) "राजप्रश्निय” परिसमाप्त: ~ 302 ~ Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमो नमो निम्मलदंसणस्स पूज्य आनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरूभ्यो नमः 13 पूज्य आगमोध्धारक आचार्य श्री सागरानंदसूरीश्वरेण संशोधित: संपादितश्च “राजप्रश्निय(उपांग)सत्र" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणित वृत्ति:] | (किंचित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह) मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित: “राजप्रश्निय” मूलं एवं वृत्तिः” नामेण परिसमाप्त: Remember it's a Net Publications of jain_e_library's' ~303~