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वारणतरण
हैं । मनमें अति दुर्लभ उत्साह होता है कि ऐमी वस्तु प्राप्त होवें। जब वह नहीं मिल सकती हैं तो
श्रावकाचार बडा भारी कष्ट भोगता है, चिंतामें फंसा रहता है, मिथ्यादर्शनके कारण कुगुरुमें मायाचार मोह व असत्य धर्मका वास होता है। न तो वे तत्वको निर्णय करते हैं न संसारके मोहको हटाते हैं, मिथ्या तत्वकी श्रद्धा करते हुए, विषयोंकी वांछा रखते हए, मायामें फंसे हुए, ऐसे कुगुरु संसार हीमें भ्रमण किया करते हैं। ऐसे गुरु पाषाणकी नावके समान हैं-आप भी दृषते हैं व औरोंको भी डुवाते हैं। जबतक अनन्तानुबन्धी कषाय और मिथ्यादर्शन रूपी विषका वमन न किया जावे तबतक संसार शरीर भोगोंसे वैराग्य तथा आत्म रुचि नहीं पैदा होती है। इसीलिये मन चंचल
रहकर विषयोंके वनमें भ्रमण करता रहता है। वे कुगुरु थाहरी दिखावटी धर्मको ही अपनी इच्छाकी ४ पूर्तिका साधन बना लेते हैं । जो अपना हित चाहें उनको उचित है कि ऐसे कुगुरुओंकी भक्ति व४ * संगति न करें।
श्लोक-आलापं असुहं वाक्यैः, आतिरौद्र समाचरेत् ।
क्रोधमायामदं लोभ, कुलिंगी कुगुरुं भवेत् ॥८॥ अन्वयार्थ-(कुलिंगी) खोटे भेषधारी ( कुगुरुं) कुगुरु (असुहं वाक्यैः ) अशुभ या न सुहाने योग्य वचनोंसे (आलापं) वात करते हैं। (आतिरौद्र) आर्तध्यान तथा रौद्रध्यानका (समाचरेत् ) व्यवहार करते हैं (क्रोधमायामदं लोमं ) क्रोध, मान, माया, लोभ ये चार कषायें (भवेत् ) कुगुरुमें होती हैं।
विशेषार्थ-कुगुरु भेषधारी साधुओंके भीतर आर्तध्यान तथा रौद्रध्यान बर्ता करता है क्योंकि X जब उनको शुद्ध आत्मीक तत्वकी प्रतीति नहीं होती है तथा अतीन्द्रिय सुखका अनुभव नहीं होता है तब वहां धर्मध्यान असंभव है। धर्मध्यानके अभावसे दो खोटे ध्यान किसी न किसी रूपमें रहते हैं।
इष्ट परिग्रह, विषय, दास आदिके वियोगमें उनको इष्टवियोग आर्तध्यान होजाया करता है ल मनके अनुकूल न चलनेवाले व मनके अनुसार न वर्तनेवाले शिष्योंके कारण व अनिष्ट स्थान भोजन
पान वनादिके लाभसे उनको अनिष्ट संयोगज आर्तध्यान होता है। शरीरमें रोगादि होनेपर तीन पीड़ाकी चिंतामें पड़ जाते हैं व इससे पीड़न चिंतवन आर्तध्यान होता है। पाच इंद्रियोंके भोगोंकी