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इंद्रिय जनित अतृप्तिकारी सुखकी भावना करते हुए अपने मनको अशुभ निदान भावसे मलीन सरणतरण
४श्रावकाचार रखते हैं। उनका चारित्र पालन बहुत अल्प पुण्य बांधता है-परम्परा वे संसारके ही मार्गी होते हैं।
प्रयोजन कहनेका यह है कि परस्त्री व्यसनके लोभसे बचना ही हितकर है। जो सम्यक्ती हैं वे तो काम भावको रोग जानते हैं, स्वस्त्री में भी भोग करना अपना कर्तव्य नहीं समझते हैं। उसे भी काम रोगका एक दिल दहलानेवाला उपाय समझते हैं, वे पहचानते हैं कि काम भावका नाश आत्मध्यानके वीतरागमय भावके अभ्याससे ही होगा। वे गृहस्थमें रहते हुए नीतिसे चलते हैं, कभी भी परस्त्रीकी वांछा नहीं करते हैं । यह कामकी उत्कट वांछा महान आर्तध्यानमें व विकथाथाओंमें फंसा देती है और घोर कर्मका बंध कराती है।
श्लोक-कामकथा च वर्णत्वं, वचनं आलापरञ्जनं ।
ते नरा दुःख साते, परदाररता सदा ॥ १३८॥ अन्वयार्थ—(कामकथा च ) काम भाव बढानेवाली कथाओंका भी ( वर्णत्वं ) वर्णन करना तथा ( आकापरंजनं वचनं ) कामकी चर्चा में रंजायमान करनेवाला वचन कहना । ऐसा जो करते हैं वेड ५ (परदाररता जनाः) वे मानव परस्त्री व्यसनमें रत हैं (ते नरा) वे मानव (दुःख साते) अनेक कष्ट सहते हैं।
विशेषार्थ-परस्त्रियोंकी सुन्दरताकी हावभाव विलास विभ्रमकी, उनके प्रेममें फंस जानेकी, उनको छल लेनेकी, उनके भोग विलासको कथाएँ मनको शृंगार रसमें फंसानेवाली कहना तथा उनको सुनकर प्रसन्न होना। हां हां मिलाना। इत्यादि परस्त्रियोंमें रतिको पैदा करनेवाली जो कुछ भी चर्चा है व वचनालाप है वह सब परस्त्री व्यसनमें गर्मित है, परिणामों में कामकी उत्कटता बढानेवाली है। ये अशुभ भाव पाप बन्ध कारक हैं। उन पापोंके उदयसे प्राणीको संसारमें दुःख सहने पडेंगे। यहां भी यदि कोई किसी परस्त्रीकी सुन्दरताकी कथा सुनकर उसपर अपने भाव आसक्त कर लेगा वह रातदिन चिन्ताकी दाहमें जलकर दुःख पावेगा। उसके लिये महान प्रपंच करेगा-असफलतामें प्राण तक गमा बैठेगा । इसलिये गृहस्थ श्रावकको उचित है कि परस्त्री व्यसनके भीतर भयभीत प्रवतें इसहेतु कभी कामकी कथाएँ न कहें न सुनें। ऐसे खेल नाटक