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मो.मा.
प्रकाश
महाव्रत पाले, महामन्दकवायी होय, इसले के परलोकका भोगादिकफी चाहि न होय, केवल धर्मबुद्धि मोचाभिलाषी हुवा साधन साधे । तातै द्रव्यलिंगीकै स्थूल तौ अन्यथापनो है नाहीं, सूक्ष्म अन्यथापन है, सो सम्यग्दृष्टीकों भासे है । अब इनके धर्मसाधन कैसें है, अर तामैं अन्यथापनो कैसे है, सो कहिए है
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प्रथम तौ संसारविषै नरकादिकका दुख जानि खर्गादिविषै भी जन्म मरणादिका दुख जानि संसारत उदास होय, मोनकों चाहे है । सो इन दुखनिकों तौ दुख सब ही जाने हैं । इन्द्र अहमिंद्रादिक विषयानुरागतै इन्द्रियजनित सुख भोगवे हैं, ताक भी दुख जानि निराकुल सुखअवस्थाकों प्रहवानि मोब जाने हैं, सोई सम्यग्दृष्टि जानना । बहुरि विषयसुखादिक का फल नरकादिक है, शरीर सुचि विनाशीक है, पोषनेयोग्य नाहीं, कुटुम्बादिक स्वार्थ के सगे हैं, इत्यादि परद्रव्यनिका दोष विचारि तिनका तो त्याग करें है । प्रतादिकका फल स्वर्गमोक्ष है, तपश्चरखादि पवित्रफलके दाता है, तिनकरि शरीर सोखने योग्य है, देव गुरु शास्त्रादि हितकारी हैं, इत्यादि परद्रव्यनिका गुरु विश्वारि तिनहीका अंगीकार करे है । इत्यादि प्रकारकरि कोई परद्रव्यकों बुरा जानि श्रमिष्ट श्रद है है । कोई परद्रव्यकों भला जानि इष्ट है है, सो परद्रव्यष्टि अनिष्टरूप श्रद्धान को मिथ्या है । बहुरि इसही श्रद्धानते या उदासी - मता भी द्वेषरूप हो है । जातै कटुकों कुरा जानना, ताहीका नाम द्वेष है । कोऊ कहैगा ।
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