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मो.मा. प्रकाश
हैं । तातै परिणाम मेटनेकै अर्थ बाह्यवस्तुका निषेध करना समयसारादिविषै कया है । इस ही वास्तै रागादिभाव घटे बाह्य ऐसे अनुकमतें श्रावक मुनिधर्म होय हैं । अथवा ऐसें श्रावक मुनिधर्म अंगीकार किएं पंचम षष्टम गुणस्थाननिविषे रागादि घटावनेरूप परिणामनिकी प्राप्ति होय है । ऐसा निरूपण चरणानुयोगविषै किया । बहुरि जो वाह्य संयमतें किछू सिद्धि न होय, सौ सर्वार्थसिद्धिके वासी देव सम्यग्दृष्टी बहुतज्ञानी तिनकै तौ चौथा गुणस्थान होय, अर गृहस्थ श्रात्रक मनुष्यकै पंचम गुणस्थान होय, सो कारण कहा । बहुरि तौर्थंकरादिक गृहस्थपद छोड़ि काहेको सयम ग्रहें । तातें यह नियम है -- बाह्य संयम साधनविना परिणाम निर्मल न होय सके हैं। तातै वाह्य साधनका विधान जाननेकौं चरणानुयोगका अभ्यास अवश्य किया चाहिए ।
बहुरि केई जीव कहें -- जो द्रव्यानुयोगविषै व्रतसंयमादि व्यवहारधर्मका हीनपना प्रगट किया है । सम्यग्दृष्टीके विषय भोगादिककौं निर्जराका कारण कया है । इत्यादि कथन सुनि जीव हैं, सो स्वच्छन्द होय पुण्य छोड़ि पापविषै प्रवतेंगे, तातै इनका बांचना सुनना युक्त नाहीं । ताकौं कहिए है— जैसें गर्दभ मिश्री खाएं मरै, तो मनुष्य तौ मिश्री खाना न छोड़ें । तैसें विपरीतबुद्धि अध्यात्मग्रंथ सुनि स्वच्छन्द होय, तौ विवेकी तौ अध्यात्मग्रंथनिका अभ्यास न छोड़े। इतना करें -जाक़ों स्वच्छंद होता जाने, ताकों जैसे वह स्वच्छंद न होय तैसें उपदेश दे ।
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