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मो.मा.
प्रकाश
ऐसा कहा है, जो इसका आत्माका परद्रव्यतै भित्र अवलोकन सो ही नियमतें सम्यग्दर्शन है । तातै नव तत्वनिकी संततिको छोड़ हमारे यह एक आत्मा ही होहु । बहुरि कहीं एक आत्मा निश्चयही सम्यक्त्व कहैं हैं । पुरुषार्थसिद्ध्युपायविषै "दर्शनमात्मविनिश्चितः' ऐसा पद है। सोयाका यह ही अर्थ है । तातै जीव अंजीवहीका वा केवल जीवहीका श्रद्धान भए भी सम्यक्त्व हो है । सातौं तत्त्वनिका श्रद्धानका नियम होता, तौ ऐसा काहेकौं लिखते । ताका समाधान,
परतें भिन्न आपका श्रद्धान हो है, सो आस्रवादिकका श्रद्धानकरि रहित हो है कि सहित हो है । जो रहित हो है, तौ मोक्षका श्रद्धान बिना किस प्रयोजनके अर्थ ऐसा उपाय कर है। संवर निर्जराका श्रद्धान बिना रागादिकरहित होय स्वरूपविषै उपयोग लगावनेका काहेक उद्यम राखे है । आस्रव बंधका श्रद्धान बिना पूर्व अवस्थाकों छोड़े है । तातै अवादिकका श्रद्धानरहित आपापरका श्रद्धान करना संभवै नाहीं । बहुरि जो आस्रवादिकका श्रद्धानसहित हो है, तो स्वयमेव सातों तत्त्वनिके श्रद्धानका नियम भया । बहुरि केवल आत्माका निश्चय है, सो परका पररूप श्रद्धान भए बिना आत्माका श्रद्धान न होय, तातैं अजीवका श्रद्धान भए ही जीवका श्रद्धान होय । बहुरि पूर्ववत् श्रस्त्रवादिकका भी श्रद्धान होय ही होय ।
( १ ) दर्शनमात्मविनिश्चितिरात्मपरिज्ञानमिष्यते शेधः । स्थितिरात्मनि चारित्रं कुत एतेभ्यो भवति वन्धः ॥ २१६ ॥
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