Book Title: Tarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Author(s): Taranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
Publisher: Mathuraprasad Bajaj

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Page 986
________________ मो.मा. प्रकाश स्वरूपविषै वा जिनधर्मविषै वा धर्मात्मा जीवनिविषै प्रीतिभाव सो वात्सल्य है । ऐसें ए आठ श्रग जानने । जैसें मनुष्यशरीरके हस्तपादादिक अङ्ग हैं, तैसें ए सम्यक्त्वके अद्ध हैं । यहां प्रश्न -- जो केई सम्यक्त्वी जीवनिकै भी भय इच्छा ग्लानि आदि पाइए है, अर केई मिथ्यादृष्टीके न पाइए है । तातें निःशंकितादि श्रङ्ग सम्यक्त्वके कैसे कहो हो । ताका समाधान, जैसें मनुष्य शरीर के हस्तपादादि अंग कहिये है । तहां कोई मनुष्य ऐसा भी होय है, जाकै हस्तपादादिविषे कोई अंग न होय । तहां याकै मनुष्यशरीर तौ कहिये है, परंतु तिनि अंगनि बिना वह शोभायमान सकल कार्यकारी न होय । तैसें सक्यक्त्वके निःशंकितादि अंग कहिए है। तहां कोई सम्यक्ती ऐसा भी होय, जाकै निःशंकितादिविषै कोई अंग न होय ॥ ताकै सम्यक्त्व तौ कहिए । परंतु तिनिका छांगनिबिना यह निर्मल सकल कार्यकारी न होय । बहुरि जैस बांदरेकै भी हस्तपादादि अंग हो हैं । परंतु जैसे मनुष्यकै होय, तैसें न हो हैं । तैसें मिथ्यादृष्टीनिकै भी व्यवहाररूप निःशंकितादिक अंग हो हैं । परन्तु जैसें । निश्चयकी सापेक्षा लिए सम्यक्त्वीकै होय, तैसें न हो हैं । बहुरि सम्यक्त्वविषै पचीस |मल कहे हैं, - -आठ शंकादिक, आठ मद, तीन मूढ़ता, षट् अनायतन, सो ए सम्यक्त्वी के न होंय । कदाचित् काहूकै मल लागें सम्यक्त्वका नाश न हो है, तहां सम्यक्त्व मलिन ही हो है, ऐसा जानना । * इति मोक्षमार्ग प्रकाशक समांत । 1502 ५२४

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