Book Title: Tarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Author(s): Taranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
Publisher: Mathuraprasad Bajaj

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Page 969
________________ . PREM.. yleojadoresouTOopsroopareprooka/R0000000000000000001006100100100506100500loodeodood विचारे है । अथवा आपापरका भी ठीक न करे है पर आपकौं प्रात्मज्ञानी माने हैं। सो सर्व चतुराईकी बातें हैं। मानादिक कपायनिके साधन हैं । किछ भी कार्यकारी नाहीं । ताते जो जीव अपना भला करया गहै, तिसकौं यथावत् सांचा श्रद्धानः दर्शनकी प्राप्ति न होय, तावत् इनकौं भी अनुक्रमते अंगीकार करना । सो ही कहिए है---- ___पहले तो आज्ञादिककरि वा कोई परीक्षाकरि कुदेवादिकका मानना छोड़ि अरहंतदेवादिकका श्रद्धान करना । जाते ऐसा श्रद्धान भए गृहीतमिथ्यात्वका तो अभाव हो है । बहुरि | मोक्षमार्गके विघ्न करनहारे कुदेवादिकका निमित्त दूर हो है । मोक्षमार्गका सहाई. अरहंतदे वादिकका निमित्त मिले है, तातै पहिले देवादिकका श्रद्धान करना । बहुरि पीछे जिनमतविषै कहे जीवादिक तत्वनिका विचार करना । नाम लक्षणादिक सीखने । जाते इस अभ्यासते तत्वार्थश्रद्धानकी प्राप्ति होय । पीछे आपापरका भिन्नपना जैमै भासे तैसें विचार किया करै । जाते इस अभ्यासतै भेदविज्ञान होय । बहुरि पीछे आपविष आपो माननेके अर्थि खरूपका विचार किया करै । जाते इस अभ्यासते आत्मानुभवकी प्राप्ति हो है । बहुरि ऐसे है अनुमतें इनकौं अंगीकार करि पीछे इनहीविषे कबडू देवादिकका विचारविषे, कबहू तत्ववि चारविषै, कबहू आपापरका विचारविषे, कबहू आत्मविचारविषे उपयोग लगावै । ऐसे अभ्यास ते दर्शनमोह मंद होता जाय, तब कदाचित सांचे सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति हो है। जाते ऐसा 6000000kacocooooooooooooooooooooooo । 000000000kadaacom1080* ५०७

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