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सो प्रकाश
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सम्यक् ऐसा शब्द प्रशंसावाचक है । सो श्रद्धानविर्षे विपरीताभिनिवेशका प्रभाव भए हो । प्रशंसा संभव है, ऐसा जानना । यहां प्रश्न-जो 'तत्व' अर 'अर्थ' ए दोय पद कहे, तिनिका | प्रयोजन कहा ताका समाधान,--
तब' शब्द है सो ‘यत् शब्दकी अपेक्षा लिए है । तातें जाका प्रकरम होय, सो तत् । || कहिए, अर जाका जो भाव कहिए खरूप सो तत्त्व जानना । जाते तस्य भावस्तत्वं' ऐसा ।।
तत्त्व शब्दका समास होय है । बहुरि जो जाननेमें आवै ऐसा 'द्रव्य' वा 'गुण, पर्याय' ताका नाम अर्थ है । बहुरि 'तत्त्वेन अर्थस्तत्त्वार्थः' तत्व कहिए अपना स्वरूप, ताकरि सहित पदार्थ || तिनिका श्रद्धान सो सम्यग्दर्शन है । यहां जो 'तत्वश्रद्धान' ही कहते, तौ जाका यह भाव । | ( तत्व ) है, ताका श्रद्धान विना केवल भावहीका श्रद्धान कार्यकारी नाहीं । बहुरि जो 'अर्थश्रद्धान' ही कहते, तो भावका श्रद्धान विना पदार्थका श्रद्धान भी कार्यकारी नाही । जैसें । कोई के ज्ञान दर्शनादिक वा वर्णादिकका तौ श्रद्धान होय-यह जानपना है, यह श्वेतवर्ण है, | इत्यादि । परंतु ज्ञान दर्शन आत्माका खभाव है, सो में आत्मा हौं । बहुरि वर्णादि पुद्गलका | स्वभाव है । पुल मोते भिन्न जुदा पदार्थ है । ऐसा पदार्थका श्रद्धान न होय, तो भावका श्रद्धान मात्र कार्यकारी नाहीं । बहुरि जैसे में आत्मा हों' ऐसे श्रद्धान किया, परंतु आत्माका खरूप जैसा है, वैसा श्रद्धान न किया । नौ भावका श्रद्धान विना पदार्थका भी श्रद्धान
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