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मो.मा. प्रकाश
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sa इनविषै दोषकल्पना कोई करें है, ताका निराकरण करिए है ---- कोई जीव कहै है - प्रथमानुयोग विषे श्रृंगारादिकका वा संग्रामादिकक बहुत कथन करें, तिनके निमित्त रागादिक बधि जाय, तातैं ऐसा कथन न करना था । ऐसा कथन सुनना नाहीं । ताकौं कहिए है — कथा कहनी होय, तब तौ सर्व ही अवस्थाका कथन किया चाहिए | बहुरि जो अलंकारादिकरि बधाय कथन करें हैं, सो पंडितनिके वचन युक्ति लिएं ही निकसैं । अर जो तू कहेगा, संबंध मिलावनेंकों सामान्य कथन किया होता, वधाय करि कथन काकौं किया । ताका उत्तर
जो परोक्षकथनकों बधाय कहे बिना वाका स्वरूप भासै नाहीं । बहुरि पहले तो भोग संग्रामादि ऐसें किए, पीछे सर्वका त्यागकर मुनि भए, इत्यादि चमत्कार तब ही भासे, जब वधाय कथन कीजिए । बहुरि तू कहै है, ताके निमित्ततें रागादिक बधि जांय, सो जैसे कोऊ चैत्यालय बनावै, सो वाका तौ प्रयोजन तहां धर्मकार्य करावनेका है। अर कोई पापी तहां पापकार्य करै, तौ चैत्यालय बनावनेवालाका तौ दोष नाहीं । तैसें श्रीगुरु पुराणादिविषै श्रृंगारादि वर्णन किए, तहां उनका प्रयोजन रागादि करावनेका तौ है नाहीं--धर्मविषैलगावनेका प्रयोजन है । अरकोई पापी धर्म न करे, अर रागादिक ही वधात्रे, तौ श्रीगुरुका कहा दोन है । बहुरि जो तू कहै - जो रागादिककका निमित्त होय, सो कथन ही न
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