________________
बारणतरण ४. ध्यान भी है। इसका ध्यान श्री ज्ञानार्णव ग्रन्धके आधारसे इस प्रकार करे कि मुख में एक कमलका श्रावकाचार ॥१८॥
विचार करे जो आठ पत्तोंका हो, उसकी कणिकाके मध्य में ह्रींको उज्वलं चमकता हुआ विचारे फिर उसीको कमलके हरएक पत्तेपर घूमता हुआ विचारे, फिर उसे आकाशमें चलता हुआ विचारे फिर तालुके छिद्र द्वारा अमृत सिंचन करता हुआ भौंहोंके मध्य में तिष्ठता ध्यावे । इस तरह इस माया
वर्णके चितवन करे परन्तु अपना लक्षा इसके वाचक ज्ञानमई अविनाशो आत्माके ही ऊपर रक्खे । ४इस मंत्रके द्वारा अपने शुद्ध आत्माका ही ध्यान करे, मनको रोकनेके लिये ह्रींका सहारा उपयोगी है।४
श्लोक-पदस्थं पिंडस्थं येन, रूपस्थं त्यक्त रूपयं ।
चतुर्थ्यानं च आराध्यं, शुद्ध सम्यकदर्शनं ॥१७७॥ अन्वयार्थ—(येन) जिसके ( पदस्थं पिंडस्थं ) पदस्थ डिस्थ (रूपस्थं ) रूपस्थ (त्यक्त रूपयं) रूपातीत (चतुर्थ्यानं ) ये चार प्रकारका ध्यान (आराध्यं ) आराधन करने योग्य है। वही (शुद्ध सम्यग्दर्शनं ) शुद्ध सम्यग्दर्शनका धारी है।
विशेषार्थ-शुद्ध सम्यग्दर्शनका धारी भव्य जीव आत्मकल्याणके लिये, मनकी चंचलताको रोकने के लिये, अपना शुद्ध तत्वका भाव रखके चार प्रकारके धर्मध्यानका अभ्यास करता है
(१) पदस्थ धर्मध्यान वह है जहां पदोंको किसी स्थानपर विराजमान करके उसके ऊपर मनको रोका जाये और वहीं शुद्धास्माकी भावना की जावे। (२) पिंडस्थ ध्यान वह है जहां अपने शरीरके भीतर अपने ही आत्माको सर्व कर्म कलंक रहित व शरीरादि रहित घ्याया जावे । (३) रूपस्थ ध्यान वह है जहां अरहंतका स्वरूप पिचार किया जावे। (४) रूपातीत ध्यान वह है जहां सिद्ध भगवानका स्वरूप ध्याया जाये । अरहंत व सिद्धके स्वरूपके द्वारा अपना ही स्वभाव ध्यानमें लिया जावे । शुद्ध सम्यग्दृष्टा जीव सर्व कामनाओंसे रहित होकर शांत स्वभावमई आत्माकी परिणतिको करनेके लिये इस तरह धर्मध्यानका अभ्यास करते हैं। सम्यक्त होने के पीछे यथाख्यात चारित्र व केवलज्ञानकी प्राप्तिके लिये ध्यानका अभ्यास जरूरी है। यद्यपि इस पंचमकालमें इस भरतक्षेत्र में शक्लध्यान व आठवां गुणस्थान नहीं होमक्ता है तथापि धर्मध्यान व सातवां गुणस्थान होसक्ता है।
जैसा श्री नागसेन मुनि तत्त्वानुशासन में कहते हैं