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मो०मा० प्रकाश
धर्मके उपकारी भए, वस्त्रादिक कैसें धर्मके उपकारी होय। वै तौ शरीरका सुखहीके अर्थि धारिए है। बहुरि जो शास्त्र राखि महंतता दिखावें, पीछी करि बुहारी दें, कमण्डलुकरि जलदिक पीवें वा मैल उतारें, तो शास्त्रादिक भी परिग्रह ही हैं। सो मुनि ऐसे कार्य करें नाहीं। । तातें धर्मके साधनकों परिग्रह संज्ञा नाहीं । भोगके साधनकौं परिग्रह संज्ञा हो है, ऐसा जानना
बहुरि। कहोगे-कमण्डलुतें तो शरीरही का मल दूरि करिए है सो मुनि मल दूरि करनेकी |
इच्छाकरि कमण्डलु नाहीं राखै हैं। शास्त्र बांचना आदि कार्य करें, अर मललित होंय, तौ । । तिनका अविनय होय, लोकनिंद्य होंय, तातें इस धर्मके अर्थि कमण्डलु राखिए है । ऐसें पीछी |
आदि उपकरण संभवें, वस्त्रादिककौं उपकरण संज्ञा संभवै नाहीं। काम अरतिआदि मोहका |
उदयतें विकार बाह्य प्रगट होय, अर शीतादिक सहे न जाँय, तातें विकार ढांकनेकौं, वा ॥ शीतादि घटावनेकों, वा वस्त्रादिक राखि मानके उदयतें अपनी महन्तता भी चाहें तातें, । कल्पितयुक्तिकरि उपकरण ठहराईए है । बहुरि घरघर याचनाकरि आहार ल्यावना ठहराया है।। । सो प्रथम तो यह पूछिए है, जो याचना धर्मका अंग है । कि पापका अंग है । जो धर्मका अंग ।। है, तो मांगनेवाले सब धर्मात्मा भए । अर पापका अंग है, तो मुनिकै कैसे संभवै । बहुरि जो | तू कहेगा, लोभकरि किछु धनादिक याचे, तौ पाप होय; यह तो धर्म साधन के अर्थि शरीरकी स्थिरता किया चाहै हैं । ताका समाधान,
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