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मो.मा:
प्रकाश
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जैसें स्त्री प्रयोजन जानि पितादिक वा मित्रादिककै भी घर जाय, तैसें परगति तत्वनिका विशेष जाननेकों कारण गुणस्थानादिक कादिककों भी जानै । बहुरि यहां ऐसा जानना-जैसे शीलवती स्त्री उद्यमकरि तौ विटपुरुषनिकै स्थान न जाय, अर परवश जाना बनि । जाय, तौ तहां कुशील न सेवे, तो स्त्री शीलवती ही है । तैसें वीतरागपरणति उपायकरि तौ। रागादिकके कारण परद्रव्यनिविष न लागै । जो स्वयमेव तिनका जानना होय जाय, अर तहां रागादि न करें तो परणति शुद्ध ही है । तैसें स्त्री आदिकी परीषह मुनिनकै होय, तिनकों जाने ही नाहीं, अपने स्वरूपहीका जानना रहे है, ऐसा मानना मिथ्या है। उनकौं जानै तौ है, परंतु रागादिक नाहीं करें है। या प्रकार परद्रव्यनिकौं जानतें भी वीतरागभाव हो है, ऐसा भद्धान करना । बहुरि वह कहै है-ऐसे कैसे कह्या है, जो आत्माका श्रद्धान ज्ञान
आचरण सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र है। ताका समाधान| अनादिः परद्रव्यविषे आपको श्रद्धान ज्ञान आचरण था,ताकौं छुड़ावनेकौं यह उपदेशहै।।
आपहीविषे आपका श्रद्धान ज्ञान आचरण भए परद्रव्यविषैरागद्वेषादिपरणति का श्रद्धान व ज्ञान वा आचरण मिटि जाय, तब सम्यग्दर्शनादि हो है। जो परद्रव्यका परद्रव्यरूप श्रदधानादि करनेते सम्यग्दर्शनादि न होते होंथ, तो केवलीके भी तिनका अभाव होय। जहां परद्रव्यकों बुरा जानना, निजद्रव्यों भला जानना, तहां तौ राग द्वेष सहज.ही भया। तहां
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