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मो.मा. नाहीं । अपनी द्वेषपरणतिकरि आप ही पाप बांधे है । अहिंसाविर्षे स्क्षाकरनेकी बुद्धि होय, सो
वाका आयु अवशेषविना जीवे नाहीं, अपनी प्रशस्त रागपरणतिकरि आप ही पुण्य बांधे है ।। ऐसे ए दोऊ होय हैं । जहां वीतराग होय दृष्टा ज्ञाता प्रवत्ते, तहां निबंध है । सो उपादेय है। सो ऐसी दशा न होय, तावत् प्रशस्त रागरूप प्रवत्र्तों। परन्नु श्रद्धान तो ऐसा राखो-यह । भी बंधका कारण है-हेय है। श्रद्धानविष याकौं मोक्षमार्ग जाने मिथ्या दृष्टी ही है। । बहुरि मिथ्यात्व अविरत कषाय योग ए आस्रवके भेद हैं, तिनकों वाह्यरूप तो माने, अ-01 |न्तरङ्ग इन भावनिकी जातिको पहिचाने नाहीं। तहां अन्य देवादिकसेवनेरूप गृहीतमिथ्या| त्वको मिथ्यात्व जाने, अर अनादि अगृहीतमिथ्यात्व है, ताकौं न पहिचाने । बहुरि बाह्य त्रस ||
स्थावरकी हिंसा बा इन्द्रिय मनके विषयनिविष प्रवृत्ति ताको अविरत जानै । हिंसाविर्षे प्र। मादपरणति मूल है, अर विषयसेवनविषै अभिलाष मूल है, ताकों न अवलोकै । बहुरि बाह्य ।।
क्रोधादि करना, ताों कषाय जाने, अभिप्रायविषे रागद्वेष रहै, ताकों न पहिचानै । वहुरि बाह्य । चेष्टा होय, तार्को योग जाने, शक्तिभूत योगनिकों न जाने ऐसें आस्रवनिका स्वरूप अन्यथा |
जाने । बहुरि राग द्वेष मोहरूप जे आस्रववभाव हैं, तिनका तो नाश करनेकी चिंता नाही।
अर बाह्यक्रिया वा बाह्य निमित्त मेटनेका उपाय राखे, सो तिनके मेंटे आश्रय मिटता नाहीं।। | द्रव्यलिंगीमुनि अन्य देवादिककी सेना न करै हैं, हिंसा वा विषयनिविष न प्रवर्ते हैं, क्रोधादि ।
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