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मो०मा० प्रकाश
ज्ञानादिक की वंदना करनेका अर्थ कैसे संभवे । ज्ञानादिककों बंदना तो सवत्र संभवे । जो बंदने योग्य चैत्य तहां ही संभवै अर सर्वत्र न संभवै, ताक तहां बंदनाकरनेका विशेष संभव, सो ऐसा संभवता अर्थ प्रतिमा ही है। अर चैत्याशब्दका मुख्य अर्थ प्रतिमा ही है, सो प्रसिद्ध है। इस ही अर्थकार चैत्यालय नाम संभव है । याकौं हठकरि काहेकौं लोपिए । बहुरि नंदीश्वर द्वीपादिकविषै जाय, देवादिक पूजनादि क्रिया करे हैं, ताका व्याख्यान उनकै जहां-तहां पाईए है। बहुरि लोकविषै जहां-तहां अकृत्रिम प्रतिमाका निरूपण है । सो या रचना अनादि है । यह भोग कुतूहलादिककै अर्थ तो है नाहीं । भर इंद्रादिकनिके स्थाननिविषै निःप्रयोजन रचना संभव नाहीं । सो इंद्रादिक तिनकों देखि कहा करें हैं। कै तौ अपने मंदिरनिविषै निःप्रयोजन रचना देखि, उसतै उदासीन होते होंगे तहां दुःख होता होगा, सो संभवे नाहीं । के ठी रचना देखि विषय पोषते होंगे, सो अहंत मूर्तिकरि सम्यग्दृष्टी अपना विषय पोषै, यह भी संभव नाहीं । तातैं तहां तिनकी भक्त्यादिक ही करें हैं, यह ही संभव है । सो उनकै सूर्याभदेवका व्याख्यान है । तहां प्रतिमाजीके पूजनेका विशेष वर्णन किया है । यार्कों गोपनेके अर्थ कहे हैं, देवनिका ऐसा ही कर्त्तव्य है । सो सांच, परन्तु कर्त्तव्यका तौ फल होय ही होय । सो तहां धर्म हो है कि पाप हो है जो धर्म हो है, तौ अन्यत्र पाप होता था यहां धर्म भया । याकों औरनिकै सदृश कैसे कहिए। यह तौ योग्य कार्य भया । श्रर पाप हो है तौ तहां 'रामोत्थुणं' का पाठ पढ़ा,
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