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बहुरि भक्त्यादिकाभिविप हिलादिक पार बधावें, वा गीत नृत्यादिक वा इष्ट भोजनाप्रकाशदिक वा अन्य सामग्रीनिकरि विषयनिकों पोर्षे, कुतूहल प्रमादादिरूप प्रवः। तहां पाप तौ ।।
है बहुत उपजावे, अर धर्मका किछू साधन नाहीं । तहां धर्म माने, सो सर्व कुधर्म है। बहुरि । । केई शरीरकों तौ क्लेश उपजावें अर तहां हिंसादिक निपजावें, कषायादिरूप प्रवर्त। जैसैं । पंचाग्नि. ता, सो अग्निकरि बड़े छोटे जीव जलें, हिंसादिक वधै; यामै धर्म कहा भया । वहुरि अधोमुख मूलें, ऊर्ध्वबाहु राखें, इत्यादि साधनकरि तहां क्लेश ही होय । किछू ए धनके अंग नाहीं । बहुरि पक्नसाधन करें, तहां नेती धोती आदि कार्यनिविषै जलादिककरि हिलादिक उपज, चमत्कार कोई उपजे तातै मानादिक बधै, किछू तहां धर्मसाधन नाहीं । इत्यादि। लैश करें, विषयकषाय घटावनेका कोई साधन करें नाहीं । अंतरंगविषै क्रोध मान माया लोभका अभिप्राय है, कृथा क्लेशकरि धर्म माने हैं, सो कुधर्म है। बहुरि केई इस लोकविषै। दुःख सह्या न जाय, वा परलोकविषै इष्ट की इच्छा वा अपनी पूजा बढ़ावनेकै अर्थि वा कोई। | क्रोधादिककार अपघात करें। जैसें पतिवियोगते अग्निविषे जलकरि सती कहावै है, वा हिमा| लय गले है, काशीकरोत ले है, जोदित मारी ले है, इत्यादि कार्यकरि धर्म माने हैं । सो अथघातका तो बड़ा पाप है । शरीरादिकतै अनुराग घट्या था, तो तपश्चरणादि किया होता । मरि जाणेमें कौन धर्मका अंग भया । जाते अपघात करना धर्म है। ऐसे ही अन्य भी घने |
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