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जे जीव रागादिककी उत्पत्तिविषे परद्रव्यहीको निमित्तपनो माने हैं, ते जीव भी शुद्धशा-10 नकरि रहित हैं अंधबुद्धि जिनकी ऐसे होते ते मोहनदीकों नाहीं उतरे हैं। बहुरि समयसार का “सर्वविशुद्धि अधिकार” विषे जो, आत्माको अकर्ता माने है, अर यह कहै है-कर्म हो । जगावै सुवावै है, परघात कर्मतै हिंसा है, वेदकनेते ब्रह्म है, तातें कर्म ही कर्ता है, तिस। जैनीको सांख्यमती कह्या है । जैसें सांख्यमती आल्माकों शुद्ध मानि स्वच्छंद हो है, तैसें ही ।। यह भया । बहुरि इस श्रद्धानतें यह दोष भया, जो रागादिक अपने न जाने, आपको अकर्ता मान्या, तब रागादिक होनेका भय रह्या नाही, वा रागादिक मेटनेका उपाय रह्या नाही, तब स्वच्छंद होय खोटे कर्म बांधि अनंतसंसारविर्षे रुले है । यहां प्रश्न-जो समयसारविषै ही। ऐसा कह्या है
वर्णाद्या वा रागमोहादथो वा,
भिन्ना भावाः सर्व एवास्य पुन्सः । अर्थ-वर्णादिक वा रागादिकभाव हैं, ते सर्व ही इस आत्माते भिन्न हैं । बहुरि तहां ही रागादिककौं पुद्गलमय कहे हैं । बहुरि अन्य शास्त्रनिविर्षे भी रागादिकतै भिन्न आमाको | कहा है, सो कैसे है। ताका उत्तर
रागादिकभाव परद्रव्यके निमित्तते उपाधिकभाव हो हैं। अर यह जीव तिनिकों खभाव
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