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मो.मा प्रकाय विष बुड़े । और भी तहां "ज्ञानिनः कर्म न जातु कर्तुमुचितं” इत्यादि कलशाविष वा "त
थापि न निरर्गलं चरितुमिष्यते ज्ञानिनः” इत्यादि कलशाविषे खछन्द होना निषेध्या है। विना चाहि जो कार्य होय, सो कर्मबन्धका कारण नाहीं । अभिप्रायतें कर्ता होय करै अर ज्ञाता रहै, यह तो बनें नाहीं, इत्यादि निरूपण किया है । ताते रागादिक बुरे अहितकारी जानि तिनका नाशके अर्थ उद्यम राखना । तहां अनुक्रमविर्षे पहले तीव्ररागादि छोड़नेके अनेक अ-1 शुभ कार्य छोड़ि शुभकार्यविषे लाग ना, पीछे मन्दरागादि भी छोड़नेके अर्थ शुभकों छोड़ि शुद्धोपयोगरूप होना । बहुरि केई जीव व्यापारादि कार्य वा स्त्रीसेवनादि कार्यनिकों भी घटावे हैं। बहुरि शुभकों हेय जानि शास्त्राभ्यासादि कार्यनिवि नाहीं प्रवत्तें हैं । वीतरागभावरूप शुद्धो
पयोगकों प्राप्त भए नाही, ते जीव अर्थ काम धर्म मोक्षरूप पुरुषार्थ ते रहित होतेसते आ। लसी निरुद्यमी हो हैं । तिनकी निंदा पंचास्तिकायकी व्याख्याविषै कीनी है। तिनकों दृष्टान्त दिया है जैसे बहुत खीर खांड़ खाय पुरुष आलसी हो है, वा जैसें वृक्ष निरुद्यमी हैं, तैसे ते जीव भालसी निरुद्यमी भए हैं। अब इनको पूछिए है-तुम बाह्य तो शुभ अशुभ कार्य-10 निकों घटाया, परंतु उपयोग तो आलम्बनबिना रहता नाही, सो तुम्हारा उपयोग कहां रहै। है, सो कहो । जो वह कहे-मात्माका चितवन करें हैं, तो शास्त्रादिकरि अनेक प्रकारका आत्माका विचारकों तो तुम विकल ठहराया पर कोई विशेषण मारमाके जाननेमें बहुत काल