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श्री. मह
प्रकाश
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बहुरि कई अन्य तो सर्व पापकार्य करें, एक स्त्रा पर नाहीं, इस ही अंगकरि गुरुपो हैं। सो एक भब्रह्म ही तौ पाप नाहीं, हिंसा परिग्रहादिक भी पाप हैं, तिनकौं करते धर्मात्मा गुरु कैसें मानिए। बहुरि षह धर्म्मबुद्धितें विवाहादिकका त्यागी नाहीं भया है। कोई आ| जीविका वा खज्जा आदि प्रयोजनकों लिए विवाह न करे है । जो धर्म्मबुद्धिहोती, तो हिंसादिककौं काहेक वधःवता । बहुरि जाकै धर्म्मबुद्धि नाहीं, तार्के शीलकी भी दृढ़ता रहै नहीं । धर विवाह करें नाहीं, तब परस्त्रीगमनादि महापापकों उपजावै । ऐसी क्रिया होतें गुरुपना मानना महाभ्रमबुद्धि है । बहुरि केई काढू प्रकारका भेषधारनेते गुरुपनौ माने हैं । सो भेष धारें कौन धर्म्म भया, जातै धर्मात्मा गुरु मानें। तहां केई टोपी दे हैं, केई गूदरी राखे हैं, केई चोला पहरें हैं, केई चादर ओढ़े हैं, केई लालवस्त्र राखें हैं, केई स्वेतवस्त्र राखे हैं, केई भगवां राखे हैं, केई टाट पहरे हैं, केई सृगछाला पहरें हैं, केई राख लगावे हैं, इत्यादि केई स्वांग बनावें हैं । सो जो शीत उष्णादिक सहे न जाते थे, लज्जा न छुटै थी, तो पाग, जामा इत्यादि प्रवृत्तिरूप वस्त्रादिकका त्याग काहेकों किया । उनकों छोरि ऐसे स्वांग बनावने में कौन धर्मका अंग भया । गृहस्थानिक ठिगनेकै अर्थ ऐसे भेष जानने । 'जो गृहस्थसारिसा | अपना स्वांग राखे, तो गृहस्थ कैसें ठिगावै । पर इनकों उनकरि आजीविका वा धनादिकका या मानादिकका प्रयोजन साधना, तातै तेसा स्वांग बनावे हैं । जगत भोला तिस स्वांगकों
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