________________
1444444444646
कारणवरण ४ अपनेको पात्र मानकर मिथ्यादृष्टी दातारसे दान लेनेका अभ्यास बनाले तो उस पात्रका प्रेम उस श्रावास २८॥
मिथ्यादृष्टीसे होजायगा अर्थात् मिथ्यात्वकी अनुमोदना उसके होजायगी। वह दातार भी समझेगा कि मुझे इन पात्रोंने योग्य ही समझा तय ही तो मेरा दान लिया। वह और भी मिथ्यात्व ग्रंथिको दृढ कर लेगा। अतएव ऐसा दान उपकारक न होकर अपकारक होगा।
यहा तात्पर्य यह है कि सुपात्र वही है जो धर्मका दृढ श्रद्धावान हो व धर्ममें दृढ श्रद्धानियोंके ही भक्ति द्वारा दिये हुए दानको ग्रहण करे तय हो वह शुद्ध दान दातार व पात्र दोनोंको मोक्ष. मार्ग में प्रेरक है। मिथ्यात्वीके पात्रोंमें सच्ची भक्ति नहीं होती है। अतएव उनका दिया हुआ दान पात्र के लिये उचित नहीं है। यदि कोई ले ले तो वह अपात्र हो जायगा। दातारके अशुद्ध द्रव्यका व दातारके कुभावोंका भोजन करनेवालेके परिणामों में असर होता है वह विकारका हेतु है। एक वेश्याने मायाचारसे श्राविका बनकर धोखे से एक जैन साधुको आहार करा दिया। आहार करते हुए उनकी दृष्टि ऊपर गई। उन्होंने एक मोतियोंका हार टंगा हुआ देखा। उनके परिणाम ऐसे हुए कि हम हारको चुरा लेजावें तब उस साधुने अपने गुरुसे यह हाल कहा । गुरुने कहा कि तुमने अशुद्ध दातारका अशुद्ध भोजन खाया है। प्रायश्चित्त लेकर दोषसे मुक्त होना चाहिये। अतएव श्रद्धावान के द्वारा शुद्ध भोजन ही पात्रोंको ग्रहण करना चाहिये।
श्लोक-मिथ्यादृष्टी च संगेन, गुणं निर्गुणं भवेत् ।
मिथ्यादृष्टी जीवस्य, संगं तजति ये बुधाः ॥ २९२ ॥ अन्वयार्थ (मिथ्यादृष्टी च संगेन ) मिथ्यादृष्टीकी संगतिसे (गुणं निर्गुणं भवेत् ) पात्रके गुण औगुण V रूप होजाते हैं अतएव (ये बुधाः) जो बुद्धिमान हैं वे ( मिथ्यादृष्टी जीवस्य संगं तति ) मिथ्यादृष्टी जीवकी। संगति छोड देते हैं।
विशेषार्थ-जो सच्चे तत्वके श्रद्धावान नहीं है उनकी संगतिसे लाभ होनेके बदले में हानि होना बहुत संभव है। उनके प्रभावमें आकर सचे श्रद्धावानोंकी श्रद्धा बहुधा बिगड जाती है। तथा
गुणोंका नाश होकर औगुणों की उत्पत्ति होजाती है। बहुधा कुसंगतिसे ही लोग जुआरी, शिकारी, 1 नशेषाज, वेश्यागामी, मांसाहारी, परस्त्रीरत, चोर होजाया करते हैं। कुसंगतिसे विषयासक्ति हो- Rc