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मो.मा. प्रकाश || बहुत अर्थ चाहिये सो तौ अन्य कवीनिकीसी भी गंभीरता नाहीं। बहुरि जो ग्रंथ बनावें, सो
| अपना नाम ऐसे धरै नांहीं, 'जो अमुक कहै हैं'। मैं कहाँ हौं' ऐसा कहै। तुम्हारे सूत्रनि| विर्षे ' हे गोतम' वा 'गोतम कहे है' ऐसे वचन हैं। सो ऐसे बचन तो तब ही संभवें, जब
और कोई कर्ता होय । तातें यह सूत्र गणधरकृत नाहीं, औरके किए हैं । गणधरका नामकरि | कल्पितरचनाकौं प्रमाण कराया चाहै हैं। सो विवेकी तो परीक्षाकरि माने, कह्या ही तो न मानें। | बहुरि वह ऐसा भी कहै हैं--जो गणधरसूत्रनिके अनुसार कोई दशपूर्वधारी भया है, ताने ए | सूत्र बनाए हैं । तहां पूछिये है--जो नए ग्रंथ बनाए थे, तो नवा नाम धरना था, अंगादिकके | नाम काहेकौं धरे। जैसे कोई बड़ा साहूकारकी कोठीका नामकरि अपना साहूकारा प्रगट करे, | तैसे यह कार्य भया। सांचेकों तो जैसे दिगंबरविष ग्रंथनिके नाम धरे भर अनुसारी पूर्वग्रंथनिका कह्या, तैसें कहना योग्य था। अंगादिकका नाम धरि गणधरदेवका भ्रम काहेकौं उप| जाया । तातें गणधरके वा पूर्वधारीके बचन नाहीं । बहुरि इन सूत्रनिविषै जो विश्वास अनाव
के अर्थि जिनमतअनुसार कथन है, सो तो सांच है ही। दिगंबर भी तैसें ही कहे हैं । बहुरि जो कल्पितरचना करी है, तामें पूर्वापरविरुद्धपनौ वा प्रत्यक्षादि प्रमाणमें विरुद्धपनौ भासे है, | सो ही दिखाईए है,
__ अन्य लिंगीके वा गृहस्थके वा स्त्री के वा चांडालादि शूद्रनिकै साक्षात् मुक्ति की प्राप्ति
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