________________
मो.मा. प्रकाश
200003100100
कारन आयुकर्म ही है । जब नवीन आयुका उदय होय तब नवीनपर्यायविषै जन्म हो है । बहुरि यावत् आयुका उदय रहै तावत् तिस पर्यायरूप प्राणनिके धारनतें जीवना हो है । बहुरि आयुका क्षय होय तब तिस पर्यायरूप प्राण छूटनें मरण हो है । सहज ही ऐसा आयुकर्मका निमित्त है और कोई उपजावनहारा क्षपावनहारा रक्षाकरनेहारा है नाहीं ऐसा निश्चय करना । बहुरि जैसें नवीन वस्त्र पहरै कितेक काल पहरें रहे पीछे ताक छोड़ि अन्यवस्त्र पहरे तैसें जीव नवीन शरीर धरै, कितेक काल धरै रहै पीछे ताक छोड़ि अन्य शरीर धरै | है । तातें शरीरसंबंधापेक्षा जन्मादिक हैं, जीव जन्मादिरहित नित्य ही है । तथापि मोही जीवकै अतीत अनागतका विचार नाहीं तातें पर्यायपर्याय मात्र ही अपना अस्तित्व पर्यायसंबंधी कार्यनिविषै ही तत्पर होय रह्या है । ऐसें आयुकरि पर्यायकी स्थिति जाननी । बहुरि नामकर्मकरि यह जीव मनुष्यादिगतिनिविषै प्राप्त हो है तिस पर्यायरूप अपनी अवस्था हो है । बहुरि तहां त्रस स्थावरादि विशेष निपजै हैं । चहुरि तहां एकेंद्रियादि जातिको धारै | है इस जातिकर्मका उदयकै अर मतिज्ञानावरणका क्षयोपशमकै निमित्तनैमित्तिकपना जानना, जैसा क्षयोपशम होय तैसी जाति पावै । बहुरि शरीरका संबंध हो है तहां शरीरके परमाणू अर आत्मा प्रदेशनिका एक बन्धान हो है अर संकोच विस्ताररूप होय शरीरप्रमाण आत्मा रहे है । बहुरि नोकर्मरूप शरीरविषै अंगोपांगादिकका योग्य स्थान परिमाण लिए हो है ।
02 200%
६४