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मो.मा. प्रकाश
| तो गहलरूप होय भवितव्य मानै । ऐसे ही बन्धतत्त्वका अयथार्थ ज्ञान होते अयथार्थ श्रद्धान हो है । बहुरि आस्रवका अभाव होना सो संवर है। जो आस्रवौं यथार्थ न पहिचानै ताके | संवरका यथार्थश्रद्धान कैसे होइ ? जैसे काहूकै अहित आचरण है । वाकौं वह अहित न भासै | तौ ताके अभावकों हितरूप कैसे मान । तैसे ही जीवकै आस्रवकी प्रवृत्ति है। याकौं यह अ|हित न भासै तौ ताके अभावरूप संवरकों कैसे हित मान । बहुरि अनादित इस जीवकै प्रास्त्रवभाव ही भया संवर कबहू न भया तातै संवरका होना भास नाहीं। संवर होते सुख हो है।
सो भासै नाहीं । संवरतें आगामी दुख न होसी सो भासै नाहीं। तातै आस्रवका तो संवर | | करै नाहीं, वृथा ही खेदखिन्न होय । ऐसें संवरतत्त्वका अयथार्थ ज्ञान होते अयथार्थ श्रद्धान
हो है । बहुरि बंधका एकदेश अभाव होना सो निर्जरा है। जो बन्धौं यथार्थ न पहिचान | ताकै निर्जराका यथार्थ श्रद्धान कैसे होय ? जैसे भक्षण किया हुवा विषयादिकतै दुःख होता
न जानै तौ ताकै उषालका उपायकों कैसें भला जानै । तैसें बन्धनरूप किए कर्मनितें दुख | होना न जानै तौ तिस निर्जराका उपायकों कैसे भला जानै। बहुरि इस जीवकै इन्द्रियनित | सूक्ष्मरूप कर्मनिका तौ ज्ञान होता नाहीं। बहुरि तिनविषै दुखकों कारनभूत शक्ति है ताका | ज्ञान नाहीं तातै अन्य पदार्थनिहीके निमित्तकौं दुखदायक जानि तिनिकेई अभाव करनेका | उपाय करै है। सो अपने आधीन नाहीं । बहुरि कदाचित् दुख दूरि करनेके निमित्त कोई इष्ट
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