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मो.मा. प्रकाश
भिन्न ही भासें हैं। इहां प्रतिवादी कहै है-जो सर्व एक ही है परन्तु तुम्हारे भ्रम है ताते तुमकों एक भासै नाहीं । बहुरि तुम युक्ति कही सो ब्रह्मका. स्वरूप युक्तिगम्य नाहीं । वचन || अगोचर है । एक भी है अनेक भी है है । जुदाभी है मिल्या भी है। वाकी महिमा ऐसी ही | है। ताकौं कहिए है,
जो प्रत्यक्ष तुजकों वा सबनिकों भासै ताकों तौ तू भ्रम कहै। अर युक्तिकरि अनु-/ मान करिए सो तू कहै है कि सांचा स्वरूप युक्तिगम्य है नाहीं । बहुरि कहै सांचास्वरूप वचनः | अगोचर है तो वचन विना कैसैं निर्णय करे ? बहुरि तू कहै एक भी है अनेक भी है जुदा भी । है मिल्या भी है सो तिनकी अपेक्षा बतावै नाहीं बाउलेकीसी नाईं ऐसे भी है ऐसे भी है ऐप्ता कही याकों महिमा बतावै सो जहां न्याय न होय है तहां झूठे ऐसे ही वाचालपना करै हैं सो करो । न्याय तो जैसे सांच है वैसे ही होगा। बहुरि अव तिस ब्रह्मकों लोकका कर्ता मान है। ताको मिथ्या दिखाइए है,
प्रथम तो ऐसा मान है जो ब्रह्मकै ऐसी इच्छा भई कि-'एकोऽहं बहुस्यां, कहिए मैं || | एक हौं सो बहुत होस्यों। तहां पूछिए है-पूर्व अवस्थामें दुखी होय, तब अन्न अवस्थाकों चाहै । सो ब्रह्म एकरूप अवस्थातै बहुतरूप होनेकी इच्छा करी सो तिस एकरूप अवस्थाविषै | कहा दुख था ? तब वह कहै है जो दुख तौ न था ऐसा ही कौतूहल उपज्या। ताकौं कहिए है- १४८