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मो.मा.
प्रकाश
बहुरि कृष्ण याका सेवक कहै हैं कबहूं याकों कृष्णका सेवक कहैं कबहू दोऊनिकों एक ही कहें सो किछू ठिकाना नाहीं । बहुरि सूर्य्यादिककौं ब्रह्मका स्वरूप कहें । बहुरि ऐसा कहैं जो विष्णु कह्या सो धातूनिविषै सुवर्ण, वृक्षनिविषै कल्पवृक्ष, जूवाविषै मूंठ इत्यादिमें में ही हौं सो किछू पूर्वापर विचार नाहीं । कोई एक अंगकरि संसारी जीवकों महन्त मानै ताहीकों ब्रह्मका स्वरूप कहें । सो ब्रह्म सर्वव्यापी है ऐसा विशेषण काहेकौं किया । अर सूर्यादिविषै वा सुवर्णादिविषै ही ब्रह्म है तौ सूर्य उजाला करै है सुवर्ण धन है इत्यादि गुणनिकरि ब्रह्म मान्या सो सूर्यवत् दीपादिक भी उजाला करें हैं सुवर्णवत् रूपा लोहा आदि भी धन हैं इत्यादि गुण अन्य पदार्थनिविषै भी हैं तिनिक भी ब्रह्म मानै । बड़ा छोटा मानौ परंतु जाति तो एक भई । सो मूंठी महन्तता ठहराव के अर्थ अनेकप्रकार युक्ति बनाने हैं ।
बहुरि अनेक ज्वालामालिनी आदि देवीनिकों मायाका स्वरूप कहि हिंसादिक पाप उपजाय पूजना ठहरावे हैं सो माया तौ निंद्य है ताका पूजना कैसे संभवै । र हिंसादिक करता कैसें भला होय । बहुरि गऊ सर्पादि पशु अभक्ष्यभक्षणादिसहित तिनिकों पूज्य कहैं 1 अग्नि पवन जलादिककौं देव ठहराय पूज्य कहें । वृक्षादिककों युक्ति बनाय पूज्य कहैं । बहुरि कहा कहिए पुरुषलिंगी नाम सहित जे होंय तिनिविषै की कल्पना करें अर स्त्रीलिंगी नाम सहित होंय तिनिविषै मायाकी कल्पनाकरि अनेक वस्तूनिका पूजन ठहरावें है । इनके पूजे
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