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मो.मा.|| तातै विषयका ग्रहणकरि इच्छा थुभि जाय तो हम सुख माने, सो सौ यावत् जो विषय ग्रहण प्रकाश
|| न होय तावत् काल तो तिसकी इच्छा रहै अर जिससमय ताका ग्रहण भया तिस ही समय
अन्यविषय ग्रहणकी इच्छा होती देखिए है तो यह सुख मानना कैसे है जैसे कोऊ महा | क्षधावान् रंक ताको एक अन्नका कण मिल्या ताका भक्षणकरि चैन मानें तैसें यह महा
तृष्णावान् याकों एक विषयका निमित्त मिल्या ताका ग्रहणकरि सुख माने है। परमार्थते || सुख है नाहीं कोऊ कहै जैसे कणकणकरि अपनी भूख मेटे तैसें एक एक विषयका ग्रहणकरि | अपनी इच्छा पूरण करे तो दोष कहा ? ताका समाधान,
... जो कण भेले होंय तो ऐसे ही मानें, परन्तु जब दूसरा कण मिले तब तिस कणका निर्गमन होय जाय तो कैसे भूख मिटै। तैसे ही जाननेविष विषयनिका ग्रहण भेले होता || जाय तो इच्छा पूरन होय जाय परन्तु जब दूसरा विषय ग्रहण करें तब पूर्वविषय ग्रहण | किया था ताका जानना रहे नाही, तो कैसे इच्छा पूरन होय ? इच्छा पूरन भए बिना आकु-|
लता मिटे नाही, आकुलता मिटे बिना सुख कैसे कह्या जाय । बहुरि एक विषयका ग्रहण भी | मिथ्यादर्शनादिकका सदभावपूर्वक करै है । तातै आगामी अनेक दुखका कारन कर्म बँधै है । जाते यह वर्तमानविणे सुख नाहीं, आगामी सुखका कारन नाहीं तातै दुःख ही है । सोई प्रवचनसारविर्षे कह्या है,
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