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मो.मा. प्रकाश
बाह्य खानपानादिक वा सुहावना पवनादिकका संयोग हो है। बहुरि बाह्य मित्र सुपुत्र स्त्री | किंकर हस्ती घोटक धन धान्य मन्दिर वस्त्रादिकका संयोग हो है सो मोहकरि इनिविणे इष्ट| बुद्धि हो है। जब इनिका उदय होय तब मोहका उदय ऐसा ही आवै जाकरि परिणामनिमें || | चैन मानै । इनिकी रक्षा चाहै । यावत् रहै तावत् सुख माने। सो यह सुख मानना ऐसा है | जैसे कोऊ घनें रोमनिकरि बहुत पीड़ित होय रह्या था ताकै कोई उपचारकरि कोई एक रोगकी | कितेक काल किछू उपशान्तता भई तब वह पूर्व अवस्थाकी अपेक्षा आपकों सुखी कहै, परमा| र्थतें सुख है नाहीं। बहुरि याकों असाताका उदय होतें जो होय ताकरि तो दुःख भासै है । | तातें ताके दूरि करनेका उपाय करै है। अर साताका उदय होते जो होइ ताकरि सुख भासै | है तातें ताों होनेका उपाय करै है। सो यह उपाय झूठा है। प्रथम तौ याका उपाय याकै
आधीन नाहीं वेदनीयकर्मका उदयकै आधीन है । असाताके मेटनैके अर्थि साताकी प्राप्तिके अर्थि तो सर्वहीकै यत्न रहै है परन्तु काहूकै थोरा यत्न किए भी वा न किए भी सिद्धि होइ जाय, काहूके बहुत यत्न किए भी सिद्धि न होइ तातें जानिए है याका उपाय याकै आधीन नाहीं। बहुरि कदाचित् उपाय भी करै अर तैसा ही उदय आवै तौ थोरै काल किंचित् काहू प्रकार की असाताका कारन मिटै अर साताका कारन होइ तहां भी मोहके सद्भावतें तिनिकों भोगनेकी इच्छाकरि आकुलित होइ । एक. भोग्यवस्तुकों भोगनेकी इच्छा होइ, वह यावत् न