________________
मो.मा. प्रकाश
200100/- 2010-2
001001/10000
त्रादिककी इस जीवकै श्राधीन भी तो किया होती देखिए है तब तो सुखी हो है । ताका समाधान, 7
शरीरादिककी भवितव्यकी कार नीवकी इच्छाकी विधि मिलै कोई एक प्रकार जैसे यह चाहे तैसें परिणमें तारों काहू कालविषै बाहीका विचार होते सुखकी सी आभासा होइ परन्तु सर्व ही तो सर्वप्रकार यह चाहै तैसें न परिममें । तातें अभिप्रायविषै तो अनेक कुलता सदाकाल रहबो ही करै बहुरि कोई कालविषै कोई प्रकार इच्छाअनुसारि परिणमता देखिकरि यह जीव शरीर पुत्रादिकविषै अहंकार ममकार करै है । सो इस बुद्धिकरि तिनिके उपजाधनेकी वा बधावनेकी वा रक्षा करनेकी चिंताकरि निरन्तर व्याकुल रहै है । नानाप्रकार कष्ट सहकरि भी तिनिका भला चाहे है । बहुरि जो विषयनिकी इच्छा हो है कषाय हो है बाह्य सामग्रीविषै इष्ट अनिष्टपनों माने है उपाय अन्यथा करे है सांचा उपायकों न श्रद्धहै है अन्यथा कल्पना करे है सो इनि सबनिका मूलकारन एक मिथ्यादर्शन है । याका नाश भए सबनिका नाश होइ जाय तातैं सब दुखनिका मूल यह मिथ्यादर्शन है । बहुरि इस मिथ्यादर्शनके नाशका उपाय भी नाहीं करे है । अन्यथा श्रद्धानकों सत्यश्रद्धान मानै उपाय काहेकौं करै । बहुरि संज्ञी पंचेंद्रिय कदाचित् तत्त्वनिश्चय करनेका उपाय विचारै । तहां अभाग्यतें कुदेव गुरु कुशास्त्रका निमित्त बने तो अतत्वश्रद्धान पुष्ट होइ जाय । यह तो जाने इनतें मेरा भला
७६