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सारणतरण
॥४२॥
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श्लोक-अनृतं अनृतं वाक्यं, अनृत अचेत दिष्टते ।
श्रावकाचार अशाश्वतं वचन घोकं च,अनृतं तस्य उच्यते ॥ ४३९ ॥ अन्वयार्थ—(अनृतं) अमृत त्यागमें (अनृतं वाक्यं) मिथ्या वाक्योंका त्याग होता है। (अनृत, " अचेत दिष्टते) जो वचन मिथ्या है वे अज्ञानरूप कहे जाते हैं। (अशाश्वतं वचन प्रोक्तं च) जो नाशवंत पदार्थोको थिर रखनेका वचन कहता है (तस्य अनृतं उच्यते ) उसके भी असत्य वचन कहा जाता है।
विशेषार्थ-दूसरा व्रत असत्य त्याग है व सत्य व्रत है। इस व्रतमें श्रावकोंको न तो असत्य वचन कहना चाहिये न मिथ्यात्व पोषक बचन कहना चाहिये न अज्ञान भूलक वचन कहना चाहिये। माया भाव चित्तमेंसे निकाल कर सरलतासे वचन कहना चाहिये जिसमें दूसरोंको धोखा न दिया जावे । जो वस्तु जैसी है उसको वैसी कहा जावे । वस्तु अनेक धर्म स्वरूप है उसको एक ही धर्मरूप कहना असत्य है । जगतकी सर्व क्रियाएँ नाशवंत हैं उनको थिर कहना असत्य है । संसारमें राग बढानेवाला वचन व आरम्भ परिग्रह में प्रेरक वचन भी असत्य है। कठोर मर्म छेदक अप्रिय व हिंसाकारी सत्य वचन भी असत्य है। जिनवाणीके प्रतिकूल कोई वचन कहना भी असत्य है। हरएक वचन जिन सूत्रकी दृढता करानेवाला बोलना ही सत्यवत है। आरम्भी वचन भी असत्य है। इस मात्र असत्यका त्याग वहांतक नहीं बना सक्ता है जहांतक आरम्भका त्याग न हो। आरम्भ स्थागीके आरम्भ करने कराने सम्बन्धी वचन भी नहीं निकलता है। श्रावकोंको अधिकतर मौन रहना चाहिये । प्रयोजनवश कुछ वचन योग्यतासे विचार पूर्वक बोलना चाहिये।
श्लोक-अस्तेयं स्तेय कर्मस्य, चौर भावं न क्रीयते ।
जिन उक्तं वचनं शुद्धं, अस्तेयं लोप न कृतं ॥ ४४०॥ अन्वयार्थ—(अस्तेय) चोरीका त्याग अस्तेय व्रत यह है कि (स्तेय कर्मस्य चौर भावनं क्रीयते) चोरी कर्म व चोरीके भावको नहीं किया जावे। (मिन उक्तं वचनं शुद्ध लोप न कृतं अस्ते) जिनेन्द्र द्वारा कथित उपदेशको शुद्धतासे पाले व करे व कभी उसका लोप न करे सो अस्तेय व्रत है। विशेषार्थ-तीसरा अचौर्यव्रत यह है कि विना दिया हुभा किसीका गिरा पडा भूला विसरा
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