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तारणतरण
श्रावकाचार
॥४२५॥
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अन्वयार्थ-(मनवचन कार्य शुद्धं ) ब्रह्मचारीको मन, वचन, कायको अनझके संसर्गमे शर रखना १ चाहिये । (शुद्ध समयं जिनागमं ) शुरु आत्मा व जिनवाणीका मनन करना चाहिये (ब्रह्मचारिना) ब्रह्म . चारीको (विकहा काम सदभाव) खोटी कथा जिनमें कामभावका अस्तित्व हो (त्यक्तते) छोड देना चाहिये।
विशेषार्थ-ब्रह्मचर्यको रक्षाके हेतु ब्रह्मचारीको मनमें भी कामभावको व रागभावको न लाना चाहिये । हास्यजनक, रागवईक, कामोत्पादक वचनोंको भी नहीं बोलना चाहिये, न शरीरकी कोई कुचेष्टा करना चाहिये, शुद्ध समय जो शुद्ध आत्मा उसपर लक्ष रखना चाहिये, उसका ध्यान करना
चाहिये । जब आत्माके स्वरूपमें उपयोग स्थिर न होसके तब जिनवाणीका अभ्यास पठन पाठन र मनन करना चाहिये । श्रुतका विचार मनको ज्ञान वैराग्यमें रमानेका बडा भारी अपूर्व आलम्बन है। काम भावको जागृति करनेवाली विकथा व काम कथा व शृंगार कथा न कभी करनी चाहिये और न कभी सुननी चाहिये । ब्रह्मचर्यकी रक्षाके साधनोंको जोडना चाहिये।
श्लोक-परिग्रहं प्रमाणं कृत्वा, पर द्रव्यं न दिष्टते ।
अमृत असत्य त्यक्तं च, परिग्रह प्रमाणं तथा ॥ ४४३॥ विशेषार्थ-(परिग्रहं प्रमाणं कृत्वा) इस प्रकारके परिग्रहका प्रमाण करके (पर द्रव्यं न दिष्टते) उसके सिवाय परके द्रव्यपर दृष्टि न डाले (अमृत असत्य त्यक्तं च) मिथ्या भाव व मिथ्या वचन व मिथ्या आचरण छोडे (तथा परिग्रह प्रमाणं) इस तरह परिग्रह प्रमाण व्रतको पाले।
विशेषार्थ-श्रावकोंका पांचवा व्रत परिग्रह प्रमाण है। इस व्रतको प्रारंभ करते हुए जन्मप. यतके लिये क्षेत्र मकान आदि परिग्रहका प्रमाण अपनी इच्छाके अनुसार करले। फिर आगे जितनी जितनी इच्छा घटे घटाता जावे। ११वी प्रतिमा तक सर्व इच्छा मिट जानेसे एक लंगोट मात्र परिग्रह रह जाती है। ऐसा प्रावक अपने पुण्य योगसे प्राप्त सम्पत्तिमें संतोष रखे, परके द्रव्यकी चाह न करे और न मिथ्या संकल्प धनके कमानेका करे न वचन कहकर धन कमावे न मिथ्या अन्यायरूप व्यवहार करके धन कमाये । परिग्रह प्रमाण व्रती बहुत ही संतोषसे रहे। अपने धनकी मर्यादा पूरी करनेके लिये अन्यायसे धन संग्रहका विचार भी न करे । आवश्यक्तानुसार परिग्रह रखते हुए भी अन्तःकरणसे निमोही रहे।
V॥२५॥