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मरा है। कैसैसंहार करै है।
जो अपने अंगनिकरि संहार करै है, तो अपने अंगभिकरि संहार करै है कि इच्छा होते स्वयमेव ही संहार
२२० तैसें यह कार्य भया । यह सांचा तो तब होता, जैसे दिगम्बर आचार्यनिने अनेक ग्रन्थ
रचे, सो सर्व गणधरकरि भाषित अंगप्रकीर्णक ताके अनुसार रचे भर तिनि सवनिमें ग्रन्थ कर्ताका नाम सर्घ आचार्यनिने अपना भिन्न भिन्न रक्खा र तिनि ग्रन्थनिके नामहू भिन्न भिन्न रक्खे किसी गन्थकाभी नाम अंगादिक नहीं रक्खा पर न यह लिख्या,
जो ये गणधर देवने रचे हैं।
परिशिष्ट । मोक्षमार्गप्रकाशकके पांचवें अध्यायमें जो वेदादि ग्रन्थोंके प्रमाण उद्धृत करके जैनधर्मकी प्राचीनता प्रगट की है, उसीके सम्बन्धमें जैनसमाजके सुपरिचित विद्वान् कुंवर दिग्विजयसिंहजी द्वारा निम्नलिखित प्रमाण और भी संग्रह किये गये हैं, जो यहां प्रकाशित किये जाते हैं
अहन्धिमर्षि सायकानि धन्वाहभिकं यजतंविश्वरूपम् । अहमिदं दयसे विश्पं भवभुषं न वा प्रोजीयो रुद्र त्वदस्ति ॥
[ऋग्वेद अष्टक २ अं०७ वर्ग १७] व्याख्या-(अर्हन् ) हे अरहंतदेव आप अज्ञाननाशार्थ (सायकानि) वस्तुस्वरूप धर्मरूपीवाणीको तथा (धन्य) उप. देशरूप धनुषको तथा (निष्क) आत्मचतुष्टय अर्थात् अनन्तशान अमंतदर्शन अनंतवीर्य और अनन्तसुखरूप आभूषणोंको (बिभर्षि) धारण किये हो, तथा (अर्हन् ) हे अरहंतदेव श्राप (विश्वरूपं)विश्वखरूप अर्थात् जिसमें समस्तविश्व प्रतिभासित होता है (तं) उस केवलज्ञानको (यज) यजन किये अर्थात् प्राप्त कियेहो। (अर्हन्) हे अर्हन्तदेव श्राप (इदं) इस (विश्वं) संसारके (भवभुवं) समस्तजीवों की (दयसे रक्षा करतेहो (रुद्र)हे काम क्रोधादि बड़े बड़े प्रबल शत्रुओंको रुलानेवाले (स्वद) आपके समान भीर कोई भी (भोजीयो) बलवान (नषा अस्ति) नहीं है।