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वारणतरण
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श्लोक - वैराग्यं त्रितयं शुद्धं, संसारं त्यक्तयं तृणं ।
भूषण रत्नत्रयं शुद्धं, ध्यानारूढ स्वात्मदर्शनं ॥ ४५५ ॥
अन्वयार्थ – (वैराग्यं त्रितयं शुद्धं ) जिन साधुओंके वैराग्य संसार शरीर भोगों से तीन तरहका निर्मल है (संसारं तृणं त्यक्तयं ) संसारका मोह तृणके समान जानके जिन्होंने छोड दिया है (भूषण शुद्धं रत्नत्रयं ) जिनका आभूषण निर्दोष रत्नत्रयका सेवन है (ध्यानारूढ स्वात्मदर्शनं) ऐसे साधु ध्यानमें आरूढ रहते हुए अपने आत्माका अनुभव करते हैं ।
विशेषार्थ – संसार असार है दुःखोंका घर है, जन्म जरा रोग से पीडित है । शरीर अशुचि है । नाशवंत है, राग योग्य नहीं है, भोग रोगके समान आतापके बढानेवाले है कभी तृप्ति देनेवाले नहीं हैं। ऐसा समझकर जिनके भावोंमें इन तीनोंसे पूर्ण वैराग्य है तथा जो संमारके पदार्थों का सम्बन्ध तृणके समान तुच्छ समझते हैं, अकिंचित्कर जानते हैं । सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्पकुचारित्रको जिन्होंने अपने आत्माका आभूषण बनाया है जो निरन्तर ध्यानमें आरूढ होकर आत्माका आनन्द लेते हैं वे ही सच्चे साधु ।
श्लोक – केवलं भावनं कृत्वा, पदवी अर्हत् सार्थयं ।
चरणं शुद्ध समयं च, भावनानंत चतुष्टयं ॥ ४५६ ॥
अन्वयार्थ — ( केवळं भावनं कृत्वा ) साधु महाराज केवलज्ञानकी प्राप्तिकी भावना भाते हैं (भावनानन्त चतुष्टयं ) तथा अनन्त चतुष्टयको भावना करते हैं ( पदवी अर्हत् सार्थयं ) यथार्थ अत्पदका उद्देश्य रखते हैं इसीलिये (शुद्ध समयं च चरणं ) शुद्ध आत्माका अनुभव करते हैं ।
विशेषार्थ – साधुओंके मात्र यही भावना है कि हम अर्हत् परमात्माका पद प्राप्त करें। जिससे अनंत दर्शन, अनंतज्ञान, अनंत सुख, अनंत वीर्य इन चार अनंत चतुष्टयका प्रकाश होजावै । इसीलिये वे शुद्ध आत्माका निश्चय चारित्र पालते हैं । अर्थात् शुद्धोपयोगमें तल्लीन रहते हैं, धर्मध्यान करते हैं, फिर शुक्लध्यान ध्याते हैं जिससे चार घातीय कमौका नाश कर सकें ।
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HETETHE
॥ ४३३॥