________________
वारणतरण
॥४३॥
शोक-मननं शुद्ध भावस्य, शुद्ध तत्वं च दिष्यते ।
श्रावकार सम्यग्दर्शनं शुद्धं, शुद्ध तिअर्थ संयुतं ॥ ४५३ ।। अन्वयार्थ (शुद्ध भावस्य मननं ) वे साधु शुद्ध आत्मीक भावका मनन करते हैं (शुद्ध तत्वं च विष्टते) शुद्ध आत्म तत्वका अनुभव करते हैं (सम्यग्दर्शनं शुद्ध) जिनके निर्दोष वीतराग सम्यग्दर्शन होता है। ४. (शुद्ध तिअर्थ संयुतं ) वे तीनों रत्नत्रय सहित शुद्ध भावके धारी होते हैं।
विशेषार्थ-निग्रंथ साधुका मुख्य ध्यान आत्माकी तरफ रहता है, वे अध्यात्मीक ग्रन्थोंका विशेष मनन करते रहते हैं तथा शुखात्माके ध्यानको भलेप्रकार अनुभवमें लाते हैं। शुद्ध सम्यक्तको रखते हुए शुद्ध रत्नत्रय स्वरूप आत्मीक भावको ध्याते हैं। जैनके साधु परम निस्पृही व परम वीतरागी होते हैं। शुडात्माकी चर्चा सिवाय और चर्चा जिनको नहीं सुहाती है। वे आत्मरसके रसीले होते हैं। वे भलेप्रकार मोक्षमार्गपर चलते हैं।
श्लोक-रत्नत्रय शुद्ध संपूर्ण, संपूर्ण ध्यानारूढयं ।
रिजु विपुलं उत्पादंते, मनःपर्ययज्ञानं ध्रुवं ॥ ४५४ ॥ अन्वयार्थ (रत्नत्रय शुद्धं संपूर्ण) वे साधु शुद्धतामे रत्नत्रय धर्मकी पूर्ति करते हैं। (संपूर्ण ध्यानारूढयं) ४ पूर्ण प्रकारसे ध्यानमें लगे रहते हैं। जिसके प्रतापसे (रिजु मनःपर्यय ज्ञानं ध्रुवं विपुलं उत्पादते ) साधु रिजु मनापर्यय ज्ञानको व निश्चल विपुल मति मनापर्यय ज्ञानको पालेते हैं।
विशेषार्थ-आत्मध्यानके प्रतापसे साधुको बडी बडी ऋडियां सिद्ध होजाती हैं। शुद्ध ध्यान जहां होता है वहां किसी माधुको ऋजुमति मनापर्यय ज्ञान पैदा होजाता है जिसके प्रतापसे साधु * प्रत्यक्ष रूपसे दूसरों के मन में तिष्ठे हुए वर्तमान के सूक्ष्म विषयको जान लेता है। यह मनःपर्यय ज्ञान ४
छूट भी सक्ता है। किसी साधुके ध्यानके बलसे विपुलमति मनःपर्यय ज्ञान होजाता है यह छूटता नहीं है। केवलज्ञानको अवश्य उत्पन्न करता है। तद्भव मोक्षगामीके ही यह विपुलमति मनापर्यय ज्ञान होता है। यह दूसरेके मनमें तिष्टे हुए वर्तमान कालके व भूत व भविष्य कालके भी प्रदार्थोको ४ जान सक्ता है।