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वारणवरण
४४३६।।
विशेषार्य-प्रन्थकर्ता प्रवाहरूपसे अनादिसे चले आए हुए जिन आगमको नमस्कार करते हैं । जिन आगम तीन प्रकार है-शब्दागम, अर्थागम, ज्ञानागम । अक्षरोंका समूह जिनमें पदार्थोंका स्वरूप लिखा गया हो वह शब्दागम है। इनमें जो पदार्थ समूह वर्णित है वह अर्थागम है। उन पदाचौका जो ज्ञान है वह ज्ञानागम है। ऐसे जिन आगमके द्वारा धर्मका उपाय मालूम होता है जिस धर्मकी सहायता से ही धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष चारों पुरुषार्थोंकी सिद्धि होती है तथा अरहंत, सिख, आचार्य, उपाध्याय, साधुके पद भी इसी आगमके अनुसार चलने से प्राप्त होते हैं। यह जिनागम परम कल्याणकारी है। जिनको सुख की इच्छा हो व मानव जन्मको सफल करना हो उनके लिये उचित है कि वे चित्त लगाकर जिनागमका भलेप्रकार अभ्यास करें ।
श्लोक - परमानंद आनंदं, जिन उक्तं शाश्वतं पदं ।
एकोदेश उपदेश च, जिनतारण पंथं श्रुतं ॥ ४६२ ॥
मन्वयार्थ (जिन उक्तं शाश्वतं पदं ) जिनेन्द्र भगवान कथित अविनाशी मिड पद ( परमानंद आनंद ) परमानन्दसे भरपूर है (एकोदेश उपदेश च) उसको एकदेश किंचित् उपदेश करनेवाला (निवारण पंथ श्रुतं) यह संसारखे तारनेवाला जिन मार्ग रूपी शास्त्र है अथवा जिन भक्त तारणतरण रचित यह शास्त्र है। विशेषार्थ - शास्त्र के कहनेका उद्देश्य यही है कि प्राणियों को अविनाशी सिद्ध पदकी प्राप्ति हो, उसीका जिसमें उपदेश हो वही शास्त्र है। जिन तारणतरण स्वामी रचित यह शास्त्र है इसमें थोडासा उपदेश मोक्षप्राप्तिका कहा गया है। जो कोई भव्य जीव इस शास्त्रको पढेंगे, मनन करेंगे उनको संसारसे उद्धारक मोक्षमार्गका ज्ञान होगा । इस ग्रंथ में मुख्यता से श्रावकाचारका कथन है इसी कारण इसमें एकोदेश मार्गका या अणुव्रतोंका उपदेश है। मोक्षका पूर्ण साधक साधुधर्मका उपदेश है उसकी इसमें गौणता है ।
• इति श्रावकाचार ग्रंथकी जिन तारणतरण र सं० २४९८ विक्रम सं०
बिरचित हिन्दी टीका पूर्ण की, मिती आश्विन सुदी १० रविवार १९८८ वा ९ अक्टूबर १९३२ सागर (सी० पी०) ब्रह्मचारी सीतलप्रसाद |
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श्रावकाचार
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