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वारणतरण
श्रावकार
॥४२॥
र राते हैं। इनमें एक भेद ऐलकोंका है, ये ऐलक एक लंगोट मात्र रखते हैं। ये मुनिके समान केशोंका लोंच करते हैं, काष्टका कमंडल रखते हैं, भिक्षासे एक घर बैठकर अपने हाथ में ही भोजन ग्रास रूप लेकर करते हैं, मुनिधर्मका अभ्यास करते हैं। ये दोनों क्षुल्लक ऐलक ग्यारह प्रतिमाओंके निय. मोको जो उत्कृष्ट चारित्र में बाधक नहीं हैं सब पालते हैं, मुनिराज होनेकी भावना भाते हैं, आत्मध्यानका विशेष अनुराग रखते हैं। ऐलक विशेष विरक्त हैं, रात्रिको मौन रखकर ध्यान करते हैं, उद्दिष्टाहारके त्यागी इसीलिये होते हैं कि उनके आशयसे श्रावक कोई आरम्भ न करे । स्वयंके लिये आरम्भ करे उसीमेंसे दान रूप जो मिले उसी में यह संतोष करे। यहांतक प्रत्यारूपानावरण कषायका जितना जितना मंद उदय होता जाता है उतना उतना बाहरी व अंतरंग चारित्र बढता , जाता है।
श्लोक-प्रतिमा एकादशं येन, जिन उक्तं जिनागमे ।
पालंति भव्यजीवानां, मन शुद्धं स्वात्मचिंतनं ॥ ४३६ ॥ अन्वयार्थ-(मिन भागमे निन उक्त) जिनागममें जिनेन्द्र भगवानके कथन प्रमाण (येन एकादशं प्रतिमा) जो यह ग्यारह प्रतिमा (भव्य जीवानां पार्कति) भव्य जीव पालते हैं (मन शुद्ध) मनको शुद्ध रखते हैं (स्वात्मचिंतन) व अपने आत्माका ध्यान करते हैं।
विशेषार्ग-इन ग्यारह प्रतिमाओंका रूप जिनेन्द्र भगवान द्वारा उपदेशित व ऋषि प्रणीत जिनागममें जैसा कहा गया है वैसा जानकर श्रावकोंको उचित है कि शुद्ध भावोंके साथ माया, मिथ्या, निदान तीन शल्य छोडकर पालें, मुख्यतासे शुडात्माके चितवनकी भावना रक्खें । निश्चयधर्म आस्माका अनुभव है उसकी उन्नति करते जावें,मात्र बाहरी चारित्र कार्यकारी नहीं है। बाहरी चारित्र सहायकारी है, निश्चय चारित्र ही परोपकारी है।
श्लोक-अनुव्रतं पंच उत्पादंते, अहिंसानृत उच्यते ।
अस्तेयं ब्रह्म व्रतं शुद्ध, अपरिग्रहं स उच्यते ॥ ४३७॥ अन्वयार्थ-(अनुव्रतं पंच उत्पादते) ये ग्यारह प्रतिमाघारी प्रावक पांच अणुव्रतोंको पढाते जाते
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