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वारणवरण
श्रावकाचार
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विशेषार्थ-ग्यारहवीं प्रतिमा उदिष्टाहार त्याग है, इस श्रेणीमें यह उत्कृष्ट आवक होजाता है, साधु समान वैराग्यके भाव रखता है। यह नहीं चाहता है कि इसके उद्देश्यसे व इसको लक्ष्य में लेकर कोई आहार बनाया गया हो उसे यह लेवे। जिस आहारको कुटुम्धी प्रावकने अपने ही कटम्बके लिये बनाया हो उसीमेंसे जो विभाग भिक्षावृत्तिसे जाते हुए मिले उसे ही लेकर यह संतष्ट रहता है। यह मनमें भोजनकी लालमा नहीं रखता है न पचन ऐसा कहता है जिससे भोजनकी लालसा व याचना प्रगट हो। इसका उद्देश्य या प्रयोजन रत्नत्रय धर्मको परम समता. भावसे पालना है। भोजनके अंतरायोंको मन, वचन, कायसे टालकर भोजन करता है। रत्नकरण्डमें कहा है
गृहतो मुनिवनमित्वा गुरूपकंठे व्रतानि परिगृह्य । मैक्ष्याशनस्तपस्यनुत्कृष्टश्चेकखण्डधरः॥१७॥
भावार्थ-जो गृहवाससे उदास हो मुनिराजके पास जाकर वन में उनके समीप बनोको लेकर र उनके पास तपस्या करे व भिक्षासे भोजन करे व खंड वस्त्र रखे सो उत्कृष्ट प्रतिमाधारी है।
अनुमति त्याग प्रतिमा तक धर्मशालामें व एकांत घरमें व नसिया आदिमें ठहरकर धर्म साधन कर सक्ता था। ग्यारहवीं प्रतिमावाला मुनिराजकी संगतिमें रहेगा क्योंकि यह मुनि धर्म पालनका अभ्यास करनेवाला होजाता है। जैसे मुनि वर्षाके चार मास सिवाय विहार करते हैं, शेष नगरके पास पांच दिन व ग्रामके पास एक दिन ही ठहरते हैं, पगसे विहार करते हैं, वैसे ही या श्रावक करेगा। क्षुल्लक श्रावक एक खंड वस्त्र जिससे पगढके तो मस्तक खुला रहे, मस्तक ढका हो तो पग खुला रहे व एक लंगोट रखता है। शरदी गर्मी दस महादिकी वाघा सहनेका अभ्यास करता है। जीवदयाके लिये मोर पिच्छी व कमंडल में शौच के लिये जल रखना है व कोई२ भिक्षा लेनेका पात्र भी रखते हैं, मुनिवत् भिक्षाको जाते हैं। जहांतक मनाई नहीं है वहांतक गृहस्थीके घर जाते हैं। भिक्षा लेनेका जो पात्र रखते हैं वे पात्र में भोजन थोडासालेकर अन्य निकर घरमें जाते हैं। इसतरह पंक्तिबंध ५-७ घरोंसे भोजन एकत्र करके अंतिम घरमें बैठकर भोजनपान करके पात्रको शुद्ध करके बनमें चले जाते हैं। जो एक घर लेनेवाले होते हैं वे एकही घरमें बैठकर थाली में संतोषसे भोजन कर लेते हैं। २४ घंटे में एक ही दफे भोजन पान करते हैं, ये केशोंको कत.