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कारणवरण
श्रावकार
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गृहस्थी श्रावकको उचित है कि अपने यहां भोजन ऐसा शुद्ध तैयार करे जो मुनि आदि ॐ पात्रोंको दान भी किया जामके व अपनेको भी शुद्धतापूर्ण भोजन प्राप्त हो।
श्लोक-खाद स्वाद पीवं च, लेयं आहार क्रीयते।
वासी स्वाद विचलंते, त्यक्तं अनस्तमितं कृतं ॥ ३०० ॥ अन्वयार्थ-(खाद स्वाद पीवं च लेय आहार क्रियते) खाद, स्वाद, पेय, लेख ऐसे चार प्रकार आहार होता है इनको रात्रिमें तथा (वासी स्वाद विचलते) वासी भोजनको, जिनका स्वाद चलायमान होगया है (त्यक्त) छोड दिया जाय तब ही (अनस्तमितं कृतं) रात्रि भोजन त्याग व्रत पूर्ण हुभा समझना चाहिये।
विशेषार्थ-भोजनके चार भेद हैं। जिससे पेट भरे ऐसे अन्नादि खाद्य है। इलायची ताम्बल आदि स्वाद्य है । दूध, पानी आदि पेय है तथा चांटनेकी चीज चटनी आदि लेह्य है। रात्रिभोजन त्यागीको इन चारों ही प्रकारका भोजन नहीं लेना योग्य है। न रात्रिका बनाया हुआ न रात्रिका वासी भोजन जिसका स्वाद औरका और होगया है लेना योग्य है। वास्तवमें सन्तोष व इंद्रियविजयका भाव श्रावक गृहस्थमें होना चाहिये। जो सच्चे धर्मके श्रद्धावान हैं उनको इस व्रतके पालनमें कोई कठिनाई नहीं होती है। वे बडे दयावान होते हैं। जितना बचे उतना हिंसाको बचाते हैं, उनको विश्वास होता है कि दिनकी अपेक्षा रात्रिको खानपानका आरम्भ करने में वा खानेमें बहुत प्रस जन्तुओंका घात होता है। यदि हमको कोई लाचारी नहीं है तो हमें अवश्य खानपान दिन हीमें कर लेना चाहिये। यद्यपि जो गृहस्थ ऐसी स्थिति हो कि एकदम रात्रिभोजन नहीं त्याग सक्के वे छठी प्रतिमामें पहुंचकर अवश्य रात्रिभोजनका पूर्ण त्याग कर देते हैं।
श्लोक-अनस्तमितं पालितं येन, रागदोषं न चिंतये ।
शुद्ध तत्त्वं च भावं च,सम्यग्दृष्टी च पश्यते ॥ ३०१ ॥ अन्वयार्थ-(येन अनस्तमितं पाकितं) जिसने रात्रिभोजन त्याग व्रत पाला है वह (रागदोपं न चिंतये) रागद्वेष भावोंकी चिंता नहीं करता है किंतु (शुद्धतत्वं च भावं च) शुद्ध आस्मीक तत्वकी भावना करता है ( सम्यग्दृष्टी च पश्यते ) वही सम्यग्दृष्टी देखा जाता है।
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