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चारणवरण
०४११॥
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नारायण महामंडलीक, मंडलीक, महाराजा, राजा, धनवान आदिकी मोहवर्द्धक कथाओंको भी विकथा कहते हैं उनसे विरक्त होता है । न कहता है, न सुनता है, ऐसे नाटक खेल तमाशे नहीं देखता है, न करता है, जिनसे राग बढे । परिणामोंमें वैराग्य बढे ऐसे निमित्तों को मिलाता है । स्त्री, भोजन, देश व राजाओं की ऐसी कथाएं जिनसे स्त्री में राग बढे, भोजन में राग बढे, जगत के आरंभ परिग्रह में राग बढे, राज्यलक्ष्मीका लोभ उत्पन्न हो, उनको न सुनना है और न करता है । प्रमादवर्द्धक वार्तालाप आत्मविचार में बाधक है, ऐसा जान उनसे विरत रहता है ।
श्लोक - व्रतभंगं राग चिंतते, विकहा मिथ्यातरंजितं ।
अभं व्यक्त बंभं च, बंभ प्रतिमा स उच्यते ॥ ४२३ ||
अन्वयार्थ – ( व्रतभंगं राग चिंते) ब्रह्मचर्य व्रतको भंग करनेवाले राग भावकी चिंताओंको (विकहा) चारों विकथाओं को ( मिथ्यात रंजित) मिध्यास्त्र में रंजायमान होनेको (अवंध) व अब्रह्मको (स्वतं च ) स्याग करके (मं) जहां ब्रह्मचर्य पाला जावे (बंम प्रतिमा स उच्यते ) वही ब्रह्मचर्य प्रतिमा कहलाती है। विशेषार्थ - ब्रह्मचारी श्रावकको काम भोग आदिकी ऐसी चिंताएं पिछले भोगोंकी व आगे के भोगोंकी बिलकुल न करनी चाहिये जिससे परिणाम ब्रह्मवर्षले डिंग जावे व ब्रह्मवर्षका भंग होने लगे और न चार विकथाओंको करना चाहिये और न संसार शरीर भोगों के मोहमें व मिध्या वासना वासित धर्म क्रियामें रंजायमान होना चाहिये तथा मन, वचन, कायसे कुशीलको त्याग देना चाहिये । निरंतर निर्विकार भावोंको रखते हुए वैराग्य भावना भाते हुए ब्रह्मचर्थ प्रतिमा पालनी चाहिये। पहली प्रतिमाओंके सर्व नियम यथेष्ट पालना चाहिये ।
श्लोक – यदि बंभचारिनो जीवो, भावशुद्धं न दिष्टते । राग रंजते, प्रतिमा बंभगतं पुनः ॥ ४२४ ॥
विकहा अन्वयार्थ – (यदि गंभचारिनो दिखलाई पडे (विकहा राग रंनंते ) प्रतिमा भंग हो गई ऐसा समझना चाहिये ।
वो ) यदि ब्रह्मचारी जीव में ( भावशुद्धं न दिष्टते) भावकी शुद्धता नहीं विकथाके रागमें रंजायमान हो ( पुनः प्रतिमा बंभग) तो उसको
श्रावकाचार
॥४११४