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भावार्थ-जो सेवा खेती व्यापारादि आरंभोंसे विरक्त होजाता है क्योंकि इन सबसे प्राणोंका श्रावकाचार घात होता है वह आरंभत्यागी श्रावक है। यहां वह उस स्थावर दोनोंकी हिंसासे विरक होजाता है। सातमी प्रतिमा तक आरंभी हिंसाका पूर्ण त्याग न था मात्र अभ्यास था, पही पूर्ण त्याग कर देता है। यहां सचित्त जल व वनस्पतिको स्वयं अचित्त भी न करेगा, यहां वह हिंसाकारी वाहनोंपर नहीं चढेगा। अपने न जानते हुए गाडी घोडे, पैल आदि द्वारा बहुतसे त्रस प्राणियोंकी जो मार्गमें चलते हैं हिंसा होजाती है इसलिये वह हिंसाकारी वाहनोंपर नहीं चढके पैदल ही भूमि निरखकर चलता है। आरंभी हिंसाके त्यागकी अपेक्षा ही यह आठमी श्रेणी है। यही गृह त्यागी श्रावक संतोषसे देशाटन करता है। जहां आसपास ग्रामों में प्रावकोंके घर होंगे उसी प्रदेशमें भ्रमण करेगा। आरंभ करानेवाली यात्राओंको स्वयं न करेगा। यदि कोई संघ अपनेआप किसी तीर्थयात्राको जाता हो व संघले साथ ले जानेकी प्रार्थना करें तो साथ हो लेता है व पैदल ही गमन करता है। आत्मरसका मगन रहनवाला परम संतोषी यह आवक होता है। यदि घरमें परिग्रहके भीतर है, पुत्रादि सब काम करते हैं, उनको वह किसी कामकी प्रेरणा नहीं करता है। जब वह किसी लौकिक कामकी सलाह पूछे तो उदासीन भावसे बता देता है।
श्लोक-अनृत अचेत असत्यं, आरंभं येन क्रीयते।
जिन उक्तंचन टिटते. जिनद्रोही मिथ्या तत्परा ॥ ४२७॥ ___ अन्वयार्थ-(थेन) जिसके द्वारा (अनृत अचेत असत्त्यं भारभ क्रीयते) मिथ्या, अज्ञानमय व पीडाकारी प्रारम्भ किया जाता है (च मिन उक्त न दिष्टते) व जो जिनेन्द्रकी आज्ञाका भी विश्वास नहीं रखता है वह (निनद्रोही मिथ्या तत्परा ) जिन आज्ञाका लोपी व मिथ्यास्तके आधीन है।
विशेषार्थ-यहां आरंभका स्वरूप कहते हैं। जो द्रव्य कमानेमें अति आशक्त होजाते हैं वे इस वातका विनार छोड देते हैं कि कौनसा आरंभ ठीक है या अयोग्य है, कौनसा मिथ्या वचनोंसे होता है, कौनसा सत्य वचनाम होता है। ज्ञानमय व अज्ञानमयका विचार नहीं रखना है। प्रति पीडाकारी आरभ भी कर लेता है जैसे लकडी कटवाना, मादक वस्तु पनवाना, पशुओं का विक्रय, शास्त्र विक्रय आदितथा आरंभमें सवाईसे नहीं वर्तता है। दूसरोंको ठग करके धन कमाता है।
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