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बारणवरण
४ श्रावकाचार
जिनेन्द्रकी आज्ञा तो यह है कि सत्यताके माथ परको दुःख न पहुंचे इस तरह प्राजीविकाका साधन करके गृहस्थका कर्तव्य पालो। यह आरंभासक्त होकर न्याय अन्यायको भूलकर जिसतरह
अधिक धन संचय हो वैण करता रहता है, विश्वासघात भी कर लेता है, भोलोंको समझाकर लूट १ लेता है। ऐसा आरंभी मियादृष्टी है, जिन भगवानकी 'ज्ञाको न पालनेवाला हिंसक व पापी है वनरकादि कुगतिका बांधनेवाला है। अतएव आरंभका मोह त्यागना ही हितकर है।
श्लोक-अदेवं अगुरं यस्य, अधर्म क्रियते सा ।
विश्वासं येन जीवस्य, दुर्गतिं दुःखभाजनं ॥ ४२८॥ अन्वयार्थ (यस्य सदा भदेवं अगुरं अवर्म क्रियते ) जो सदा ही मिथ्या देव, मिया गुरु, मिया * धर्मकी सेवा किया करता है (येन जीवस्य विश्वास ) जिस जीवका विश्वास हो ऐसा होता है (दुर्गति दुःखभाननं ) वह कुगतिमें जाकर दुःखोंका भाजन हो जाता है।
विशेषार्थ-आरंभ परिग्रहमें जो गृहस्थ आसक्त होजाता है, धनका लोलुरी हो जाता है वह वैराग्यवर्द्धक जिनदेव, जिनगुरु व जिनधर्मकी श्रद्धा नहीं करता हुआ रागी देषी देव, परिग्रहधारी गुरु, व हिंसाई धर्मकी भरा कर लेता है। उसको जब ऐसा उपदेश मिलता है कि अमुक देव देवीकी पूजा करनेसे धनलाभ पुत्रलाभ होगा, राज्यलाभ होगा। अमुक साधुकी भक्ति करनेसे धन, पुत्र, राज्यका संरक्षण रहेगा । अमुक पूजा पाठ, जप तप, यात्रा करनेसे धनादिका समागम होगा। तब यह आरंभी मोही जीव उनमें विश्वास करके उनहीकी भक्ति किया करता है तथा बहुधा मान्यता मानता है कि मेरा अमुक काम सिद्ध होजायगा तो मैं ऐसी भक्ति करूंगा, यह दान दूंगा इत्यादि । ऐसी मान्यता कर लेनेपर कदाचित् काम सिद्ध होगया तो यह ऐसा मान लेता है कि अमुक कुदेव, कुगुरु, व कुधर्मके प्रतापसे ही सिद्ध हुआ है। यद्यपि वह कार्य तो पुण्य के उदयसे हुआ है परंतु मिथ्यात्वीको मिथ्या मानने में कुछ संकोच नहीं होता है। ऐसा मानकर वह और 7 अधिक मिथ्या श्रद्धानी होजाता है। इसतरह धनका लोलुपी आरंभी होकर तीव्र पाप यांधकर
नरकादिमें जाकर घोर दुःख उठाता है। आरंभका मोह संसार दुःखोंका हेतु है।
॥४१५॥