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धारणतरण
॥३२०॥
इस अपेक्षासे है कि वह अविनाशी पद है। अरहंत आदि अन्य चार परमेष्ठी के पद सब अनित्य हैं, नाशवन्त हैं, शरीर सहित होनेसे पतन सहित हैं परन्तु सिद्धका पद सर्व कर्म व सर्व शरीर रहित होनेसे सदा हो रहनेवाला अविनाशी है । इस तरह सिडोंका ध्यान करना चाहिये ।
श्लोक- आचार्य आचरणं शुद्धं, ती अर्थ शुद्ध भावना ।
सर्वज्ञे शुद्ध ध्यानस्य, मिथ्या व्यक्तं त्रिभेदयं ॥ ३२९ ॥
मन्त्रयार्थ – ( आचार्य आचरण शुद्धं ) आचार्य शुद्ध आचरण करते कराते हैं ( ती अर्थ शुद्ध भावना ) रत्नत्रय स्वरूपकी शुद्ध भावना करते हैं ( सर्वज्ञे शुद्ध ध्यानम्य ) सवज्ञ परमात्माके शुद्ध ध्यानमें लगे रहते हैं (त्रिभेदयं मिथ्या त्यक्तं ) तीन प्रकार मिथ्यात्वसे रहित हैं । या तीन प्रकार मिथ्याज्ञानसे रहित हैं । विशेपार्थ - अब यहां आचार्य परमेष्ठीका स्वरूप बताते हैं । जो निग्रंथ मुनि पांच महाव्रत, पांच समिति व तीन गुप्ति ऐसे १३ प्रकार चारित्रका व दर्शनाचार, ज्ञानाचार, चारित्राचार, तपाचार, वीर्याचार इन पांच प्रकार आचारका निर्दोष पालन स्वयं करते हैं व दूसरोंसे पालन कराते हैंजो सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र की भावना व्यवहार नय द्वारा करते हुए उसका अनुभव निश्चय नयसे शुद्धोपयोगरूप करते हैं। क्योंकि शुद्धोपयोग में ही निश्चय रत्नत्रयका लाभ होता है व वीतरागता होती है। आचार्य महाराजके प्रमत्त व अप्रमत्त दो गुणस्थान ही होते हैं। जब ध्यानमग्न निश्चल होते हैं तब सातवां अप्रमत्त और जब दीक्षा शिक्षा आहार विहार कार्यों में निरत होते हैं तब प्रमत्त छठा गुणस्थान होता है । इन दोनोंका काल अंतर्मुहूर्त से अधिक नहीं है इसलिये उन आचायाँका आत्मा पुनः पुनः ध्यानमग्न होता हुआ आत्मानन्दका विलास करता रहता है, वे बचन व कायसे बाहरी कार्यको करते हुए भी मनसे आत्मकार्य में ही लवलीन रहते हैं। जो शुद्ध धर्मध्यान करते हैं, सर्वज्ञ परमात्माका आलम्बन लेते हुए कभी स्तवन वन्दना भी करते हैं। जो क्षयिक सम्पती या उपशम सम्यक्ती होते हैं उनके तीनों दर्शन मोह नहीं होते हैं। वे मिध्यात्व, सम्यग्रमिध्यात्व व सम्पक् प्रकृतिसे रहित होते हैं । क्षयोपशम सम्यक्तमें सम्यक् प्रकृति या अतिमंद उदय होता है। अथवा जिनमें कुमति, कुश्रुत व कुअवधिज्ञान नहीं होते हैं अथवा जो मिथ्या माया व निदान इन तीन शब्द से रहित होते हैं। ऐसे परम मुनि वीतरागी परमोपकारी आचार्य हैं उनका ध्यान करना चाहिये ।
श्रावकाचार
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