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वारणतरण आए हैं इनमें छठी प्रतिमाका नाम अनुराग भक्ति है। जब कि रनकरंडमें इसका नाम रात्रि मुक्तिश्रावकाचार
स्याग है व अमितगति प्रावकाचारमें दिवामैथुन त्याग है। इस भेदका कारण यह समझ में आता
कि श्री समंतभद्राचार्य मतमें रात्रिभोजनका त्याग छठी प्रतिमाके पहले तक यथाशक्ति अभ्यास रूप था, कोई यदि पूर्णतया त्याग तो उचित ही था, परंतु यदि न त्याग कर सके तो छठी श्रेणीमें भले प्रकार त्यागना उचित था, स्वयं करे भी नहीं,करावे नहीं, अन्य आचार्योंने यह विचारा होगा कि रात्रि भोजनका त्याग तो दर्शन व ब्रत प्रतिमामें ही होजाना चाहिये, छठी तक शेष न रहना चाहिये । इसलिये दिवामैथुन त्याग कराया है। तारणतरणजीने अनुराग भी नाम रक्खा है कि राग गृहस्थका इटा देना, आस्मामें विशेष भक्ति रखना जिससे आगे ब्रह्मचर्य पाल सके। दिवा मैथुन त्यागमें करीब २ अनुराग त्याग आजाता है। जब राग घटाएगा तब दिवस में मैथुनसे पूर्णपने विरक्त रहेगा। शेष सब नाम श्री समन्तभद्राचार्यके अनुकूल हैं। इनमें पांच अगुवाको अधिक अधिक बढाया जाता है।
श्लोक-अहिंसा अनृतं येन, स्तेयं पंच परिग्रहं ।
शुद्ध तत्व हृदये चिंते, साई ज्ञानमयं ध्रुवं । ३८१ ॥ प्रतिमा उत्पाद्यते येन, दर्शनं शुद्ध दर्शनं ।
ॐ वंकारं च विदंते, मल पच्चीस विमुक्तयं ।। ३८२ ।। अन्वयार्थ (येन अहिंसा अनृतं) जो अहिंसा, असत्य त्याग (स्तेयं पंच परिग्रहं ) चोरी त्याग, ब्रह्मचर्य, परिग्रह त्याग इनको अणुव्रत रूपसे पाले (हृदये शुद्ध तत्व चिंते) हृदयमें शुद्ध तत्वोंको-यथार्थ
सात तत्वोंको चितवन करे (साई ज्ञानमयं ध्रुवं) साथमें ज्ञानमई निश्चय शुद्धास्माका अनुभव करे (येन ४ प्रतिमा उत्पाद्यते) तब वह प्रतिमाको प्रारम्भ करता है (दर्शनं शुद्ध दर्शनं) दर्शन प्रतिमामें सम्यग्दर्शन
अतीचार रहित शुद्ध होना चाहिये (ॐ वंकारं च विंदते) ॐ मंत्रका जहां अनुभव किया जावे (मक पच्चीस विमुक्तयं ) जहां पचीस दोष छोडे जावें।
विशेषार्थ-दर्शन प्रतिमाका स्वरूप यह है कि श्रावक अहिंसादि पांच अणुव्रतोंका पालना